ध्रुव तारा और शिशुमार
आकाश में भगवान् विष्णु का जो शिशुमार ( गिरगिट अथवा गोधा ) -के समान आकार वाला तारामय स्वरूप देखा जाता है , उसके पुच्छ – भागमे ध्रुव अवस्थित है ॥ यह ध्रुव स्वयं घूमता हुआ चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रहों को घुमाता है । उस भ्रमणशील ध्रुवके साथ नक्षत्रगण भी चक्र के समान घूमते रहते हैं ॥
ग्रहों का परिक्रमा
सूर्य , चन्द्रमा , तारे , नक्षत्र और अन्यान्य समस्त ग्रहगण वायु मण्डलमयी डोरी से ध्रुव के साथ बँधे हुए हैं ॥ मैंने तुमसे आकाश में ग्रहगण के जिस शिशुमार स्वरूपका वर्णन किया है , अनन्त तेजके आश्रय स्वयं भगवान् नारायण ही उसके हृदयस्थित आधार हैं ॥ उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने उन जगत्पति की आराधना करके तारामय शिशुमार के पुच्छस्थान में स्थिति प्राप्त की है ॥ शिशुमार के आधार सर्वेश्वर श्रीनारायण हैं , शिशुमार ध्रुव का आश्रय है और ध्रुवमें सूर्यदेव स्थित हैं तथा हे विप्र ! जिस प्रकार देव , असुर और मनुष्यादि के सहित यह ३ सम्पूर्ण जगत् सूर्य के आश्रित है , वह तुम एकाग्र होकर सुनो ।
सूर्य और चन्द्रमा का महत्व
सूर्य आठ मासतक अपनी किरणों से छ : रसों से युक्त जल को ग्रहण करके उसे चार महीनों में बरसा देता है उससे अन्न की उत्पत्ति होती है और अन्न ही से सम्पूर्ण जगत् पोषित होता है ॥ सूर्य अपनी तीक्ष्ण रश्मियोंसे संसार का जल खींचकर उससे चन्द्रमाका पोषण करता है और चन्द्रमा आकाश में वायुमयी नाड़ियों के मार्ग से उसे धूम , अग्नि और वायुमय मेघों में पहुँचा देता है ॥ यह चन्द्रमा द्वारा प्राप्त जल मेघों से तुरन्त ही भ्रष्ट नहीं होता इसलिये ‘ अभ्र ‘ कहलाता है । कालजनित संस्कार के प्राप्त होने पर यह अभ्रस्थ जल निर्मल होकर वायु की प्रेरणा से पृथिवी पर बरसने लगता है ॥
आकाशगंगा का जल
भगवान् सूर्यदेव नदी , समुद्र , पृथिवी तथा प्राणियों से उत्पन्न – इन चार प्रकार के जलों का आकर्षण करते हैं ॥ तथा आकाशगंगा के जल को ग्रहण करके वे उसे बिना मेघादि के अपनी किरणों से ही तुरन्त पृथिवी पर बरसा देते हैं ॥ उसके स्पर्शमात्र से पाप – पंक के धुल जाने से मनुष्य नरक में नहीं जाता । अतः वह दिव्य – स्नान कहलाता है ॥ सूर्यके दिखलायी देते हुए , बिना मेघों के ही जो जल बरसता है वह सूर्य की किरणों द्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगा का ही जल होता है ॥
कृत्ति का आदि विषम ( अयुग्म ) नक्षत्रों में जो जल सूर्य के प्रकाशित रहते हुए बरसता है उसे दिग्गजों द्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगा का जल समझना चाहिये ॥ [ रोहिणी और आर्द्रा आदि ] सम संख्यावाले नक्षत्रों में [ आकाशगंगासे ] ग्रहण करके ही बरसाया जाता है ॥ जिस जलको सूर्य बरसाता है वह सूर्यरश्मियों द्वारा हे महामुने ! आकाशगंगा के ये [ सम तथा विषम नक्षत्रों में बरसनेवाले ] दोनों प्रकार के जलमय दिव्य स्नान अत्यन्त पवित्र और मनुष्यों के पाप – भय को दूर करनेवाले हैं ॥
मेघों द्वारा वृष्टि
जो जल मेघों द्वारा बरसाया जाता है । वह प्राणियों के जीवन के लिये अमृतरूप होता है और ओषधियोंका पोषण करता है ॥ उस वृष्टि के जल से परम वृद्धि को प्राप्त होकर समस्त ओषधियाँ और फल पकने पर सूख जाने वाले [ गोधूम , यव आदि अन्न ] प्रजावर्गके [ शरीरकी उत्पत्ति एवं पोषण आदिके ] साधक होते हैं ॥ उनके द्वारा शास्त्रविद् मनीषिगण नित्यप्रति यथाविधि यज्ञानुष्ठान करके देवताओं को सन्तुष्ट करते हैं ॥ इस प्रकार सम्पूर्ण यज्ञ , वेद , ब्राह्मणादि वर्ण , समस्त देवसमूह और प्राणिगण वृष्टिके ही आश्रित हैं ॥ अन्नको उत्पन्न करने वाली वृष्टि ही इन सबको धारण करती है तथा उस वृष्टि की उत्पत्ति सूर्यसे होती है ॥
ध्रुव और श्रीनारायण का सम्बन्ध
सूर्यका आधार ध्रुव है , ध्रुव का शिशुमार है तथा शिशुमारके आश्रय श्रीनारायण हैं ॥ उस शिशुमार के हृदय में श्रीनारायण स्थित हैं जो समस्त प्राणियोंके पालनकर्ता तथा आदिभूत सनातन पुरुष हैं ॥