स्वर्गारोहण और देवताओं का स्वागत
पक्षिराज गरुड उस वारुणछत्र, मणिपर्वत और सत्यभामाके सहित श्रीकृष्णचन्द्रको लीलासे – ही लेकर चलने लगे ॥ स्वर्गके द्वारपर पहुँचते ही श्रीहरिने अपना शंख बजाया। उसका शब्द सुनते ही देवगण अर्घ्य लेकर भगवान्के सामने उपस्थित हुए॥ देवताओंसे पूजित होकर श्रीकृष्णचन्द्रजीने देवमाता अदितिके श्वेत मेघशिखरके समान गृहमें जाकर उनका दर्शन किया ॥ तब श्रीजनार्दनने इन्द्रके साथ देवमाताको प्रणामकर उसके अत्युत्तम कुण्डल दिये और उसे नरक- वधका वृत्तान्त सुनाया ॥ तदनन्तर जगन्माता अदितिने प्रसन्नतापूर्वक तन्मय होकर जगद्धाता श्रीहरिकी अव्यग्रभावसे स्तुति की ॥
भगवान् विष्णु देवमातासे हँसकर बोले- तुम तो हमारी माता हो; तुम प्रसन्न होकर हमें वरदायिनी होओ ” ॥
अदिति और सत्यभामा का संवाद
अदिति बोली- तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो तुम मर्त्यलोकमें सम्पूर्ण सुरासुरोंसे अजेय होगे ॥ तदनन्तर शक्रपत्नी शचीके सहित कृष्णप्रिया सत्यभामाने अदितिको पुनः पुनः प्रणाम करके कहा- “माता! आप प्रसन्न होइये ” ॥ अदिति बोली- मेरी कृपासे तुझे कभी वृद्धावस्था या विरूपता व्याप्त न होगी। तेरा नवयौवन सदा स्थिर रहेगा ॥ तदनन्तर अदितिकी आज्ञासे देवराजने अत्यन्त आदर-सत्कारके साथ श्रीकृष्णचन्द्रका पूजन किया ॥ किन्तु कल्पवृक्षके पुष्पोंसे अलंकृता इन्द्राणीने सत्यभामाको मानुषी समझकर वे पुष्प न दिये ॥
नन्दनवन में पारिजात वृक्ष का दर्शन
तदनन्तर सत्यभामाके सहित श्रीकृष्णचन्द्रने भी देवताओंके नन्दन आदि मनोहर उद्यानोंको देखा॥ वहाँपर केशिनिषूदन जगन्नाथ श्रीकृष्णने सुगन्धपूर्ण मंजरी-पुंजधारी, नित्याह्लादकारी और ताम्रवर्ण बाल पत्तोंसे सुशोभित, अमृत-म -मन्थनके समय प्रकट हुआ तथा सुनहरी छालवाला पारिजात- वृक्ष देखा॥
उस अत्युत्तम वृक्षराजको देखकर परम प्रीतिवश सत्यभामा अति प्रसन्न हुई और श्रीगोविन्दसे बोली- इस वृक्षको द्वारकापुरी क्यों नहीं ले चलते ? ॥ यदि आपका यह वचन कि ‘तुम ही मेरी अत्यन्त प्रिया हो’ सत्य है तो मेरे गृहोद्यानमें लगानेके लिये इस वृक्षको ले चलिये ॥ आपने कई बार मुझसे यह प्रिय वाक्य कहा है कि मुझे तू जितनी प्यारी है उतनी न जाम्बवती है और न रुक्मिणी ही ‘ ॥ यदि आपका यह कथन सत्य है-केवल मुझे बहलाना ही नहीं है तो यह पारिजातवृक्ष मेरे गृहका भूषण हो ॥ मेरी ऐसी इच्छा है कि मैं अपने केश- कलापोंमें पारिजातपुष्प गूँथकर अपनी अन्य सपत्नियों में सुशोभित होऊँ” ॥
पारिजात हरण का प्रयास और रक्षकों का विरोध
सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर श्रीहरिने हँसते हुए उस पारिजात वृक्ष को गरुडपर रख लिया; तब नन्दनवनके रक्षकोंने कहा- ॥ देवराज इन्द्रकी पत्नी जो महारानी शची हैं यह पारिजातवृक्ष उनकी सम्पत्ति है, आप इसका हरण न कीजिये ॥ क्षीर – समुद्रसे उत्पन्न होनेके अनन्तर यह देवराजको दिया गया था; फिर देवराजने कुतूहलवश इसे अपनी महिषी शचीदेवीको दे दिया है ॥ समुद्र-मन्थनके समय शचीको विभूषित करनेके लिये ही देवताओंने इसे उत्पन्न किया था; इसे लेकर आप कुशलपूर्वक नहीं जा सकेंगे ॥
देवराज भी जिसका मुँह देखते रहते हैं, उस शचीकी सम्पत्ति इस पारिजातकी इच्छा आप मूढताहीसे करते हैं, इसे लेकर भला कौन सकुशल जा सकता है ? ॥ हे कृष्ण। देवराज इन्द्र इस वृक्षका बदला चुकानेके लिये अवश्य ही वज्र लेकर उद्यत होंगे और फिर देवगण भी अवश्य ही उनका अनुगमन करेंगे ॥ अतः हे अच्युत ! समस्त देवताओंके साथ रार बढ़ानेसे आपका कोई लाभ नहीं; क्योंकि जिस कर्मका परिणाम कटु होता है, पण्डितजन उसे अच्छा नहीं कहते ” ॥
इन्द्र और देवताओं के साथ युद्ध
उद्यान- रक्षकोंके इस प्रकार कहनेपर सत्यभामाने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा – ” शची अथवा देवराज इन्द्र ही इस पारिजातके कौन होते हैं ? ।। यदि यह अमृत-मन्थनके समय उत्पन्न हुआ है, तो सबकी समान सम्पत्ति है। अकेला इन्द्र ही इसे कैसे ले सकता है ? ॥ अरे वनरक्षको! जिस प्रकार [समुद्रसे उत्पन्न हुए ] मदिरा, चन्द्रमा और लक्ष्मीका सब लोग समानता से भोग करते हैं, उसी प्रकार पारिजातवृक्ष भी सभीकी सम्पत्ति है ॥
यदि पतिके बाहुबलसे गर्विता होकर शचीने ही इसपर अपना अधिकार जमा रखा है तो उससे कहना कि सत्यभामा उस वृक्षको हरण कराकर लिये जाती है, तुम्हें क्षमा करनेकी आवश्यकता नहीं है ॥ अरे मालियो ! तुम तुरन्त जाकर मेरे ये शब्द शचीसे कहो कि सत्यभामा अत्यन्त गर्वपूर्वक कड़े अक्षरोंमें यह कहती है कि यदि तुम अपने पतिको अत्यन्त प्यारी हो और वे तुम्हारे वशीभूत हैं तो मेरे पतिको पारिजात हरण करनेसे रोकें ॥ मैं तुम्हारे पति शक्रको जानती हूँ और यह भी जानती हूँ कि वे देवताओंके स्वामी हैं तथापि मैं मानवी ही तुम्हारे इस पारिजातवृक्षको लिये जाती हूँ” ॥
सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर वनरक्षकोंने शचीके पास जाकर उससे सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों- का-त्यों कह दिया। यह सब सुनकर शचीने अपने पति देवराज इन्द्रको उत्साहित किया ॥ तब देवराज इन्द्र पारिजातवृक्षको छुड़ाने के लिये सम्पूर्ण देवसेनाके सहित श्रीहरिसे लड़नेके लिये चले ॥ जिस समय इन्द्रने अपने हाथमें वज्र लिया उसी समय सम्पूर्ण देवगण परिघ, निस्त्रिंश, गदा और शूल आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो गये ॥ तदनन्तर देवसेनासे घिरे हुए ऐरावतारूढ इन्द्रको युद्धके लिये उद्यत देख श्रीगोविन्दने सम्पूर्ण दिशाओंको शब्दायमान करते हुए शंख- ध्वनि की और हजारों-लाखों तीखे बाण छोड़े ॥
इस प्रकार सम्पूर्ण दिशाओं और आकाशको सैकड़ों बाणोंसे पूर्ण देख देवताओंने अनेकों अस्त्र-शस्त्र छोड़े ॥
त्रिलोकी स्वामी श्रीमधुसूदनने देवताओंके छोड़े हुए प्रत्येक अस्त्र-शस्त्रके लीलासे ही हजारों टुकड़े कर दिये ॥ सर्पाहारी गरुडने जलाधिपति वरुणके पाशको खींचकर अपनी चोंचसे सर्पके बच्चेके समान उसके कितने ही टुकड़े कर डाले ॥ श्रीदेवकीनन्दनने यमके फेंके हुए दण्डको अपनी गदासे खण्ड-खण्ड कर पृथिवीपर गिरा दिया ॥ कुबेरके विमानको भगवान्ने सुदर्शनचक्रद्वारा तिल-तिल कर डाला और सूर्यको अपनी तेजोमय दृष्टिसे देखकर ही निस्तेज कर दिया ॥
भगवान्ने तदनन्तर बाण बरसाकर अग्निको शीतल कर दिया और वसुओंको दिशा-विदिशाओंमें भगा दिया तथा अपने चक्रसे त्रिशूलोंकी नोंक काटकर रुद्रगणको पृथिवीपर गिरा दिया ॥ भगवान्के चलाये हुए बाणोंसे साध्यगण, विश्वेदेवगण, मरुद्गण और गन्धर्वगण सेमलकी रूईके समान आकाशमें ही लीन हो गये ॥ श्रीभगवान्के साथ गरुडजी भी अपनी चोंच, पंख और पंजोंसे देवताओंको खाते, मारते और फाड़ते फिर रहे थे ॥
फिर जिस प्रकार दो मेघ जलकी धाराएँ बरसाते हों उसी प्रकार देवराज इन्द्र और श्रीमधुसूदन एक- दूसरेपर बाण बरसाने लगे ॥ उस युद्धमें गरुडजी ऐरावतके साथ और श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके साथ लड़ रहे थे ॥ सम्पूर्ण बाणोंके चूक जाने और अस्त्र-शस्त्रोंके कट जानेपर इन्द्रने शीघ्रतासे वज्र और कृष्णने सुदर्शनचक्र हाथमें लिया ॥ उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीमें इन्द्र और कृष्णचन्द्रको क्रमशः वज्र और चक्र लिये हुए देखकर हाहाकार मच गया॥ श्रीहरिने इन्द्रके छोड़े हुए वज्रको अपने हाथोंसे पकड़ लिया और स्वयं चक्र न छोड़कर इन्द्रसे कहा- “अरे, ठहर !” ॥
युद्ध का परिणाम
इस प्रकार वज्र छिन जाने और अपने वाहन ऐरावतके गरुडद्वारा क्षत-विक्षत हो जानेके कारण भागते हुए वीर इन्द्रसे सत्यभामाने कहा- ॥ तुम शचीके पति हो, तुम्हें इस प्रकार युद्धमें पीठ दिखलाना उचित नहीं है। तुम भागो मत, पारिजात-पुष्पोंकी मालासे विभूषिता होकर शची शीघ्र ही तुम्हारे पास आवेगी ॥
अब प्रेमवश अपने पास आयी हुई शचीको पहलेकी भाँति पारिजात-पुष्पकी मालासे अलंकृत न देखकर तुम्हें देवराजत्वका क्या सुख होगा ? ॥ अब तुम्हें अधिक प्रयास करनेकी आवश्यकता नहीं है, तुम संकोच मत करो; इस पारिजात वृक्षको ले जाओ। इसे पाकर देवगण सन्तापरहित हों ॥ अपने पतिके बाहुबलसे अत्यन्त गर्विता शचीने अपने घर जानेपर भी मुझे कुछ अधिक सम्मानकी दृष्टिसे नहीं देखा था ॥ स्त्री होने से मेरा चित्त भी अधिक गम्भीर नहीं है, इसलिये मैंने भी अपने पतिका गौरव प्रकट करनेके लिये ही तुमसे यह लड़ाई ठानी थी ॥ मुझे दूसरेकी सम्पत्ति इस पारिजातको ले जानेकी क्या आवश्यकता है? शची अपने रूप और पतिके कारण गर्विता है तो ऐसी कौन-सी स्त्री है जो इस प्रकार गर्वीली न हो ?” ॥
सत्यभामाके इस प्रकार कहने पर देवराज लौट आये और बोले – मैं तुम्हारा सुहृद् हूँ, अतः मेरे लिये ऐसी वैमनस्य बढ़ानेवाली उक्तियोंके विस्तार करनेका कोई प्रयोजन नहीं है ? ॥ जो सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं, उन विश्वरूप प्रभुसे पराजित होनेमें भी मुझे कोई संकोच नहीं है ॥ जिस आदि और मध्यरहित प्रभुसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, जिसमें यह स्थित है और फिर जिसमें लीन होकर अन्तमें यह न रहेगा; हे देवि ! जगत्की उत्पत्ति, प्रलय और पालनके कारण उस परमात्मासे ही परास्त होनेमें मुझे कैसे लज्जा हो सकती है ? ॥
जिसकी अत्यन्त अल्प और सूक्ष्म मूर्तिको, जो सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करनेवाली है, सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले अन्य पुरुष भी नहीं जान पाते तथा जिसने जगत्के उपकारके लिये अपनी इच्छासे ही मनुष्यरूप धारण किया है उस अजन्मा, अकर्ता और नित्य ईश्वरको जीतनेमें कौन समर्थ है ?” ॥