15. धर्म के चिन्ह और महत्व

1. धर्म के फल

धर्मस्य तस्य लिंगानि दया क्षांतिरहिसनम् ।

तपो दानं च शीलं च सत्यं शौचं वितृष्णता ।१।

अर्थ – धर्मस्येति दया, शान्ति, अहिंसा, (वृथा जीवों को न मारना) तप, दान, शील, (सुन्दर स्वभाव) सत्य, पवित्रता तथा संतोष यह दश धर्म के चिन्ह हैं ।

सत्यादुत्पद्यते धर्मो दया दानाद्विवर्द्धते ।

क्षमया तिष्ठते धर्मः क्रोधाद्धर्मो विनश्यति |२|

अर्थ- सत्यादिति सत्य से धर्म उत्पन्न होता है और दया दान से बढ़ती है। क्षमा से धर्म स्थिर रहता है और क्रोध से धर्म नष्ट हो जाता है।

राज्यं च संपदा भोगाः कुले जन्म सुरूपता ।

पाण्डित्यमायुरारोग्यं धर्मस्यैतत्फलं विदुः | ३|

अर्थ- राज्यमिति राज्य प्राप्ति, सम्पदा, भोग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल में जन्म, सौन्दर्य, चतुराई, आयु और आरोग्यता, यह सब धर्म के फल हैं–अर्थात् धर्म करने से यह सुखादि प्राप्त होते हैं।

धर्मे रागः श्रुतेश्चिता दाने व्यसनमुत्तमम् ।

इन्द्रियार्थेषु वैराग्य’ संप्राप्तं जन्मनः फलम् |४|

अर्थ- धर्मे रागइति- जिस मनुष्य का धर्म में प्रेम वेदों का विचार, दान करने का स्वभाव इन्द्रियों के विकारों से उदासीनता हो उसका जन्म सफल जानो ।

2. धर्म के बिना जीवन की शोभा

यथा चन्द्र बिना रात्रिः कमलेन सरोवरम् ।

तथा न शोभते जीवो बिना धर्मेण सर्वथा । ५ ।

अर्थ-यथेति जैसे चन्द्र के बिना रात्रि और कमलों के बिना तालाब शोभा नहीं देते, वैसे धर्म के बिना जीव भी शोभा नहीं पाता ।

क्षान्त्या सम तपो नास्ति सन्तोषान्नापरं सुखम् ।

नास्ति विद्यासमं दानं नास्ति धर्मोदयापरा |६|

अर्थ- क्षान्त्येति-संसार शांति के समान तप और संतोष जैसा सुख, विद्या के समान दान और दया से परे कोई धर्म नहीं है ।

3. धर्म की उचितता

धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोपि न जायते ।

अजागलस्यनस्येव तस्य जन्म निरर्थकन | ७|

अर्थ-धर्मार्थेति-धर्म, अर्थ (धन) काम, (इच्छा) मोक्ष (मुक्ति) इन चारों में से यदि एक भी पुरुष के बीच में नहीं तो उस मनुष्य का जन्म बकरी के कष्ठोत्पन्न स्तन के समान निष्फल है।

धर्मः पार्श्वे हि वै नित्यं चतुर्वर्ग फलप्रदा ।

अतो यथा तथा धर्मं धारयेद् बुद्धिमान्नरा ||8||

अर्थ – धर्मइति-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-इन चार फलों को देने वाला धर्म हमारे पास ही में सदा विराजमान है।  ऐसे विचार कर बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह जैसे भी हो सके वे से धर्म करता रहे।

नागो भाति मदेनकं जलरुहैः पूर्णेन्दुना शर्वरी|

शोलेन प्रमदा जवेन तुरगो नित्योत्सवैर्मन्दिरम||

वाणी व्याकरणेन हंसमिथुनैर्नद्यः सभा पण्डितैः ।

सत्पुत्रेण कुलं नृपेण वसुधा लोकत्रयं धार्मिकैः ||9||

अर्थ – नागइति-हाथी मद से, जल कमलों से, रात्री पूर्ण चन्द्रमा से स्त्री स्वभाव से, अश्व शीघ्र गति से, गृह सदा उत्सवों से, बाणी व्याकरण से, नदियां हंस पक्षी के जोड़ों से, सभा पंडितों से, कुल श्रेष्ठ पुत्र से, पृथिवी राजा से और त्रिलोकी धर्मी पुरुषों से शोभा पाते हैं ।

सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तवकार्यः ।

सुखितस्य तदभिवृद्धयै दुःख भुजस्तदुपघाताय ॥10॥

अर्थ- सुखितस्येति मनुष्य चाहे सुखी हो या दुखी परन्तु संसार में धर्म उसे अवश्य करना चाहिये, क्योंकि सुखी को अपने सुख वृद्धि के लिए, दुःखी को अपने दुःख निवृत्ति के लिये अवश्य करणीय है।

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