पृथ्वी की प्रार्थना
पृथिवी बोली – हे शंख , चक्र , गदा , पद्म धारण करनेवाले कमलनयन भगवन् ! आपको नमस्कार है । आज आप इस पातालतलसे मेरा उद्धार कीजिये । पूर्वकालमें आपहीसे मैं उत्पन्न हुई थी । हे जनार्दन ! पहले भी आपहीने मेरा उद्धार किया था और हे प्रभो ! मेरे तथा आकाशादि अन्य सब भूतोंके भी आप ही उपादान कारण हैं । हे परमात्मस्वरूप ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषात्मन् ! आपको नमस्कार है । हे प्रधान ( कारण ) और व्यक्त ( कार्य ) रूप ! आपको नमस्कार है ।
हे कालस्वरूप ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥ जगत्की सृष्टि आदिके लिये ब्रह्मा , विष्णु और रुद्ररूप धारण करनेवाले आप ही सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति , पालन और नाश करनेवाले हैं । और जगत्के एकार्णवरूप ( जलमय ) हो जानेपर , हे गोविन्द ! सबको भक्षणकर अन्तमें आप ही मनीषिजनोंद्वारा चिन्तित होते हुए जलमें शयन करते हैं ।
भगवान् विष्णु की स्तुति
जो परतत्त्व है उसे तो कोई भी नहीं जानता ; अतः आपका जो रूप अवतारोंमें प्रकट होता है उसीकी देवगण पूजा करते हैं । आप परब्रहाकी ही आराधना करके मुमुक्षुजन मुक्त होते हैं । भला वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर सकता है ? मनसे जो कुछ ग्रहण ( संकल्प ) किया जाता है , चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जो कुछ ग्रहण ( विषय ) करनेयोग्य है , बुद्धिद्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आपहीका रूप है ।
हे प्रभो ! मैं आपहीका रूप हूँ , आपहीके आश्रित हूँ और आपहीके द्वारा रची गयी हूँ तथा आपहीकी शरणमें हूँ ।इसीलिये लोकमें मुझे ‘ माधवी ‘ भी कहते हैं । हे सम्पूर्ण ज्ञानमय ! हे स्थूलमय ! हे अव्यय ! आपकी जय हो । हे अनन्त ! हे अव्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय हो । हे परापर – स्वरूप ! हे विश्वात्मन् ! हे यज्ञपते ! हे अनघ ! आपकी जय हो । हे प्रभो ! आप ही यज्ञ हैं , आप ही वषट्कार हैं , आप ही ओंकार हैं और आप ही ( आहवनीयादि ) अग्नियाँ हैं ।
हे हरे ! आप ही वेद , वेदांग और यज्ञपुरुष हैं तथा सूर्य आदि ग्रह , तारे , नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत् भी आप ही हैं । हे पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर ! मूर्त – अमूर्त , दृश्य – अदृश्य तथा जो कुछ मैंने कहा है और जो नहीं कहा , वह सब आप ही हैं । अतः आपको नमस्कार है , बारम्बार नमस्कार है ।