110. प्रचेताओ का मारिषा नमक कन्याके साथ विवाह, दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति एवम दक्ष की साठ कन्याओं के वंशका वर्णन

प्रचेताओ की तपस्या की कथा:

प्रचेताओंके तपस्यामें लगे रहनेसे [ कृषि आदिद्वारा ] किसी प्रकारकी रक्षा न होनेके कारण पृथिवीको वृक्षोंने ढँक लिया और प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो गयी ॥ आकाश वृक्षोंसे भर गया था । इसलिये दस हजार वर्षतक न तो वायु ही चला और न प्रजा ही किसी प्रकारकी चेष्टा कर सकी ॥ जलसे निकलनेपर उन वृक्षोंको देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अग्निको छोड़ा ॥ वायुने दिया और प्रचण्ड वृक्षोंको उखाड़ – उखाड़कर सुखा अग्निने उन्हें जला डाला । इस प्रकार उस समय वहाँ वृक्षोंका नाश होने लगा ॥ तब वह भयंकर वृक्ष – प्रलय देखकर थोड़े – से वृक्षोंके रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रचेताओंके पास जाकर कहा – ॥

प्रम्लोचा और कण्डु ऋषि की कथा:

 आप क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ , सुनिये । मैं वृक्षोंके साथ आपलोगोंकी सन्धि करा दूंगा ॥ वृक्षोंसे उत्पन्न हुई इस सुन्दर वर्णवाली रत्नस्वरूपा कन्याका मैंने पहलेसे ही भविष्यको जानकर अपनी [ अमृतमयी ] किरणोंसे पालन पोषण किया है ॥ वृक्षोंकी यह कन्या मारिषा नामसे प्रसिद्ध है , यह महाभागा इसलिये ही उत्पन्न की गयी है कि निश्चय ही तुम्हारे वंशको बढ़ानेवाली तुम्हारी भार्या हो ॥ मेरे और तुम लोगोंके आधे – आधे तेजसे इसके परम विद्वान् दक्ष नामक प्रजापति उत्पन्न होगा ॥

वह तुम लोगोंके तेजके सहित मेरे अंशसे युक्त होकर अपने तेजके कारण अग्निके समान होगा और प्रजाकी खूब वृद्धि करेगा ॥ पूर्वकालमें वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ एक कण्डु नामक मुनीश्वर थे । उन्होंने गोमती नदीके परम रमणीक तटपर घोर तप किया ॥ तब इन्द्रने उन्हें तपोभ्रष्ट करनेके लिये प्रम्लोचा नामकी उत्तम अप्सराको नियुक्त किया । उस मंजुहासिनीने उन ऋषिश्रेष्ठको विचलित कर दिया ॥ उसके द्वारा क्षुब्ध होकर वे सौसे भी अधिक वर्षतक विषयासक्त – चित्तसे मन्दराचलकी कन्दारामें रहे ॥ एक दिन उस अप्सराने कण्डु ऋषिसे कहा – “ हे ब्रह्मन् ! अब मैं स्वर्गलोकको जाना चाहती हूँ , आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दीजिये ” ॥ उसके ऐसा कहनेपर उसमें आसक्तचित्त हुए मुनिने कहा “ भद्रे ! अभी कुछ दिन और रहो ” ॥

उनके ऐसा कहनेपर उस सुन्दरीने महात्मा कण्डुके साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना प्रकारके भोग भोगे ॥ तब भी , उसके यह पूछनेपर कि ‘ भगवन् ! मुझे स्वर्गलोकको जानेकी आज्ञा दीजिये ‘ ऋषिने यही कहा कि ‘ अभी और ठहरो ‘ ॥ तदनन्तर सौ वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखीने प्रणययुक्त मुसकानसे सुशोभित वचनोंमें फिर कहा- ” ब्रह्मन् ! अब मैं स्वर्गको जाती हूँ ” ॥ यह सुनकर मुनिने उस विशालाक्षीको आलिंगनकर कहा – ‘ अयि सुभ्रु ! अब तो तू बहुत दिनोंके लिये चली जायगी इसलिये क्षणभर तो और ठहर ” ॥

तब वह सुश्रोणी ( सुन्दर कमरवाली ) उस ऋषिके साथ क्रीड़ा करती हुई दो सौ वर्षसे कुछ कम और रही ॥ इस प्रकार जब – जब वह सुन्दरी देवलोकको जानेके लिये कहती तभी – तभी कण्डु ऋषि उससे यही कहते कि ‘ अभी ठहर जा ‘ ॥

मुनिके इस प्रकार कहनेपर , प्रणयभंगकी पीड़ाको जाननेवाली उस दक्षिणाने अपने दाक्षिण्यवश तथा मुनिके शापसे भयभीत होकर उन्हें न छोड़ा ॥ तथा उन महर्षि महोदयका भी कामासक्तचित्तसे उसके साथ अहर्निश रमण करते – करते , उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया ॥ एक दिन वे मुनिवर बड़ी शीघ्रतासे अपनी कुटीसे निकले । उनके निकलते समय वह सुन्दरी बोली ‘ ” “ आप कहाँ जाते हैं ” ॥

उसके इस प्रकार पूछनेपर मुनिने कहा – “ हे शुभे ! दिन अस्त हो चुका है , इसलिये मैं सन्ध्योपासना करूँगा ; नहीं तो नित्य – क्रिया नष्ट हो जायगी ” ॥ तब उस सुन्दर दाँतोंवालीने उन मुनीश्वरसे हँसकर कहा – “ हे सर्वधर्मज्ञ ! क्या आज ही आपका दिन अस्त हुआ है ? ॥ हे विप्र ! अनेकों वर्षोंके पश्चात् आज आपका दिन अस्त हुआ है ; इससे कहिये , किसको आश्चर्य न होगा ? ” ॥ गुपुर मुनि बोले – भद्रे ! नदीके इस सुन्दर तटपर तुम आज सबेरे ही तो आयी हो । [ मुझे भली प्रकार स्मरण है ] मैंने आज ही तुमको अपने आश्रममें प्रवेश करते देखा था ॥ अब दिनके समाप्त होनेपर यह सन्ध्याकाल हुआ है । फिर , सच तो कहो , ऐसा उपहास क्यों करती हो ? ॥

प्रम्लोचा बोली – ब्रह्मन् ! आपका यह कथन कि ‘ तुम सबेरे ही आयी हो ‘ ठीक ही है , इसमें झूठ नहीं ; परन्तु उस समयको तो आज सैकड़ों वर्ष बीत चुके ॥ सोमने कहा – तब उन विप्रवरने उस विशालाक्षीसे कुछ घबड़ाकर पूछा– “ अरी भीरु ! ठीक – ठीक बता , तेरे साथ रमण करते मुझे कितना समय बीत गया ? ” ॥ प्रम्लोचाने कहा- अबतक नौ सौ सात वर्ष , छः महीने तथा तीन दिन और भी बीत चुके हैं ॥ ऋषि बोले- अयि भीरु ! यह तू ठीक कहती है , या हे शुभे ! मेरी हँसी करती है ? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन रहा हूँ ॥

प्रम्लोचा बोली- हे ब्रह्मन् ! आपके निकट में झूठ कैसे बोल सकती हूँ ? और फिर विशेषतया उस समय जब कि आज आप अपने धर्म मार्गका अनुसरण करनेमें तत्पर होकर मुझसे पूछ रहे हैं ॥ सोमने कहा- हे राजकुमारो ! उसके ये सत्य वचन सुनकर मुनिने ‘ मुझे धिक्कार है । मुझे धिक्कार है । ‘ ऐसा कहकर स्वयं ही अपनेको बहुत कुछ भला – बुरा कहा ॥ मुनि बोले- ओह ! मेरा तप नष्ट हो गया , जो ब्रह्मवेत्ताओंका धन था वह लुट गया और विवेकबुद्धि मारी गयी । अहो ! स्त्रीको तो किसीने मोह उपजानेके लिये ही रचा है ॥ ‘ मुझे अपने मनको जीतकर छहों ऊर्मियों से अतीत परब्रह्मको जानना चाहिये’ जिसने मेरी इस प्रकारकी बुद्धिको नष्ट कर दिया , उस कामरूपी महाग्रहको धिक्कार है ॥

नरकग्रामके मार्गरूप इस स्त्रीके संगसे वेदवेद्य भगवान्‌की प्राप्तिके कारणरूप मेरे समस्त व्रत नष्ट हो गये ॥ इस प्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवरने अपने – आप ही अपनी निन्दा करते हुए वहाँ बैठी हुई उस अप्सरासे  कहा- ॥ “ अरी पापिनि ! अब तेरी जहाँ इच्छा हो चली जा , तूने अपनी भावभंगीसे मुझे मोहित करके इन्द्रका जो कार्य था वह पूरा कर लिया ॥ मैं अपने क्रोधसे प्रज्वलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं करता हूँ , क्योंकि सज्जनोंकी मित्रता सात पग साथ रहनेसे हो जाती है और मैं तो [ इतने दिन ] तेरे साथ निवास कर चुका हूँ ॥

अथवा इसमें तेरा दोष भी क्या है , जो तुझपर क्रोध करूँ ? दोष तो सारा मेरा ही है , क्योंकि में मैं बड़ा ही अजितेन्द्रिय हूँ ॥ तू महामोहकी पिटारी और अत्यन्त निन्दनीया है ।हाय ! तूने इन्द्रके स्वार्थके लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी !! तुझे धिक्कार है !!! ॥ सोमने कहा- वे ब्रह्मर्षि उस सुन्दरीसे जबतक ऐसा कहते रहे तबतक वह [ भयके कारण ] पसीनेमें सराबोर होकर अत्यन्त काँपती रही ॥ इस प्रकार जिसका समस्त शरीर पसीनेमें डूबा हुआ था और जो भयसे थर – थर काँप रही थी उस प्रम्लोचासे मुनिश्रेष्ठ कण्डुने क्रोधपूर्वक कहा – ‘ अरी ! तू चली जा ! चली जा !! ॥ तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रमसे निकली और आकाश – मार्गसे जाते हुए उसने अपना पसीना वृक्षके पत्तोंसे पोंछा ॥

मारिषा का पूर्वजन्म:

वह बाला वृक्षोंके नवीन लाल – लाल पत्तोंसे अपने पसीनेसे तर शरीरको पोंछती हुई एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर चलती गयी ॥ उस समय ऋषिने उसके शरीरमें जो गर्भ स्थापित किया था ; वह भी रोमांचसे निकले हुए पसीनेके रूपमें उसके शरीरसे बाहर निकल आया ॥ उस गर्भको वृक्षोंने ग्रहण कर लिया , उसे वायुने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी किरणोंसे उसे पोषित पोषित करने लगा । इससे वह धीरे – धीरे बढ़ गया ॥ वृक्षाग्रसे उत्पन्न हुई वह मारिषा नामकी सुमुखी कन्या तुम्हें वृक्षगण समर्पण करेंगे । अतः अब यह क्रोध शान्त करो ॥

इस प्रकार वृक्षोंसे उत्पन्न हुई वह कन्या प्रम्लोचाकी पुत्री है तथा कण्डु मुनिकी , मेरी और वायुकी भी सन्तान है ॥  [ तब यह सोचकर कि प्रचेतागण योगभ्रष्टकी कन्या होनेसे मारिषाको अग्राह्य न समझें सोमदेवने कहा- ] साधुश्रेष्ठ भगवान् कण्डु भी तपके क्षीण हो जानेसे पुरुषोत्तमक्षेत्र नामक भगवान् विष्णुकी निवास – भूमिको गये और हे राजपुत्रो ! वहाँ वे महायोगी एकनिष्ठ होकर एकाग्रचित्तसे ब्रह्मपार मन्त्रका जप करते हुए ऊर्ध्वबाहु रहकर श्रीविष्णुभगवान्को आराधना करने लगे ॥ प्रचेतागण बोले- हम कण्डु मुनिका ब्रह्मपार नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं , जिसका हुए उन्होंने श्रीकेशवकी आराधना की थी ॥

सोमने कहा- [ हे राजकुमारो ! वह मन्त्र इस प्रकार है- ] ‘ श्रीविष्णुभगवान् संसार – मार्गकी अन्तिम अवधि हैं , उनका पार पाना कठिन है , वे पर ( आकाशादि ) से भी पर अर्थात् अनन्त हैं , है , अतः सत्यस्वरूप हैं । तपोनिष्ठ महात्माओंको ही वे प्राप्त हो सकते हैं , क्योंकि वे पर ( अनात्म – प्रपंच ) -से परे हैं तथा पर ( इन्द्रियों ) के अगोचर परमात्मा हैं और [ भक्तोंके ] पालक एवं [ उनके अभीष्टको ] पूर्ण करनेवाले हैं ॥

वे कारण ( पंचभूत ) – के कारण ( पंचतन्मात्रा ) – के हेतु ( तामस अहंकार ) और उसके भी हेतु ( महत्तत्त्व ) -के हेतु ( प्रधान ) के भी परम हेतु हैं और इस प्रकार समस्त कर्म और कर्ता आदिके सहित कार्यरूपसे स्थित सकल प्रपंचका पालन करते हैं ॥ ब्रह्म ही प्रभु है , ब्रह्म ही सर्व कल जीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजाका पति ( रक्षक ) तथा अविनाशी है । वह ब्रह्म अव्यय , नित्य और अजन्मा है । तथा वही क्षय आदि समस्त विकारोंसे शून्य विष्णु है ॥

प्रचेताओं के वंशज:

क्योंकि वह अक्षर , अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु हैं , इसलिये । उनका नित्य अनुरक्त भक होने के कारण ] मेरे राग आदि दोष शान्त हो ॥  इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्रका जप करते हुए श्रीकेशवकी आराधना करनेसे उन मुनीश्वरने परमसिद्धि प्राप्त की ॥ [ जो पुरुष इस स्तवको नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोपों से मुक्त होकर अपना मनोवांछित फल प्राप्त करता है । अ मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि यह मारिया पूर्वजन्ममें कौन थी । यह बता देनेसे तुम्हारे कार्यका गौरव सफल होगा । [ अर्थात् तुम प्रजा वृद्धिरूप फल प्राप्त कर सकोगे ] ॥ यह साध्वी अपने पूर्व जन्ममें एक महारानी थी ।

पुत्रहीन अवस्थामें ही पतिके मर जानेपर इस महाभागाने अपने भक्तिभावसे विष्णुभगवान्‌को सन्तुष्ट किया ॥ इसकी आराधनासे प्रसन्न हो विष्णुभगवान्ने प्रकट होकर कहा- ” हे शुभे वर माँग । ” तब इसने अपनी मनोभिलाषा इस प्रकार कह सुनायी ॥ ” भगवन् ! बाल – विधवा होनेके कारण मेरा जन्म व्यर्थ ही हुआ । हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी हूँ कि फलहीन ( पुत्रहीन ) ही उत्पन्न हुई ॥ अतः आपकी कृपासे जन्म – जन्ममें मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हों और प्रजापति ( ब्रह्माजी ) के समान पुत्र हो ॥

और हे अधोक्षज ! आपके प्रसादसे मैं भी कुल , शील , अवस्था , सत्य , दाक्षिण्य ( कार्य कुशलता ) , शीघ्रकारिता , अविसंवादिता ( उलटा न कहना ) , सत्त्व , वृद्धसेवा और कृतज्ञता आदि गुणोंसे तथा सुन्दर रूपसम्पत्तिसे सम्पन्न और सबको प्रिय लगनेवाली अयोनिजा ( माताके गर्भसे जन्म लिये बिना ) ही उत्पन्न होऊँ ‘ ।।

सोम बोले उसके ऐसा कहनेपर वरदायक परमेश्वर देवाधिदेव श्रीहृषीकेशने प्रणामके लिये झुकी हुई उस बालाको उठाकर कहा ॥ भगवान् बोले- तेरे एक ही जन्ममें बड़े पराक्रमी और विख्यात कर्मवीर दस पति होंगे और हे शोभने ! उसी समय तुझे प्रजापतिके समान एक महावीर्यवान् एवं अत्यन्त बल – विक्रमयुक्त पुत्र भी प्राप्त होगा ॥ वह इस संसारमें कितने ही वंशोंको चलानेवाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिलोकीमें फैल जायगी ॥

तथा तू भी मेरी कृपासे उदाररूप – गुणसम्पन्ना , सुशीला और  मनुष्योंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही उत्पन्न होगी ॥ हे राजपुत्रो ! उस विशालाक्षीसे ऐसा कह भगवान् अन्तर्धान हो गये और वही यह मारिषाके रूपसे उत्पन्न हुई तुम्हारी पत्नी है ॥  तब सोमदेवके कहनेसे प्रचेताओंने अपना क्रोध शान्त किया और मारिषाको वृक्षोंसे पत्नीरूपमें ग्रहण किया ॥ उन दसों प्रचेताओंसे मारिषाके महाभाग दक्ष प्रजापतिका जन्म हुआ , जो पहले ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुए थे ॥ 

उन महाभाग दक्षने , ब्रह्माजीकी आज्ञा पालते हुए सर्ग – रचनाके लिये उद्यत होकर उनकी अपनी सृष्टि बढ़ाने और सन्तान उत्पन्न करनेके लिये नीच – ऊँच तथा द्विपद – चतुष्पद आदि नाना प्रकारके जीवोंको पुत्ररूपसे उत्पन्न किया ॥ प्रजापति दक्षने पहले मनसे ही सृष्टि करके फिर स्त्रियोंकी उत्पत्ति की । उनमेंसे दस धर्मको और तेरह कश्यपको दीं तथा काल -परिवर्तनमें नियुक्त [ अश्विनी आदि ] सत्ताईस चन्द्रमाको विवाह दीं ॥ उन्हींसे देवता , दैत्य , नाग , गौ , पक्षी , गन्धर्व , अप्सरा और दानव आदि उत्पन्न हुए ॥ हे मैत्रेय ! दक्षके समयसे ही प्रजाका मैथुन ( स्त्री – पुरुष – सम्बन्ध ) द्वारा उत्पन्न होना आरम्भ हुआ है । उससे पहले तो अत्यन्त तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषोंके तपोबलसे उनके संकल्प , दर्शन अथवा स्पर्शमात्रसे ही प्रजा उत्पन्न होती थी ॥

दक्ष की उत्पत्ति:

 दक्षका जन्म ब्रह्माजीके दायें अँगूठेसे हुआ था , फिर वे प्रचेताओंके पुत्र किस प्रकार हुए ? ॥ मेरे हृदयमें यह बड़ा सन्देह है कि सोमदेवके दौहित्र ( धेवते ) होकर भी फिर वे उनके श्वशुर हुए ! ॥  प्राणियोंके उत्पत्ति और नाश [ प्रवाहरूपसे ] निरन्तर हुआ करते हैं । इस विषयमें ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्टि – पुरुषोंको कोई मोह नहीं होता ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! ये दक्षादि युग युगमें होते हैं और फिर लीन हो जाते हैं ; इसमें | विद्वान्‌को किसी प्रकारका सन्देह नहीं होता ॥ हे | द्विजोत्तम ! इनमें पहले किसी प्रकारकी ज्येष्ठता अथवा | कनिष्ठता भी नहीं थी । उस समय तप और प्रभाव ही उनकी ज्येष्ठताका कारण होता था ॥

 स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजीकी ऐसी आज्ञा होनेपर कि तुम प्रजा उत्पन्न करो ‘ दक्षने पूर्वकालमें जिस प्रकार प्राणियोंकी रचना की थी वह सुनो ॥ उस समय पहले तो दक्षने ऋषि , गन्धर्व , असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियोंको ही उत्पन्न किया ॥ इस प्रकार रचना करते हुए जब उनकी वह प्रजा और न बढ़ी तो उन प्रजापतिने सृष्टिकी वृद्धिके लिये मनमें विचारकर मैथुनधर्मसे नाना प्रकारकी प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छासे वीरण प्रजापतिकी अति तपस्विनी और लोकधारिणी पुत्री असिक्नीसे विवाह किया ॥

तदनन्तर वीर्यवान् प्रजापति दक्षने सर्गकी वृद्धिके लिये वीरणसुता असिक्नीसे पाँच सहस्र पुत्र उत्पन्न किये ॥ उन्हें प्रजा – वृद्धिके इच्छुक देख प्रियवादी देवर्षि नारदने उनके निकट जाकर इस प्रकार कहा- ॥ ” हे महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगोंकी ऐसी चेष्टा प्रतीत होती है कि आप प्रजा उत्पन्न करेंगे , सो मेरा यह कथन सुनो ॥ खेदकी बात है , तुमलोग अभी निरे अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथिवीका मध्य , ऊर्ध्व ( ऊपरी भाग ) और अधः ( नीचेका भाग ) कुछ भी नहीं जानते , फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ?

देखो , तुम्हारी गति इस ब्रह्माण्डमें ऊपर – नीचे और इधर – उधर सब ओर अप्रतिहत ( बे – रोक – टोक ) है ; अतः हे अज्ञानियो ! तुम सब मिलकर इस क्यों नहीं देखते ? ” पृथिवीका अन्त क्यों नहीं देखते? नारदजीके ये वचन सुनकर वे सब भिन्न भिन्न दिशाओंको चले गये और समुद्र में जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटतीं उसी प्रकार वे भी आजतक नहीं लौटे ॥ हर्यश्वोंके इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओंके पुत्र दक्षने वैरुणीसे एक सहस्र पुत्र और उत्पन्न किये ॥ वे शबलाश्वगण भी प्रजा बढ़ाने के इच्छुक हुए , किन्तु हे ब्रह्मन् ! उनसे नारदजीने ही फिर पूर्वोक्त बातें कह दीं ।

प्रजापति दक्ष के पुत्रों की कथा:

तब वे सब आपसमें एक – दूसरेसे कहने लगे – ‘ नारदजी ठीक कहते हैं , हमको भी , इसमें सन्देह नही अपने भाइयोंके मार्गका ही अवलम्बन करना चाहिये। हम भी पृथिवीका परिमाण जानकर ही सृष्टि करेंगे ।इस प्रकार वे भी उसी मार्गसे समस्त दिशाओंको गये और समुद्रगत नदियोंके समान आजतक नहीं लौटे ॥ तबसे ही यदि भाईको खोजनेके लिये भाई ही जाय तो वह नष्ट हो जाता है , अतः विज्ञ पुरुषको ऐसा न करना चाहिये ॥ महाभाग दक्ष प्रजापतिने उन पुत्रोंको भी गये जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया ॥

हमने सुना है कि फिर उस विद्वान् प्रजापतिने सर्गवृद्धिकी इच्छासे वैरुणीसे साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं ॥ उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको , तेरह कश्यपको , सत्ताईस सोम ( चन्द्रमा ) को और चार अरिष्टनेमिको दीं ॥तथा दो बहुपुत्र , अंगिरा और दो कृशाश्वको विवाहीं । अब उनक नाम सुनो ॥ अरुन्धती , वसु , यामी , लम्बा , भानु , मरुत्वती , संकल्पा , मुहूर्ता , साध्या और विश्वा- ये दस धर्मकी पत्नियाँ थीं ; अब तुम इनके पुत्रोंका विवरण सुनो ॥

विश्वाके पुत्र विश्वेदेवा थे , साध्यासे साध्यगण हुए , मरुत्वतीसे मरुत्वान् और वसुसे वसुगण हुए भानुसे भानु और मुहूर्तास मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए।लम्बासे घोष , यामीसे नागवीथी और अरुन्धतीसे समस्त पृथिवी – विषयक प्राणी हुए तथा संकल्पासे सर्वात्मक संकल्पकी उत्पत्ति हुई ॥ नाना प्रकारका वसु ( तेज अथवा धन ) ही जिनका प्राण है ऐसे ज्योति आदि जो आठ वसुगण विख्यात हैं , अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ ॥

उनके नाम आप , ध्रुव , सोम , धर्म , अनिल ( वायु ) , अनल ( अग्नि ) , प्रत्यूष और प्रभास कहे जाते हैं ॥ आपके पुत्र वैतण्ड , श्रम , शान्त और ध्वनि हुए तथा ध्रुवके पुत्र लोक – संहारक भगवान् काल हुए ॥ भगवान् वर्चा सोमके पुत्र थे जिनसे पुरुष वर्चस्वी ( तेजस्वी ) हो जाता है और धर्मके उनको भार्या मनोहरासे द्रविण , हुत एवं हव्यवह तथा शिशिर प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए ॥

अनिलकी पत्नी शिवा थी उससे अनिलके मनोजव और अविज्ञातगति- ये दो पुत्र हुए ॥ अग्निके पुत्र कुमार शरस्तम्ब ( सरकण्डे ) से उत्पन्न हुए थे , ये कृत्तिकाओंके पुत्र होनेसे कार्तिकेय कहलाये । शाख , विशाख और नैगमेय इनके छोटे भाई थे ॥ देवल नामक ऋषिको प्रत्यूषका पुत्र कहा जाता है । इन देवलके भी दो क्षमाशील और मनीषी पुत्र हुए ॥ बृहस्पतिजीकी बहिन वरस्त्री , जो ब्रह्मचारिणी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त भावसे समस्त भूमण्डलमें विचरती थी , आठवें वसु प्रभासकी भार्या हुई ॥

उससे सहस्रों शिल्पों ( कारीगरियों ) के कर्ता और देवताओंके शिल्पी महाभाग प्रजापति विश्वकर्माका जन्म हुआ ॥ जो समस्त शिल्पकारोंमें श्रेष्ठ और सब प्रकारके आभूषण बनानेवाले हुए तथा जिन्होंने देवताओंके सम्पूर्ण विमानोंकी रचना की और जिन महात्माकी [ आविष्कृता ] शिल्पविद्याके आश्रयसे बहुत से मनुष्य जीवन निर्वाह करते हैं ॥ उन विश्वकर्माके चार पुत्र थे ; उनके नाम सुनो । वे अजैकपाद , अहिर्बुध्न्य , त्वष्टा और परम पुरुषार्थी रुद्र थे । उनमेंसे त्वष्टाके पुत्र महातपस्वी विश्वरूप थे ॥

हर , बहुरूप , त्र्यम्बक , अपराजित , वृषाकपि , शम्भु , कपर्दी , रैवत , मृगव्याध , शर्व और कपाली ये त्रिलोकीके अधीश्वर ग्यारह रुद्र कहे गये हैं । ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रुद्र प्रसिद्ध हैं ॥ जो [ दक्षकन्याएँ ] कश्यपजीकी स्त्रियाँ हुईं उनके नाम सुनो – वे अदिति , दिति , दनु , अरिष्टा , सुरसा , खसा , सुरभि , विनता , ताम्रा , क्रोधवशा , इरा , कद्रु और मुनि थीं । हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनकी सन्तानका विवरण श्रवण करो ॥ पूर्व ( चाक्षुष ) मन्वन्तरमें तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देवगण थे । वे यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तरके पश्चात् वैवस्वत मन्वन्तरके उपस्थित होनेपर एक दूसरेके पास जाकर मिले और परस्पर कहने लगे- ॥

 हमलोग शीघ्र ही अदितिक गर्भ में प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तरमें जन्म लें , इसी  हमारा हित है ” ॥ इस प्रकार चाक्षुष – मन्वन्तर निश्चयकर उन सबने मरीचिपुत्र कश्यपजीके यहाँ दक्षकन्या अदितिके गर्भसे जन्म लिया ॥ वे अति तेजस्वी उससे उत्पन्न होकर विष्णु , इन्द्र , अर्यमा , धाता , त्वष्टा , पूषा , विवस्वान् , सविता , मैत्र , वरुण , अंशु और भग नामक द्वादश आदित्य कहलाये ॥ इस प्रकार पहले चाक्षुष – मन्वन्तरमें जो तुषित नामक देवगण थे वे ही वैवस्वत मन्वन्तरमें द्वादश आदित्य हुए ॥ सोमकी जिन सत्ताईस सुव्रता पत्नियोंके विषयमें पहले कह चुके हैं वे सब नक्षत्रयोगिनी हैं और उन नामोंसे ही विख्यात हैं ॥

उन अति तेजस्विनियोंसे अनेक प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न हुए अरिष्टनेमिकी पत्नियोंके सोलह पुत्र हुए । बुद्धिमान् बहुपुत्रकी भार्या [ कपिला , अतिलोहिता , पीता और अशिता * नामक ] चार प्रकारकी विद्युत् कही जाती हैं ॥ ब्रह्मर्षियोंसे सत्कृत ऋचाओंके अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यंगिरासे उत्पन्न हुए हैं तथा शास्त्रोंके अभिमानी देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाश्वकी सन्तान कहे जाते हैं ।हे तात ! [ आठ वसु , ग्यारह रुद्र , बारह आदित्य , प्रजापति और वषट्कार ] ये तैंतीस वेदोक्त देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले हैं । कहते हैं , इस लोकमें इनके उत्पत्ति और निरोध निरन्तर हुआ करते हैं । ये एक हजार युगके अनन्तर पुनः – पुनः उत्पन्न होते रहते हैं ॥

जिस प्रकार लोकमें सूर्यके अस्त और उदय निरन्तर हुआ करते हैं उसी प्रकार ये देवगण भी युग – युगमें उत्पन्न होते रहते हैं ॥ हमने सुना है दितिके कश्यपजीके वीर्यसे परम दुर्जय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हुई जो विप्रचित्तिको विवाही गयी ॥ हिरण्यकशिपुके अति तेजस्वी और महापराक्रमी अनुह्लाद , ह्लाद , बुद्धिमान् प्रह्लाद और संह्लाद नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यवंशको बढ़ानेवाले थे ॥

 उनमें प्रह्लादजी सर्वत्र समदर्शी और जितेन्द्रिय थे , जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान्‌की परम भक्तिका वर्णन किया था ॥ जिनको दैत्यराजद्वारा दीप्त किये हुए अग्निने उनके सर्वांगमें व्याप्त होकर भी , हृदयमें वासुदेव भगवान्के स्थित रहनेसे नहीं जला पाया ॥ जिन महाबुद्धिमान्‌के पाशबद्ध होकर समुद्रके जलमें पड़े – पड़े इधर – उधर हिलने – डुलनेसे सारी पृथिवी हिलने लगी थी ॥ जिनका पर्वतके समान कठोर शरीर , सर्वत्र भगवच्चित्त रहनेके कारण दैत्यराजके चलाये हुए अस्त्र – शस्त्रोंसे भी छिन्न भिन्न नहीं हुआ ॥

दैत्यराजद्वारा प्रेरित विषाग्निसे प्रज्वलित मुखवाले सर्प भी जिन महातेजस्वीका अन्त नहीं कर सके ॥ जिन्होंने भगवत्स्मरणरूपी कवच धारण किये रहनेके कारण पुरुषोत्तम भगवान्का स्मरण करते हुए पत्थरोंकी मार पड़नेपर भी अपने प्राणोंको नहीं छोड़ा ।। स्वर्गनिवासी दैत्यपतिद्वारा ऊपरसे गिराये जानेपर जिन महामतिको पृथिवीने पास जाकर बीचहीमें अपनी गोदमें धारण कर लिया ॥ चित्तमें श्रीमधुसूदनभगवान्के स्थित रहनेसे दैत्यराजका नियुक्त किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीरमें लगनेसे शान्त हो गया ॥ दैत्येन्द्रद्वारा आक्रमणके लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजोंके दाँत जिनके वक्षःस्थलमें लगनेसे टूट गये और उनका सारा मद चूर्ण हो गया ॥

पूर्वकालमें दैत्यराजके पुरोहितोंकी उत्पन्न की हुई कृत्या भी जिन गोविन्दासक्तचित्त भक्तराजके अन्तका कारण नहीं हो सकी ॥ जिनके ऊपर प्रयुक्त की हुई अति मायावी शम्बरासुरकी हजारों मायाएँ श्रीकृष्णचन्द्रके चक्रसे व्यर्थ हो गयीं ॥ जिन मतिमान् और निर्मत्सरने दैत्यराजके रसोइयोंके लाये हुए हलाहल विषको निर्विकार – भावसे पचा लिया ॥ जो इस संसारमें समस्त प्राणियोंके प्रति समानचित्त और अपने समान ही दूसरोंके लिये भी परमप्रेमयुक्त थे ॥ और जो परम धर्मात्मा महापुरुष , सत्य एवं शौर्य आदि गुणोंकी खानि तथा समस्त साधु – पुरुषोंके लिये उपमानस्वरूप हुए थे ॥

 

MEGHA PATIDAR
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