67. निमि – चरित्र और निमिवंश का वर्णन

इक्ष्वाकु वंश का वृतांत

1. निमि का यज्ञ और वसिष्ठ का शाप

इक्ष्वाकु का जो निमि नामक पुत्र था उसने एक सहस्त्र वर्ष में समाप्त होने वाले यज्ञ का आरम्भ किया ॥ उस यज्ञमें उसने वसिष्ठजी को होता वरण किया ॥ वसिष्ठजी ने उससे कहा कि पाँच सौ वर्षके यज्ञ के लिये इन्द्र ने मुझे पहले ही वरण कर लिया है ॥

अतः इतने समय तुम ठहर जाओ , वहाँसे आने पर मैं तुम्हारा भी ऋत्विक् हो जाऊँगा । उनके ऐसा कहने पर राजाने उन्हें कुछ भी उत्तर नहीं दिया ॥ वसिष्ठजी ने यह समझकर कि राजा ने उनका कथन स्वीकार कर लिया है इन्द्र का यज्ञ आरम्भ कर दिया ॥ किन्तु राजा निमि भी उसी समय गौतमादि अन्य होताओंद्वारा अपना यज्ञ करने लगे ॥ देवराज इन्द्रका यज्ञ समाप्त होते ही ‘ मुझे निमि का यज्ञ कराना है ‘ इस विचारसे वसिष्ठजी भी तुरंत ही आ गये ॥

2. निमि का देहत्याग और देवताओं का वरदान

उस यज्ञ में अपना [ होताका ] कर्म गौतम को करते देख उन्होंने सोते हुए राजा निमि को यह शाप दिया कि ‘ इसने मेरी अवज्ञा करके सम्पूर्ण कर्म का भार गौतम को सौंपा है इसलिये यह देह हीन हो जायगा ‘ ॥ सोकर उठने पर राजा निमिने भी कहा – ॥” इस दुष्ट गुरु ने मुझसे बिना बातचीत किये अज्ञानता पूर्वक मुझ सोये हुए को शाप दिया है , इसलिये इसका देह भी नष्ट हो जायगा । ” इस प्रकार शाप देकर राजा ने अपना शरीर छोड़ दिया ॥ राजा निमि के शाप से वसिष्ठजी का लिंग देह मित्रा वरुण के वीर्य में प्रविष्ट हुआ ॥

उर्वशी के देखने से उसका वीर्य स्खलित होने पर उसी से उन्होंने दूसरा देह धारण किया ॥ निमि का शरीर भी अति मनोहर गन्ध और तैल आदि से सुरक्षित रहनेके कारण गला – सड़ा नहीं , बल्कि तत्काल मरे हुए देह के समान ही रहा ॥

यज्ञ समाप्त होनेपर जब देवगण अपना भाग ग्रहण करनेके लिये आये तो उनसे ऋत्विकगण बोले कि “ यजमानको वर दीजिये ” ॥ देवताओं द्वारा प्रेरणा किये जाने पर राजा निमि ने उनसे कहा – ॥ “ भगवन् ! आपलोग सम्पूर्ण संसार – दुःख को दूर करनेवाले हैं ॥ मेरे विचार में शरीर और आत्मा के वियोग होने में जैसा दुःख होता है वैसा और कोई दुःख नहीं है ॥ इसलिये मैं अब फिर शरीर ग्रहण करना नहीं चाहता , समस्त लोगोंके नेत्रों में ही वास करना चाहता हूं।

3. जनक वंश की उत्पत्ति और विस्तार

राजा के ऐसा कहने पर देवताओं ने उनको समस्त जीवों के नेत्रों में अवस्थित कर दिया ॥ तभी से प्राणी निमेषोन्मेष ( पलक खोलना- मूँदना ) करने लगे हैं ॥ तदनन्तर अराजकता के भय से  मुनिजनों ने उस पुत्रहीन राजा के शरीर को अरणि ( शमीदण्ड ) से मँथा ॥ उससे एक कुमार उत्पन्न हुआ जो जन्म लेने के कारण ‘ जनक ‘ कहलाया ॥ इसके पिता विदेह थे इसलिये यह ‘ वैदेह ‘ कहलाता है और मन्थन से उत्पन्न होनेके कारण ‘ मिथि ‘ भी कहा जाता है ॥

उसके उदावसु नामक पुत्र हुआ ॥ उदावसु के नन्दिवर्द्धन , नन्दिवर्द्धन के सुकेतु , सुकेतु के देवरात , देवरात के बृहदुक्थ , बृहदुक्थ के महावीर्य , महावीर्य के सुधृति , सुधृति के धृष्टकेतु , धृष्टकेतु के हर्यश्व , हर्यश्व के मनु , मनु के प्रतीक , प्रतीक के कृतरथ , कृतरथ के देवमीढ , देवमीढ के विबुध , विबुध के महाधृति , महाधृतिके कृतरात , कृतरातके महारोमा , महारोमा के सुवर्णरोमा , सुवर्णरोमा के ह्रस्वरोमा और ह्रस्वरोमा के सीरध्वज नामक पुत्र हुआ ॥ वह पुत्रकी कामना से यज्ञभूमिको जोत रहा था । इसी समय हलके अग्र भागमें उसके सीता नामकी कन्या उत्पन्न हुई ॥

4. सीरध्वज के उत्तराधिकारी और वंश की समाप्ति

सीरध्वज का भाई सांकाश्यनरेश कुशध्वज था ॥ सीरध्वज के भानुमान् नामक पुत्र हुआ । भानुमान्के शतद्युम्न , शतद्युम्न के शुचि , शुचि के ऊर्जनामा , ऊर्जनामा के शतध्वज , शतध्वज के कृति , कृति के अंजन , अंजन के कुरुजित् , कुरुजित के अरिष्टनेमि , अरिष्टनेमि के श्रुतायु , श्रुतायु के सुपार्श्व , सुपार्श्व के संजय , संजय के क्षेमावी , क्षेमावी के अनेना , अनेना के भौमरथ , भौमरथ के सत्यरथ , सत्यरथ के उपगु , उपगु के उपगुप्त , उपगुप्त के स्वागत , स्वागत के स्वानन्द , स्वानन्द के सुवर्चा , सुवर्चाके सुपार्श्व , सुपाव के सुभाष , सुभाष के सुश्रुत , सुश्रुत के जय , जय के विजय , विजय के ऋत , ऋत के सुनय , सुनय के वीतहव्य , वीतहव्य के धृति , धृति के बहुलाश्व और बहुलाश्व के कृति नामक पुत्र हुआ ॥

5. जनकवंश का महत्व

कृति में ही इस जनक वंश की समाप्ति हो जाती है ॥ ये ही मैथिलभूपालगण हैं ॥ प्रायः ये सभी राजालोग आत्मविद्या को आश्रय देनेवाले होते हैं ॥

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