7. निमेषादि काल-मान तथा नैमित्तिक प्रलयका वर्णन

प्राकृत प्रलय क्या है?

सम्पूर्ण प्राणियों का प्रलय नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यन्तिक तीन प्रकार का होता है॥  उनमेंसे जो कल्पान्त में ब्राह्म प्रलय होता है वह नैमित्तिक, जो मोक्ष नामक प्रलय है वह आत्यन्तिक और जो दो परार्द्धके अन्तमें होता है वह प्राकृत प्रलय कहलाता है ॥

भगवन्! आप मुझे परार्द्धकी संख्या बतलाइये, जिसको दूना करनेसे प्राकृत प्रलयका परिमाण जाना जा सके ॥  एकसे लेकर क्रमशः दशगुण गिनते-गिनते जो अठारहवीं बार गिनी जाती है वह संख्या परार्द्ध कहलाती है ॥ इस परार्द्धकी दूनी संख्यावाला प्राकृत प्रलय है, उस समय यह सम्पूर्ण जगत् अपने कारण अव्यक्तमें लीन हो जाता है ॥  मनुष्यका निमेष ही एक मात्रावाले अक्षरके उच्चारण-कालके समान परिमाणवाला होनेसे मात्रा कहलाता है; उन पन्द्रह निमेषोंकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला कही जाती है ॥ पन्द्रह कला एक नाडिकाका प्रमाण है। वह नाडिका साढ़े बारह पल ताँबेके बने हुए जलके पात्रसे जानी जा सकती है ॥

ब्रह्मा का एक दिन

मगधदेशीय मापसे वह पात्र जलप्रस्थ कहलाता है; उसमें चार अंगुल लम्बी चार मासेकी सुवर्ण-शलाकासे छिद्र किया रहता है [ उसके छिद्रको ऊपर करके जलमें डुबो देनेसे जितनी देरमें वह पात्र भर जाय उतने ही समयको एक नाडिका समझना चाहिये] ॥ ऐसी दो नाडिकाओं का एक मुहूर्त होता है, तीस मुहूर्तका एक दिन-रात होता है तथा इतने (तीस) ही दिन-रातका एक मास होता है ॥  बारह मासका एक वर्ष होता है, देवलोकमें यही एक दिन-रात होता है। ऐसे तीन सौ साठ वर्षोंका देवताओंका एक वर्ष होता है ॥  ऐसे बारह हजार दिव्य वर्षों का एक चतुर्युग होता है और एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है ॥

नैमित्तिक प्रलय क्या होता है ?

 यही एक कल्प है। इसमें चौदह मनु बीत जाते हैं।  इसके अन्तमें ब्रह्माका नैमित्तिक प्रलय होता है ॥ उस नैमित्तिक प्रलयका अत्यन्त भयानक रूप वर्णन करता हूँ। इसके पीछे मैं तुमसे प्राकृत प्रलयका भी वर्णन करूँगा ॥ एक सहस्र चतुर्युग बीतनेपर जब पृथिवी क्षीणप्राय हो जाती है तो सौ वर्षतक अति घोर अनावृष्टि होती है ॥  उस समय जो पार्थिव जीव अल्प शक्तिवाले होते हैं वे सब अनावृष्टिसे पीड़ित होकर सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥  तदनन्तर, रुद्ररूपधारी अव्ययात्मा भगवान् विष्णु संसारका क्षय करनेके लिये सम्पूर्ण प्रजाको अपनेमें लीन कर लेनेका प्रयत्न करते हैं ॥  उस समय भगवान् विष्णु सूर्यकी सातों किरणोंमें स्थित होकर सम्पूर्ण जलको सोख लेते हैं ॥

इस प्रकार प्राणियों तथा पृथिवीके अन्तर्गत सम्पूर्ण जलको सोखकर वे समस्त भूमण्डलको शुष्क कर देते हैं ॥ समुद्र तथा नदियोंमें, पर्वतीय सरिताओं और स्रोतोंमें तथा विभिन्न पातालोंमें जितना जल है वे उस सबको सुखा डालते हैं ॥ तब भगवान्के प्रभावसे प्रभावित होकर तथा जलपानसे पुष्ट होकर वे सातों सूर्यरश्मियाँ सात सूर्य हो जाती हैं॥ उस समय ऊपर-नीचे सब ओर देदीप्यमान होकर वे सातों सूर्य पातालपर्यन्त सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म कर डालते हैं ॥   उन प्रदीप्त भास्करोंसे दग्ध हुई त्रिलोकी पर्वत, नदी और समुद्रादिके सहित सर्वथा नीरस हो जाती है ॥ उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीके वृक्ष और जल आदिके दग्ध हो जानेसे यह  पृथिवी कछुएकी पीठके समान कठोर हो जाती है ॥ 

तब सबको नष्ट करनेके लिये उद्यत हुए श्रीहरि कालाग्नि-रुद्ररूपसे शेषनागके मुखसे प्रकट होकर नीचेसे पातालोंको जलाना आरम्भ करते हैं ॥  वह महान् अग्नि समस्त पातालोंको जलाकर पृथिवीपर पहुँचता है और सम्पूर्ण भूतलको भस्म कर डालता है॥  तब वह दारुण अग्नि भुवर्लोक तथा स्वर्गलोकको जला डालता है और वह ज्वाला-समूहका महान् आवर्त वहीं चक्कर लगाने लगता है ॥ इस प्रकार अग्निके आवतसे घिरकर सम्पूर्ण चराचरके नष्ट हो जानेपर समस्त त्रिलोकी एक तप्त कराहके समान प्रतीत होने लगती है॥  तदनन्तर अवस्थाके परिवर्तनसे परलोककी चाहवाले भुवर्लोक और स्वर्गलोकमें रहनेवाले [मन्वादि] अधिकारिगण अग्निज्वालासे सन्तप्त होकर महर्लोकको चले जाते हैं किन्तु वहाँ भी उस उग्र कालानलके महातापसे सन्तप्त होनेके कारण वे उससे बचनेके लिये जनलोकमें चले जाते हैं ॥ 

 तदनन्तर रुद्ररूपी भगवान् विष्णु सम्पूर्ण संसारको दग्ध करके अपने मुख-निःश्वाससे मेघोंको उत्पन्न करते हैं ॥ तब विद्युत्से युक्त भयंकर गर्जना करनेवाले गजसमूहके समान बृहदाकार संवर्तक नामक घोर मेघ आकाशमें उठते हैं ॥ उनमें से कोई मेघ नील कमलके समान श्यामवर्ण, कोई कुमुद-कुसुमके समान श्वेत, कोई धूम्रवर्ण और कोई पीतवर्ण होते हैं॥ कोई गधेके-से वर्णवाले, कोई लाखके-से रंगवाले, कोई वैडूर्य-मणिके समान और कोई इन्द्रनील-मणिके समान होते हैं ॥

 

कोई शंख और कुन्दके समान श्वेत-वर्ण, कोई जाती (चमेली)-के समान उज्ज्वल और कोई कज्जलके समान श्यामवर्ण, कोई इन्द्रगोपके समान रक्तवर्ण और कोई मयूरके समान विचित्र वर्णवाले होते हैं॥ कोई गेरूके समान, कोई हरितालके समान और कोई महामेघ, नील-कण्ठके पंखके समान रंगवाले होते हैं॥ कोई नगरके समान, कोई पर्वतके समान और कोई कूटागार (गृहविशेष)-के समान बृहदाकार होते हैं तथा कोई पृथिवीतलके समान विस्तृत होते हैं ॥  वे घनघोर शब्द करनेवाले महाकाय मेघगण आकाशको आच्छादित कर लेते हैं और मूसलाधार जल बरसाकर त्रिलोकव्यापी भयंकर अग्निको शान्त कर देते हैं॥ अग्निके नष्ट हो जानेपर भी अहर्निश निरन्तर बरसते हुए वे मेघ सम्पूर्ण जगत्‌को जलमें डुबो देते हैं ॥

 अपनी अति स्थूल धाराओंसे भूर्लोकको जलमें डुबोकर वे भुवर्लोक तथा उसके भी ऊपरके लोकको भी जलमग्न कर देते हैं॥ इस प्रकार सम्पूर्ण संसारके अन्धकारमय हो जानेपर तथा सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जीवोंके नष्ट हो जानेपर भी वे महामेघ सौ वर्षसे अधिक कालतक बरसते रहते हैं॥ सनातन परमात्मा वासुदेवके माहात्म्य से कल्पान्त में इसी प्रकार यह समस्त विप्लव होता है ॥ 

 

 

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