अपने अनुचरोंसहित उस गर्दभासुरके मारे जानेपर वह सुरम्य तालवन गोप और गोपियोंके लिये सुखदायक हो गया ॥ तदनन्तर धेनुकासुरको मारकर वे दोनों वसुदेवपुत्र प्रसन्नमनसे भाण्डीर नामक वटवृक्षके तले आये ॥ कन्धेपर गौ बाँधनेकी रस्सी डाले और वनमालासे विभूषित हुए वे दोनों महात्मा बालक सिंहनाद करते, गाते, वृक्षोंपर चढ़ते, दूरतक गौएँ चराते तथा उनका नाम ले-लेकर पुकारते हुए नये सींगोंवाले बछड़ोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥
उन दोनोंके वस्त्र [क्रमशः ] सुनहरी और श्याम रंगसे रँगे हुए थे अतः वे इन्द्रधनुषयुक्त श्वेत और श्याम मेघके समान जान पड़ते थे ॥ वे समस्त लोकपालोंके प्रभु पृथिवीपर अवतीर्ण होकर नाना प्रकारकी लौकिक लीलाओंसे परस्पर खेल रहे थे ॥ मनुष्यधर्ममें तत्पर रहकर मनुष्यताका सम्मान करते हुए वे मनुष्यजातिके गुणोंकी क्रीडाएँ करते हुए वनमें विचर रहे थे ॥ वे दोनों महाबली बालक कभी झूला झूलकर, कभी परस्पर मल्लयुद्धकर और कभी पत्थर फेंककर नाना प्रकारसे व्यायाम कर रहे थे ॥
प्रलम्बासुर का आगमन
इसी समय उन दोनों खेलते हुए बालकोंको उठा ले जानेकी इच्छासे प्रलम्ब नामक दैत्य गोपवेषमें अपनेको छिपाकर वहाँ आया ॥ दानवश्रेष्ठ प्रलम्ब मनुष्य न होनेपर भी मनुष्यरूप धारणकर निश्शंकभावसे उन बालकोंके बीच घुस गया ॥ उन दोनोंकी असावधानताका अवसर देखनेवाले उस दैत्यने कृष्णको तो सर्वथा अजेय समझा; अतः उसने बलरामजीको मारनेका निश्चय किया ॥
हरिणाक्रीडन खेल
तदनन्तर वे समस्त ग्वालबाल हरिणाक्रीडन नामक * खेल खेलते हुए आपसमें एक साथ दो-दो बालक उठे ॥
तब श्रीदामाके साथ कृष्णचन्द्र, प्रलम्बके साथ बलराम और इसी प्रकार अन्यान्य गोपोंके साथ और और ग्वालबाल [ होड़ बदकर] उछलते हुए चलने लगे ॥ अन्तमें, कृष्णचन्द्रने श्रीदामाको, बलरामजीने प्रलम्बको तथा अन्यान्य कृष्णपक्षीय गोपोंने अपने प्रतिपक्षियोंको हरा दिया ॥ उस खेलमें जो-जो बालक हारे थे, वे सब जीतनेवालोंको अपने अपने कन्धोंपर चढ़ाकर भाण्डीरवटतक ले जाकर वहाँसे फिर लौट आये ॥
प्रलम्बासुर का बलरामजी का अपहरण
किन्तु प्रलम्बासुर अपने कन्धेपर बलरामजीको चढ़ाकर चन्द्रमाके सहित मेघके समान अत्यन्त वेगसे आकाशमण्डलको चल दिया ॥ वह दानवश्रेष्ठ रोहिणीनन्दन श्रीबलभद्रजीके भारको सहन न कर सकनेके कारण वर्षाकालीन मेघके समान बढ़कर अत्यन्त स्थूल शरीरवाला हो गया ॥ तब माला और आभूषण धारण किये, सिरपर मुकुट पहने, गाड़ीके पहियोंके समान भयानक नेत्रोंवाले, अपने पादप्रहारसे पृथिवीको कम्पायमान करते हुए तथा दग्धपर्वतके समान आकारवाले उस दैत्यको देखकर उस निर्भय राक्षसके द्वारा ले जाये जाते हुए बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रसे कहा- ॥ “भैया कृष्ण! देखो, छद्मपूर्वक गोपवेष धारण करनेवाला कोई पर्वतके समान महाकाय दैत्य मुझे हरे लिये जाता है ॥ हे मधुसूदन ! अब मुझे क्या करना चाहिये, यह बतलाओ। देखो, यह दुरात्मा बड़ी शीघ्रतासे दौड़ा जा रहा है” ॥
तब रोहिणीनन्दनके बलवीर्यको जाननेवाले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने मधुर- मुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए उन बलरामजीसे कहा ॥
प्रलम्बासुर का वध
श्रीकृष्णचन्द्र बोले- हे सर्वात्मन्! आप सम्पूर्ण गुह्य पदार्थोंमें अत्यन्त गुह्यस्वरूप होकर भी यह स्पष्ट मानवभाव क्यों अवलम्बन कर रहे हैं ? ॥ आप अपने उस स्वरूपका स्मरण कीजिये जो समस्त संसारका कारण तथा कारणका भी पूर्ववर्ती है और प्रलयकालमें भी स्थित रहनेवाला है ॥ क्या आपको मालूम नहीं है कि आप और मैं दोनों ही इस संसारके एकमात्र कारण हैं और पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोकमें आये हैं ॥ हे अनन्त! आकाश आपका सिर है, मेघ केश हैं, पृथिवी चरण हैं, अग्नि मुख है, चन्द्रमा मन है, वायु श्वास-प्रश्वास हैं और चारों दिशाएँ हैं ॥
हे भगवन्! आप महाकाय हैं, आपके सहस्त्र मुख हैं तथा सहस्रों हाथ, पाँव आदि शरीरके भेद हैं। आप सहस्रों ब्रह्माओंके आदिकारण हैं, मुनिजन आपका सहस्रों प्रकार वर्णन करते हैं ॥ आपके दिव्य रूपको [आपके अतिरिक्त] और कोई नहीं जानता, अतः समस्त देवगण आपके अवताररूपकी ही उपासना करते हैं। क्या आपको विदित नहीं है कि अन्तमें यह सम्पूर्ण विश्व आपहीमें लीन हो जाता है॥ हे अनन्तमूर्ते! आपहीसे धारण की हुई यह पृथिवी सम्पूर्ण चराचर विश्वको धारण करती है।
हे अज! निमेषादि कालस्वरूप आप ही कृतयुग आदि भेदोंसे इस जगत्का ग्रास करते हैं ॥ जिस प्रकार बडवानलसे पीया हुआ जल वायुद्वारा हिमालयतक पहुँचाये जानेपर हिमका रूप धारण कर लेता है और फिर सूर्यकिरणोंका संयोग होनेसे जलरूप हो जाता है, उसी प्रकार हे ईश! यह समस्त जगत् [रुद्रादिरूपसे] आपहीके द्वारा विनष्ट होकर आप [परमेश्वर]-के ही अधीन रहता है और फिर प्रत्येक कल्पमें आपके [[हिरण्यगर्भरूपसे] सृष्टि रचनामें प्रवृत्त होनेपर यह [विराट्रूपसे] स्थूल जगद्रूप हो जाता है । हे विश्वात्मन्! आप और मैं दोनों ही इस जगत्के एकमात्र कारण हैं। संसारके हितके लिये। – ही हमने भिन्न-भिन्न रूप धारण किये हैं ॥
अतः हे अमेयात्मन्! आप स्मरण कीजिये और मनुष्यभावका ही अवलम्बन कर इस दैत्यको मारकर बन्धुजनोंका हित-साधन अपने स्वरूपको कीजिये ॥
महात्मा कृष्णचन्द्रद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर महाबलवान् बलरामजी हँसते हुए प्रलम्बासुरको पीडित करने लगे ॥ उन्होंने क्रोधसे नेत्र लाल करके उसके मस्तकपर एक घूँसा मारा, जिसकी चोटसे उस दैत्यके दोनों नेत्र बाहर निकल आये ॥
तदनन्तर वह दैत्यश्रेष्ठ मगज (मस्तिष्क) फट जानेपर मुखसे रक्त वमन करता हुआ पृथिवीपर गिर पड़ा और मर गया ॥ अद्भुतकर्मा बलरामजीद्वारा प्रलम्बासुरको मरा हुआ देखकर गोपगण प्रसन्न होकर ‘साधु, साधु’ कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ प्रलम्बासुरके मारे जानेपर बलरामजी गोपोंद्वारा प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्रके साथ गोकुलमें लौट आये ॥