इन्द्र का आगमन और नरकासुर के अत्याचारों का वर्णन
एक बार जब श्रीभगवान् द्वारकामें ही थे त्रिभुवनपति इन्द्र अपने मत्त गजराज ऐरावतपर चढ़कर उनके पास आये ॥ द्वारकामें आकर वे भगवान्से मिले और उनसे नरकासुरके अत्याचारोंका वर्णन किया ॥ [ वे बोले- ] “हे मधुसूदन ! इस समय मनुष्यरूपमें स्थित होकर भी आप सम्पूर्ण देवताओंके स्वामीने हमारे समस्त दुःखोंको शान्त कर दिया है ॥
जो अरिष्ट, धेनुक और केशी आदि असुर सर्वदा तपस्वियोंको क्लेशित करते रहते थे उन सबको आपने मार डाला ॥ कंस, कुवलयापीड और बालघातिनी पूतना तथा और भी जो-जो संसारके उपद्रवरूप थे उन सबको आपने नष्ट कर दिया ॥ आपके बाहुदण्डकी सत्तासे त्रिलोकीके सुरक्षित हो जानेके कारण याजकोंके दिये हुए यज्ञभागको प्राप्तकर देवगण तृप्त हो रहे हैं ॥ हे जनार्दन ! इस समय जिस निमित्तसे मैं आपके पास उपस्थित हुआ हूँ, उसे सुनकर आप उसके प्रतीकारका प्रयत्न करें ॥
हे शत्रुदमन ! यह पृथिवीका पुत्र नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुरका स्वामी है; इस समय यह सम्पूर्ण जीवोंका घात कर रहा है ॥ हे जनार्दन ! उसने देवता, सिद्ध, असुर और राजा आदिकोंकी कन्याओंको बलात् लाकर अपने अन्तःपुरमें बन्द कर रखा है ॥ ९ ॥ इस दैत्यने वरुणका जल बरसानेवाला छत्र और मन्दराचलका मणिपर्वत नामक शिखर भी हर लिया है ॥
हे कृष्ण ! उसने मेरी माता अदितिके अमृतस्रावी दोनों दिव्य कुण्डल ले लिये हैं और अब इस ऐरावत हाथीको भी लेना चाहता है ॥ हे गोविन्द ! मैंने आपको उसकी ये सब अनीतियाँ सुना दी हैं; इनका जो प्रतीकार होना चाहिये, वह आप स्वयं विचार लें” ॥
इन्द्रके ये वचन सुनकर श्रीदेवकीनन्दन मुसकाये और इन्द्रका हाथ पकड़कर अपने श्रेष्ठ आसनसे उठे ॥ फिर स्मरण करते ही उपस्थित हुए आकाशगामी गरुडपर सत्यभामाको चढ़ाकर स्वयं चढ़े और प्राग्ज्योतिषपुरको चले ॥ तदनन्तर इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़कर देवलोकको गये तथा भगवान् कृष्णचन्द्र सब द्वारकावासियोंके देखते- देखते [ नरकासुरको मारने] चले गये ॥
श्रीकृष्ण का प्राग्ज्योतिषपुर जाना
प्राग्ज्योतिषपुरके चारों ओर पृथिवी सौ योजनतक मुर दैत्यके बनाये हुए छुरेकी धाराके समान अति तीक्ष्ण पाशोंसे घिरी हुई थी ॥ भगवान्ने उन पाशोंको सुदर्शनचक्र फेंककर काट डाला; फिर मुर दैत्य भी सामना करनेके लिये उठा तब श्रीकेशवने उसे भी मार डाला ॥
तदनन्तर श्रीहरिने मुरके सात हजार पुत्रोंको भी अपने चक्रकी धाररूप अग्निमें पतंगके समान भस्म कर दिया ॥ इस प्रकार मतिमान् भगवान्ने मुर, हयग्रीव एवं पंचजन आदि दैत्योंको मारकर बड़ी शीघ्रतासे प्राग्ज्योतिषपुरमें प्रवेश किया ॥ वहाँ पहुँचकर भगवान्का अधिक सेनावाले नरकासुरसे युद्ध हुआ, जिसमें श्रीगोविन्दने उसके सहस्रों दैत्योंको मार डाला ॥ दैत्यदलका दलन करनेवाले महाबलवान् भगवान् चक्रपाणिने शस्त्रास्त्रकी वर्षा करते हुए भूमिपुत्र नरकासुरके सुदर्शनचक्र फेंककर दो टुकड़े कर दिये ॥ नरकासुरके मरते ही पृथिवी अदितिके कुण्डल लेकर उपस्थित हुई और श्रीजगन्नाथसे कहने लगी ॥
अदिति के कुण्डल की प्राप्ति
पृथिवी बोली- हे नाथ! जिस समय वराहरूप धारणकर आपने मेरा उद्धार किया था, उसी समय आपके स्पर्शसे मेरे यह पुत्र उत्पन्न हुआ था ।। इस प्रकार आपहीने मुझे यह पुत्र दिया था और अब आपहीने इसको नष्ट किया है; आप ये कुण्डल लीजिये और अब इसकी सन्तानकी रक्षा कीजिये ॥ हे प्रभो ! मेरे ऊपर प्रसन्न होकर ही आप मेरा भार उतारनेके लिये अपने अंशसे इस लोकमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ हे अच्युत ! इस जगत्के आप ही कर्ता, आप ही विकर्ता (पोषक) और आप ही हर्ता (संहारक) हैं; आप ही इसकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं तथा आप ही जगत्रूप हैं।
फिर हम आपकी स्तुति किस प्रकार करें ? ॥ हे भगवन् ! जब कि व्याप्ति, व्याप्य, क्रिया, कर्ता और कार्यरूप आप ही हैं, तब सबके आत्मस्वरूप आपकी किस प्रकार स्तुति की जा सकती है ? ॥ हे नाथ! जब आप ही परमात्मा, आप ही भूतात्मा और आप ही अव्यय जीवात्मा हैं, तब किस वस्तुको लेकर आपकी स्तुति हो सकती है ? ॥ हे सर्वभूतात्मन् ! आप प्रसन्न होइये और इस नरकासुरके सम्पूर्ण अपराध क्षमा कीजिये। निश्चय ही आपने अपने पुत्रको निर्दोष करनेके लिये ही स्वयं मारा है॥
तदनन्तर भगवान् भूतभावनने पृथिवीसे कहा- “तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो” और फिर नरकासुरके महलसे नाना प्रकारके रत्न लिये ॥ अतुलविक्रम श्रीभगवान्ने नरकासुरके कन्यान्तः पुरमें जाकर सोलह हजार एक सौ कन्याएँ देखीं ॥ तथा चार दाँतवाले छः हजार गजश्रेष्ठ और इक्कीस लाख काम्बोजदेशीय अश्व देखे ॥ उन कन्याओं, हाथियों और घोड़ोंको श्रीकृष्णचन्द्रने नरकासुरके सेवकद्वारा तुरन्त ही द्वारकापुरी पहुँचवा दिया ॥
तदनन्तर भगवान्ने वरुणका छत्र और मणिपर्वत देखा, उन्हें उठाकर उन्होंने पक्षिराज गरुडपर रख लिया ॥ और सत्यभामाके सहित स्वयं भी उसीपर चढ़कर अदितिके कुण्डल देनेके लिये स्वर्गलोकको गये॥