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4. पापों का वर्णन

पापों का वर्णन

पापों का वर्णन

1. पापों का वर्णन और उनके परिणाम

द्यूतं च मद्यपिशितं च वेश्या पापद्धचौर्य परदार सेवा एतानि सप्तव्यसनानि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयंति ॥१॥

अर्थ —जुआ, मद्य [ शराब] ,मांस, वेश्या, हिसा, चोरी और पर स्त्री सेवा यह सात व्यसन पुरुषों को घोर से घोर नरकों में पहुंचाते हैं ॥१॥

 न श्रियस्तत्र तिष्ठति द्यूतं यत्र प्रवर्त्तते ।

न वृक्षजातयस्तत्र विद्यन्ते यत्र पावकः ॥२॥

अर्थ-नेति जहां द्यूत हो वहां पर लक्ष्मी नहीं रह सकती, जैसे जहां सदैव अग्नि रहती हो वहां वृक्ष जाति का होना दुर्लभ है ॥२॥

धनप्रवृद्धेः कचिदस्ति पापं पापप्रवृद्धेर्धननाशमेति ।

धर्मेणहीनः कितवैः समेतो दुःखाकरो लोकयुगे नराणाम्॥३॥

अर्थ – धन इति-कहीं धन की वृद्धि से पाप बढ़ता है और कहीं पाप वृद्धि से धन नष्ट हो जाता है फिर धर्म हीन और द्यूतासक्त मनुष्य लोगों के लिए अतीव दुःखदाई है ॥३॥

2. मद्यपान और उसका प्रभाव

न वेत्ति मद्यपानतः स्मरेण वि लीकृतः ।

स्वमातरं स्वयोषितं समानमेव मन्यते ॥४॥

अर्थ-नेति मद्य को पान कर काम पीड़ित मनुष्य अपनी माता और अपनी स्त्री में कुछ अंतर नहीं समझता ॥४॥

 मद्यपानात्परं पापं न भूतं न भविष्यति ।

मद्यत्यागात्परं पुण्यं न भूतं न भविष्यति ॥ ५ ॥

अर्थ – मद्यपानमिति संसार में मद्यपान जैसा पाप कोई नहीं और मद्य त्याग से परे पुण्य कोई नहीं ॥५॥

3. वेश्यावृत्ति और उसके दुष्प्रभाव

सत्कर्ता चोपकर्ता च घातकश्चैव स्वादुकः ।

उपदेष्टानुमंता च षडेते समभागिनः ॥६॥

अर्थ- सत्कर्तेति-मांस को निकालने वाला, उस को पकाने वाला, मांस कांटने वाला, खाने वाला, मारने का उपदेश करने वाला, और जीव को मारने की सम्मति देने वाला, यह छः पुरुष पाप के समभागी होते हैं॥६॥

शुक्रशोणितसंभूत’ ये नरा भुञ्जते पलम् ।

नरकान्न निवर्तन्ते यावच्चन्द्र दिवाकरौ ॥७॥

अर्थ – शक्रशोणित इति वीर्य और रक्त से बने हुए मांस कोजो पुरुष खाता है वह सूर्य चन्द्र तक भी नरक से नहीं छूटता ॥७॥

सर्वशुक्र भवेदब्रह्मा विष्णुर्मा से प्रवर्तते ।

ईश्वरश्चास्थिसंघाते तस्मान्मांसं न भक्षयेत् ॥८॥

अर्थ – सर्वशुक्र इति-सब वीर्य में ब्रह्मा, विष्णु मांस में और ईश्वर अस्थी समूह में रहता है अतएव मांस भक्षण नहीं करना चाहिये ॥८॥

तपो व्रत’ यशो विद्या कुलीनत्वं दमो वयः ।

छिद्यन्ते वेश्यया सद्यः कुठारेण लतो यथा ॥९॥

अर्थ-तप इति-तप, व्रत, यश विद्या, कुलीनता, इंद्रिय- निग्रह और उमर इन सब को वेश्या नष्ट करती है जैसे कुल्हाड़े से लता कट जाती है ॥९॥

वेश्यामांससुराणां हि त्रिकं येन हि सेव्यते ।

तस्य लोकद्वय’ नष्टं न भूयात्कोपि तादृशः ॥१०॥

अर्थ- वेश्येति वेश्या, मांस और मद्य इन तीनों को जो सेवन करता है, उस के लोक परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं और ऐसा किसी पुरुष को नहीं होना चाहिए ॥१०॥

वधंबंधौ धनभ्भ्रंशस्तापः शोकः कुलक्षयः : ।

आयासः कलहो मृत्युर्लभ्यंते परदारकैः ॥११॥

अर्थ-बधबंधाविति परस्त्री गामियों को मारपीट, धन नाश, मनस्ताव, शोक, वंशहानि, आयास ( मेहनत ), लड़ाई और मृत्यु ही प्राप्त होती है ॥११॥

स्वाधीनेपि कलते नीचः परदारलंपटो भवति ।

सम्पूर्णेपि तड़ागे काकः कुम्भोदकं पिवति  ॥ १२ ॥

अर्थ-स्वाधीनेऽपीति अपनी स्त्री चाहे सुन्दरी और चतुर भी हो तो भी नीच पुरुष उसको छोड़ अन्य में रत रहते हैं जैसे कौआ भरे हुए तालाब को छोड़ घड़े के जल में ही चोंच मारता है ॥१२॥

मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोष विहितवृत्तीनां ।

लुब्धकधीवर पिशुना निष्कारण वैरिणो जगति ॥१३॥

अर्थ – मृगमीन इति-मृग जो केवल बनों के तिनके खा कर ही संतुष्ट रहता है और मछलियें जो कि जल में केवल रहती है और साधुजन जो कि अपने संतोष से ही तृप्त रहते हैं तथापि संसार में मृगों के व्याध, मत्सय के धीवर, और सज्जनों के दुर्जन अकारण शत्रु उत्पन्न हुए हैं ॥१३॥

4. उदाहरणों द्वारा व्यसनों का नाश

द्यूताद्धर्मसुतः पलादपि बको मद्याद्यदोनर्द ना।

श्चारुः कामुकया मृगांकगतया स ब्रह्मदत्तो नृपः ।

चौर्यत्वाच्छ्विभूतिरन्यवनितादोषादृशास्यो हठात् ।

देकैकव्यसनाद्धता इति जनाः सर्वैर्न को नश्यति ॥१४॥

अर्थ- द्यूतादिति देखो । जूए से युधिष्ठिर जी और एक राजा जो सदा मांस भोगी था वह एक ऋषि के शाप से बगुला हो गया और कीचक द्रौपदी परनारी पर मुग्ध होने से और यादव सुरापान से, परीक्षित राजा मृगया व्यसन से, शिवी राजा चोरी के व्यसन से, हठी रावण परस्त्री दोष से नष्ट हो गया यह सब राजा जब एक एक व्यसन से नष्ट हो गये तो सात व्यसनों से क्या ही कहना है ॥१४॥

 

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