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2. धर्म पुरूषार्थ

धर्म पुरूषार्थ

धर्म पुरूषार्थ

(गरुड़पु. काण्ड 1 अ. 15- श्लो. 23)

ततश्च यतते नित्यमात्मानात्मविचारणे ।

अध्यारोपापवादाभ्यां कुरुते ब्रह्म चिन्तनम् ||1||

जैसे श्रुतियों में अध्यारोपापवाद के विचार से आत्मा अनात्मा का निर्णय किया है तैसे ही गरुड़पुराण में कहा है कि मिथ्या वस्तु का सत्य वस्तु में आरोप करने का नाम अध्यारोप है और मिथ्या वस्तु का सत्य वस्तु में से निषेध करने का नाम अपवाद है पुरुष पूर्वजन्मकृत पुण्यपुञ्ज प्रभाव से आत्मा क्या वस्तु है और अनात्मा क्या वस्तु है इसका निश्चय करने के लिए नित्य यत्न करने में तत्पर होता है फिर अध्यारोप अपवाद से आत्मा ब्रह्म स्वरूप है इस अद्वैत चिन्तन को करता है।

विचार सहित पुरुष अद्वैत चिन्तन को करता है। विचाररहित पुरुष अद्वैत का चिन्तन नहीं कर सकता और अद्वैतचिन्तन के बिना मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता इस कारण से पुरुष को विचार ही कर्त्तव्य है ।। 1 ।।

विचारबोधक मन्त्र यह है-

(पैङ्गलो. अ. 2)

अविचारकृतोबन्धो विचारान्मोक्षो भवति ।

तस्मात्सदा विचारयेत्। अध्यारोपापवादतः

स्वरूपं निश्चयीक शक्यते ||2||

( मुक्तिको अ. 2 मंत्र 1 )

उच्छास्त्र शास्त्रितं चेति पौरुषं द्विबिधं मतम् ।

तत्रोच्छास्त्रमनर्थाय परमार्थाय शास्त्रितम् ||3||

पैङ्गल उपनिषद् में कहा है कि अविचारशील पुरुष को बन्धन होता है और विचारशील का मोक्ष होता है इसलिये पुरुष को विचार सदा कर्त्तव्य है। पुरुष अध्यारोपापवाद के विचार से ही आत्मा के स्वरूप का निश्चय कर सकता है ।।2।।

आत्मविचार शास्त्रविचार के बिना नहीं हो सकता इस कारण से पुरुष को शास्त्र का विचार अवश्य ही कर्त्तव्य है। मुक्तिकोपनिषद् में कहा है कि पुरुष का प्रयत्न दो प्रकार का है। एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्र से विरुद्ध, शास्त्र से विरुद्ध प्रयत्न अनर्थ का देने वाला है और शास्त्र के अनुसार प्रयत्न से परम अर्थ मोक्ष की प्राप्ति होती है ||3||

(देवीभा. स्कन्ध. 1 अ. 1- श्लो. 12)

येनकेनाप्युपायेन कालातिवाहनं स्मृतम् ।

व्यसनैरिह मूर्खाणां बुधानां शास्त्रचिन्तनैः ।।4।।

(महाभा. पर्व. 12 अ. 330 श्लो 1 )

अशोकं शोकनाशार्थं शास्त्रं शान्तिकरं शिवम् ।

निशम्य लभते बुद्धिं तां लब्ध्वा सुखमेधते ||5||

देवीभागवत में कहा है कि पुरुष जिस किसी भी प्रयत्न से काल को व्यतीत करते हैं। मूर्ख पुरुष जो हैं वो शास्त्रविरुद्ध विषयसेवन रूप व्यसनों में लगे हुए काल को व्यतीत करते हैं और विचारशील बुद्धिमान् जो पुरुष हैं वे आत्मज्ञानसंपादक शास्त्रचिन्तन करते हुए काल को व्यतीत करते हैं ।।4।।

महाभारत में कहा है कि शोकरहित रहने और शोकनाश के लिये इस लोक में शांतिप्रद और परलोक में कल्याणकारक शास्त्र ही है। उस शास्त्र को श्रवण करके पुरुष ऐसी शुद्ध बुद्धि को प्राप्त होता है जिसकी प्राप्ति से संसार में सदा परम सुख को भोगता है।। 5||

(गीता. अ. 16- श्लो. 23 )

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।6।।

(देवीभा. स्कन्ध. 11 अ. 1 श्लो. 27)

यो वेदधर्ममुज्झित्य वर्ततेऽन्य प्रमाणतः ।

कुण्डानि तस्य शिक्षार्थं यमलोके वसन्ति हि ।।7।।

गीता में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी अर्जुन से कहते हैं कि जो पुरुष शास्त्र की विधि को छोड़कर अपनी इच्छा के अनुसार धर्म सम्बन्धी कार्य करता है वह पुरुष किसी भी कार्य की सिद्धि को प्राप्त नहीं होता और इस लोक में यश रूपी सुख से और परलोक की गति रूप मोक्ष से वंचित रहता है ||6||

देवी भागवत में कहा है कि जो पुरुष वेद के विधान करे हुए धर्म को छोड़कर अपनी कपोल कल्पना के अनुसार कार्य करने को ही धर्म कहता है और श्रुति, स्मृति, पुराणों से विरुद्ध कार्य को धर्म मानता है, तिस पुरुष को शिक्षा देने के लिये यमलोक में बहुत से नरक कुण्ड बने हुए हैं ।।7।।

(भा. स्कन्ध. 6 अ. 5 श्लोक. 18)

ऐश्वरं शास्त्रमुत्सृज्य बन्धमोक्षानुदर्शनम् ।

विविक्तपदमज्ञाय किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।8।।

भागवत में कहा है कि ईश्वर के श्वासभूत बन्ध और मोक्ष को दिखाने वाले वेद शास्त्रों को छोड़कर और विवेकादि साधनों से जन्य जो अद्वैत ज्ञान तिस अद्वैत ज्ञान से प्राप्त होने के योग्य जो मोक्षरूप पद उस मोक्षरूप पद को न जानकर संसारचक्र में डालने वाले निषिद्ध कर्मों को करके पुरुष का क्या भला होगा ? तात्पर्य यह है कि ब्रह्मज्ञान की अपेक्षा से यज्ञादिक कर्म भी निकृष्ट कहे हैं। क्योंकि पुरुष यज्ञादिक कर्म से स्वर्ग को प्राप्त होता है। परन्तु पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में आना पड़ता है इस प्रकार से संसारचक्र से नहीं छूटता ।|8।।

(सूतसं खण्ड. 1 अ. 1 श्लो. 34 )

यश्चतुर्वेदविद्विप्रः पुराणं वेत्ति नार्थतः|

तं दृष्ट्वा भयमाप्नोति वेदो मां प्रतरिष्यति ।।9।।

(अत्रिस्मृति श्लो. 348)

श्रुतिः स्मृतिश्च विप्राणां नयने द्वे प्रकीर्तिते ।

काण: स्यादेकहीनोऽपि द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ।।10।।

 सूतसंहिता में कहा है कि जो ब्राह्मण चारों वेदों का जानने वाला है परन्तु पुराणों के अर्थ को नहीं जानता ऐसे पुरुष को देखकर वेद भय को प्राप्त होते हैं। क्योंकि पुराणों के अर्थ को न जानने वाला उलटा अर्थ का अनर्थ कर देता है ||9||

अत्रिस्मृति में कहा है कि श्रुति, स्मृति यह ब्राह्मणों के दो नेत्र हैं जिसने केवल वेद को ही पढ़ा है और स्मृति का अध्ययन नहीं किया वह पुरुष काणा है और जो पुरुष श्रुति और स्मृति दोनों को नहीं पढ़ा उसको अंधा कहा है। स्मृति शब्द से पुराणों का भी ग्रहण करना ||10||

( व्यासस्मृति. अ. 1- श्लो, 4)

श्रुति स्मृति-पुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते ।

तत्र श्रौतं प्रमाणं तु तयोर्द्वधे स्मृतिर्वरा ||11||

(नैष्कर्म्यसिद्धि. अ. 1-श्लो. 29 )

हितं संप्रेप्सतां मोहादहितं च जिहासताम् ।

उपायान्प्राप्तिहानार्थान्शास्त्रं भासयतेऽर्कवत् ।।12।।

व्यासजी कहते हैं श्रुति, स्मृति और पुराणों का जहाँ आपस में विरोध देखने में आवे वहाँ श्रुति को मुख्य मानकर स्मृति और पुराण की श्रुति के अनुसार व्यवस्था की जाती है। और स्मृति पुराण दोनों में स्मृति का प्रमाण मुख्य माना जाता है।।11।।

नैष्कर्म्य सिद्धि में कहा है कि पुरुष का हित जो मोक्ष है उस मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा वालों को तथा अहित रूप दुःख के त्याग की इच्छा वालों को श्रुति, स्मृति, पुराण रूप जो तीन सर्व शुभ-अशुभ का प्रकाशक शास्त्र हैं वो मोक्ष प्राप्ति के साधनों को और दुःख की निवृत्ति के साधनों को प्रकाशते हैं जैसे सर्व को सूर्य भगवान् प्रकाश करते हैं ।।12।।

(महाभा. पर्व 12 अ. 175- श्लो. 35)

नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः ।

नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ।।13।।

( नरसिंह पु. अ. 16 श्लो. 13)

आहारनिद्राभयमैथुनानि समानमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।

ज्ञानं नराणामधिकं हि लोके ज्ञानेन हीनः पशुभिः समानः ।।14।।

महाभारत में कहा है कि विद्या के समान संसार में कोई नेत्र नहीं है (क्योंकि विद्वान पुरुष ही अधर्मरूप खड्डे को और धर्मरूप अच्छे रास्ते को देख सकता है) और सत्य भाषण के समान कोई तप नहीं है। पदार्थों में राग के समान और कोई दुःख नहीं है। देखो मांस में रागवाले काक, कुत्ता, गिद्ध आदिकों की कलह होती है। बिना रागवालों की कलह नहीं होती। इस कारण से पदार्थों में रागत्याग के समान और कोई सुख नहीं है ॥13॥

नरसिंह पुराण में कहा है कि भोग पदार्थों में रागवाला पुरुष पशु के समान है। खाना, पीना, सोना, भय, स्त्री भोगना यह सर्व पुरुषों में और पशुओं में समान है। आत्मा का अद्वैत रूप से ज्ञान होना ही पुरुषों में पशुओं से अधिकता है। ज्ञान से हीन सर्व मनुष्य पशु हैं।।14।।

(महो. अ. 3 मंत्र 14 )

जातास्त एव जगति जन्तवः साधुजीवितः ।

पुनर्वेह ये जायन्ते शेषा जरठगर्दभाः ||15||

महोपनिषद् में उन पुरुषों का ही संसार में उत्पन्न होना सफल कहा है जो पुरुष श्रेष्ट कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं और शास्रोक्त साधनों से अद्वैत ब्रह्मज्ञान को सम्पादन कर पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होते और जो पुरुष अद्वैत ब्रह्मज्ञान से रहित हैं वे बूढ़े गर्दभ के समान हैं। जैसे बूढ़े गर्दभ के ऊपर बोझा पूरा लादते हैं और खाने को घास आदि पूरा देते नहीं ऐसे ही अज्ञानी की दशा होती है। ||15||

(केनो. खण्ड. 2 मंत्र 5)

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।।16।।

(योग. प्रकरण. 6 उत्तरार्ध, सर्ग. 33- श्लो. 14)

इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः ।

गत्वा निरौषधं स्थानं सरुजः किं करिष्यति ||17||

केनोपनिषद् में कहा है कि इस मनुष्य शरीर में जिसने आत्म ब्रह्मस्वरूप को जान लिया है वह जन्म मरण से रहित ब्रह्मस्वरूप हो जाता है और आत्मा को न जानकर पुरुष संसार चक्र में घटी यन्त्र के समान चौरासी लाख योनियों में भटकता है।।16।।

योगवासिष्ठ में कहा है जिस पुरुष ने इस मनुष्य देह में अज्ञानरूप नरक व्याधि की आत्मज्ञानरूपी चिकित्सा नहीं की वह पुरुष आयु के व्यतीत हो जाने के पीछे आत्मज्ञानरूपी औषधि से रहित और आत्मबोध करानेवाले गुरुरूपी वैद्य से रहित स्थान जो लक्ष चौरासी योनि है उसके चक्र में पड़कर अज्ञानरूपी रोग के सहित फिर क्या कर सकेगा। क्योंकि पशु आदि योनियों में यह जीव कल्याणकारी कार्य कुछ नहीं कर सकता है।।17।।

(भा. स्कन्ध. 11 अ. 7 – श्लो. 74)

यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारपावृतम् |

गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः ||18||

भागवत में यदुराजा दत्तात्रेय अवधूत से नमस्कार कर श्रद्धा से पूछते हैं कि हे महाराज आप सर्व पदार्थों से उपराम हुए प्रसन्नमुख सर्व चिन्ताओं से रहित निर्भय होकर जंगल में पड़े हो आपने यह आनन्दकारी शिक्षा कहाँ से प्राप्त करी है ?

दत्तात्रेयजी कहते हैं हे राजन् । जो पुरुष मुक्ति के खुले द्वाररूप मनुष्य देह को प्राप्त कर

कपोत पक्षी की तरह गृह, सम्बन्धी, पुत्रादिकों में आसक्त रहता है उसकी ऋषि लोग मुक्ति का द्वारभूत जो मनुष्य देह उससे पतित पशुरूप कहते हैं ।।18।।

कपोत पक्षी की कथा

किसी जंगल में एक कपोत की स्त्री ने कई बच्चे दिये। उन बच्चों को किसी पक्षीघातक ने जाल में फांदकर मार लिया तब कपोत की स्त्री ने बिचारा कि मेरा अब बच्चों के बिना जीवन किसी काम का नहीं है, इस कारण पुत्रों के मोह से जाकर जाल में पड़ गई। ऐसे ही कपोत पक्षी भी जा पड़ा। तब पक्षीघातक सबको मार बांधकर चल दिया इस प्रकार गृहस्थ सम्बन्धी पुत्रादिकों में रागकर सर्वनाश को प्राप्त हो गये। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि इस हेतु से मैं किसी पदार्थ में राग नहीं करता हूँ।

(देवाभा. स्कन्ध. 6-अ. 15- श्लो. 55 )

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ।

आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ।।19।।

देवी भागवत में कहा है कि कर्म वही है जिससे बन्धन की प्राप्ति न हो और विद्या वही है जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो । निष्काम कर्म के अतिरिक्त जो कर्म है सो जन्मरणरूप परिश्रम के देने वाले हैं और मुक्ति को देने वाली जो ब्रह्मविद्या है इसके अतिरिक्त जो विद्या है वह केवल शिल्प विद्यादि जीविका के ही निमित्त है ।।19।।

(शुकरहस्यो. मं. 14)

अन्यविद्यापरिज्ञानमवश्यं नश्वरं भवेत् ।

ब्रह्मविद्यापरिज्ञानं ब्रह्मप्राप्तिकरं स्थितम् ||20||

(मनुस्मृ. अ. 2-श्लो. 151-152)

अध्यापयामास पितॄन् शिशुरंगिरसः कविः ।

पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान् ।।21।।

न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः ।

ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽन्चानः स नो महान् ।।22।।

ब्रह्मविद्या से अतिरिक्त अन्य विद्या का फल अवश्य ही नाशवान् होता है और अद्वैतबोधक जो ब्रह्मविद्या है उसका फल सच्चिदानन्द ब्रह्म की प्राप्ति है, यह वार्ता शुकरहस्योपनिषद् में कही है ।।20||

मनु भगवान् कहते हैं और महाभारत में भी कहा है कि दधीच ऋषि का पुत्र अंगिरस बालक सरस्वती से पालित होने से उसका नाम सारस्वत भी है और सरस्वती ने ही उसको शास्त्र पढ़ाये थे। किसी काल में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ गया तब ऋषियों को अत्र और कन्द, मूल, फलादि की प्राप्ति न होने से ऋषि सर्व विद्याओं को भूल गये ऐसी दशा में सारस्वत से सरस्वती ने कहा हे वत्स । तुम इस काल में कहीं न जाना तुम्हारे खानपान का प्रबन्ध मैं करूँगी।

इस हेतु से सारस्वत विद्या को नहीं भूले जब सुभिक्ष काल हुआ तब सर्व ऋषि एकत्रित हुए और आपस में कहने लगे हम सर्व विद्या भूल गये हैं अब किसी विद्वान् की तलाश करना चाहिये। तब खोज करते हुए सर्व ऋषि सारस्वत के पास में आये और कहा हम लोग दुर्भिक्ष के कारण से अन्नादि की अप्राप्ति से सर्व विद्या भूल गये हैं और आप सरस्वतीजी की कृपा से नहीं भूले हैं इसलिए आप हमें विद्या पढ़ावें। तब सारस्वत यथायोग्य सत्कार कर कहने लगे बहुत अच्छी बात है।

तब सर्वशास्त्र के ज्ञाता ब्रह्मज्ञानी अंगिरसबालक सर्व ऋषियों को हे पुत्रों ! इस सम्बोधन को देकर पढ़ाते भये ऋषियों ने कहा हे बालक ! हमारे को आप पुत्र का सम्बोधन क्यों देते हो हम तो वृद्ध हैं, आपके पितामह के समान हैं। तब सारस्वत ने कहा इसका निर्णय पूर्व देवताओं और ऋषियों ने किया हुआ है। पूर्वज महर्षियों ने कहा है कि हमारे लोगों में जो वर्षों में अधिक हो सो वृद्ध नहीं माना जाता और केशों के सफेद होने से भी वृद्ध नहीं माना जाता, बहुतसा धन होने से बहुत से बन्धु परिवार होने से भी वृद्ध नहीं माना जाता है किन्तु जो विद्या में हमसे अधिक होता है सोई वृद्ध माना जाता है।

विद्या में भी जीवब्रह्म की एकता की बोधक जो ब्रह्मविद्या है उस ब्रह्मविद्या को जो जानने वाला है वह चाहे बालक हो अथवा युवा हो अथवा वृद्ध हो ऐसा ब्रह्मवेत्ता वृद्ध माना जाता है। इस प्रकार की धार्मिक व्यवस्था को ऋषि लोग स्थापन करते भये ऐसी शास्त्र की वार्ता को श्रवण करके ऋषि लोग ‘हे पुत्रों !’ इस सम्बोधन को उचित मानते भये । अस्तु विद्वान् बालक भी पूज्यनीय है ॥ 22॥

( महाभा पर्व 1 अ. 51 श्लो. 52)

मुष्टिं मुष्टिं ततः सर्वे दर्भाणां ते ह्यपाहरन् ।

तस्यासनार्थं विप्रर्षे बालस्यापि वशे स्थिताः ||23||

(शिवपु. संहिता. 2- खण्ड 4- अ. 19- श्लो. 52)

बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् ।

कूपे सिंहो मदोन्मत्तश्शशकेन निपातितः ||24||

महाभारत में कहा है कि अवस्था-वृद्ध भी ऋषि लोग बालक सारस्वत ऋषि के आसन के लिए एक-एक मुट्ठी दाभ की लाते भये और बालक ऋषि सारस्वत की आज्ञा में स्थित होते भये ऐसा विद्या का महत्व है ।। 23।।

शिव पुराण में कहा है कि जो पुरुष बुद्धिमान् है सोई बलवान् है। निर्बुद्धि पुरुष का बल किसी काम का नहीं जैसे बलवान् मस्त हुए निर्बुद्धि सिंह को एक छोटे से शशे ने अपनी बुद्धि के बल से कूप में गिरा कर मार दिया, ऐसे ही मन रूपी शशा शास्त्रविचारूपी बुद्धिबल से अज्ञानरूपी सिंह जो पुनः पुनः जन्म मरण का देने वाला है उसको ज्ञानरूपी कूप में गेर कर मार डालता है फिर निर्भय मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। |24।।

गाथा

एक वन में बलाहंकार से मस्त हुआ एक सिंह रहता था। वह रोज बहुत से पशुओं को मार देता था और खाता किसी एक को ही था। तब वन के सर्वपशुओं ने मिलकर विचार किया कि हम बनचारी एक – एक जाति के रोज बहुत से मारे जाते हैं किसी रोज बहुत सी जातियों का अत्यन्त नाश ही हो जायेगा और यह सिंह वन का राजा है हमारे को इसका आहार रूपी अवश्य ही देना पड़ेगा ऐसा विचार कर सर्ववनचारी मिलकर सिंह के पास गये।

और कहा है कि वनराज ! आप कहीं जाने का परिश्रम न उठायें हमारे में से आपके भोजन के लिये एक पशु रोज प्रातः काल में बारी-बारी से आ जाया करेगा तब सिंह ने कहा बहुत अच्छा इस प्रकार एक पशु रोज सिंह के भोजन के लिए बारी-बारी से जाता रहा और सिंह उसको खाता रहा। एक दिन एक शशे की बारी आई तब वह शशा विचार कर कुछ देरी से सिंहके पास पहुँचा, तब सिंह ने कहा ‘अरे शशे ! तुम बहुत देरी से आये हो क्या तुमको हमारा डर नहीं है।

तब शशे ने कहा महाराज आपका तो बहुत डर है परन्तु मेरा एक सहोदर भाई था उसकी इस वन में एक और सिंह है उसके भोजन के लिये जाने की बारी थी हम अन्तकाल का मिलना जानकर कुछ वार्ता करते रहे इससे देर हो गई। यह सुन सिंह ने कहा मेरे से भिन्न जो दूसरा सिंह है वह कहाँ है चलो दिखलाओ। तब शशा आगे और सिंह पीछे दूसरे सिंह की खोज में चले।

चलते-चलते एक कूप के पास जाकर शशे ने सिंह से कहा इस कूप में देखो तब सिंह को प्रतिबिम्बरूप शशा और सिंह देखने में आये तब सिंह ने शब्द किया तो कूप में भी प्रतिध्वनि रूप शब्द हुआ तब सिंह उस अपने ही प्रतिबिम्ब को अपना शत्रु दूसरा सिंह मानकर कूप में कूद पड़ा और मर गया और शशा निर्भय होकर सर्व पशुओं को भी निर्भय करता भया। ऐसा बुद्धि का महत्व है।

(स्कन्द पु. खण्ड 1-अ. 3- श्लो. 45)

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते ।

त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ॥ 25॥

(योग. प्रकरण. 1-सर्ग. 33 – श्लो. 44 )

यतन्ते सारसंप्राप्तौ ये यशो निधयो धियः ।

धन्या धूरिसतां गण्यास्त एवं पुरुषोत्तमाः ||26||

स्कन्दपुराण में विष्णु भगवान् दक्ष से कहते हैं कि पूजनीय ब्रह्मनिष्ठ विद्वान् जिस देश में तथा जिन घरों में नहीं पूजे जाते और नहीं पूजने योग्य मूर्ख पूजे जाते हैं उस देश में तथा उन घरों में तीन कष्ट प्राप्त होते हैं। एक तो अनावृष्टि से अकाल पड़ना दूसरा बीमारी पड़ जाना, तीसरा बिजली, भूकम्प आदि से भय होना यह तीन कष्ट होते हैं। पूजनीय महादेव का पूजन न करने से आपको एक कष्ट अवश्य ही होगा ।। 25।।

वसिष्ठजी कहते हैं कि जो पुरुष ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों की सेवा सत्संग कर अद्वैत ब्रह्मज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं वे पुरुष यश के निधि हैं और श्रेष्ठ पुरुषों में अग्रगण्य हैं और वे ही पुरुषों में उत्तम माने जाते हैं ॥ 26॥

( महाभा. पर्व 12-अ. 321 – श्लो. 80 )

सोपानभूतं स्वर्गस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् ।

तथात्मानं समादध्याभ्द्रश्यते न पुनर्यथा ॥ 27॥

( महाभा. पर्व 12-अ. 321- श्लो. 73)

श्वकार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने चापराह्निकम् ।

न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वाकृतम् ||28||

महाभारत में व्यासजी शुकदेवजी से कहते हैं कि हे शुक ! स्वर्ग को प्राप्त होने के लिये सीढ़ी रूप दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर आत्मा और ब्रह्म का अभेदरूप से ऐसे विचार करना चाहिये कि जिससे फिर संसार चक्र में पतित नहीं होना पड़े ।।27||

महाभारत में कहा है कि जो कार्य कल को करना है उसको आज ही कर लेना चाहिए और जो कार्य सायंकाल को करना है उसको प्रातः काल में ही कर लेना चाहिये क्योंकि जीव के भोग समाप्त होने पर फिर मृत्यु प्रतीक्षा नहीं करता कि इसने तीर्थ, व्रत, दान, धर्म तो सर्वकर लिये हैं किन्तु जीव-ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतज्ञान को अभी प्राप्त नहीं किया है। निजात्म ज्ञान को और प्राप्त कर लेवें एक दो मास और छोड़ दो ऐसे काल नहीं छोड़ता है ॥28॥

(सूत सं. खण्ड 2- अ. 1- श्लो. 36)

महापातकसंघाश्च नित्यं वेदान्तसेवनात् ।

नश्यन्ति वत्सरात्सर्वे सत्यमुक्तं बृहस्पते ॥ 29॥

(अक्ष्यु. म. 8)

मनसा कर्मणा वाचा सज्जनानुपसेवते ।

यतः कुतश्चिदानीय नित्यं शास्त्रण्यवेक्षते ॥ 30॥

तो पुरुष का क्या कर्त्तव्य है सो सूत संहिता में महादेवजी कहते हैं कि हे बृहस्पते ! एक वर्ष पर्यंत नित्य वेदान्त का चिन्तन करने से सर्व महापातकों का नाश हो जाता है यह कथन शास्त्र का सत्य ही है वेद के अन्त में होने से ईशावास्य आदि उपनिषदों का नाम वेदान्त है। वेदान्त शास्त्र में केवल अद्वैत का निरूपण है और अद्वैत चिन्तन से सर्व पापों का नाश होना उचित ही है ॥ 29॥

अक्ष्युपनिषद् में कहा है कि श्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों की मनवाणी शरीर से सेवा करना चाहिये और जहाँ तहाँ से विद्वानों को प्रार्थना पूर्वक लाकर अद्वैतबोधक वेदान्त शास्रों का श्रवण करना और नित्य वेदान्त शास्त्रों का चिन्तन करते हुए काम क्रोधादि को अवकाश न देना चाहिए ॥ 30॥

(पद्मपु. खण्ड. 3-अ. 1-श्लो. 6)

साधु संगाद्भवेद्विप्र शास्त्राणां श्रवणं प्रभो ।

हरिभक्तिर्भवेत्तस्मात्ततो ज्ञानं ततो गतिः ।।31।।

पद्मपुराण में जैमिनि व्यासजी से पूछते हैं हे भगवन् ! कलियुगी पुरुषों के कल्याण का रास्ता कौनसा है ? तब व्यासजी कहते हैं कि हे विप्र ! साधु महात्माओं के सत्संग से वेदान्त का श्रवण होता है जिससे पापों के हरने वाले हरि परमात्मा में भक्ति होती है और भक्ति से अद्वैत ब्रह्मज्ञान होता है तिस ज्ञान से परमानन्द की प्राप्ति और अनर्थ की निवृत्ति रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही कल्याण का रास्ता है।। 31।।

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