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113. ध्रुव तारा की कथा एवम ध्रुव का वनगमन

ध्रुव

ध्रुव की कथा

स्वायम्भुव मनु के पुत्र

मैंने तुम्हें स्वायम्भुवमनुके प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान् और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे।  उनमेंसे उत्तानपादकी प्रेयसी पत्नी सुरुचिसे पिताका अत्यन्त लाडला उत्तम नामक पुत्र हुआ । उस राजाकी जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था । उसका पुत्र ध्रुव हुआ ।

ध्रुव की इच्छा और विमाता का तिरस्कार

एक दिन राजसिंहासन पर बैठे हुए पिताकी गोदमें अपने भाई उत्तमको बैठा देख ध्रुवकी इच्छा भी गोदमें बैठनेकी हुई । किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचिके सामने , गोदमें चढ़नेके लिये उत्कण्ठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्रका आदर नहीं किया।अपनी सौतके पुत्रको गोदमें चढ़नेके लिये उत्सुक और अपने पुत्रको गोदमें बैठा देख सुरुचि इस प्रकार कहने लगी । ” अरे लल्ला बिना मेरे पेटसे उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्रीका

पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? तू अविवेकी है , इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकी इच्छा करता है । यह ठीक है कि तू भी इन्हीं राजाका पुत्र है , तथापि मैंने तो तुझे अपने गर्भमें धारण नहीं किया । समस्त चक्रवर्ती राजाओंका आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्रके योग्य है ; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्तको सन्ताप देता है ? मेरे पुत्रके समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है ? क्या तू नहीं जानता कि तेरा जन्म सुनीतिसे हुआ है ? ”  विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोड़कर अपनी माताके महलको चल दिया ।

ध्रुव का क्रोध और माँ सुनीति की सांत्वना

ध्रुवके ओष्ठ कुछ – कुछ काँप रहे थे – ऐसे अपने पुत्रको क्रोधयुक्त देख सुनीतिने उसे गोदमें बिठाकर पूछा- ” बेटा ! तेरे क्रोधका क्या कारण है ? तेरा किसने आदर नहीं किया ? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजीका अपमान करने चला है ? ”  ऐसा पूछनेपर ध्रुवने अपनी मातासे वे सब बातें कह जो अति गर्वीली सुरुचिने उससे पिताके सामने कही थीं । अपने पुत्रके सिसक सिसककर ऐसा कहनेपर दुःखिनी सुनीतिने खिन्नचित्त और दीर्घ निःश्वासके कारण मलिननयना होकर कहा ।

सुनीति बोली- बेटा ! सुरुचिने ठीक ही कहा है , अवश्य ही तू मन्दभाग्य है । हे वत्स ! पुण्यवानोंसे उनके विपक्षी ऐसा नहीं कह सकते । बच्चा ! तू व्याकुल मत हो , क्योंकि तूने पूर्व – जन्मोंमें जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है ? और जो नहीं किया वह तुझे दे भी कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्योंसे खेद नहीं करना चाहिये ।

जिसका पुण्य होता है उसीको राजासन , राजच्छत्र तथा उत्तम – उत्तम घोड़े और हाथी आदि मिलते हैं | ऐसा जानकर तू शान्त हो जा । अन्य जन्मोंमें किये हुए पुण्य – कर्मोंके कारण ही सुरुचिमें राजाकी सुरुचि ( प्रीति ) है और पुण्यहीना होनेसे ही मुझ – जैसी स्त्री केवल भार्या ( भरण करनेयोग्य ) ही कही जाती है । उसी प्रकार उसका पुत्र उत्तम भी बड़ा पुण्यपुंज – सम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान् है ।

तथापि बेटा ! तुझे दुःखी नहीं होना चाहिये , क्योंकि जिस मनुष्यको जितना मलता है वह अपनी ही पूँजीमें मग्न रहता है और यदि सुरुचिके वाक्योंसे तुझे अत्यन्त दुःख ही हुआ है तो सर्व फलदायक पुण्यके संग्रह करनेका प्रयत्न कर । तू सुशील , पुण्यात्मा , प्रेमी और समस्त प्राणियोंका हितैषी बन , क्योंकि जैसे नीची भूमिकी ओर ढलकता हुआ जल अपने – आप ही पात्रमें आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्यके पास स्वत : ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती हैं ।

ध्रुव का निर्णय और तपस्या की ओर प्रस्थान

ध्रुव बोला- माताजी ! तुमने मेरे चित्तको शान्त करनेके लिये जो वचन कहे हैं वे दुर्वाक्योंसे बिंधे हुए मेरे हृदयमें तनिक भी नहीं ठहरते । इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकोंसे आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ । राजाकी प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदरसे जन्म भी नहीं लिया है , तथापि हे माता ! अपने गर्भमें बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना । उत्तम , जिसको उसने अपने गर्भमें धारण किया है , मेरा भाई ही है ।

पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे । [ भगवान् करें ] ऐसा ही हो । माताजी ! मैं किसी दूसरेके दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ ; मैं तो अपने पुरुषार्थसे ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजीने भी नहीं प्राप्त किया है । मातासे इस प्रकार कह ध्रुव उसके महलसे निकल पड़ा और फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवनमें पहुँचा । वहाँ ध्रुवने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरोंको सन कृष्ण मृग – चर्मके बिछौनोंसे युक्त आसनोंपर बैठे देखा ।

उस राजकुमारने उन सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा । ध्रुवने कहा- हे महात्माओ ! मुझे आप सुनीतिसे उत्पन्न हुआ राजा उत्तानपादका पुत्र जानें । मैं आत्मग्लानिके कारण आपके निकट आया हूँ । ऋषि बोले- राजकुमार ! अभी तो तू चार – पाँच वर्षका ही बालक है । अभी तेरे निर्वेदका कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता । तुझे कोई चिन्ताका विषय भी नहीं है , क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नहीं देता । तथा हमें तेरे शरीरमें भी कोई व्याधि नहीं दीख पड़ती फिर बता , तेरी ग्लानिका क्या कारण है ?

 तब सुरुचिने उससे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया । उसे सुनकर वे ऋषिगण आपसमें इस प्रकार कहने लगे । ‘ अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है , जिससे बालकमें भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाताका कथन उसके हृदयसे नहीं टलता ‘ । हे क्षत्रियकुमार ! इस निर्वेदके कारण तूने जो कुछ करनेका निश्चय किया है , यदि तुझे रुचे तो , वह हमलोगोंसे कह दे और हे अतुलित तेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें , क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तू कुछ कहना चाहता है – ध्रुवने कहा- हे द्विजश्रेष्ठ ! मुझे न तो धनकी इच्छा है और न राज्यकी ; मैं तो केवल एक उसी स्थानको चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोगा हो ।

आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भली प्रकार यह बता दें कि क्या करनेसे वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है । मरीचि बोले – हे राजपुत्र ! बिना गोविन्दकी आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता ; अतः तू श्रीअच्युतकी आराधना कर ।अत्रि बोले- जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे सन्तुष्ट होते हैं उसीको वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य – सत्य कहता हूँ । अंगिरा बोले- यदि तू अग्र्यस्थानका इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युतमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है , उन गोविन्दकी ही आराधना कर । पुलस्त्य बोले – जो परब्रह्म , परमधाम और परस्वरूप हैं , उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता है ।

ध्रुवने कहा- हे महर्षिगण ! मुझ विनीतको आपने आराध्यदेव तो बता दिया । अब उसको प्रसन्न करनेके लिये मुझे क्या जपना चाहिये – यह बताइये । महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी चाहिये , वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये । ऋषिगण बोले- हे राजकुमार ! विष्णुभगवान्की आराधनामें तत्पर पुरुषोंको जिस प्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत् श्रवण कर ।

मनुष्यको चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे चित्तको हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधारमें ही स्थिर कर दे । हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मयभावसे जो कुछ जपना चाहिये , वह सुन – ‘ ॐ हिरण्यगर्भ , पुरुष , प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्ध ज्ञानस्वरूप वासुदेवको नमस्कार है ‘ । इस ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) मन्त्रको पूर्वकालमें तेरे पितामह भगवान् स्वायम्भुव मनुने जपा था । तब उनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनार्दनने उन्हें त्रिलोकीमें दुर्लभ मनोवांछित सिद्धि दी थी । उसी प्रकार तू भी इसका निरन्तर जप करता हुआ श्रीगोविन्दको प्रसन्न कर ।

ध्रुव की तपस्या

 यह सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियोंको प्रणामकर उस वनसे चल दिया और अपनेको कृतकृत्य – सा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधु नामक वनमें आया । आगे चलकर उस वनमें मधु नामक दैत्य रहने लगा था , इसलिये वह इस पृथ्वीतलमें मधुवन नामसे विख्यात हुआ । वहीं मधुके पुत्र लवण नामक महाबली राक्षसको मारकर शत्रुघ्नने मधुरा ( मथुर ) नामकी पुरी बसायी । जिस ( मधुवन ) में निरन्तर देवदेव श्रीहरिकी सन्निधि रहती है उसी सर्वपापापहारी तीर्थमें ध्रुवने तपस्या की । मरीचि आदि मुनीश्वरोंने उसे जिस प्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने हृदयमें विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवान्का ध्यान करना आरम्भ किया ।

इस प्रकार हे विप्र ! अनन्य – चित्त होकर ध्यान करते रहनेसे उसके हृदयमें सर्वभूतान्तर्यामी भगवान् हरि सर्वतोभावसे प्रकट हुए । हे मैत्रेय ! योगी ध्रुवके चित्तमें भगवान् विष्णुके स्थित हो जानेपर सर्वभूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी उसका भार न सँभाल सकी । उसके बायें चरणपर खड़े होनेसे पृथिवीका बायाँ आधा भाग झुक गया और फिर दाँयें चरणपर खड़े होनेसे दायाँ भाग झुक गया और जिस समय वह पैरके अँगूठेसे पृथिवीको ( बीचसे ) दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित हो गया । हे महामुने ! उस समय नदी , नद और समुद्र आदि सभी अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोभसे देवताओं में भी बड़ी हलचल मची ।

 तब याम नामक देवताओंने अत्यन्त व्याकुल हो इन्द्रके साथ परामर्श कर उसके ध्यानको भंग करनेका आयोजन किया । इन्द्रके साथ अति आतुर कूष्माण्ड नामक उपदेवताओंने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करना आरम्भ किया । उस समय मायाहीसे रची हुई उसकी माता सुनीति नेत्रोंमें आँसू भरे उसके सामने प्रकट हुई और ‘ हे पुत्र ! हे पुत्र ! ‘ ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी [ [ उसने कहा ] -बेटा ! तू शरीरको घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे । मैंने बड़ी – बड़ी कामनाओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है । अरे ! मुझ अकेली , अनाथा , दुखियाको सौतके कटु वाक्योंसे छोड़ देना तुझे उचित नहीं है ।

बेटा ! मुझ आश्रयहीनाका तो एकमात्र तू ही सहारा है । कहाँ तो पाँच वर्षका तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल क्लेशकारी आग्रहसे अपना मन मोड़ ले । अभी तो तेरे खेलने – कूदनेका समय है , फिर अध्ययनका समय आयेगा , तदनन्तर समस्त भोगोंके भोगनेका और फिर अन्तमें तपस्या करना भी ठीक होगा । बेटा ! तुझ सुकुमार बालकका ‘ जो खेल – कूदका समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है । तू इस प्रकार क्यों अपने सर्वनाशमें तत्पर हुआ है ? तेरा परम धर्म तो मुझको प्रसन्न रखना ही है , अत : तू अपनी आयु और अवस्थाके अनुकूल कर्मोंमें ही लग , मोहका अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्मसे निवृत्त हो ।

बेटा ! यदि आज तू इस तपस्याको न छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी ॥  भगवान् विष्णुमें चित्त स्थिर रहनेके कारण ध्रुवने उसे आँखोंमें आँसू भरकर इस प्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा । तब , ‘ अरे बेटा ! यहाँसे भाग – भाग ! देख , इस महाभयंकर वनमें ये कैसे घोर राक्षस अस्त्र – शस्त्र उठाये आ रहे हैं – ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं ऐसे अनेकों राक्षसगण अस्त्र शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये ।

उन राक्षसोंने अपने अति चमकीले शस्त्रोंको घुमाते हुए उस राजपुत्रके सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया । उस नित्य – योगयुक्त बालकको भयभीत करनेके लिये अपने मुखसे अग्निकी लपटें निकालती हुई सैकड़ों स्यारियाँ घोर नाद करने लगीं ।

वे राक्षसगण भी ‘ इसको मारो – मारो , काटो काटो , खाओ – खाओ ‘ इस प्रकार चिल्लाने लगे । फिर सिंह , ऊँट और मकर आदिके – से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्रको त्राण देनेके लिये नाना प्रकारसे गरजने लगे । किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालकको वे राक्षस , उनके शब्द , स्यारियाँ और अस्त्र – शस्त्रादि कुछ भी दिखायी नहीं दिये । वह राजपुत्र एकाग्रचित्तसे निरन्तर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवान्‌को ही देखता रहा और उसने किसीकी ओर किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ।

तपस्या से प्रभावित पृथ्वी और देवताओं की चिंता

तब सम्पूर्ण मायाके लीन हो जानेपर उससे हार जाने की आशंकासे देवताओंको बड़ा भय हुआ । अतः उसके तपसे सन्तप्त हो वे सब आपसमें मिलकर जगत्के आदि- कारण , शरणागतवत्सल , अनादि और अनन्त श्रीहरिकी शरणमें गये । देवता बोले- हे देवाधिदेव , जगन्नाथ , परमेश्वर , पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुवकी तपस्यासे सन्तप्त होकर आपकी शरणमें आये हैं । हे देव ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी कलाओंसे प्रतिदिन बढ़ता है उसी प्रकार यह भी तपस्याके कारण रात – दिन उन्नत हो रहा है ।

हे जनार्दन ! इस उत्तानपादके पुत्रकी तपस्यासे भयभीत होकर हम आपकी शरणमें आये हैं , आप उसे तपसे निवृत्त कीजिये । हम नहीं जानते , वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर , वरुण या चन्द्रमाके पदकी अभिलाषा है । अतः हे ईश ! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपादके पुत्रको तपसे निवृत्त करके हमारे हृदयका काँटा निकालिये । श्रीभगवान् बोले- हे सुरगण ! उसे इन्द्र , सूर्य , वरुण अथवा कुबेर आदि किसीके पदकी अभिलाषा नहीं है , उसकी जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर करूंगा ।

इच्छानुसार अपने – अपने स्थानोंको जाओ । मैं तपस्यामें लगे हुए उस बालकको निवृत्त करता हूँ । श्रीपराशरजी बोले- देवाधिदेव भगवान्के ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपने अपने स्थानोंको गये । सर्वात्मा भगवान् हरिने भी ध्रुवकी तन्मयतासे प्रसन्न हो उसके निकट चतुर्भुजरूपसे जाकर इस प्रकार कहा ।

भगवान् विष्णु का ध्रुव को वरदान

श्रीभगवान् बोले- हे उत्तानपादके पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो । मैं तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर तुझे वर देनेके लिये प्रकट हुआ हूँ , सुव्रत ! तू वर माँग । तूने सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे उपरत होकर अपने चित्तको मुझमें ही लगा दिया है । अतः मैं तुझसे अति सन्तुष्ट हूँ । अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग । श्रीपराशरजी बोले- देवाधिदेव भगवान्के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुवने आँखें खोलीं और अपनी ध्यानावस्थामें देखे हुए भगवान् हरिको साक्षात् अपने सम्मुख खड़े देखा ।

श्रीअच्युतको किरीट तथा शंख , चक्र , गदा , शाङ्गे धनुष और खड्ग धारण किये देख उसने पृथिवीपर सिर रखकर प्रणाम किया और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेवकी स्तुति करनेकी इच्छा की । किन्तु ‘ इनकी स्तुतिके लिये मैं क्या कहूँ ? क्या कहनेसे इनका स्तवन हो सकता है ? ‘ यह न जानने के कारण वह चित्तमें व्याकुल हो गया और अन्तमें उसने उन देवदेवकी ही शरण ली ।

ध्रुवने कहा – भगवन् ! आप यदि मेरी तपस्यासे सन्तुष्ट हैं तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ , आप मुझे यही वर दीजिये [ जिससे मैं स्तुति कर सकूँ ] । [ हे देव ! जिनकी गति ब्रह्मा आदि वेदज्ञजन भी नहीं जानते ; उन्हीं आपका मैं बालक कैसे स्तवन कर सकता हूँ । किन्तु हे परम प्रभो ! आपकी भक्तिसे द्रवीभूत हुआ मेरा चित्त आपके चरणोंकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा है । अतः आप इसे उसके लिये बुद्धि प्रदान कीजिये ] । तब जगत्पति श्रीगोविन्दने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपादके पुत्रको अपने ( वेदमय ) शंखके अन्त ( वेदान्तमय ) भागसे छू दिया । तब तो एक क्षणमें ही वह राजकुमार प्रसन्न – मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युतकी स्तुति करने लगा ।

श्रीभगवान् बोले- हे ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ , इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी ; परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता । इसलिये तुझको जिस वरकी इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुषको सभी कुछ प्राप्त हो सकता है । ध्रुव बोले- हे भूतभव्येश्वर भगवन् ! आप सभीके अन्तःकरणोंमें विराजमान हैं । मेरे मनकी जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है ? तो भी ,  मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तुकी हृदयसे इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा ।

हे समस्त संसारको रचनेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर ( संसारमें ) क्या दुर्लभ है ? इन्द्र भी आपके कृपाकटाक्षके फलरूपसे ही त्रिलोकीको भोगता है । प्रभो ! मेरी सौतेली माताने गर्वसे अति बढ़ – बढ़कर मुझसे यह कहा था कि ‘ जो मेरे उदरसे उत्पन्न नहीं है उसके योग्य यह राजासन नहीं है ‘ । अतः हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ।

श्रीभगवान् बोले- अरे बालक ! तूने अपने पूर्वजन्मम भी मुझे सन्तुष्ट किया था , इसलिये तू जिस स्थानकी इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा । पूर्व जन्ममें तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरन्तर एकाग्रचित्त रहनेवाला , माता – पिताका सेवक तथा स्वधर्मका पालन करनेवाला था । कालान्तरमें एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया । वह अपनी युवावस्थामें सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्तथा । उसके संगसे उसके दुर्लभ वैभवको देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि ‘ मैं भी राजपुत्र होऊँ ‘ ।

ध्रुव को प्राप्त स्थान

अतः हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवांछित राजपुत्रता प्राप्त हुई और जिन स्वायम्भुवमनुके कुलमें और किसीको स्थान मिलना अति दुर्लभ है , उन्हींके घरमें तूने उत्तानपादके यहाँ जन्म लिया । अरे बालक ! [ औरोंके लिये यह स्थान कितना ही दुर्लभ हो परन्तु ] जिसने मुझे सन्तुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यन्त तुच्छ है । मेरी आराधना करनेसे तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है , फिर जिसका चित्त निरन्तर मुझमें ही लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकोंका तो कहना ही क्या है ?

हे ध्रुव ! मेरी कृपासे तू निस्सन्देह उस स्थानमें , जो त्रिलोकीमें सबसे उत्कृष्ट है , सम्पूर्ण ग्रह और तारामण्डलका आश्रय बनेगा । मैं तुझे वह ध्रुव ( निश्चल ) स्थान देता हूँ जो सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , बृहस्पति , शुक्र और शनि आदि ग्रहों , सभी नक्षत्रों , सप्तर्षियों और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणोंसे ऊपर है । देवताओंमेंसे कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तरतक ही रहते हैं ; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतककी स्थिति देता हूँ । तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूपसे उतने ही समयतक तेरे पास एक विमानपर निवास करेगी और जो लोग समाहित – चित्तसे सायंकाल और प्रातः कालके समय तेरा गुण – कीर्तन करेंगे उनको महान् पुण्य होगा ।

कथा का महत्व और पुण्य

 इस प्रकार पूर्वकालमें जगत्पति देवाधिदेव भगवान् जनार्दनसे वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थानमें स्थित हुए । अपने माता – पिताकी धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर – मन्त्रके माहात्म्य और तपके प्रभावसे उनके मान , वैभव एवं प्रभावकी वृद्धि देखकर देव और असुरों आचार्य शुक्रदेवने ये श्लोक कहे हैं— ‘ अहो ! इस ध्रुवके तपका कैसा प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भुत फल है जो इस ध्रुवको ही आगे रखकर सप्तर्षिगण स्थित हो रहे हैं । इसकी यह सुनीति नामवाली माता भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है । संसारमें ऐसा कौन है ।

जो इसकी महिमाका वर्णन कर सके ? जिसने अपनी कोखमें उस ध्रुवको धारण करके त्रिलोकीका आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया , जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है ‘ । जो व्यक्ति ध्रुवके इस दिव्यलोक – प्राप्तिके प्रसंगका कीर्तन करता है वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता है । वह स्वर्गमें रहे अथवा पृथिवीमें , कभी अपने स्थानसे च्युत नहीं होता तथा समस्त मंगलोंसे भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है।

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