विष्णुके परम ( उपाधिरहित ) स्वरूपसे प्रधान और पुरुष के दो रूप
विष्णुके परम ( उपाधिरहित ) स्वरूपसे प्रधान और पुरुष – ये दो रूप हुए ; उसी ( विष्णु ) – के जिस अन्य रूपके द्वारा वे दोनों [ सृष्टि और प्रलयकालमें ] संयुक्त और वियुक्त होते हैं , उस रूपान्तरका ही नाम ‘ काल ‘ है |
प्रलयकाल में प्रधान और पुरुष की स्थिति
बीते हुए प्रलयकालमें यह व्यक्त प्रपंच प्रकृतिमें लीन था , इसलिये प्रपंचके इस प्रलयको प्राकृत प्रलय कहते हैं | कालरूप भगवान् अनादि हैं , इनका अन्त नहीं है इसलिये संसारकी उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते [ वे प्रवाहरूपसे निरन्तर होते रहते हैं ] | प्रलयकालमें प्रधान ( प्रकृति ) के साम्यावस्थामें स्थित हो जानेपर और पुरुषके प्रकृतिसे पृथक् स्थित हो जानेपर विष्णुभगवान्का कालरूप [ इन दोनोंको धारण करनेके लिये ] प्रवृत्त होता है |
सर्गकाल में परमेश्वर की भूमिका
तदनन्तर [ सर्गकाल उपस्थित होनेपर ] उन परब्रह्म परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वरने अपनी इच्छासे विकारी प्रधान और अविकारी पुरुषमें प्रविष्ट होकर उनको क्षोभित किया | जिस प्रकार क्रियाशील न होनेपर भी गन्ध अपनी सन्निधिमात्रसे ही मनको क्षुभित कर देता है उसी प्रकार परमेश्वर अपनी सन्निधिमात्रसे ही प्रधान और पुरुषको प्रेरित करते हैं | वह पुरुषोत्तम ही इनको क्षोभित करनेवाले हैं और वे ही क्षुब्ध होते हैं तथा संकोच ( साम्य ) और विकास ( क्षोभ ) युक्त प्रधानरूपसे भी वे ही स्थित हैं | ब्रह्मादि समस्त ईश्वरोंके ईश्वर वे विष्णु ही समष्टि – व्यष्टिरूप , ब्रह्मादि जीवरूप तथा महत्तत्त्वरूपसे स्थित हैं |