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7. प्रभु नाम स्मरण

प्रभु नाम स्मरण

प्रभु नाम स्मरण

राम रामेति रामेति राम रामो मनोरमे।

सहस्र नाममिस्तुल्यं रामनाम वरानने ।।

नारद पंचरात्र में पार्वती ने महादेव से पूछा है कि हे महादेव ! सर्व नामों में सुख पूर्वक उच्चारण करने में कौनसा नाम श्रेष्ठ हैं। तब महादेवजी ने कहा, “हे मनोरमे ! जिस पर परमात्मा सच्चिदानन्द में योगीजनों के मन संसारी विषयों को छोड़कर रमण करते हैं उसका नाम राम है, हे वरानने ! एकाग्रचित से राम इस सुमुख नाम के उच्चारण राम नाम को हजार नाम के तुल्य कहा है इस कारण से यह नाम श्रेष्ठ है।”

अध्यात्म रामायण में पार्वतीजी ने महादेव से पूछा है कि हे देव! रामनाम लेने से क्या फल होता है। महादेवजी ने कहा है कि पार्वती, जो पुरुष एकाग्रचित से राम-राम, इस नाम को मधुर वाणी से एक क्षण भी गायन करता है, वो पुरुष ब्रह्महत्या के पाप से और सुरापान के पाप से और सर्व पापों से मुक्त हो जाता है।

वाल्मीकि रामायण में श्री रामचन्द्र जी ने कहा है कि हे मैं आपका हूँ उन सर्व के लिये मैं अभयदान देता हूँ, यह मेरा व्रत है। सुग्रीव! जो प्राणी एक बार भी मेरी शरण में आकर याचना करता है कि

स्कन्ध पुराण में यमराज अपने दूतों को कहते हैं कि, हे दूतों पुरुष, , हे गोविन्द, हे माधव, हे मुकुन्द, हे मुरारी, हे शम्भोशिव, हे दामोदर, हे वासुदेव आदि नामों का सर्वदा उच्चारण करने वाले हैं. उन पुरुषों को दूर से ही त्याग देना क्योंकि ईश्वर के नाम लेने वालों का मैं यम शासनकर्त्ता नहीं हूँ।

नरसिंह पुराण में व्यासजी ने कहा है कि हे शुकवात ! “ओम् नमो नारायण” यह मन्त्र सर्व अर्थों को सिद्ध करने वाला है। जप करने वाले भक्तों को चित्त शुद्धि पूर्वक जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत ज्ञान द्वारा अपुनरावृत्ति रूप मोक्ष फल को देने वाला है।

ओम् हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

कलिसंत तरणोपनिषद् में नारद्जी के पूछने पर ब्रह्मा ने कहा है कि ओम हरे राम हरे राम राम हरे हरे ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। यह षोडश (१६) नामक मन्त्र ही कलियुग में पापों का नाशक है। इस मन्त्र से बढ़कर दूसरा कोई उपाय कल्याण का सर्व वेदों मे नहीं देखा जाता है। यह षोडश नामक मन्त्र के जपने से कोई विधि नहीं है। स्नान करके अथवा बिना स्नान करे चलता फिरता बैठा हुआ, पड़ा हुआ सर्व प्रकार से जप कर सकता है।

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृति नोअर्जन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।

गीता में श्रीकृष्णचन्द्र भगवान ने कहा है कि चार प्रकार के पुण्यकारी पुरुष मुझे भजते हैं एक तो चोर, व्याघ्र रोग आदि के भय से युक्त आर्त, दूसरा मुझ (भगवान् के) तत्वस्वरूप को जानने कीइच्छा वाला जिज्ञासु, तीसरा धन की कामना वाला अर्थार्थी, चौथा मेरे विष्णु के तत्त्व स्वरूप को जानने वाला ज्ञानी, हे भारत ! ये चार मेरा सेवन करते हैं।विष्णु पुराण में कहा है कि भूत प्राणियों की उत्पत्ति, प्रलय और आना, जाना तथा जन्म-मरण मोक्षकारी विद्या, बन्धनकारी अविद्या इन छैओं को जो जाने वो भगवान् कहा जाता है।

करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयंतम्।

वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुंदं मनसास्मरामि।।

कंठे सुमालं तिलकांक भालं सौन्दर्यनिष्काशित मेघजालम्।

रिपोः कशलं जलजामृणालं बालमुकुन्दं मनसास्मरामि ।

गोपालबालं भुवनैकपालं संसारमायामति मोहजालम्

यशोविशालम् शिशुपालकालं बाल मुकुन्दम् मनसास्मरामि ।।

महाभारतसार में विष्णु की माया से मोहित मार्कण्डेय ऋषि ने प्रलय काल के समुद्र में वट पत्रशायी बालमुकुन्दजी की स्तुति की है।  हे भगवान्, आप कमलरूपी हाथों से चरण कमल को मुखरूपी कमल में लेकर चूमते हुए वट पत्रशायी, आप बालमुकुन्द को मैं मन से स्मरण करता हूँ।

गले में शुभ मालाधारी, भाल पर तिलकधारी, मेघों के समूह से निकले हुए श्यामसुन्दर रूपधारी, शत्रु को भयकारी, पदम् के तन्तु सम कोमल आप बालमुकुन्द को, मैं मन से स्मरण करता हूँ। गोपालबाल स्वरूपधारी सर्व लोको के एक अद्वितीय पालक अति मोहजाल रूपी संसार मायाधारी महान यश वाले, शिशुपाल के कालरूप आप बालमुकुन्द को, मैं मन से स्मरण करता है। इस प्रकार बालमुकुन्द की स्तुति करके मार्कण्डेय ऋषि प्रलयकारी समुद्र की तरंगों की व्यथा से निवृत्त होते गये।

काल रात्रिं ब्रहास्तुतां वैष्णवीं स्कन्द मातरम्।

देव्योपनिषद् में कहा है कि काल रात्रि देवी और ब्रह्मा से स्तुति सावित्री देवी और लक्ष्मीजी और स्कन्द की माता पार्वती इन सबको एक अद्वैत स्वरूप मानकर नमस्कार करना उचित है।

कपूरगौरं करुणावतारं संसार सारं भुजगेन्द्रहारम्।

सदावसंतं हृदयारविंदे भवंभवानी सहितं नमामि ।

लख संख्यक शिवपुराण में कहा है कि कपूर के सम गौर वर्ण वाले, भक्तों पर कृपा कर अवतार धारण करने वाले, संसार में सार रूप, भुजेन्द्र महान सर्पों का गले में हार धारण करने वाले, सदा भक्तों के हृदय में वास करने वाले ऐसे भयनाशक महादेव को पार्वती के सहित नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार महादेव का ध्यान करें।

सौराष्ट्र सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जियन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम्।

केदारं हिमवत्पृष्टे डाकिन्यां भीमशंकरम्।

कराणस्यां च विश्वेशं त्रम्बकं गौतमी तटे ।।

बैद्यनाथं चिता भूमौ नागेशं दारुका वने।

सेतुबन्धे च रामेशं घुसमेशं शिवालये।।

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शिवपुराण में कहा है कि सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकारेश्वर में ओंकारनाथ, परमेश्वर (दोनों ज्योतिर्लिंग) डाकिनी में भीमशंकर, हिमालय पर्वत पर केदारनाथ, काशी में विश्वेश, दक्षिण गंगा गौतमी तट पर त्र्यम्बकं चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुका वन में नागेश, सेतुबन्ध में रामेश्वरम् और शिवालय में घुश्मेश नाम से ये १२ ज्योतिर्लिंग हैं इनको प्रातः सायं स्मरण करने वाला सर्व पापों से मुक्त हो जाता है।

ओ३म् नमः शिवाय।

यजुर्वेद में “ओ३म् नमः शिवाय” यह पांच अक्षरी मंत्र जप करना कल्याणकारी कहा है।

वराहोपनिषद् में कहा है कि जैसे पुरुष धन की इच्छा से धन वाले पुरुष की आदरपूर्वक स्तुति करता है, वैसे ही यदि विश्व के कर्ता हर्ता भर्ता ईश्वर परमात्मा की स्तुति की तो फिर संसार के बंधनों से वह अवश्य ही मुक्त हो जाता है।

सारतारोपनिषद् में कहा है कि “ओ३म्” अक्षर परब्रह्म स्वरूप है सो अवश्य ही उपासना करने योग्य है।

प्रणव उपासना

माण्डूककारिका में कहा है कि ओम् ही परब्रह्म है और ओम् ही सत्यज्ञान अनन्त स्वरूप परब्रह्म है। अविनाशी ओम् न पूर्व रूप है, न अन्तरूप है, न बाध्यरूप है और न अपर रूप है ऐसा प्रणव उपासनीय है।

प्रणव का महत्व

योगदर्शन में कहा है कि उस ईश्वर परमात्मा का वाचक रूप नाम प्रणव हैं।

सो ‘अहं’ इस मन्त्र का ‘ओम्’ बनता है सो नाम ब्रह्म का है अहं नाम जीव का है, इन दोनों की एकता का बोधक ओम् हैं। तिस ओम् रूप प्रणव का जीव ब्रह्म की एकता का निश्चय करना ही जप है। पुनः पुनः विचार कर जीव ब्रह्म की एकता निश्चय रूपी जप करने से प्रत्येक आत्मचेतन स्वरूप की प्राप्ति और ज्ञानयोग के प्रतिबन्धकविघ्नों का अभाव होता है।

प्रणव जप का अधिकार

नरसिंह पूर्व तापिन्युपनिषद् में कहा है कि प्रणव के अर्थ को जानकर यदि स्त्री, शुद्र जप करेंगे तो वो मरकर अधोगति को जायेंगे। इस कारण से आचार्य सर्वदा स्त्री, शुद्र को प्रणव की शिक्षा न दे, यदि किसी लोभ से स्त्री शुद्र को प्रणव की शिक्षा देगा तो शिक्षा देने वाला आचार्य भी उन स्त्री शुद्रों के सहित मरकर अधोगति को जावेगा।

पार्वती के लिए मन्त्र

स्कन्ध पुराण में कहा है कि एक समय पार्वती ने महादेव से प्रार्थना की कि हे प्राणनाथ मुझको जप करने के लिए आप प्रणव की शिक्षा दें। तब महादेव ने कहा हे पार्वती ! प्रणव की शिक्षा में तुम्हारा अधिकार नहीं है। अस्तु आप “ओम्’ को छोड़कर “नमो भगव वासुदेवाय’ इस मन्त्र को सर्वदा जपे क्योंकि स्त्री, शुद्र को चातुर्मा के व्रत क़ी दीक्षापूर्वक शुद्धि के बिना प्रणव के जप में अधिकार नहीं है। और शास्त्र की विधि को छोड़कर कोई भी शुभ गति नहीं पा सकते हैं।

गर्भ में जीव की स्थिति

गर्भोपनिषद् में कहा है कि प्राणी कर्मों के अनुसार माता के गर्भ में शरीर बन जाने पर सातवें मास में जीव से युक्त होता है और नवमें मास में मन बुद्धि ज्ञान इन्द्रियों से युक्त सम्पूर्ण हो जाता है।

तब माता के जठराग्नि से दग्ध होता हुआ सौ जन्म तक का ज्ञान होने से अपने पाप कर्मों को यादकर रुदन करता है। अहो कष्ट है जो मैंने स्त्री पुत्र बन्धु आदि परिवार पालन के लिये बहुत से पुण्य पाप कर्म किये और अपने लिये शुभ कर्म न किया उन पाप कर्मों से अब मैं अकेला ही माता के गर्भ में दग्ध हो रहा हूँ और बन्धुजन धनरूपी फल को भोग कर चले गये।

अहो दुःख समुद्र में मग्न हुआ मैं अपने दुःख की निवृत्ति का उपाय नहीं देख सकता हूँ, यदि इस गर्भ योनि से मुक्त हो जाऊँगा तो मैं महेश्वर परमात्मा की शरण को प्राप्त होऊँगा और अब ईश्वर के बिना दूसरों को अपना न मांनूगा ऐसी प्रार्थना करने पर गन्दे कीट के समान योनि से गिरता है। अमृतनादोपनिषद् में कहा है कि संयमहीन, रोगी, बालक और विषयासक्त पुरुषों के श्वासों की दिन रात्रि के प्रमाण से एक लाख तेरह हजार एक सौ अस्सी संख्या है।

अजपा जप

योगचुड़ामणिपनिषद् में कहा है कि इस मन्त्र को प्राणायाम का अभ्यासी संयमी पुरुष दिन रात्रि में श्वास प्रश्वास के साथ इक्कीस हजार छः सौ जाप सर्वदा करता है। यह स्वाभाविक होने से अजपा रूपी जाप कहा है संयमी पुरुष का श्वांस ही जप रूपी हो जाता है। ऐसे जप के बिना बहुत से श्वांस लेना लुहार की धोंकनी के समान व्यर्थ ही हैं।

जप के तीन प्रकार

शाण्डिल्योपनिषद् में जप तीन प्रकार का है कि उच्च स्वर से जप किया हुआ यथोक्त फल को देता है और मध्यम स्वर से किया हुआ पूर्वोक्त से हजार गुणा अधिक होता है। मुख न हिलाकर मानसी जप करने से पूर्वोक्त से करोड़ गुणा अधिक फल होता है।

जप की विधि

शिवपुराण में कहा है कि मानसी जप उत्तम है और धीरे-धीरे स्पष्ट न बोलकर जप करना मध्यम है और दूसरों को सुनाकर उच्च स्वर से वाचिक जप को शास्त्र ज्ञान में कुशल विद्वान अधम कहते हैं।

मानसी जप की महत्ता

पद्मपुराण में कहा है कि यदि उच्च स्वर में बोलकर राम नाम पुण्य होता तो तब तो कृषि करने वाला सर्वदा बैलों को चलाने में से उच्च स्वर से राम बोलते हुए महापुण्यशील होने चाहिए और यदि परिश्रम से करना ही पुण्यरूप होवे तो मन्त्र के उच्चारण से गर्जना करने में सिंह आदि का परिश्रम अधिक होने से सिंह भी धर्मात्मा सिद्ध होने चाहिये, परन्तु ऐसा होता नहीं है अस्तु दूसरे को विक्षेपकारी न होने से मानसी जप ही उत्तम कहा है।

जप की दिशा और अंग

लिंगपुराण में कहा है कि पूर्व को मुख कर जप करना वशकारी है। दक्षिण को मुख कर जप करना शत्रुनाशक है। पश्चिम को मुख कर जप करना धनदायक है और उत्तर को मुख कर जप करना शान्तिप्रद है।

अंगुष्ठ पर माला से जप करना मोक्षप्रद जानना, तर्जनी पर जपकर्ता को माला से जाप करना शत्रुनाशक है। मध्यमा पर माला से जाप करना धनप्रद है और अनामिका पर माला से जप करना, शान्तिप्रद है।

रुद्राक्ष का महत्व

रुद्राक्षजाबालोपनिषद् में कहा है कि पंचमुखी रुद्राक्ष सनातन पंच्च देवरूप ब्रह्म रूप है। पंचमुखी रुद्राक्ष स्वयं ब्रह्म स्वरूप होने से श्रद्धा से धारण कर्ता भी पुरुष हत्या का नाशक हैं।

उस रुद्राक्ष के जप करने से धारण करने से चारों वर्णाश्रमों के पुरुष पुण्य को प्राप्त होते हैं। आंवले के फल प्रमाण रुद्राक्ष श्रेष्ठ कहा है बैर के फल प्रमाण रुद्राक्ष मध्यम कहा है और चने के प्रमाण रुद्राक्ष अधम कहा है ऐसा रुद्राक्ष का माहात्म्य रुद्र भगवान् ने कहा है।

अक्षमालिकोपनिषद् में कहा है कि जो देवता देवलोक में स्थित है और पितर लोक में जो पितर स्थिति है। उन सर्व देवों और पितरों के प्रति हमारा नमस्कार है। वे सर्व देवता और पितर अखण्ड ज्ञान रूप अक्ष माला का हमारी शोभा के लिए अनुमोदन करे, ऐसी प्रार्थना पुरुष जप करने के काल में करे।

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