धर्म का वर्णन
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिप्यते शान्तिः ||1||
सप्त ज्ञानभूमिका से अनन्तर अब दशमे अध्याय में यतियों के धर्म निरूपण करते हुए यजुर्वेद की ईशावास्योपनिषद् में वस्तु निर्देशरूप मंगल का बोधक शान्तिपाठरूप मंत्र का अर्थ कहते हैं तत्पदका लक्ष्य अर्थ निरुपाधिक परब्रह्म आकाशवत् व्यापक है। और जो यह नामरूप-उपाधियुक्त त्वंपद का अर्थ रूप आत्मा है सो भी ब्रह्मस्वरूप होने से पूर्ण है। क्योंकि अविद्याउपाधि त्यागपूर्वक जीव ब्रह्मस्वरूप पूर्णता को प्राप्त होता है।
पूर्ण रूप कार्यब्रह्म की माया-उपाधि को ब्रह्मज्ञान से त्यागकर लक्ष्य-अर्थ रूप एकरस परमानन्द रूपी पूर्णता को लेकर आत्मस्वरूप एक अद्वितीय पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है। और फोड़ा, फुन्सी, ज्वर आदि से लेकर जितने आध्यात्मिक दुख हैं और चोर सर्प व्याघ्रादि से लेकर जितने आधिभौतिक दुख हैं और अग्नि वायु वर्षा आदि से लेकर जितने आधिदैविक दुःख हैं इन तीनों दुःखों के शमनार्थ तीन शान्तिपाठ कहे हैं ।।1।।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मागृधः कस्य स्विद्धनम् ||2||
दधीचाथर्वण ऋषि शुद्धमन अधीतवेद जनितपुत्र निष्पाप सर्व विषयों से वीतराग को शरण में आये हुए श्रद्धा भक्ति युक्त मुमुक्षु शिष्य को वा पुत्र को वेदान्त रूप ईशावास्योपनिषद् को कहते हैं कि हे वत्स । यह जो चौदहलोकों में यावत् सर्व चराचर प्रपञ्च है। सो सर्व ईश्वर परमात्मा से समुद्र में तरड़ों के समान व्याप्त है। और सर्व चराचर भूतप्राणी ईश्वर परमात्मा का ही रूप है ऐसी बुद्धि करनी चाहिये।
ऐसी बुद्धि का हेतु पुत्र धन और लोक में मान-प्रतिष्ठा इन तीनों इच्छाओं का त्याग है तीन इच्छाओं के त्याग से सर्व प्रपंच ब्रह्मात्मस्वरूप है ऐसी बुद्धि का पालन करें। ऐसे यति के नियम कहते हैं कि क्षुधा और शीतवान आदि निवारण के योग्य भिक्षा और वस्त्र से अतिरिक्त श्रद्धा से देने वाले किसी भी पुरुष के धन की हे वत्स ! इच्छा भी न करे इस कैमुत्तिक न्याय से धनरूप द्रव्य ग्रहण करने वाला यति महापातकी कहा जाता है ।।2।।
पुनर्जन्मनिवृत्त्यर्थं मोक्षस्याहर्निशं स्मेरत् ।।3।।
परब्रह्मोपनिषद् में कहा है कि संसार में पुनः पुनः जन्ममरण की निवृत्ति के लिये सर्व अनात्मपदार्थों की इच्छा त्यागकर ब्रह्मात्मस्वरूप अनर्थ की निवृत्ति परमानन्द की प्राप्ति रूप मोक्ष का पुरुष दिनरात स्मरण करे ॥ 3॥
यथा सुनिपुणः सम्यक् परदोषेक्षणे रतः ।
तथा चेन्निपुणः स्वेषु को न मुच्यते बन्धनात् ।।4।।
वराहोपनिषद् में कहा है कि जैसे प्राणी दूसरे के दोष देखने में सर्व ओर से अतिनिपुण होकर प्रीति करता है। तैसे ही यदि प्राणी अपने दोषों को देखने में निपुण होए तो फिर ऐसा कौन प्राणी है जो संसार के बन्धनों से मुक्त न हो । अर्थात् अवश्य ही मुक्त हो जाता है ।।4।।
कर्मणा कर्मनिर्हारो न ह्यात्यन्तिक इष्यते ।
अविद्वदधिकारित्वात्प्रायश्चित्तं विमर्शनम् ||5||
भागवत में शुकदेवजी परीक्षित से कहते हैं कि संसार के देने वाले कर्मों से संसारप्रद कर्मों का अत्यन्तिक नाश नहीं हो सकता है क्योंकि कर्मों का अज्ञानी अधिकारी होने से किन्तु कर्मों का अत्यन्त नाशक तो ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान का विचार ही एकमात्र प्रायश्चित्त है ॥ 5॥
नाश्नतः पथ्यमेवान्नं व्याधयोऽभिभवन्तिहि ।
एवं नियमकृद्राजञ्छनैः क्षेमाय कल्पते ॥ 6॥
जैसे शुद्ध और परिमित पथ्यपूर्वक अन्न खाने से पुरुष को रोगरूप व्याधियां बाधित नहीं कर सकती हैं। हे राजन् ! तैसे ही वेदान्तशास्त्र के नियम पालन करने वाला जिज्ञासु शनै: शनै: लोभ मोहादि से न बाधित हुआ परमानन्द रूप मोक्ष के लिये योग्य हो जाता है ॥6॥
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।।7।।
यह नियम योगदर्शन में कहे हैं कि विचारशील सुखी पुरुष के साथ मित्रता करनी और दुःखियों पर मन वाणी शरीर से यथाशक्ति दया करनी और पुण्यकारी पुरुषों को देखकर आनन्दित होना और उसके पुण्य कर्म का स्वयं अनुकरण करना और सर्वदा दुराचारी पापी प्राणी की मन वाणी शरीर से त्याग रूप उपेक्षा करनी दुष्ट के साथ मैत्री करुणा मुदिता इन तीनों का प्रयोग न करें सदा ऐसे निश्चित अभ्यास करने से पुरुष का चित्त शुद्ध और प्रसन्न शान्त हो जाता है ॥7॥
बद्धमुक्तो महीपालो ग्राममात्रेण तुष्यते ।
परैरबद्धो नाक्रान्तो न राष्ट्रं बहु मन्यते ।।8।।
महोपनिषद् में मन वश करने की युक्ति कही है कि जैसे कोई राजा दूसरे राजाओं से जब तक न तो बन्धा गया है और न पर सेना से घेरा गया है तब तक बहुत से राज्य को भी थोड़ासा ही मानता है परन्तु जब पर राजा से बन्धा गया तब महाकष्ट रूप कारागृह से मुक्त होने के लिये सो राजा एक ग्राम मात्र से तुष्ट हो जाता है तैसे ही मन जबतक दमन नहीं करा गया तब तक बहुत से भोगों से भी तृप्त नहीं होता। वैराग्यादि से दमन करने पर मन अल्पभोग से ही तुष्ट हो जाता है ॥ 8॥
तदा तत्र विनाशाय चित्तं भङ्गं करोति सा ।
श्रेयांसि बहु विघ्नानि संभवन्ति पदे पदे ।।9।।
गरुड़पुराण में कहा है कि तिस विचारकाल में भोगों की प्राप्ति होने पर सो भोगों की इच्छा विचार के नाश के लिये चित्त को भंग कर देती है क्योंकि कल्याण के साधनों को प्राप्त करने में पद-पद में बहुत से विघ्न होते हैं ।।9।।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ।।10।।
योगदर्शन में कहा है कि अनात्मादि में आत्मादि बुद्धिकारी अविद्या, और अस्मिता रूप सूक्ष्म अहंकार, राग, द्वेष और अभिनिवेशरूप हठ, यह विघ्नरूप पश्च क्लेश कहे जाते हैं।।10।।
रागो लिङ्गमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु ।
कुतः शाद्वलता तस्य यस्याग्निः कोटरे तरोः ।।11।।
नैष्कर्म्यसिद्धि में कहा है कि चित्त के व्यायाम करने की शब्द स्पर्शरूप रस गन्धरूपी भूमियों में जो राग है सो अज्ञान की ध्वजा है। जिस वृक्ष के मूल में अग्नि लग गई है तिस वृक्ष के पत्र फूल फल कहां से आ सकते हैं। तैसे ही जिस पुरुष के चित्तरूपी मूल में रागरूप अग्नि लगी है। तिस पुरुष के चित्तरूपी वृक्ष में वैराग्यादि पत्र और ज्ञानरूपीफूल और ब्रह्मात्मस्वरूप परमानन्द मोक्षरूप फल नहीं आ सकता है ।।11।।
ईशः पशुपतिः । जीवाः पशवः उक्ता ।
यथा तृणाशिनो विवेकहीनाः परप्रेष्याः ।।12।।
जाबाल्युपनिषद् में कहा है कि माया उपाधिवाला ईश्वर सर्वज्ञ पशुरूपी जीवों का स्वामी है। और अविद्या उपाधिवाले अल्पज्ञ पशुरूप जीव कहे है। जैसे तृण खाने वाले विवेकहीन पशु-पुरुषों से हलादियों में जोते जाते हैं तैसे ही ईश्वर से जीवरूप मनुष्यादि आत्मज्ञानहीन पशु, पुण्य-पाप के फलरूप सुख-दुख में जोते जाते हैं। अद्वैतज्ञान से उपाधियों के त्यागने पर पशु और पशुपति भाव भेद नहीं रहता है ।।2।।
आश्रयत्वविषयत्वभागिनी निर्विभागचितिरेव केवला ।
पूर्वसिद्धतमसो हि पश्चिमो नाश्रयो भवति नाथि गोचरः ।।13।।
संक्षेपशारीरक में कहा है कि मायारूप अज्ञान का आश्रय और विषयत्व का भागी अद्वैतरूप केवल चेतन शुद्ध ब्रह्म ही है। क्योंकि पूर्वसिद्ध अज्ञान के पश्चात् होने वाले ईश्वर और जीव अज्ञान के आश्रय और विषय नहीं हो सकते हैं। श्रुति में कहा है कि माया और अविद्या में चेतन ब्रह्म का प्रतिबिम्ब पड़ने से जीव और ईश्वर कहे जाते हैं ॥13॥
दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः।।14।।
न्यायदर्शन में कहा है कि देहादिक अनात्मा में मिथ्या आत्मादि ज्ञान के नाश होने से राग-द्वेष का नाश होता है। राग-द्वेष के नाश से पुण्य-पाप रूपी प्रवृत्ति का नाश होता है। पुण्य-पाप रूपी प्रवृत्ति के नाश से संसार में जन्मादि का नाश हो जाता है। जन्मादि के नाश से सर्व दुःखों का नाश हो जाता है। सर्व के नाश से प्राणि मोक्ष को प्राप्त होता है। सूत्र में लिखित उत्तर – उत्तर के नाश होने से पूर्व-पूर्व के नाश से पश्चात् मोक्ष होता है ।।14।।
मिथ्योपलब्धिविनाशस्तत्त्वज्ञानात्स्वप्नविषयाभिमानप्रणाशवत्प्रतिबोधे ।।15।।
जैसे स्वप्न के देह पुत्रादि विषयों में अहंता ममतादि अभिमान जागने पर नाश हो जाता है। वैसे ही ब्रह्मात्मस्वरूप तत्व के ज्ञान से देहादि अनात्मा में मिथ्या आत्मादि बुद्धिरूप अज्ञान का नाश हो जाता है ।।15।।
न कर्मणा न प्रजया न चान्येनापि केनचित् ।
ब्रह्मवेदनमात्रेण ब्रह्माप्नोत्येव मानवः ॥16॥
कठरुद्रोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत की प्राप्ति न तो यज्ञादि कर्म से होती है न पुत्र होने से और न अन्य किसी धनादि साधनों से भी आत्मस्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती है किन्तु आत्मस्वरूप ब्रह्म को पुरुष केवल अद्वैतज्ञान मात्र से ही प्राप्त होता है ||1611
स्वयं निःश्रेयसं विद्वान्न वक्त्यज्ञान कर्म हि ।
न राति रोगिणोऽपथ्यं वाञ्छतो हि भिषवतमः ।।17।।
भागवत में भगवान् देवताओं से कहते हैं कि जैसे रोगी पुरुष को रोगवर्धक अपथ्य रूप खान पान की इच्छा करते हुए को भी चिकित्सा शास्त्र में कुशल वैद्य अपथ्य वस्तु नहीं देता है तैसे ही विद्वान आप स्वयं ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से कल्याण रूप मोक्ष को जानता हुआ अज्ञानी रूप रोगी के लिये संसार-रोगवर्धक कर्मरूप अपथ्य की इच्छा करने पर भी अपथ्यरूप कर्म सेवन को नहीं कहता है किन्तु ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान के सेवन को ही कहता है ॥17॥
एषानादित्रितापज्वरविषमभवव्याधि सम्यक्चिकित्सा होषा स्वराज्य संपन्निरवधिपरमानन्दसन्दोहदोग्ध्री ।
भस्मीभूतं तथास्यां प्रभवति न पुनः कर्मबीजं प्ररूढं सन्देहग्रन्थिभेदावपि च निगदितावेतदासादेनन ।।18।।
स्वाराज्यसिद्धि में कहा है कि यह ब्रह्मवेत्ता के अनुभवसिद्ध अखंड ब्रह्माकार वृत्ति ही इस अनादि काल की आध्यात्मिक आधिभौतिक आधिदैविक त्रिदोष विषम ज्वररूप संसारव्याधि की चिकित्सा है। यह अद्वैत ब्रह्मात्मस्वरूप अखण्डाकार वृत्ति ही स्वप्रकाश स्वाराज्य- संपत्ति रूप निरतिशय परमानन्द रूप सुखसिन्धु के प्राप्त कराने वाली कामधेनु है।
जैसे अग्निरूप सर्व का भस्मी करने वाला है तैसे ही अग्निरूप अखण्ड अद्वैत ब्रह्माकार इस वृत्ति के उत्पन्न होने पर सर्व कर्मों का बीज रूप अज्ञान भस्मी भूत हो जाता है पुनः अनर्थकारी कर्मों का बीज अज्ञान उदय नहीं होता है सर्व प्रकार से अज्ञान का नाश होने पर शरीर आत्मा है वा प्राण आत्मा है यह संशय और चेतन आत्मा का और जड़ अन्तःकरण का जो तादात्म्य अध्यास रूप ग्रन्थि है तिस का भी नाश होना कहा गया है ।। 18 ।।
कर्माज्ञानसमुत्थत्वान्नालं मोहापनुत्तये ।
सम्यग्ज्ञानविरोध्यस्य तामिस्रस्यांशुमानिव ।।19।।
नैष्कर्म्यसिद्धि में कहा है कि यज्ञादि कर्म का करना अज्ञानजन्य होने से वो कर्म मोहरूप अज्ञान के नाश करने के लिये समर्थ नहीं किन्तु जैसे इस महातमरूप अन्धकार का सूर्य विरोधी है तैसे ही कष्ठकारी अज्ञान का विरोधी आत्मस्वरूप ब्रह्म का सम्यक् अद्वैतज्ञान ही है कर्म नहीं ।।19।।
ब्रह्मलोकस्था अपि ब्रह्ममुखाद्वेदान्तश्रवणादि कृत्वा तेन सह कैवल्यं लभन्ते आः सर्वेषां कैवल्यमुक्तिर्ज्ञानमात्रेणोक्ता । न कर्मसांख्ययोगोपासनादिभिरिति ||20||
युक्तिकोपनिषद् में कहा है कि उपासना करके ब्रह्मलोक में स्थित ब्रह्मलोकवासी भी ब्रह्मा के मुख से अद्वैतबोधक वेदान्तशास्त्र के श्रवण-मननादि करके ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान से तिस ब्रह्मा के साथ ही कैवल्य मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इस हेतु से सर्व प्राणियों की कैवल्यमुक्ति ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान मात्र से ही सर्व वेदान्तशास्त्रों में कही है, ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से भिन्न कर्म और भेदस्थापक सांख्ययोगादि मतों से और उपासनादि से कैवल्यमुक्ति नहीं प्राप्त होती है ।।20||
अज्ञानस्य निवृत्तिस्तु ज्ञानादेव न कर्मणा ।
ज्ञानं नाम पर ब्रह्मज्ञानं वेदान्तवाक्यजम् ।।21।।
स्कन्दपुराण में श्रीरामचन्द्रजी ने रामेश्वर स्थापन करने पर कहा है कि हे हनुमानजी ! कार्यप्रपंच के सहित अज्ञान की अत्यन्त निवृति तो ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से ही होती है कर्म से नहीं ज्ञान नाम शुद्ध परब्रह्म का है। सो ज्ञान वेदान्त के महावाक्यजन्य शुद्ध अखडाकार चित्त की वृत्ति से प्राप्त होता है ।। 21।।
तज्ज्ञानं च विरक्तस्य जायते नेतरस्य हि ।
मुख्याधिकारिणः सत्यमाचार्यस्य प्रसादतः ।।22।।
सो सत्य ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान ब्रह्मनिष्ठ वेद-अधीत गुरु की कृपा से साधन युक्त बीतराग मुख्याधिकारी पुरुष को ही उत्पन्न होता है साधनाहीन इतर पुरुष को अद्वैत ब्रज्ञान नहीं होता है ||22||
ब्रह्मचर्य समाप्य गृही भवेत् । गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ।।
यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा ||23||
परमहंस परिव्राजकोपनिषद में कहा है कि ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत के अधिकार संपादन के लिये क्रम से वेदअध्ययनपूर्वक ब्रह्मचर्य को समाप्त कर गृहस्थाश्रमी होए। गृहस्थाश्रम में धर्म-कर्म पूर्वक पुत्रादि संतित होने से पश्चात् वानप्रस्थी होए। पचहत्तर वर्ष की आयु होने पर वानप्रस्थ से पश्चात् चतुर्थाश्रम को ग्रहण करे और यदि विषयों से तीव्र वैराग्य हो तो पूर्वोक्त क्रम की आवश्यकता नहीं। वैराग्य होने पर ब्रह्मचर्याश्रम से ही चतुर्थाश्रम को ग्रहण करे। गृहस्थ से वा वानप्रस्थ से वा जिस अवस्था में वैराग्य हो जाय उसी अवस्था में सर्व को त्याग कर चतुर्थाश्रमी (सन्यासी) हो जाय ||23||
यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत् ||24||
पुरुष गृहस्थ का जाबालोपनिषद् में कहा है कि जिस दिन में संसारी पदार्थों से पुरुष को तीव्र वैराग्य हो जाय उसी दिन में निश्चित ही सर्व को परित्याग कर दे एक ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतचिन्तन से अन्य कोई कर्त्तव्य न करे ।।24।।
यदा मनसि संजातं वैतृष्ण्यं सर्ववस्तुषु । तदा संन्यासमिच्छेत पतितः स्याद्विपर्यये ||25||
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि जिस पुण्यउदव काल में पुरुष को सर्व दुःखरूप अनात्मवस्तुओं में दोषदृष्टि पूर्वक वितृष्णारूप सम्यक्तीव्र वैराग्य मन में उत्पन्न हो जाय तब गृहस्थ के त्यागने की इच्छा करे। अन्यथा यदि तीव्र वैराग्य न होने पर स्री पुत्र धनादि के न होने के दुःख से जो परित्याग करता है सो पुरुष सर्व कर्म-धर्म से पतित हो जाता है ||25||
अकृत्वा तु सुतोत्पत्तिं वैरागी यस्त्यजेत्प्रियाम् ।
स्रवते तस्य पुण्यं च चालन्यां च यथा जलम् ||26||
देवीभागवत में कहा है कि जो पुरुष पुत्र को उत्पन्न न कर मन्द वैराग्य से आज्ञाकारी प्यारी स्त्री को त्यागता है तिसके पुण्य ऐसे विशीर्ण हो जाते हैं जैसे चालनी में डाला हुआ जल विशीर्ण हो जाता है और तीव्र वैराग्य होने पर त्यागने से दोष नहीं है ||26||
विरक्तस्य तत्सिद्धेः ||27||
सांख्य दर्शन में कहा है कि सर्व अनात्मपदार्थों से विरक्त पुरुष को ही ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान की और जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति की प्राप्ति रूप सिद्धि होने से विरक्त का ही ब्रह्मज्ञान में अधिकार है और का नहीं ||27||
सशिखावपनं कृत्वा बहिः सूत्रं त्यजेदुधः ।
यदक्षरं परं ब्रह्म तत्सूत्रमिति धारयेत् ।।28।।
ब्रह्मोपनिषद् में कहा है कि चतुर्थ आश्रम को प्राप्त होता हुआ त्रिवर्णी बुद्धिमान् शिखासहित मुण्डन कराकर बाहर के सूत्र का विधिसहित त्याग करे अविनाशी अक्षर रूप जो परब्रह्म सो मैं हूँ तिस अद्वैतज्ञानरूप सूत्र को धारण करे ||28||
पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च ।
व्युत्थायाय भिक्षाचर्यं चरन्ति ||29||
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि पुत्र की इच्छा के लिये स्त्री ग्रहण करने का नाम पुत्रैषणा है और देव मनुष्य सम्बन्धी धन की इच्छा का नाम वित्तैषणा है पुत्र धनादि से इहलोक, देवलोक, पितृलोक की इच्छा का नाम लोकैषणा है। अथवा इस लोक में मान-प्रतिष्ठा का नाम लोकैषणा है। इन तीन इच्छाओं को त्यागकर पश्चात् विद्वान् देहस्थिति-अर्थ भिक्षावृत्ति का आचरण करते हैं। तीन इच्छा के त्याग के बिना पुरुष भिक्षावृत्ति के योग्य चतुर्थाश्रम का अधिकारी नहीं होता है।।29।।
दारैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थितोऽहम् । ॐ भूः संन्यस्तं मया ।। ॐ भुवः संन्यस्तं मया ।। ॐ सुवः संन्यस्तंमया ।। ॐ भूर्भुवः सुवः संन्यस्तं मयेति । अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते स्वाहेति ।।30।।
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि स्त्री की इच्छा से धन की इच्छा से और लोक इच्छा से आज मैं इन तीनों इच्छाओं से रहित होता हूँ। ऐसा निश्चय कर सर्वलोकों के त्याग का बोधक प्रेष-मंत्र का उच्चारण करे प्रथम जीव ब्रह्म की एकता बोधक ॐ कहकर कहे कि भूलोक की इच्छा का मैंने त्याग कर दिया है। दूसरा अन्तरिक्षलोक की इच्छा का मैने त्याग कर दिया है। तीसरे स्वर्गलोक की इच्छा का मैंने त्याग कर दिया है।
अर्थात् भूमिलोक, अन्तरिक्षलोक, स्वर्गलोक इन तीन लोक उपलक्षितः यावत अनात्मवस्तु का आज मैंने त्याग कर दिया है। ऐसे वेदाधीत ब्रह्मनिष्ठ गुरु के समक्ष कहकर सूत्र शिखादि का जल में परित्याग कर दे। और कहे कि आज दिन से लेकर सर्व भूतप्राणियों के लिये मेरे से अभयदान प्राप्त होए। और मेरा यह संकल्प ईश्वर को स्वीकृत हो ||30||
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा चरति यो मुनिः ।
न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ।।31।।
नारदपरिव्राजकोपनिपद् में कहा है कि जो वीतराग मुनि महात्मा इस संसार में सर्व भूतप्राणियों के लिये अभयदान देता हुआ विचरता है तिस विरक्त मुनि को सर्व भूतप्राणियों से किसी काल में भी भय की प्राप्ति नहीं होती है।।31।।
कौपीनयुगलं कन्था दण्ड एकः परिग्रहः ।
यतेः परमहंसस्य नाधिकं तु विधीयते ||32||
ऐसे वीतराग मुनि परमहंस को दो कौपीन और एक कन्था शीत वात निवारनी। एक बांस की लष्टिका और मृत्तिका का वा अलावु का वा काष्ठ का एक जलपात्र इतना ही ग्राह्य कहा है। इससे अधिक ग्रहण करना यति के लिए विधान नहीं करा है ।।32।।
य इमां कुण्डिकां भिंद्यात्त्रिविष्टब्धं च यो हरेत् ।
वासश्चापि हरेत्तस्मिन् कथं ते मानसं भवेत् ||33||
महाभारत में क्षत्रियों को दण्ड धारण करना कहा है कि जनक राजा राज्य को त्याग कर अपनी रानी के पास भिक्षा मांगने गये उनको रानी ने कहा हे प्राणनाथ ! आपने महान् राज्य को त्यागकर तुच्छ वस्तु पर ममता करी है। यदि इस आपकी मृत्तिकापात्र रूप कुण्डि को कोई फोड़ डाले और दण्ड को कोई छीनले कन्थादि वस्त्रों को कोई खोस ले तब आपके मन की कैसी स्थिति होए ॥ 33॥
ऋषभाद्धरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः ।
सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्रव्रज्यया स्थित ||34||
ब्रह्माण्डपुराण में कहा है कि परमहंसमार्गप्रकाशक ईश्वरकलारूप ऋषभदेव के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ श्रेष्ठ महाशूर वीर भरत नाम पुत्र उत्पन्न हुए। तब ऋषभदेव आत्मस्वरूप अद्वय ब्रह्मानन्द की अपेक्षा से चक्रवर्ती राज्य को महादुः ख रूप मानकर सौ पुत्रों को एक अद्वैत की शिक्षा देकर और भरत नाम के ज्येष्ठ पुत्र को राज्य का अभिषेक करके महान वीतराग होकर जीवन्मुक्ति की सीमा दिखाते हुए अवधूतवृत्ति से स्थित हुए ||33||
श्वेतकेतुऋभुनिदाधऋषभदुर्वासः संवर्तकदत्तात्रेयरैवतकवदव्यक्तलिङ्गोऽव्य काचार: ||35||
नारदपरिब्राजकोपनिषद् में कहा है कि परमहंस मार्ग के प्रवर्तक श्वेतकेतु 1 । ऋभुऋषि 2 । निदाघऋषि 3। ऋषभ देव 4 । दुर्वासाऋषि 5 । संवर्तक 6 । दत्तात्रेय 7 । रैबतक 8 । यह आठ अप्रकट लिङ्ग-आचार वाले अद्वैत ब्रह्म में निष्ठा वाले हुए हैं। इनके समान अप्रकट लिङ्ग-आचार वाले हुए ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत में निष्ठा वाले ही जीवन्मुक्ति का सुख ले सकते हैं ||35||
प्रभो राज्यं गृहाणेति प्रार्थितोप्यरिणा मुनि: ।
नाऽऽदले नादृताशेषस्तृणामप्यनादृते ||36||
योगवासिष्ठ में कहा है कि भगीरथ राजा जीवनमुक्ति के सुख के लिये राज्य को त्यागकर विरक्त होकर विचरने लगा। तब शत्रुदल द्वारा भी प्रार्थना करने पर कि हे महाराज भगीरथ! आप अपने राज्य को ग्रहण करें तो भी भगीरथ ने मनिव्रत में स्थित होकर सुधानिवारक भोजन से बिना राजलक्ष्मी को तृण के समान मानकर ग्रहण न किया और अात्मस्वरूप परमानन्द में स्थित होकर अशेष चक्रवर्ती राज्य का आदर न किया ॥36॥
यस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन दृष्टं चेत्स ब्रह्महा बवेद्यस्मा –
द्विक्षुर्हिरण्यं रसेन स्पृष्टं चेत्स पौल्कसो भवेद्यस्मा-
द्विक्षुर्हिरण्यं रसेन ग्राह्यं चेत्स आत्महा भरेत्तस्माद्भि-
क्षुर्हिरण्यं रसेन न दृष्टं न स्पृष्टं च न ग्राह्यं च ||37||
परमहंसोपनिषद् में कहा कि जो पुरुष धन पुत्र आदि को त्यागकर भिक्षुरूप यतिव्रत को धारण कर जो लोभ के कारण से फिर यदि श्वेत पीत रूप चांदी सुवर्ण को व्रतघाती राग से देखता है सो नामधारी संन्यासी ब्रह्महत्यारा हो जाता है। और लोभ के कारण से जो भिक्षु संन्यासी सुवर्ण चांदी आदि द्रव्यों को यदि व्रतनाशक राग से स्पर्श करता है सो व्रतधाती संन्यासी महाचाण्डाल हो जाता है और लोभ के कारण से चतुर्थाश्रम का अभिमानी जो कोई भिक्षु श्वेत पीत चांदी सुवर्ण आदि द्रव्य को राग से ग्रहण करता है। सो संन्यासी आत्मघाती होता है।
जिन कारण से भिक्षु संन्यासी सुवर्ण चांदी द्रव्य को राग करके दर्शनादि से भी दुर्गति का भागी होता है तिस कारण से भिक्षु यति सुवर्ण चांदी आदि द्रव्य को राग से न देखे और न स्पर्श करे और ग्रहण करना तो कैमुत्तिक न्याय से महापापकारी ही सिद्ध होता है ।।37।।
यतये कांचनं दत्वा ताम्बूलं ब्रह्मचारिणे ।
चौरेभ्योऽप्यभयं दत्वा दातापि नरकं ब्रजेत् ||38||
पाराशरस्मृति में कहा है कि जो पुरुष भिक्षुरूप चतुर्थाश्रमी यति के लिये सुवर्ण चांदी आदि द्रव्य देकर यति का वैराग्यरूपी व्रत भंग करता है और गुरु से वेदादि पढ़ने वाले ब्रह्मचारी के लिये जो पान देता है और चोर पुरुषों के लिये किसी प्रकार की भी सहायता रूपी जो अभयदान देता है यह तीन प्रकार के दान देने वाला निश्चित ही नरक को प्राप्त होता है। और इन तीनों दानों के लेने वाले यति, ब्रह्मचारी, चोर इन तीनों की तो नरक में प्राप्ति होने में क्या ही संदेह है। ये तो अवश्य ही नरकगामी है ||38||
सौवर्णायसताम्रेषु कांस्यरौप्यमयेषु च ।
भिक्षादातुर्न धर्मोऽस्ति भिक्षुर्भुक्ते तु किल्विषम् ||39||
अत्रिस्मृति में कहा है कि सुवर्ण के, चांदी के, तांबे के, कांसे के, लोहे के तथा पीतल के पात्रों में यति को भिक्षा देने वाले गृहस्थी को धर्म की प्राप्ति नहीं होती है और इतने पात्रों में भिक्षु यति भोजन खाता हुआ गृही के पापों का भोजन करता है। अर्थात् यति गृही के पापों को प्राप्त होता है ।।39।।
मृत्पात्रमालाबुपात्रं दारुपात्रं वा यतीनाम् ||40||
आरुणिकोपनिषद् में कहा है कि एक मृतिका का पात्र दूसरा तुम्बे का पात्र, तीसरा काष्ठ का पात्र ये तीन पात्र यतियों के लिये पवित्र कहे हैं ।।40।।
ज्ञानदण्डो धृतो येन एकदण्डी स उच्यते ।।41।।
परमहंसोपनिषद् में कहा है कि जिस वीतराग पुरुष ने ब्रह्मात्मस्वरूप एक अद्वैतज्ञान रूपी दण्ड को धारण करा है सो पुरुष एक दण्ड वाला एकदण्डी कहा जाता है।।41।।
वाक्दण्डः कर्मदण्डश्च मनो दण्डश्च ते त्रयः ।
यस्यैते नियता दण्डाः स त्रिदण्डी महायतिः ||42||
और नारदपरिब्राजकोपनिषद् में कहा है कि मन से किसी का बुरा चिन्तन न करना यह मन का दण्ड है, सत्य प्रिय परिमित शुद्ध भाषण करना यह वाणी का दण्ड है और शरीर इन्द्रियों से किसी भी प्रकार की चेष्ठा से किसी को दुख न देना यह कायदण्ड कहा जाता है। जिसके यह तीन दण्ड नियम से धारण करे हुए हैं सो विवेकी पुरुष महायति त्रिदण्डी कहा जाता है ||42||
धैर्यकन्था । उदासीनकौपीनम् । विचारदण्डः ब्रह्मावलोकयोगपट्टः ||43||
निर्वाणोपनिषद् में कहा है कि यति को क्षुधापिपासा, उष्णशीत, वात आदि द्वन्दों के प्राप्त होने में जो धैर्य धारण करना है सो ही कन्था (वस्त्र) कहा है, उत्कृष्ट ब्रह्मात्मस्वरूप में स्थित होना ही कौपीन धारण कहा है और आत्मा ब्रह्मस्वरूप है इस अद्वैतज्ञान का विचार करना ही दण्डधारण कहा है। सर्व चराचर प्रपंच को ब्रह्मस्वरूप देखने का नाम योगपट्ट कहा है ।।43।।
अन्नदानपरो भिक्षुर्वस्त्रादीनां प्रतिग्रही ।
आविकं वानाविकं वा तथा पट्टपटानपि ।।
प्रतिगृह्य यतिश्चैतान्पतत्येव न संसयः ।।44।।
सन्यासोपनिषद् में कहा है कि अन्न मांगकर अन्नदान परायण हुआ भिक्षु यति ब्रह्मविचार से पतित हो जाता है। और सूती वस्त्रादि का शीतवात निवारण योग्य से अधिक ग्राही और भेड की ऊन का वस्त्र, आजादि की ऊन का वस्त्र तथा रेशम के वस्त्रों को इतने वस्त्रों को ग्रहण करके यति निश्चित ही पतित हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है। इस कारण से शीतवात निर्वाण योग्य सूती वस्त्र को ही यति ग्रहण करे ।।44।।
अथ परिव्राङ् विवर्णवासा मुण्डोऽपरिग्रहः ।
शुचिरद्रोही भैक्षाणो ब्रह्मभूयाय भवति ।।45।।
जाबालोपनिषद् में कहा है कि सर्व का त्यागी विरक्त यति हरे पीतादि सुन्दर रंगों से रहित काषाय वर्ण के वस्त्र धारण करे ग्रीवा पर्यन्त मुण्डन करावे और द्रव्यादि का ग्रहण न करे। पवित्राचरण सर्व प्राणियों का अद्वेषी भिक्षावृत्ति से जीवित विरक्त यति ही ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत की प्राप्ति के योग्य होता है ||45||
दुष्कृतं हि मनुष्याणामन्नमाश्रित्य तिष्ठति ।
यो यस्यान्नं समश्नाति स तस्याश्नाति किल्विषम् ||46||
अंगिरस्मृति में कहा है कि सर्व प्राणियों का करा हुआ पाप निश्चित ही अन्न के आश्रय रहता है। जो पुरुष जिसका अन्न खाता है सो तिस अन्न-अभिमानी के पापों को ही. खाता है। अर्थात् अन्न खिलाने वाले के पापों को प्राप्त होता है। अस्तु पापकारी का अन खाना निषिद्ध है। धर्मकारी का अन्न खाना पवित्र कहा है ||46||
वरं हलाहलं पीतं सद्यः प्राणहरं च तत् ।
न तु भुक्तं धनाढ्यस्य गृहे च कुटिले मुखे ।।47।।
महाभारत सार में कहा है कि भक्तिवश श्री कृष्णचन्द्र को विदुर के गृह में शाक खाते हुए को दुर्योधन ने कहा कि आप इस निर्धन विदुर शूद्र का भोजन क्यों खाते हो और हमारे यहाँ क्यों नहीं खाते। तब श्री कृष्णचन्द्रजी ने कहा कि शीघ्र प्राणहारी विष का पी लेना श्रेष्ठ है क्योंकि सो मन में बहुत काल तापकारी नहीं है परन्तु धनाढ्य पुरुष के गृह में तिस के दुष्ट मन, कुटिल मुख होने पर भोजन करना श्रेष्ठ नहीं है बहुत काल तापकारी होने से ।।47।।
अन्ये चैव तु ये शूद्राः सत्यशौचपरायणाः ।
तेषां गृहेषु भोक्तव्यं विदुरोऽपि बहुश्रुतः ||48||
तिन मिथ्याबादी दुराचारी धनियों से और मिथ्यावादी दुराचारी शूद्रों से भिन्न ये सत्य प्रियवादी और पवित्राचरण-परायण ये शूद्र श्रेष्ठ हैं। तिनके गृहों में भोजन करना योग्य है और विदुर तो निश्चित ही सत्य-प्रियवादी और पवित्राचरण-परायण है, और बहुशास्त्र अधीत है। तिसका भोजन तो अमृत के समान है ।।48।।
अभोज्यं मठिनामन्नं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ||49||
पर्वतश्चिज्जपेन्मन्त्रं शतवारं न कल्मषम् ।
यत्यन्नं तु यदा भुङ्क्ते पात्रस्य प्रेरितं यदा ।।
पुराण में कहा है कि गृहस्थाश्रम को त्याग करने वाले मठधारियों का अन्न, भोजन प्राप्त करने योग्य नहीं है और भूल से अथवा लोभ से मठाधारियों के अन्न को खाकर शुद्धि के लिये चान्द्रायण व्रत करें ||49||
सौनककृत ऋग्विधान में कहा है कि यति का संग्रह किया हुआ अन्न यति के पात्र में प्राप्त हुआ अन्न एवं यति के द्वारा प्रेरित अन्न ये तीन अन्न खाने पर पर्वतश्चित इस मंत्र को सौ बार जप करने से शुद्ध होता है।
अनिन्द्यं वै व्रजेद्देहं निन्द्यं गेहं तु वर्जयेत् ।
अनावृते विशेद् द्वारि गेहे नैवावृते व्रजेत् ||50||
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि दुराचार दोषों से रहित अनिन्दनीय गृहों में यि भिक्षा के लिए जाए और खुले द्वार वाले गृह में यति भिक्षार्थ नारायण शब्द करके प्रवेश करे और बन्द द्वार वाले गृह में यति भिक्षार्थ नारायण शब्द न करे तिस बन्द गृह का त्याग करना यति को दोष नहीं है ||50||
श्रोत्रियान्नं न भिक्षेच्छ्रद्धाभक्तिबहिष्कृतम्।
व्रात्यस्यापि गेहे भिक्षेच्छद्धाभक्तिपुरस्कृते ।।51।।
संन्यासोपनिषद् में कहा है कि श्रद्धा-भक्ति से रहित वेद अधीत ब्राह्मण के अन्न की भी यति भिक्षा ग्रहण न करे। और त्रिवर्णी का शास्त्रविहित काल में संस्कार न होने से ब्रात्यसंज्ञा को प्राप्त हुए के भी गृह में से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अन्न की भिक्षा देने पर यति भिक्षा ग्रहण करे |151।।
माधूकरमसंक्लृप्तं प्राक्प्रणीतमयाचितम् ।
तात्कालिकं चोपपन्नं भैक्षं पञ्च विधं स्मृतम् ||52||
जैसे मक्षिका बहु फूलों से मधु को प्राप्त करती है तैसे ही यति के अनियत नवीन गृहों से भिक्षा करने का नाम मधूकरी है। यति के भिक्षाकाल से पूर्वकाल में गृही की प्रार्थना से निमंत्रण स्वीकार करने का नाम प्राक्प्रणीत भिक्षा है और यति के बस्ती में जाने पर नारायण शब्द से पूर्व गृही ने कहा कि भो स्वामिन् ! आइये भोजन कीजिये इसका नाम अयाचित भिक्षा है यति के नारायण शब्द करने पर गृही ने कहा है आओ स्वामिन् !
भोजन करो इसका नाम तात्कालिक भिक्षा है और स्वासन पर स्थित हुए को कोई भोजन ले आये सो उपपन्न नाम की भिक्षा है। यह पाँच प्रकार की भिक्षा शास्त्रों में कही है। इन सब में मधूकरी नाम की भिक्षा श्रेष्ठ कही है ||52||
चरेन्माधूकरं भैक्षं यतिर्लेच्छकुलादपि ।
एकान्नं न तु भुञ्जीत बृहस्पतिसमादपि ||53||
चातुर्वर्णियों के न प्राप्त होने पर यति म्लेच्छ कुल से भी माधूकरी नाम की भिक्षा करता हुआ दूषित नहीं होता है। परन्तु नित्यप्रति एक का अन्न तो वेदाधीत बृहस्पति के समान ब्राह्मण का भी यति भोजन न करे क्योंकि रोज एक का अन्न खाने से यति तिस के दुःख – शोकादि का भागी हो जाता है ||53||
न वायुः स्पर्शदोषेणा नाग्निर्दहनकर्मणा ।
नापो मूत्र पुरीषाभ्यां नान्नदोषेण मस्करी ||54||
माधूकरी भिक्षा करने से यति अन्न के दोषों से दूषित नहीं होता है। जैसे वायु अशुद्ध वस्तु के स्पर्शदोष से दूषित नहीं होता है अग्नि अशुद्ध वस्तु के दाह करने से दूषित नहीं होता है और जैसे गंभीर बहते हुए जल मल-मूत्र के दोषों से दूषित नहीं होते हैं। तैसे ही यतिको अदूषित माधुकरी का अन्न अमृत के समान है अर्थात भिक्षा से प्राप्त अन्न के दोषों से वीतराग यति दूषित नहीं होता है ।।54।।
तितिज्ञाज्ञानवैराग्यशमादिगुणवर्जितः ।
भिक्षामात्रेण यो जीवेत्स पापीयति वृत्तिहा ||55||
परमहंसोपनिषद् में कहा है कि विवेक वैराग्य तितिक्षा शम दमादि साधनपूर्वक ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से हीन जो प्राणी भिक्षामात्र से ही जीवन पूरा करता है सो पापी पुरुष बीतरागयतियों के भिक्षावृत्ति रूप मार्ग को नाश करने वाला नरकगामी होता है |
परमात्मनि यो रक्तो विरक्तोऽपरमात्मनि ।
सर्वेषणाविनिर्मुक्तः स भैक्ष्यं भोक्तुमर्हति ||56||
नारदपरिव्राजकोपर्निषद् में कहा है कि आत्मस्वरूप अद्वितीय परमात्मा में जो प्राणी एकरस प्रीति वाला है सर्व अनात्मप्रपंच में वैराग्य वाला और सर्व इच्छाओं से रहित है, मी विरक्त महात्मा ही भिक्षा करके प्राप्त अन्न को खाने के योग्य है दूसरा नहीं ||56||
अब्बिन्दु यः कुशाग्रेण मासे मासे समश्नुते।
न्यायतो यस्तु भिक्षेत स पूर्वोक्ताद्विशिष्यते ।।57||
वायुपुराण में कहा है कि जो पुरुष कुशा तृण के अग्रभाग से एक-एक जल बिन्दु को मास-मास में एक बार पान करता है। और एक वीतराग महात्मा धर्मपूर्वक माधुकरी नाम की भिक्षा करके रोज खाते हैं। तीन दोनों में पूर्वोक्त जलबिन्दु मास-मास में पान करने वाले से माधुकरी शिक्षा करने वाला भिक्षु श्रेष्ठ कहा है ||57||
द्वैतर्जिताः समलोष्टाश्मकाञ्चनाः|
सर्ववर्णेषु भैक्षाचरणं कृत्वा सर्वत्रात्मैवेति पश्यन्ति ||58||
और भिक्षुकोपनिषद् में कहा है कि दुर्गतिकारी द्वैत से रहित ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान में निष्ठा वाले विरक्त महात्मामृत्तिका के ढेले में पाषाण में सुवर्ण चांदी में समदर्शी, सदाचारी सर्व वर्णों में माधूकारी शिक्षा करके जीवन करने वाले विद्वान् सर्व चराचर में ब्रह्मस्वरूप अद्वितीय एक रस आत्मा को ही देखते है ||58||
पाणिपात्रश्चरन्योगी नासकृद्भैक्षमाचरेत् ।
तिष्ठन्भुञ्ज्याच्चरन्भुञ्ज्यान्मध्ये नाचमनं तथा ।।59।।
नारदपरिब्राजकोपनिषद् में वीतराग परमहंसयतियों की भिक्षा का प्रकार (रीति) नारदजी से ब्रह्माजी कहते हैं कि शमशील विरक्त महात्मा करपात्री होकर विचरते हुए दिन में एक बार भिक्षा करके पुनः फिर बस्ती में भिक्षा को न जाय ऐसे वीतराग महात्मा चाहे तो हाथ में भिक्षा लेकर खड़े खड़े खाएं और चाहे चलते-चलते हुए खाए गृहस्थों के भोजन के समान वीतराग परमहंसों के भोजन करने में आचमन का विधान नहीं है ।1591 –
सुदुःखोपार्जितैर्वित्तैराशासानां गृहाशिषः ।
मधुहेवाग्रतो भुङ्क्ते यतिर्वै गृहमेधिनाम् ||60||
भागवत में कहा है कि महान् दुःख से उपार्जित धनों के दान करके गृह सम्बन्धी पदार्थों की प्राप्ति रूप आशीर्वाद की इच्छा करने वाले तिन पवित्राचरण वाले गृहस्थों के सामने ही यति महात्मा भिक्षा लेकर खा लेता है तिन गृहस्थों के तोष करने के लिये, जैसे खाले मधुरूप रस को तोड़कर मखियों के आगे खड़े होकर ही खा लेते हैं। यदि कहें कि गृही के भोजन करने से प्रथम ही यति भिक्षा कर ले तो (निर्धूमे) सर्व गृहस्थों के भोजन खा लेने पर यति भिक्षा को जाय इस मनुवचन से विरोध आता है ||60||
य उद्यतमनादृत्य कीनाशमभियाचते । क्षीयते तद्यशः स्फीतं मानश्चावज्ञया हतः ||61||
जो यति भिक्षु सदाचारी गृही से समर्पण करे हुए प्राप्त भिक्षा-वस्त्र को तिरस्कार कर त्यागता है और कृपण पुरुषों के पास जाकर उसी भिक्षा-वस्त्र की याचना करता है तिस यति का प्रकाशमान यश और प्रतिष्ठा नाश हो जाते हैं तिस सदाचारी गृही का अवज्ञा रूप तिरस्कार करने से यति हतशोभा हो जाता है ।।61।।
हर्षामर्षममत्वादींश्च हित्वा ज्ञानवैराग्ययुक्तो वित्त स्त्रीपराङ्मुखः ।।62।।
परमहंसपरिब्राजकोपनिषद् में कहा है कि हर्ष शोक अहंता ममता आदि को त्यागकर और धन पुत्र स्त्री से उपराम हुआ विवेकी वैराग्यादि से युक्त एक ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान निष्ट हुआ बिचरे ।। 62।।
क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् ।
सप्तद्वारावकीर्णा च न वाचामनृतां वदेत् ||63||
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में कहा है विरक्त यति क्रोध करने वाले के साथ आप क्रोध न करें और दुराचारियों की गालियों से अपमानित हुआ भी यति आनन्द से रहो, ऐसा ही कहें। और दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक रसना इन सात द्वारों में फैली हुई वाणी का विषयों के लोभ से मिथ्या भाषण कभी न करें ||63||
पारिव्राज्यं गृहीत्वा तु यः स्वधर्मे न तिष्ठति ।
तमारूढच्युतं विद्यादिति वेदानुशासनम् ||64||
शाट्यायनीयोपनिषद् में कहा है कि जो सर्व का त्याग रूप परमहंस धर्म को ग्रहण करके द्रव्यादि त्यागपूर्वक ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतचिन्तन रूप स्वधर्म में नहीं स्थित होता है तिसको मोक्षमार्ग वैराग्यादि उच्च स्थिति से पतित हुआ जानना । यह वेद की घोषणा रूप शासना है क्योंकि वो गृहस्थ के कर्म-धर्म से और यतियों के ज्ञान-वैराग्यादि धर्म में उभयभ्रष्ट कहा जाता है ।।64।।
मञ्चकं शुक्लवस्त्र च स्त्रीकथा लौल्यमेव च ।
दिवास्वापं च यानं च यतीनां पातनानि षट् ||65||
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि मञ्च, शुक्ल वस्त्र धारण करने, स्त्रियों की कथा करनी और चंचलता करनी, दिन में सोना और प्राणधारी यान पर चढ़ना, यह षट् यतियों को पतित करने वाले हैं||65||
नामगोत्रादिचरणं देशं कालं श्रुतं कुलम् ।
वयोवृत्तं व्रतं शीलं ख्यापेन्नेव सद्यतिः ||66||
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि अपना नाम, गोत्र, धनाढ्यता, वर्ण, देश, दीक्षा का काल, स्वशास्त्राधीत, कुल, आयु, स्व्रतजीवनवृति, स्वव्रतधारण, स्वशीलता इन सर्व को श्रेष्ठ यति कभी कथन न करें। क्योंकि इनके कथन करने से यति के पूर्वाश्रम का अभिमान सिद्ध होता है ||66||
यदा समस्तदेहेषु पुमानेको व्यवस्थितः ।
तदा हि को भवान् कोऽहमित्येतद्विफलं वचः ।।67।।
अग्निपुराण में कहा है कि रहगण राजा ने जड़भरत से पूछा कि आप कौन होत जड़भरत ने कहा कि हे राजन् जब गुरु शास्त्र के प्रमाणों से सर्व चराचर प्राणियों में एक सर्वव्यापी पुरुष परमात्मा ही स्थित है ऐसा जान लिया तब आप कौन हो और मैं कौन हूँ ऐसा पूछना यह कथन निष्फल ही है ||67||
उन्मत्तमत्तजडवत्सवसंस्थां गतस्य मे वीर चिकित्सितेन ।
अर्थ: कियान्भवता शिक्षितेन स्तब्धप्रमत्तस्य च पिष्टपेष: ||68||
और भागवत में ब्रह्मनिष्ठ जड़भरत को पालकी में जुते हुए को पूरा न चला जाने पर रहूगण ने कहा कि तुम ठीक नहीं चलते हो अब मैं तुम्हारी पीटकर चिकित्सा करता हूँ। तब जड़भरत ने हँस कर कहा कि हे वीर राजन् ! संसारी विषयों से उन्मत्त मस्त जड़ पुरुष के समान उपराम हुए और ब्रह्मात्म के द्वारा स्वरूप अद्वैत निजस्थिति को प्राप्त हुए मेरा आप के द्वारा चिकित्सा करने से क्या फल होगा। अनर्थ ही फल होगा और कुछ नहीं, क्योंकि अनात्म पदार्थों में अविनीत प्रमत्त मुझको शिक्षा से पीसे का पीसना रूप ही परिश्रम होगा।
शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्विष्ट्या निगृह्णन्निरनुग्रहोऽसि ।
जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानो न शोभसे वृद्धसभासु धृष्टः ।। 69।।
जड़भरत ने कहा कि हे राजन् अति शोचनीय निरपराधी इन दुःखी दीन गरीब पुरुषों को बन्धन से बांधकर पालकी में जोतने वाले तुम दयाहीन महाक्रूर हिंसक हो। और कहते हो कि हम प्रजा के रक्षक हैं। ऐसा कथन करते हुए तुम रहूगण पापकर्म से न भय करने वाले ढीढ मूर्ख विद्यावृद्ध पुरुषों की सभा में शोभा नहीं पा सकते हो। तब रहूगण अमृत के समान यथार्थ वचन सुनकर जड़भरत के चरणों में पड़कर क्षमा मांगकर ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान की शिक्षा लेकर अपने राज्य में चले गये ||69||
विभर्षि कार्य पीवानं सोद्यमो भोगवान्यथा । वित्तं चैवोद्यमवतां भोगो वित्तवतामिह|
भोगिनां खलु देहोऽयं पीवा भवति नान्यथा ||70||
भागवत में कहा है कि कावेरी नदी के तीर पर अजगर वृत्ति में स्थित हुए अवधूत को देखकर तत्व के जानने की इच्छा वाले प्रह्लाद श्रद्धा-भक्ति से नमस्कार कर पूछते हैं कि आप सर्वसंग्रहों से रहित भी उद्यमी भोगी पुरुषों के समान पुष्ट देह को धारण कर रहे हो। उद्यम वालों को धन प्राप्त होता है धन वालों को ही इस संसार में भोग प्राप्त होते हैं और भोगी पुरुषों का ही निश्चित यह शरीर पुष्ट होता है, भोगी से बिना दूसरे का नहीं होता ||70||
सुखमस्यात्मनो रूपं सर्वेहोपरतिस्तनुः |
मनःसंस्पर्शजान्दृष्ट्वा भोगान्स्वस्यामि संविशन् ||71||
तब वीतराग अवधूत ने कहा कि पुष्टकारी जो सुख है सो इस परमानन्द आत्मा का ही स्वरूप है, परन्तु सो सुख सर्व अनात्मपदार्थों की इच्छाओं से रहित होने पर प्रकट होता है। इस हेतु से मैं यावत् भोगपदार्थों को मन के संकल्पजन्यों को विचार से दुःखकारी जानकर तन से विरक्त हुआ खानपान के यथा लाभ से संतुष्ट हुआ यहाँ एकान्त में वासकर सुख से शयन करता हूँ ।।71।।
पश्यामि धनिनां क्लेशं लुब्धानामजितात्मनाम् ।
भयादलब्धनिद्राणां सर्वतोऽभिविशङ्किनाम् ||72||
क्योंकि सर्व धनी पुरुषों को, लोभग्राह से ग्रसे हुए लोभियों को, अजितमन बालों को और धन-निमित्त चोर आदि के भय से रात्रि में अप्राप्तनिद्रा वालों को और सर्व स्त्री पुत्र आदि में और भिक्षुक साधु ब्राह्मण में पापकारी धनहरन की शंका से चोर बुद्धि करने वालों को मैं महान् दुःखी देखता हूँ। इस हेतु से तिनका संग पापकारी जानकर मैं असंग रहता हूँ ।। 72।।
मधुकार महासप लोकेऽस्मिन्त्रो गुरुत्तमौ ।
वैराग्यं परितोषं च प्राप्ता यच्छिक्ष द्यावयम् ||73||
हे प्रह्लाद ! मधुकर और महा-अजगर सर्प यह दो हमारे इस लोक में श्रेष्ठ गुरु है। सर्व कामपदार्थ से विरक्त होने की शिक्षा तो हमने मधुकर से प्राप्त करी है क्योंकि जैसे मक्खी के कष्ट से प्राप्त करे हुए मधु को तोड़कर और ही खा जाता है तैसे ही झूठ कपट कष्टों से प्राप्त करे हुए धन को राजदण्ड चोरादि ही छीन लेते हैं। इस हेतु से मैं पदार्थ संग्रह नहीं करता हूँ और महासर्प अजगर से हमने यथालाभ सन्तोष की शिक्षा प्राप्त करी है। अजगर सर्प के समान मैं यथालाभ में सन्तुष्ट रहता हूँ ।।73।।
क्वचिच्छये धरोपस्थे तृणपर्णाश्मभस्मसु।
क्वचित्प्रासादपर्यङ् कशिपौ वा परेच्छया ||74||
और कहीं तो मैं भूमि पर शयन करता हूँ और कहीं पत्र तृणों पर कहीं भस्म पर कहीं पाषाणों पर शयन करता हूँ। कहीं अतिसुन्दर बड़े मन्दिरों में निवार के पलंगों पर तकिये बिछोने बिछे हुओं पर दूसरों की इच्छा से शयन करता हूँ। इस प्रकार से यथा लाभ में ही सदा सन्तुष्ट रहता हूँ। प्रह्लाद ऐसे ब्रह्मनिष्ठ के अमृतमय वचन सुनकर सन्तुष्ट होकर स्वराज्यधानी को चले गये ।।74।।
विद्वान्स्वदेशमुत्सृज्य संन्यासानन्तरं स्वतः ।
कारागारविनिर्मुक्त चोरवद्दूरतो वसेत् ||75||
मैत्रेय्युपनिषद् में कहा है कि विद्वान यति धन पुत्र स्त्री आदि सहित स्वगृहत्याग के पश्चात् अपने देश को त्याग करके मोहकारी स्वदेश से दूर देश में ऐसे वास करें जैसे कारागार रूप जेल कष्ट से छूटकर चोर तिस जेल से सर्वदा दूर ही रहता है ||75||
अहंकारसुत वित्तभ्रातरं मोहमन्दिरम् |
आशापत्नीं त्यजेद्यावत्तावन्मुक्तो न संशयः ||76||
अहकाररूप पुत्र को, धनरूप भ्राता को, मोहरूप गृहमन्दिर को और आशारूप भार्या को जब विवेकी पुरुष त्याग देता है तब संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है इसमें कोई संशय नहीं है ||76||
मृतामोहमयी माता जातो बोधमयस्सुतः ।
सूतकद्वय संप्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे ||77||
वीतराग यति की मोहरूप माता नष्ट हो जाती है और सर्व शोकनाशक परमानन्दकारी अद्वैतबोधरूपी पुत्र उत्पन्न हो जाता है इन दो सूतक पातकों के प्राप्त होने पर ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञाननिष्ठ वीतराग यति कहता है कि अब मैं संध्यादि का कैसे अनुष्ठान करूँ अर्थात् ऐसे ब्रह्मनिष्ठ विरक्त को संध्यादि कर्त्तव्य की विधि नहीं है ||77||
उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम् ।
अधमा मन्त्रचिन्ता च तीर्थभ्रान्त्यधमाधमा ||78||
ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञाननिष्ठ विरक्त को जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैततत्त्व का चिन्तन करना ही श्रेष्ठ है और अद्वैत बोधक वेदान्तशास्त्र का चिन्तन करना मध्यम है, खण्डन-मण्डन रूप शास्त्रजाल होने से। हठयोग मंत्रजाप आदि करना अद्वैत बोधक वेदान्तशास्त्र की अपेक्षा से अधम कहा है और ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत चिन्तन की अपेक्षा से अतिविक्षेपकारी तीर्थों पर भ्रमण तप तीर्थयात्रा को अधम से भी अधम कहा है ||78||
तच्चिन्तनं तत्कथनं तदन्योऽन्यप्रबोधनम् ।
एतदेकपरत्वं च ब्रह्माभ्यासो विदुर्बुधाः ।।79।।
पञ्चदशी में कहा है कि वीतराग यति अकेला हुआ ब्रह्मात्मस्वरूप तिस अद्वैततत्वका ही चिन्तन करे, अधिकारी जिज्ञासु के प्राप्त होने पर तिस अद्वैत का ही कथन करे और यदि अद्वैत तत्त्वनिष्ठ अपने समान योग्यता का आ जाय तो तिस ही अद्वैत आत्मतत्त्व का परस्पर कथन करे। यदि अपने से अधिक योग्यता वाला ब्रह्मनिष्ठ आ जाय तो तिस से अद्वैततत्त्व का ही श्रवण करे। इस प्रकार से सर्वदा एक अद्वैतपरायण होने का नाम विद्वान् मुनि महात्मा ब्रह्माभ्यास कहते हैं ।।79।।
परमहंसाश्रमस्थो हि स्नानादेरविधानतः ।
अशेषचित्तवृत्तीनां त्यागं केवलमाचरेत् ।।80।।
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि परमानन्द के साधनभूत परमहंसाश्रम में स्थित हुए वीतराग यति को संध्यास्नानादि का निश्चित विधान न होने से केवल धन पुत्रादि अनात्माकार अशेषचित की वृत्तियों के ही परित्यागपूर्वक एक ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतचिन्तन का सदा ही अभ्यास करे ||80||
अमृतत्त्व समाप्नोति यदा कामात्स मुच्यते।
सर्वेषणा विनिर्मुक्तश्छित्वा तन्तु न बध्यते ।।81।।
क्षुरिकोपनिषद् में कहा है कि जब परमहंस यति विषयों की कामनाओं से रहित हो जाता है तब यति अनुपरावृत्ति अमृतरूप परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होता है। अनात्म संसारी सर्व इच्छाओं से मुक्त हुआ यति अज्ञानरूप तन्तु को नाश करके फिर संसार में बन्धन को प्राप्त नहीं होता है ।। 81 ।।
मृत्यो रूपाणि विदित्वा न विभेति कुतश्चनेति ।।82।।
सुबालोपनिषद् में कहा है कि अज्ञानकल्पित सर्व जरा-मरणादि मृत्यु के रूपों को मिथ्या जानकर विद्वान् यति ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैतनिष्ठ हुआ किसी से भी भय को प्राप्त नहीं होता है ||82||
वैराग्यतैलसम्पूर्णे भक्तिवर्तिसमन्विते ।
प्रबोधपूर्णे पात्रे तु ज्ञप्तिदीपं विलोकयेत् ।।83।।
दक्षिणामूर्त्यपनिषद् में कहा है कि वैराग्यरूप तेल से पूर्ण और एकरस भक्तिरूप बत्ती से युक्त आत्म-अनात्म वस्तु के विचाररूप अग्नि से प्रकाशित आत्मज्ञानसे पूर्ण शुद्धान्तःकरण रूप पात्र में ब्रह्मात्मस्वरूप परमानन्द प्रकाशमान् दीपक का दर्शन करे ||83||
यत साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म । सर्वान्तरो योऽशनायापिपासे शोकं मोहं जरां मृत्युमत्येति एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणः ।।84।।
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि जो सर्व प्राणियों को निश्चित साक्षात् निजात्म रूप से अपरोक्ष होने से सर्वव्यापी ब्रह्म प्रसिद्ध है और जो सर्व चराचर के अन्तर में निर्लेप रूप से स्थित है ऐसे विद्वान के अनुभवसिद्ध तिस परमानन्द ब्रह्मात्म स्वरूप को गुरु द्वारा महावाक्यों से जानकर विवेकी पुरुष क्षुधापिपासा शोक-मोह जरा-मृत्यु आदि संसार कष्ट को उल्लंघन कर सर्व इच्छाओं का त्याग करके ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण जीवन्मुक्त होकर बिचरते हैं वे ब्राह्मण कहे जाते हैं ||84||
को वा ब्राह्मणे नाम किं जीवः किं देहः ।। कि जातिः, किं ज्ञानं, किं कर्म, किं धार्मिक इति ।। सर्वशरीराणां जीवस्यैकरूपत्वाच्च, पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसंभावाच्च ।। ऋष्यशृङ्गो मृग्याः ।। कौशकः कुशात् ।। जाम्बूको जम्बूकात् ।। एतेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । क्षत्रियादयोऽपि परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति ।। सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्धसंचितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्। क्षत्रियादयोहिरण्यदातारो बहवः सन्ति । यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं साक्षादपरोक्षीकृत्य वर्तते स एव ब्राह्मण इति ।।85।।
बज्रसूचिकोपनिषद् में शंका करी है कि ब्राह्मण नाम किसका है क्या जीव का नाम ब्राह्मण है, अथवा क्या देह का है, क्या जाति का है, क्या ज्ञान का है, क्या कर्म का है। अथवा क्या धार्मिक प्राणी का नाम ब्राह्मण है, यह छे प्रश्न हुए। प्रथम यदि जीव का नाम ब्राह्मण कहें सो नहीं हो सकता क्योंकि अतीत अनागत नाना शरीरों में जीव को एक होने से और पुनः एक जीव को कर्मवश से नाना देह की प्राप्ति होने से जीव ब्राह्मण नहीं है।
दूसरा देह को यदि ब्राह्मण कहें तो सो नहीं हो सकता क्योंकि श्वपच से लेकर सर्व देहों को पाञ्चभौतिक होने से और पिता के देहदाहकारी पुत्रादि को ब्रह्महत्या की प्राप्ति होने की आपत्ति से देह भी ब्राह्मण नहीं है।
तीसरा जाति भी ब्राह्मण नहीं है क्योंकि अन्य जातियों में उत्पन्न हुए भी ऋषि ब्राह्मण माने जाते हैं शृङ्गी ऋषि मृगी से उत्पन्न हुए ब्राह्मण माने जाते हैं, इसी तरह कौशक ऋषि कुशा से हुए, जाम्बुक ऋषि हुए, , वाल्मीकि वल्मीक से हुए, शशपृष्ठ से गौतम ऋषि, व्यास कैवर्तक कन्या से, वशिष्ठ उर्वशी से, अगस्त्य घट से, इतने ऋषि जाति से बिना भी पूर्व काल में ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञानी होने से ब्रह्मऋषि कहे जाते हैं, इससे जाति भी ब्राह्मण नहीं है।
चतुर्थ ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं है क्योंकि क्षत्रियादि भी ऋषभदेव, बृहद्रथ, जनक, तुलाधार वैश्य बहुत से परमार्थदर्शी आत्मज्ञानी हुए हैं, इससे ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं है।
पांचवां कर्म भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है क्योंकि सर्व प्राणियों के प्रारब्ध, संचित, आगामी यह तीन प्रकार के कर्म समान होने से कर्म भी ब्राह्मण नहीं है।
षष्ठा धार्मिक पुरुष भी ब्राह्मण नहीं हो सकता, क्योंकि मरुत, शिवि, रघु, कर्ण, बलि आदि बहुत से क्षत्रिय भी सुवर्ण आदि के दाता हुए हैं वे भी सर्व ब्राह्मण हुए चाहिये, इससे धार्मिक पुरुष भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है। यदि पूर्वोक्त यह ब्राह्मण नहीं हैं तो किसकी नाम ब्राह्मण है सो कहते हैं। जो कोई भी मनुष्य ब्रह्मस्वरूप आत्माअद्वितीय परमानन्द को जाति गुण क्रियादि से हीन को साक्षात् निश्चित अपरोक्षात्म रूप जानकर विरक्त जीवन्मुक्त हुआ स्थित है सो ही निश्चित हुआ ब्राह्मण कहा जाता है ||85||
न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्थिनः ।
न जातिरात्मनो जातिर्व्यवहारकल्पिता ||86||
निरालम्बोपनिषद् में कहा है कि न तो ब्राह्मणत्वादि जाति चर्म की है, न रक्त की है, न मांस की ही है और न अस्थि की है, और न जाति शुद्ध आत्मा की ही है, किन्तु ब्राह्मणत्वादि जाति की लोक व्यवहार के लिये कल्पना करी हुई है जाति से बिना व्यवहार सिद्ध नहीं होता है ||86||
यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रेति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गि
विदित्वास्माल्लोत्प्रेति स ब्राह्मणः ||87 ||
और बृहदारण्कोपनिषद् में गार्गी के पूछने पर याज्ञवल्क्य ने यथार्थ ब्राह्मण का ऐसा कहा है कि हे गार्गी जो पुरुष इस अविनाशी ब्रह्मात्मस्वरूप अक्षर को न जानकर मुक्तिद्वार इस मनुष्य देहरूप लोक से मरकर अन्य शरीर को प्राप्त होता है सो कृपण कहा जाता है। और जो पुरुष गुरु द्वारा महावाक्यों से इस अविनाशी अक्षर परमानन्द ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतत्त्व को जानकर इस दुःखरूप लोक से देहपात होने पर विदेहमोक्ष को प्राप्त है है गार्गी! सो पुरुष ही निश्चित ब्राह्मण कहा जाता है ||87||
शब्दब्रह्मणि निष्णातं परे च कृतनिश्चयम् ।
ब्रह्मज्ञानप्रतिष्ठं हि तं देवा ब्राह्मणं विदुः ||88||
महाभारत में कहा है कि शब्द ब्रह्मरूप वेद-वेदान्त में कुशल को परब्रह्म में एक आत्म-निश्चियकारी को तिस आत्मस्वरूप ब्रह्मज्ञाननिष्ठ पुरुष को ही देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं अन्य को नहीं ||88||
विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवत्स्थितम् ।
अस्वमेकवरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ||89||
सर्व दुर्जनों के संग से रहित विरक्त को, आकाश के समान सर्वदोषों से निर्लेप रूप से स्थित हुए ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत मननशील मुनि को, धनादि के स्वत्व से रहित तिस शान्तस्वरूप अकेले विचरने वाले विरक्त को देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं ||89||
कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते ।
तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ||90||
महाभारत में कहा है कि संसाररूप फल देने वाले कर्म करके प्राणी बन्धन को प्राप्त होते हैं और अद्वैतबोधक वेदान्त विद्या द्वारा संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं इस कारण से ही वीतराग यति महात्मा आत्मस्वरूप परब्रह्म के ज्ञाता ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतबोधक वेदान्तविद्या को छोड़कर कर्मों को नहीं करते हैं ||90||
नापृष्टः कस्यचिद्ब्रू यान्नचान्यायेन पृच्छतः ।
जानन्नपि हि मेधावी जड़वल्लोकमाचरेत्।।91।।
संन्यासोपनिषद् में कहा है कि विद्वान् विरक्त यति बिना पूछे से किसी के साथ भी न बोले क्योंकि सारग्राही जिज्ञासु के बिना दुराचारी के साथ बोलने में बिना विक्षेप के और कुछ लाभ नहीं। अस्तु दुराचारियों के साथ तो अन्याय से पूछने पर भी न बोले। जीवन्मुक्ति का सुख लेते हुए शास्त्रार्थ को जानते हुए और शंका का नवीन उत्तर देने में कुशलबुद्धि हुए भी यति को दुराचारियों के साथ न बोलकर संसार में जड़उन्मत्त के समान बिचरना श्रेष्ठ है ।।91।।
विदुषामथ शिष्याणां पुत्राणां च कृपावताम् ।
अपृष्टमपि वक्तव्यं श्रेयः श्रद्धावतां हितम् ||92||
पद्मपुराण में कहा है कि विद्याधिकारयुक्त, श्रद्धा-भक्तियुक्त शिष्यों के तथा शुभ पुत्रों के प्रति तो न पूछने पर भी हितकारी मोक्ष की शिक्षा दयाशील पिता गुरु आदि को कहना ही चाहिये। बिना पूछे न कहना यह कथन श्रद्धा-भक्ति हीन अनधिकारी शिष्य पुत्रों के लिये है ||92||
वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्वयोरपि ।
एक एव चरेत्तस्मात्कुमार्या इव कंकणम् ||93||
भागवत में कहा है कि जैसे कुमारी कन्या माता पिता के गृह में न होने पर गृह में आए अतिथि का सत्कार करने के लिये शीघ्रता से धान्य कूटने लगी। तब उसके हाथ की बहुत सी चूड़ियों का शब्द होने से उसने लज्जा कर दो चूड़ियों को छोड़कर सब चूड़ियां निकालदी जब दो चूड़ियां भी आपस में शब्द करने लगी तो उसमें से उसने एक चूड़ी निकाल दी।
जब एक ही रही तो शब्द न हुआ तैसे ही गुणग्राही दत्तात्रेय ने विचारा कि बहुत से व्यक्तियों के इकट्ठा वास करने में कलह होती है और दो व्यक्तियों के इकट्ठा रहने में भी व्यर्थ ही देश-देशान्तर की वार्ताएं होती हैं इस कारण से विद्वान् यति सर्व कलहादि दोषों से रहित कुमारी के कंकण के समान अकेला ही बिचरे ||93||
साऽहं तस्मिन्कुले जाता भर्तर्यसति मद्विधे ।
विनीता मोक्षधर्मेषु चराम्येका मुनिव्रतम् ||94||
महाभारत में जनक के शरीर में योगबल से प्रविष्ठ हुई प्रधान्य राजा की कन्या सुलभा जनक के पूछने पर कहती है कि हे राजन् ! तिस प्रधान्य राजा के कुल में उत्पन्न हुई सो मैं सुलभा मेरे समान आत्मविचारशील पति के न मिलने पर सर्व से विरक्त होकर परमानन्द मोक्ष के साधन विवेक-वैराग्य अद्वैतबोधक वेदान्तशास्त्र के श्रवण-मननादि धर्मों में शिक्षित हुई ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत मननशील मुनियों के व्रत को धारण कर अकेली विचरती हूँ ||94||
एकाकी निःस्पृहस्तिष्ठेन्नहि केन सहालपेत्।
दद्यान्नारायणेत्येव प्रतिवाक्यं सदा यतिः ||95||
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में यति के नियम कहे हैं ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैतज्ञाननिष्ठ होकर अकेला विचरे सर्व इच्छाओं से रहित स्थित हुआ किसी अनाधिकारी के साथ भाषण न करे, और दूसरे के ॐ नमोनारायणाय आदि शब्द कहने पर नारायण शब्द प्रत्युत्तर ही यति को सर्वदा देना चाहिये। भिक्षा के निमित्त भी नारायण शब्द ही उच्चारण करे अन्य शब्द न कहे ||95||
द्विविधश्चित्तनाशोऽस्ति सरूपोऽरूप एव च।
जीवन्मुक्तौ सरूपः स्यादरूपो देहमुक्तिगः ।।96।।
अन्नपूर्णोपनिषद् में कहा है कि चित्त का नाश दो प्रकार का है, एक तो सरूप मात्र ही होना और कार्य करने को शक्त न होना, जैसे भुना हुआ दाना स्वरूप मात्र से रहता है परन्तु अँकुर उत्पन्न करने की शक्ति न होने से सरूप नाश कहा जाता है। और दूसरा सरूप ही न रहना जैसे भुना हुआ दाना चाब लेने पर अत्यन्त रूप नाश होने का नाम अरूप कहा जाता है। जीवन्मुक्ति अवस्था में चित्त का सरूप नाश हो जाता है और देह के पात होने पर विदेहमुक्ति में चित्त का रूप ही न रहना सो अरूप नाम का नाश कहा जाता है।।96।।