109. भक्त प्रह्लादजी

हिरण्यकशिपु का शासन और प्रभुत्व

 उन सर्वदा उदारचरित परमबुद्धिमान् महात्मा प्रह्लादजीका चरित्र तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो ॥ पूर्वकालमें दितिके पुत्र महाबली हिरण्यकशिपुने ब्रह्माजीके वरसे गर्वयुक्त ( सशक्त ) होकर सम्पूर्ण त्रिलोकीको अपने वशीभूत कर लिया था ॥ वह दैत्य इन्द्रपदका भोग करता था । वह महान् असुर स्वयं ही सूर्य , वायु , अग्नि , वरुण और चन्द्रमा बना हुआ था ॥ वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी था और वह असुर स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञ भागोंको भोगता था ॥

हे मुनिसत्तम ! उसके भय से देवगण स्वर्गको छोड़कर मनुष्य – शरीर धारणकर भूमण्डलमें विचरते रहते थे ॥ इस प्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकीको जीतकर त्रिभुवनके वैभवसे गर्वित हुआ और गन्धर्वोंसे अपनी स्तुति सुनता हुआ वह अपने अभीष्ट भोगोंको भोगता था ॥ उस समय मद्यपानासक्त उस महाकाय हिरण्यकशिपुकी ही समस्त सिद्ध , गन्धर्व और नाग आदि उपासना करते थे ॥ उस दैत्यराजके सामने कोई सिद्धगण तो बाजे बजाकर उसका यशोगान करते और कोई अति प्रसन्न होकर जयजयकार करते ॥

तथा वह असुरराज वहाँ स्फटिक एवं अभ्र – शिलाके बने हुए मनोहर महलमें , जहाँ अप्सराओंका उत्तम नृत्य हुआ करता था , प्रसन्नताके साथ मह करता रहता था ॥ उसका प्रह्लाद नामक महाभाग्यवान् पुत्र था । वह बालक गुरुके यहाँ जाकर बालोचित पाठ पढ़ने लगा ॥ एक दिन वह धर्मात्मा बालक गुरुजीके साथ अपने पिता दैत्यराजके पास गया जो उस समय मद्यपानमें लगा हुआ था ॥

प्रह्लाद की बाल्यावस्था और शिक्षा

तब अपने चरणोंमें झुके हुए अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रह्लादजीको उठाकर पिता हिरण्यकशिपुने कहा ॥ हिरण्यकशिपु बोला- वत्स ! अबतक अध्ययन में निरन्तर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमें सुनाओ ।। प्रह्लादजी बोले- पिताजी ! मेरे मनमें जो सबके सारांशरूपसे स्थित है वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता हूँ , सावधान होकर सुनिये ॥ जो आदि , मध्य और अन्तसे रहित , अजन्मा , वृद्धि – क्षय – शून्य और अच्युत हैं , समस्त कारणोंके कारण तथा जगत्के स्थिति और अन्तकर्ता उन श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ ॥

श्रीपराशरजी बोले – यह सुन दैत्यराज हिरण्यकशिपुने क्रोधसे नेत्र लाल कर प्रह्लादके गुरुकी ओर देखकर काँपते हुए ओठोंसे कहा ॥ हिरण्यकशिपु बोला – रे दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा कर इस बालकको मेरे शिक्षा दी है ! विपक्षीकी स्तुतिसे युक्त असार शिक्षा गुरुजीने कहा – दैत्यराज ! आपको क्रोधके वशीभूत न होना चाहिये । आपका यह पुत्र मेरी सिखायी हुई बात नहीं कह रहा है ॥ हिरण्यकशिपु बोला- बेटा प्रह्लाद ! बताओ तो तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरुजी कहते हैं कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया नहीं है ॥

प्रह्लाद का विष्णु भक्ति

प्रह्लादजी बोले -पिताजी ! हृदयमें स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत्के उपदेशक हैं । परमात्माको छोड़कर और कौन किसीको कुछ सिखा सकता है ? हिरण्यकशिपु बोला- अरे मूर्ख ! जिस विष्णुका तू मुझ जगदीश्वरके सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारम्बार वर्णन करता है , वह कौन है ? प्रह्लादजी बोले – योगियोंके ध्यान करनेयोग्य जिसका परमपद वाणीका विषय नहीं हो सकता तथा जिससे विश्व प्रकट हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु है ॥ हिरण्यकशिपु बोला – अरे मूढ ! मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौतके मुखमें जानेकी इच्छासे बारम्बार ऐसा बक रहा है॥

प्रह्लादजी बोले- हे तात ! वह ब्रह्मभूत विष्णु तो केवल मेरा ही नहीं , बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी कर्ता , नियन्ता और परमेश्वर है । आप प्रसन्न होइये , व्यर्थ क्रोध क्यों करते हैं ॥ हिरण्यकशिपु बोला- अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालकके हृदयमें घुस बैठा है जिससे आविष्टचित्त होकर यह ऐसे अमंगल वचन बोलता है ? प्रह्लादजी बोले- पिताजी वे विष्णुभगवान् तो मेरे ही हृदयमें नहीं , बल्कि सम्पूर्ण लोकोंमें स्थित हैं ।

वे सर्वगामी तो मुझको , आप सबको और समस्त प्राणियोंको अपनी – अपनी चेष्टाओंमें प्रवृत्त करते हैं ॥ हिरण्यकशिपु बोला- इस पापीको यहाँसे निकालो और गुरुके यहाँ ले जाकर इसका भली प्रकार शासन करो । इस दुर्मतिको न जाने किसने मेरे विपक्षीकी प्रशंसामें नियुक्त कर दिया है ? ॥ श्रीपराशरजी बोले- उसके ऐसा कहनेपर दैत्यगण उस बालकको फिर गुरुजीके यहाँ ले गये और वे वहाँ गुरुजीकी रात – दिन भली प्रकार सेवा – शुश्रूषा करते हुए विद्याध्ययन करने लगे ॥ बहुत काल व्यतीत हो जानेपर दैत्यराजने प्रह्लादजीको फिर बुलाया और कहा- ‘ बेटा ! आज कोई गाथा ( कथा ) सुनाओ ‘ ॥ प्रह्लादजी बोले- जिनसे प्रधान , पुरुष और यह चराचर जगत् उत्पन्न हुआ है वे सकल प्रपंचके कारण श्रीविष्णुभगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥

हिरण्यकशिपु का प्रह्लाद पर अत्याचार

हिरण्यकशिपु बोला- अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है । इसको मार डालो ; अब इसके जीनेसे कोई लाभ नहीं है , क्योंकि स्वपक्षकी हानि करनेवाला होनेसे यह तो अपने कुलके लिये अंगाररूप हो गया है ॥ श्रीपराशरजी बोले उसकी ऐसी आज्ञा होनेपर सैकड़ों – हजारों दैत्यगण बड़े – बड़े अस्त्र – शस्त्र लेकर उन्हें मारनेके लिये तैयार हुए ॥ प्रह्लादजी बोले- अरे दैत्यो ! भगवान् विष्णु तो शस्त्रोंमें , तुमलोगोंमें और मुझमें सर्वत्र ही स्थित हैं । इस सत्यके प्रभावसे इन अस्त्र – शस्त्रोंका मेरे ऊपर कोई प्रभाव न हो ॥

 तब तो उन सैकड़ों दैत्योंके शस्त्र – समूहका आघात होनेपर भी उनको तनिक सी भी वेदना न हुई , वे फिर भी ज्यों – के – त्यों नवीन बल – सम्पन्न ही रहे ॥ हिरण्यकशिपु बोला – रे दुर्बुद्धे ! अब विपक्षीकी स्तुति करना छोड़ दे ; जा , मैं तुझे अभयदान अब और अधिक नादान मत हो ॥ प्रह्लादजी बोले- हे तात ! जिनके स्मरणमात्रसे जन्म , जरा और मृत्यु आदिके समस्त भय दूर हो जाते हैं , उन सकल- भयहारी अनन्तके हृदयमें स्थित रहते मुझे भय कहाँ रह सकता है ॥

हिरण्यकशिपु बोला – अरे सर्पो ! इस अत्यन्त दुर्बुद्धि और दुराचारीको अपने विषाग्नि – सन्तप्त मुखोंसे काटकर शीघ्र ही नष्ट कर दो ॥ ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रूर और विषधर तक्षक आदि सर्पोंने उनके समस्त अंगोंमें काटा ॥ किन्तु उन्हें तो श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्तचित्त रहनेके कारण भगवत्स्मरणके परमानन्दमें डूबे रहनेसे उन महासर्पोंके काटनेपर भी अपने शरीरकी कोई सुधि नहीं हुई ॥ तो सर्प बोले- हे दैत्यराज ! देखो , हमारी दाढ़ें टूट गयीं , मणियाँ चटखने लगीं , फणोंमें पीड़ा होने लगी और हृदय काँपने लगा , तथापि इसकी त्वचा जरा भी नहीं कटी । इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य बताइये ॥

हिरण्यकशिपु बोला-  तुम  अपने संकीर्ण दाँतोंको मिलाकर मेरे शत्रु – पक्षद्वारा [ [ बहकाकर ] मुझसे विमुख किये हुए इस बालक मार डालो । देखो , जैसे अरणीसे उत्पन्न हुआ उसीको जला डालता है उसी प्रकार कोई – कोई जिससे उत्पन्न होते हैं उसीके नाश करनेवाले हो जाते हैं ॥ तब पर्वत शिखरके समान विशालकाय दिग्गजोंने उस बालकको पृथिवीपर पटककर अपने दाँतोंसे खूब रौंदा ॥ किन्तु श्रीगोविन्दका स्मरण करते रहनेसे हाथियोंके हजारों दाँत उनके वक्षःस्थलसे टकराकर टूट गये ; तब उन्होंने पिता हिरण्यकशिपुसे कहा- “ ये जो हाथियोंके वज्रके समान कठोर दाँत टूट गये हैं इसमें मेरा कोई बल नहीं है । यह तो श्रीजनार्दन भगवान्के महाविपत्ति और क्लेशोंके नष्ट करनेवाले स्मरणका ही प्रभाव है ” ॥

हिरण्यकशिपु बोला- अरे दिग्गजो ! तुम हट जाओ । दैत्यगण ! तुम अग्नि जलाओ , और हे वायु ! तुम अग्निको प्रज्वलित करो जिससे इस पापीको जला डाला जाय ॥  तब अपने स्वामीकी आज्ञासे दानवगण काष्ठ के एक बड़े ढेरमें स्थित उस असुर राजकुमारको अग्नि प्रज्वलित करके जलाने लगे ॥ प्रह्लादजी बोले- हे तात ! पवनसे प्रेरित हुआ भी यह अग्नि मुझे नहीं जलाता । मुझको तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती हैं मानो मेरे चारों ओर कमल बिछे हुए हों ॥

पुरोहितों की सलाह और उपाय

तदनन्तर , शुक्रजीके पुत्र बड़े वाग्मी महात्मा [ षण्डामर्क आदि ] पुरोहितगण सामनीतिसे दैत्यराजकी बड़ाई करते हुए बोले ॥ कारण पुरोहित बोले- हे राजन् ! अपने इस बालक पुत्रके प्रति अपना क्रोध शान्त कीजिये , आपको तो देवताओंपर ही क्रोध करना चाहिये , क्योंकि उसकी सफलता तो वहीं है ॥ हे राजन् ! हम आपके इस बालकको ऐसी शिक्षा देंगे जिससे यह विपक्षके नाशका आपके होकर प्रति अति विनीत हो जायगा ॥

हे दैत्यराज ! बाल्यावस्था तो सब प्रकारके दोषों का आश्रय होती ही है , इसलिये आपको इस बालकपर अत्यन्त क्रोधका प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥ यदि हमारे कहनेसे भी यह विष्णुका पक्ष नहीं छोड़ेगा तो हम इसको नष्ट करनेके लिये किसी प्रकार न टलनेवाली कृत्या उत्पन्न करेंगे ॥ श्रीपराशरजीने कहा- पुरोहितोंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर दैत्यराजने दैत्योंद्वारा प्रह्लादको अग्निसमूहसे बाहर निकलवाया ॥ फिर प्रह्लादजी , गुरुजीके यहाँ रहते हुए उनके पढ़ा चुकनेपर अन्य दानवकुमारोंको बार – बार उपदेश देने लगे ॥

प्रह्लाद जी का उपदेश

प्रह्लादजी बोले- हे दैत्यकुलोत्पन्न असुर – बालको ! सुनो , मैं तुम्हें परमार्थका उपदेश करता हूँ , तुम इसे अन्यथा न समझना , क्योंकि मेरे ऐसा कहनेमें किसी प्रकारका लोभादि । कारण नहीं है ॥ सभी जीव जन्म , बाल्यावस्था और फिर यौवन प्राप्त करते हैं , तत्पश्चात् दिन – दिन वृद्धावस्थाकी प्राप्ति भी अनिवार्य ही है और हे दैत्यराजकुमारो ! फिर यह जीव मृत्युके मुखमें चला जाता है , यह हम और तुम सभी प्रत्यक्ष देखते हैं ॥ मरनेपर पुनर्जन्म होता है , यह नियम भी कभी नहीं टलता । इस विषयमें [ श्रुति – स्मृतिरूप ] आगम भी प्रमाण है कि बिना उपादानके कोई वस्तु उत्पन्न नहीं होती ॥

पुनर्जन्म प्राप्त करानेवाली गर्भवास आदि जितनी अवस्थाएँ हैं उन सबको दुःखरूप ही जानो ॥ मनुष्य मूर्खतावश क्षुधा , तृष्णा और शीतादिकी शान्तिको सुख मानते हैं परन्तु वास्तवमें तो वे दुःखमात्र ही हैं ॥ जिनका शरीर [ वातादि दोषसे ] अत्यन्त शिथिल हो जाता है उन्हें जिस प्रकार व्यायाम सुखप्रद प्रतीत होता है उसी प्रकार जिनकी दृष्टि भ्रान्तिज्ञानसे ढँकी हुई है उन्हें दुःख ही सुखरूप जान पड़ता है ॥ अहो ! कहाँ तो कफ आदि महाघृणित पदार्थोंका समूहरूप शरीर और कहाँ कान्ति , शोभा , सौन्दर्य एवं रमणीयता आदि दिव्य गुण ? [ तथापि मनुष्य इस घृणित शरीरमें कान्ति आदिका आरोप कर सुख मानने लगता है ] ॥

यदि किसी मूढ पुरुषकी मांस , रुधिर , पीब , विष्ठा , मूत्र , स्नायु , मज्जा और अस्थियों के समूहरूप इस शरीरमें प्रीति हो सकती है तो उसे नरक भी प्रिय लग सकता है ॥ अग्नि , जल और भात क्रमश : शीत , तृषा और क्षुधाके कारण ही सुखकारी होते हैं और इनके प्रतियोगी जल आदि भी अपनेसे भिन अग्नि आदिके कारण ही सुखके हेतु होते हैं ॥ हे दैत्यकुमारो ! विषयोंका जितना – जितना संग्रह किया जाता है उतना उतना ही वे मनुष्यके चित्तमें दुःख बढ़ात हैं ॥

जीव अपने मनको प्रिय लगनेवाले जितने ही सम्बन्धोंको बढ़ाता जाता है उतने ही उसके हृदयमें शोकरूपी शल्य ( काँटे ) स्थिर होते जाते हैं ॥ घरमें जो कुछ धन धान्यादि होते हैं मनुष्यके जहाँ – तहाँ ( परदेशमें ) रहनेपर भी व पदार्थ उसके चित्तमें बने रहते हैं , और उनके नाश और दाह आदिकी सामग्री भी उसीमें मौजूद रहती है । [ अर्थात् घरमें स्थित पदार्थोंकि सुरक्षित रहनेपर भी मनःस्थिति पदार्थोंके नाश आदिकी भावनासे पदार्थ – नाशका दुःख प्राप्त हो जाता है ] ॥

इस प्रकार जीते – जी तो यहाँ महान् दुःख होता ही है , मरनेपर भी यम यातनाओंका और गर्भ – प्रवेशका उग्र कष्ट भोगना पड़ता है ॥ यदि तुम्हें गर्भवासमें लेशमात्र भी सुखका अनुमान होता हो तो कहो । सारा संसार इसी प्रकार अत्यन्त दुःखमय है ॥ इसलिये दुःखोंके परम आश्रय इस संसार समुद्र में एकमात्र विष्णुभगवान् ही आप लोगोंकी परमगति हैं – यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ ॥ ऐसा मत समझो कि हम तो अभी बालक हैं , क्योंकि जरा , यौवन और जन्म आदि अवस्थाएँ तो देहके ही धर्म हैं , शरीरका अधिष्ठाता आत्मा तो नित्य है , उसमें यह कोई धर्म नहीं है ॥

जो मनुष्य ऐसी दुराशाओंसे विक्षिप्तचित्त रहता है कि ‘ अभी मैं बालक हूँ इसलिये इच्छानुसार खेल – कूद लूँ , युवावस्था प्राप्त होनेपर कल्याण साधनका यल करूंगा । ‘ [ फिर युवा होनेपर कहता है कि ] ‘ अभी तो मैं युवा हूँ , बुढ़ापेमें आत्मकल्याण कर लूँगा । ‘ और [ वृद्ध होनेपर सोचता है कि ] ‘ अब मैं बूढ़ा हो गया , अब तो मेरी इन्द्रियाँ अपने कर्मोंमें प्रवृत्त ही नहीं होतीं , शरीरके शिथिल हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ ? सामर्थ्य रहते तो मैंने कुछ किया ही नहीं । ‘ वह अपने कल्याण – पथपर कभी अग्रसर नहीं होता ; केवल भोग – तृष्णामें ही व्याकुल रहता है ॥

मूर्खलोग अपनी बाल्यावस्थामें खेल – कूदमें लगे रहते हैं , युवावस्थामें विषयोंमें फँस जाते हैं और बुढ़ापा आनेपर उसे असमर्थताके कारण व्यर्थ ही काटते हैं ॥

इसलिये विवेकी पुरुषको चाहिये कि देहकी बाल्य , यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओंकी अपेक्षा न करके बाल्यावस्थामें ही अपने कल्याणका यत्न करे ॥ मैंने तुमलोगोंसे जो कुछ कहा है उसे यदि तुम मिथ्या नहीं समझते तो मेरी प्रसन्नताके लिये ही बन्धनको छुटानेवाले श्रीविष्णुभगवान्का स्मरण करो ॥ उनका स्मरण करनेमें परिश्रम भी क्या है ? और स्मरणमात्रसे ही वे अति शुभ फल देते हैं तथा रात दिन उन्हींका स्मरण करनेवालोंका पाप भी नष्ट हो जाता है ॥ उन सर्वभूतस्थ प्रभुमें तुम्हारी बुद्धि अहर्निश लगी रहे और उनमें निरन्तर तुम्हारा प्रेम बढ़े ; इस प्रकार तुम्हारे समस्त क्लेश दूर हो जायँगे ॥ जब कि यह सभी संसार तापत्रयसे दग्ध हो रहा है तो इन बेचारे शोचनीय जीवोंसे कौन बुद्धिमान् द्वेष करेगा ? ॥

यदि [ ऐसा दिखायी दे कि ] ‘ और जीव तो आनन्दमें हैं , मैं ही परम शक्तिहीन हूँ ‘ तब भी प्रसन्न ही होना चाहिये , क्योंकि द्वेषका फल तो दुःखरूप ही है ॥ यदि कोई प्राणी वैरभावसे द्वेष भी करें तो विचारवानोंके लिये तो वे ‘ अहो ! ये महामोहसे व्याप्त हैं ! ‘ इस प्रकार अत्यन्त शोचनीय ही हैं ॥ हे दैत्यगण ! ये मैंने भिन्न – भिन्न दृष्टिवालोंके विकल्प ( भिन्न – भिन्न उपाय ) कहे अब उनका समन्वयपूर्वक ४ संक्षिप्त विचार सुनो ॥

यह सम्पूर्ण जगत् सर्वभूतमय भगवान् विष्णुका विस्तार है , अतः विचक्षण पुरुषोंको इसे आत्माके समान अभेदरूपसे देखना चाहिये ॥ इसलिये दैत्यभावको छोड़कर हम और तुम ऐसा यत्न करें जिससे शान्ति लाभ कर सकें ॥ जो [ परम शान्ति ] अग्नि , सूर्य , चन्द्रमा , वायु , मेघ , वरुण , सिद्ध , राक्षस , यक्ष , दैत्यराज , सर्प , किन्नर , मनुष्य , पशु और अपने दोषोंसे तथा ज्वर , नेत्ररोग , अतिसार , प्लीहा ( तिल्ली ) और गुल्म आदि रोगोंसे एवं द्वेष , ईर्ष्या , मत्सर , राग , लोभ और किसी अन्य भावसे भी कभी क्षीण नहीं होती , और जो सर्वदा अत्यन्त निर्मल है उसे मनुष्य अमलस्वरूप श्रीकेशवमें मनोनिवेश करनेसे प्राप्त कर लेता है। हे दैत्यो ! मैं आग्रहपूर्वक कहता हूँ , तुम इस असार संसारके विषयोंमें कभी सन्तुष्ट मत होना ।

तुम सर्वत्र समदृष्टि करो , क्योंकि समता ही श्रीअच्युतको [ वास्तविक ] आराधना है ॥ उन अच्युतके प्रसन्न होनेपर फिर संसारमें दुर्लभ ही क्या है ? तुम धर्म , अर्थ और कामकी इच्छा कभी न करना ; वे तो अत्यन्त तुच्छ हैं । उस ब्रह्मरूप महावृक्षका आश्रय लेनेपर तो तुम निःसन्देह [ मोक्षरूप ] महाफल प्राप्त कर लोगे ॥

 उनकी ऐसी चेष्टा देख दैत्योंने दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे डरकर उससे सारा वृत्तान्त कह सुनाया , और उसने भी तुरन्त अपने रसोइयोंको बुलाकर कहा॥ हिरण्यकशिपु बोला- अरे सूदगण मेरा यह दुष्ट और दुर्मति पुत्र औरोंको भी कुमार्गका उपदेश देता है , अतः तुम शीघ्र ही इसे मार डालो ॥ तुम उसे उसके बिना जाने समस्त खाद्यपदार्थों में हलाहल विष मिलाकर दो और किसी प्रकारका शोच – विचार न कर उस पापीको मार डालो ॥

श्रीपराशरजी बोले- तब उन रसोइयोंने महात्मा प्रह्लादको , जैसी कि उनके पिताने आज्ञा दी थी उसीके अनुसार विष दे दिया ॥  तब वे उस घोर हलाहल विषको भगवन्नामके उच्चारणसे अभिमन्त्रित कर अन्नके साथ खा गये ॥ तथा भगवन्नामके प्रभावसे निस्तेज हुए उस विषको खाकर उसे बिना किसी विकारके पचाकर स्वस्थ चित्तसे स्थित रहे ॥ उस महान् विषको पचा हुआ देख रसोइयोंने भयसे व्याकुल हो हिरण्यकशिपुके पास जा उसे प्रणाम करके कहा ॥ सूदगण बोले- हे दैत्यराज ! हमने आपकी आज्ञासे अत्यन्त तीक्ष्ण विष दिया था , तथापि आपके पुत्र प्रह्लादने उसे अन्नके साथ पचा लिया ॥

हिरण्यकशिपु बोला – हे पुरोहितगण ! शीघ्रता करो , शीघ्रता करो ! उसे नष्ट करनेके लिये अब कृत्या उत्पन्न करो ; और देरी न करो ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब पुरोहितोंने अति विनीत प्रह्लादसे , उसके पास जाकर शान्तिपूर्वक कहा ॥ पुरोहित बोले- हे आयुष्मन् ! तुम त्रिलोकीमें विख्यात ब्रह्माजीके कुलमें उत्पन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपु पुत्र हो ॥ तुम्हें देवता , अनन्त अथवा और भी किसीसे क्या प्रयोजन है ? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकोंके आश्रय हैं और तुम भी से ही होगे ॥

इसलिये तुम यह विपक्षकी स्तुति करना छोड़ दो । तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय हैं और वे ही गुरुओंमें परम गुरु हैं । प्रह्लादजी बोले- हे महाभागगण ! यह ठीक ही मरीचिका यह महान् है । इस सम्पूर्ण त्रिलोकीमें भगवान् कुल अवश्य ही प्रशंसनीय है । इसमें कोई कुछ भी अन्यथा नहीं कह सकता ॥ और मेरे पिताजी भी सम्पूर्ण जगत्‌में बहुत बड़े पराक्रमी हैं ; यह भी मैं जानता हूँ । यह बात भी बिलकुल ठीक है , अन्यथा नहीं ॥ और आपने जो कहा कि समस्त गुरुओंमें पिता ही परम गुरु हैं- इसमें भी मुझे लेशमात्र सन्देह नहीं है ॥

पिताजी परम गुरु हैं और प्रयत्नपूर्वक पूजनीय हैं- इसमें कोई सन्देह नहीं । और मेरे चित्तमें भी यही विचार स्थित है । कि मैं उनका कोई अपराध नहीं करूँगा । किंतु आपने जो यह कहा कि ‘ तुझे अनन्तसे क्या प्रयोजन है ? ‘ सो ऐसी बातको भला कौन न्यायोचित कह सकता है ? आपका यह कथन किसी भी तरह ठीक नहीं है॥ऐसा कहकर वे उनका गौरव रखनेके लिये चुप हो गये और फिर हँसकर कहने लगे — ‘ तुझे अनन्तसे रे गुरुगण ! आप कहते हैं कि तुझे अनन्तसे क्या प्रयोजन क्या प्रयोजन है ? इस विचारको धन्यवाद है ! ॥

हे है ? धन्यवाद है आपके इस विचारको ! अच्छा , यदि आपको बुरा न लगे तो मुझे अनन्तसे जो प्रयोजन है सो सुनिये ॥ धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ कहे जाते हैं ये चारों ही जिनसे सिद्ध होते हैं , उनसे क्या प्रयोजन ? -आपके इस कथनको क्या कहा जाय ! उन अनन्तसे ही दक्ष और मरीचि आदि तथा अन्यान्य ऋषीश्वरोंको धर्म , किन्हीं अन्य मुनीश्वरोंको अर्थ एवं अन्य किन्हींको कामकी प्राप्ति हुई है ॥

किन्हीं अन्य महापुरुषोंने ज्ञान , ध्यान और समाधिके द्वारा उन्हीं के तत्त्वको जानकर अपने संसार – बन्धनको काटकर मोक्षपद प्राप्त किया है ॥अतः सम्पत्ति , ऐश्वर्य , माहात्म्य , ज्ञान , सन्तति और कर्म तथा मोक्ष – इन सबकी एकमात्र मूल श्रीहरिकी आराधना ही उपार्जनीय है ॥ है द्विजगण ! इस प्रकार , जिनसे अर्थ , धर्म , काम और मोक्ष ये चारों ही फल प्राप्त होते हैं उनके लिये भी आप ऐसा क्यों कहते हैं कि ‘ अनन्तसे तुझे क्या प्रयोजन है ? ” और बहुत कहनेसे क्या लाभ ? आपलोग मेरे गुरु हैं ; उचित – अनुचित सभी कुछ कह सकते हैं । और मुझे तो विचार भी बहुत ही कम है ॥

इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय ? [ मेरे विचारसे तो ] सबके अन्तःकरणोंमें स्थित एकमात्र वे ही संसारके स्वामी तथा उसके रचयिता , पालक और संहारक हैं ॥ वे ही भोक्ता और भोज्य तथा वे ही एकमात्र जगदीश्वर हैं । हे गुरुगण ! मैंने बाल्यभावसे यदि कुछ अनुचित कहा हो तो आप क्षमा करें ” ॥ पुरोहितगण बोले- अरे बालक ! हमने तो यह समझकर कि तू फिर ऐसी बात न कहेगा तुझे अग्निमें जलनेसे बचाया है । हम यह नहीं जानते थे कि तू ऐसा बुद्धिहीन है ? रे दुर्मते ।

यदि तू हमारे कहनेसे अपने इस मोहमय आग्रहको नहीं छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करनेके लिये कृत्या उत्पन्न करेंगे ॥ प्रह्लादजी बोले- कौन जीव किससे मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है ? शुभ और अशुभ आचरणोंके द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा और नाश करता है ॥ कर्मोंके कारण सब उत्पन्न होते हैं और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गतियोंके साधन हैं । इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुभकर्मोंका ही आचरण करना चाहिये ॥ श्रीपराशरजी बोले- उनके ऐसा कहनेपर उन दैत्यराजके पुरोहितोंने क्रोधित होकर अग्निशिखाके समान प्रज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दी ॥ उस अति भयंकरीने अपने पादाघातसे पृथिवीको कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोधसे प्रह्लादजीकी छातीमें त्रिशूलसे प्रहार किया ॥

किन्तु उस बालकके वक्षःस्थलमें लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर पृथिवीपर गिर पड़ा और वहाँ गिरनेसे भी उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ जिस हृदयमें निरन्तर अक्षुण्णभावसे श्रीहरिभगवान् विराजते हैं उसमें लगनेसे तो वज्रके भी टूक – टूक हो जाते हैं , त्रिशूलकी तो बात ही क्या है ? ॥ उन पापी पुरोहितोंने उस निष्पाप बालकपर कृत्याका प्रयोग किया था ; इसलिये तुरन्त ही उसने उनपर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गयी ॥ अपने गुरुओंको कृत्याद्वारा जलाये जाते देख महामति प्रह्लाद कृष्ण ! रक्षा करो ! हे अनन्त ! बचाओ ! ‘ ऐसा कहते हुए उनकी ओर दौड़े ॥ प्रह्लादजी कहने लगे- हे सर्वव्यापी , विश्वरूप , विश्वस्त्रष्टा जनार्दन ! इन ब्राह्मणोंकी इस मन्त्राग्निरूप दुःसह दुःखसे रक्षा करो ॥

‘ सर्वव्यापी जगद्गुरु भगवान् विष्णु सभी प्राणियों में व्याप्त हैं’- इस सत्यके प्रभावसे ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ ॥ यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षय श्रीविष्णुभगवान्‌को अपने विपक्षियोंमें भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ ॥ जो लोग मुझे मारनेके लिये आये , जिन्होंने मुझे विष दिया , जिन्होंने आगमें जलाया , जिन्होंने दिग्गजोंसे पीड़ित कराया और जिन्होंने सर्पोंसे डँसाया उन सबके प्रति यदि मैं समान मित्रभावसे रहा हूँ और मेरी कभी पाप – बुद्धि नहीं हुई तो उस सत्यके प्रभावसे ये दैत्यपुरोहित जी उठें ।

श्रीपराशरजी बोले – ऐसा कहकर उनके स्पर्श करते ही वे ब्राह्मण स्वस्थ होकर उठ बैठे और उस विनयावनत बालकसे कहने लगे ॥ पुरोहितगण बोले- हे वत्स ! तू बड़ा श्रेष्ठ है । तू दीर्घायु , निर्द्वन्द्व , बल – वीर्यसम्पन्न तथा पुत्र , पौत्र एवं धन – ऐश्वर्यादिसे सम्पन्न हो ॥  ऐसा  पुरोहितोंने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पास जा उसे सारा समाचार ज्यों – का – त्यों सुना दिया ॥

 हिरण्यकशिपुने कृत्याको भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रह्लादको बुलाकर उनके इस प्रभावका कारण पूछा ॥ हिरण्यकशिपु बोला- अरे प्रह्लाद ! तू बड़ा प्रभावशाली है ! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित हैं या स्वाभाविक ही हैं ॥ श्रीपराशरजी बोले- पिताके इस प्रकार पूछने पर दैत्यकुमार प्रह्लादजीने उसके चरणोंमें प्रणाम कर इस प्रकार कहा- ॥ पिताजी ! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है , बल्कि जिस – जिसके हृदय में श्री अच्युतभगवान्‌का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है ॥ जो मनुष्य अपने समान दूसरोंका बुरा नहीं सोचता , हे तात ! कोई कारण न रहनेसे उसका भी कभी बुरा नहीं होता ॥

जो मनुष्य मन , वचन या कर्मसे दूसरोंको कष्ट देता है उसके उस परपीडारूप बीजसे ही उत्पन्न हुआ उसको अत्यन्त अशुभ फल मिलता है ॥ अपने सहित समस्त प्राणियोंमें श्रीकेशवको वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ ॥ इस प्रकार सर्वत्र शुभचित्त होनेसे मुझको शारीरिक , मानसिक , दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? इसी प्रकार भगवान्को सर्वभूतमय जानकर विद्वानोंको सभी प्राणियोंमें अविचल भक्ति ( प्रेम ) करनी चाहिये ” ॥ श्रीपराशरजी बोले- अपने महलकी अट्टालिकापर बैठे हुए उस दैत्यराजने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य अनुचरोंसे कहा ॥

हिरण्यकशिपु बोला- यह बड़ा दुरात्मा है , इसे इस सौ योजन ऊँचे महलसे गिरा दो , जिससे यह इस पर्वतके ऊपर गिरे और शिलाओंसे इसके अंग – अंग छिन्न भिन्न हो जायँ ॥ तब उन समस्त दैत्य और दानवोंने उन्हें महलसे गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलनेसे हृदयमें श्रीहरिका स्मरण करते – करते नीचे गिर गये ॥ जगत्कर्ता भगवान् केशवके परमभक्त प्रह्लादजीके गिरते समय उन्हें जगद्धात्री पृथिवीने निकट जाकर अपनी गोदमें ले लिया ॥ तब बिना किसी हड्डी – पसलीके टूटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुरसे कहा ॥ हिरण्यकशिपु बोला- यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे यह हमसे नहीं मारा जा सकता , इसलिये आप मायासे ही इसे मार डालिये ॥

शम्बरासुर बोला- हे दैत्येन्द्र ! इस बालकको मैं अभी मारे डालता हूँ , तुम मेरी मायाका बल देखो । देखो , मैं तुम्हें सैकड़ों – हजारों – करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुरने समदर्शी प्रह्लादके लिये , उनके नाशकी इच्छासे बहुत सी मायाएँ रचीं ॥

 शम्बरासुरके प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रह्लादजी सावधान चित्तसे श्रीमधुसूदनभगवान्का स्मरण करते रहे ॥ उस समय भगवान्की आज्ञासे उनकी रक्षाके लिये वहाँ ज्वाला – मालाओंसे युक्त सुदर्शनचक्र आ गया ॥ उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्रने उस बालककी रक्षा करते हुए शम्बरासुरकी सहस्रों मायाओंको एक एक करके नष्ट कर दिया ॥ तब दैत्यराजने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञासे तुम शीघ्र ही इस दुरात्माको नष्ट कर दो ॥ अतः उस अति तीव्र शीतल और रूक्ष वायुने , जो अति असहनीय था ‘ जो आज्ञा ‘ कह उनके शरीरको सुखानेके लिये उसमें प्रवेश किया ॥

अपने शरीरमें वायुका आवेश हुआ जान दैत्यकुमार प्रह्लादने भगवान् धरणीधरको हृदयमें धारण किया ॥ उनके हृदयमें स्थित हुए श्रीजनार्दनने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायुको पी लिया , इससे वह क्षीण हो गया ॥ इस प्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओंके क्षीण हो जानेपर महामति प्रह्लादजी अपने गुरुके घर चले गये ॥ तदनन्तर गुरुजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजीकी बनायी हुई राज्यफलप्रदायिनी राजनीतिका अध्ययन कराने लगे ॥ जब गुरुजीने उन्हें नीतिशास्त्रमें निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा- ‘ अब यह सुशिक्षित हो गया है ‘॥ आचार्य बोले- हे दैत्यराज ! अब हमने तुम्हारे पुत्रको  नीतिशास्त्रमें पूर्णतया निपुण कर दिया है , भृगुनन्दन शुक्राचार्यजीने जो कुछ कहा है उसे प्रह्लाद तत्त्वत : जानता है ॥

हिरण्यकशिपु बोला— प्रह्लाद ! [ यह तो बता ] राजाको मित्रोंसे कैसा बर्ताव करना चाहिये ? और शत्रुओंसे कैसा ? तथा त्रिलोकीमें जो मध्यस्थ ( दोनों पक्षोंके हितचिन्तक ) हों , उनसे किस प्रकार आचरण करे ? मन्त्रियों , अमात्यों , बाह्य और अन्तःपुरके सेवकों , गुप्तचरों , पुरवासियों , शंकितों ( जिन्हें जीतकर बलात् दास बना लिया हो ) तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये ? ॥ हे प्रह्लाद | यह ठीक – ठीक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्योंका विधान किस प्रकार करे , दुर्ग और आटविक ( जंगली मनुष्य ) आदिको किस प्रकार वशीभूत को और गुप्त शत्रुरूप काँटेको कैसे निकाले ?

यह सब तथा और भी जो कुछ तूने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना , मैं तेरे मनके भावोंको जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब विनयभूषण प्रह्लादजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे हाथ जोड़कर कहा ॥ प्रह्लादजी बोले- पिताजी । इसमें सन्देह नहीं , गुरुजीने तो मुझे इन सभी विषयोंकी शिक्षा दी है , और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नहीं हैं ॥ साम , दान तथा दण्ड और भेद ये सब उपाय मित्रादिके साधनेके लिये बतलाये गये हैं ॥

किन्तु , पिताजी ! आप क्रोध न करें , मुझे तो कोई शत्रु – मित्र आदि दिखायी ही नहीं देते ; और हे महाबाहो ! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन साधनोंसे लेना ही क्या है ? ॥

हे तात ! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्दमें भला शत्रु – मित्रकी बात ही कहाँ है ? ॥ श्रीविष्णुभगवान् तो आपमें , मुझमें और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान हैं , फिर ‘ यह मेरा मित्र है और यह शत्रु है ‘ ऐसे भेदभावको स्थान ही कहाँ है ? ॥ इसलिये , हे तात ! अविद्याजन्य दुष्कर्मोंमें प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जालको सर्वथा छोड़कर अपने शुभके लिये ही यत्न करना चाहिये ॥ हे दैत्यराज ! अज्ञानके कारण ही मनुष्योंकी अविद्यामें विद्या बुद्धि होती है । बालक क्या अज्ञानवश खद्योतको ही अग्नि नहीं समझ लेता ? ॥ कर्म वही है जो बन्धनका कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो ।

इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कला – कौशलमात्र ही हैं ॥ हे महाभाग ! इस प्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हूँ , आप श्रवण कीजिये ॥ राज्य पानेकी चिन्ता किसे नहीं होती और धनकी अभिलाषा भी किसको नहीं है ? तथापि ये दोनों मिलते उन्हींको हैं जिन्हें मिलनेवाले होते हैं ॥ हे महाभाग ! महत्त्व प्राप्तिके लिये सभी यत्न करते हैं , तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्य ही है , उद्यम नहीं ॥

हे प्रभो ! जड , अविवेकी , निर्बल और अनीतिज्ञोंको भी भाग्यवश नाना प्रकारके भोग और राज्यादि प्राप्त होते हैं ॥ इसलिये जिसे महान् वैभवकी इच्छा हो उसे केवल पुण्यसंचयका ही यत्न करना चाहिये ; और जिसे मोक्षकी इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये ॥

देव , मनुष्य , पशु , पक्षी , वृक्ष और सरीसृपये सब भगवान् विष्णुसे भिन्न – से स्थित हुए भी वास्तवर्षे श्रीअनन्तके ही रूप हैं ॥ इस बातको जाननेवाला पुरुष सम्पूर्ण चराचर जगत्को आत्मवत् देखे , क्योंकि यह सब विश्व – रूपधारी भगवान् विष्णु ही हैं ॥ ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान् अच्युत प्रसन्न होते हैं और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते हैं ॥ श्रीपराशरजी बोले- यह सुनकर हिरण्यकशिपुने क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासनसे उठकर पुत्र प्रह्लादके वक्षःस्थलमें लात मारी॥ और क्रोध तथा अमर्षसे जलते मानो सम्पूर्ण संसारको मार डालेगा इस प्रकार हाथ मलता हुआ बोला ॥

हिरण्यकशिपुने कहा – हे विप्रचित्ते ! हे राहो ! हे बल ! तुमलोग इसे भली प्रकार नागपाशसे बाँधकर महासागरमें डाल दो , देरी मत करो ॥ नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य- दानव आदि भी इस मूढ दुरात्माके मतका ही अनुगमन करेंगे [ अर्थात् इसका तरह वे भी विष्णुभक्त हो जायँगे ] ॥ हमने इस बहुतेरा रोका , तथापि यह दुष्ट शत्रुकी ही स्तुति किये । जाता है । ठीक है , दुष्टोंको तो मार देना ही लाभदायक होता है ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब उन दैत्योंने अपने | स्वामीकी आज्ञाको शिरोधार्य कर तुरन्त ही उन्हें नागपाशसे बाँधकर समुद्रमें डाल दिया ॥ उस समय प्रह्लादजीके हिलने – डुलनेसे सम्पूर्ण महासागर हलचल मच गयी और अत्यन्त क्षोभके कारण उसमें सब ओर ऊँची – ऊँची लहरें उठने लगीं ॥

 उस महान् जल – पूरसे सम्पूर्ण पृथिवीको डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्योंसे इस प्रकार कहा ॥ हिरण्यकशिपु बोला- अरे दैत्यो ! तुम इस दुर्मतिको इस समुद्रके भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरसे सम्पूर्ण पर्वतोंसे दबा दो ॥ देखो , इसे न तो अग्निने जलाया , न यह शस्त्रोंसे कटा , न सर्पोंसे नष्ट हुआ और न वायु , विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ , तथा न यह मायाओंसे , ऊपरसे गिरानेसे अथवा दिग्गजोंसे ही मारा गया । यह बालक अत्यन्त दुष्ट चित्त है , अब इसके जीवनका कोई प्रयोजन नहीं है ॥

अतः अब यह पर्वतोंसे लदा हुआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे , इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा ॥ तब दैत्य और दानवोंने उसे समुद्रमें ही पर्वतोंसे ढँककर उसके ऊपर हजारों योजनका ढेर कर दिया ॥ उन महामतिने समुद्र में पर्वतोंसे लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मोके समय एकाग्रचित्तसे श्रीअच्युतभगवान्‌की इस प्रकार स्तुति की ॥ रूप , रस , गन्ध , मन , बुद्धि , प्रह्लादजी बोले- हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे सर्वलोकात्मन् ! आपको नमस्कार है । हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥ गो – ब्राह्मण – हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान् कृष्णको नमस्कार है । ज

गत् हितकारी श्रीगोविन्दको बारम्बार नमस्कार है ॥ आप ब्रह्मारूपसे विश्वकी रचना करते हैं , फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूपसे पालन करते हैं और अन्तमें रुद्ररूपसे संहार करते हैं – ऐसे त्रिमूर्तिधारी आपको नमस्कार है ॥ हे अच्युत ! देव , यक्ष , असुर , सिद्ध , नाग , गन्धर्व , किन्नर , पिशाच , राक्षस , मनुष्य , पशु , पक्षी , स्थावर , पिपीलिका ( चींटी ) , सरीसृप , पृथिवी , जल , अग्नि , आकाश , वायु , शब्द , स्पर्श , आत्मा , काल और गुण- इन सबके पारमार्थिक रूप आप ही हैं , वास्तवमें आप ही ये सब हैं ॥ आप ही विद्या और अविद्या , सत्य और असत्य तथा विष और अमृत हैं तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और निवृत्त कर्म हैं ॥

हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मोंके भोक्ता और उनकी सामग्री हैं तथा सर्व कर्मोंके जितने भी फल हैं वे सब भी आप ही हैं ॥ हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भुवनोंमें आपहीके गुण और ऐश्वर्यकी सूचिका व्याप्ति हो रही है ॥ योगिगण आपहीका ध्यान धरते हैं और याज्ञिकगण आपहीका यजन करते हैं , तथा पितृगण और देवगणके रूपसे एक आप ही हव्य और कव्यके भोक्ता हैं ॥ हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूल रूप है , उससे सूक्ष्म यह संसार ( पृथिवीमण्डल ) है , उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न – भिन्न रूपधारी समस्त प्राणी हैं ; उनमें भी जो अन्तरात्मा है वह और भी अत्यन्त सूक्ष्म है ॥

उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणोंका अविषय आपका कोई अचिन्त्य परमात्मस्वरूप पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है ॥ हे सर्वात्पन् समस्त भूतोंमें आपकी जो गुणाश्रया पराशक्ति हे सुरेश्वर ! उस नित्यस्वरूपिणीको नमस्कार है ॥ जो वाणी और मनके परे है , विशेषणरहित तथा ज्ञानियोंके ज्ञानसे परिच्छेद्य है उस स्वतन्त्रा पराशक्तिकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ ॐ उन भगवान् वासुदेवको सदा नमस्कार है , जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त ( असंग ) हैं ॥

जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्रसे ही उपलब्ध होते हैं उन महात्माको नमस्कार है , नमस्कार है , नमस्कार है ॥ जिनके पर स्वरूपको न जानते हुए ही देवतागण उनके अवतार – शरीरोंका सम्यक् अर्चन करते हैं उन महात्माको नमस्कार है ॥ जो ईश्वर सबके अन्तःकरणों स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मोंको देखते हैं उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ जिनसे यह जगत् सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णु  भगवान्को नमस्कार है , वे जगत्के आदिकारण और योगियोंके ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥ जिनमें यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर , अव्यय और सबके मुझपर प्रसन्न हों ॥

ॐ जिनमें सब आधारभूत हरि कुछ स्थित है , जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार हैं , उन श्रीविष्णुभगवान्‌को नमस्कार है , उन्हें बारम्बार नमस्कार है ॥ भगवान् अनन्त सर्वगामी हैं ; अतः वे ही मेरे रूपसे स्थित हैं , इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् मुझहीसे हुआ है , मैं ही यह सब कुछ और मुझ सनातनमें ही यह सब स्थित है ॥ मैं ही अक्षय , नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ ; तथा मैं ही जगत्के आदि और अन्तमें स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष हूँ ॥

 इस प्रकार भगवान् विष्णुको अपनेसे अभिन्न चिन्तन करते – करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जानेसे उन्होंने अपनेको अच्युत रूप ही अनुभव किया ॥ वे अपने – आपको भूल गये ; उस समय उन्हें श्रीविष्णुभगवान्‌के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत न होता था । बस , केवल यही भावना चित्तमें थी कि मैं ही अव्यय और अनन्त परमात्मा हूँ ॥ उस भावनाके योगसे वे क्षीण – पाप हो गये और उनके शुद्ध अन्तःकरणमें ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णुभगवान् विराजमान हुए ॥ 

इस प्रकार योगबलसे असुर प्रह्लादजीके विष्णुमय हो जानेपर उनके विचलित होनेसे वे नागपाश एक क्षणभरमें ही टूट गये ॥ भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतरंगोंसे पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया , तथा पर्वत और वनोपवनोंसे पूर्ण समस्त पृथिवी हिलने लगी ॥ तथा महामति प्रह्लादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत – समूहको दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये ॥ तब आकाशादिरूप जगत्को फिर देखकर उन्हें चित्तमें यह पुनः भान हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ ॥और उन महाबुद्धिमान्ने मन , वाणी और शरीरके संयमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्रचित्तसे पुनः भगवान् अनादि पुरुषोत्तमकी स्तुति की ॥

प्रह्लादजी कहने लगे- हे परमार्थ ! हे अर्थ ( दृश्यरूप ) ! हे स्थूलसूक्ष्म ( जाग्रत् – स्वप्नदृश्य- स्वरूप ) ! हे क्षराक्षर ( कार्य – कारणरूप ) ! हे व्यक्ताव्यक्त ( दृश्यादृश्यस्वरूप ) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरंजन देव ! आपको नमस्कार है ॥ हे गुणोंको अनुरंजित करनेवाले ! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन् ! हे गुणस्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामूर्तिमन् ! हे सूक्ष्ममूर्ते ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरूप ! [ आपको नमस्कार है ] ॥ हे विकराल और सुन्दररूप ! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत् ( कार्यकारण ) रूप जगत्के उद्भवस्थान और सदसज्जगत्के पालक ! [ आपको नमस्कार है ] ॥ हे नित्यानित्य ( आकाशघटादिरूप ) प्रपंचात्मन् ! हे प्रपंचसे पृथक् रहनेवाले ! हे ज्ञानियोंके आश्रयरूप ! हे एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव ! [ आपको नमस्कार है ] ॥

जो स्थूल सूक्ष्मरूप और स्फुट – प्रकाशमय हैं , जो अधिष्ठानरूपसे सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुतः सम्पूर्ण भूतादिसे परे हैं , विश्वके कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है ; उन भगवान्को नमस्कार है ॥ पुरुषोत्तम श्रीपराशरजी बोले- उनके इस प्रकार तन्मयता पूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान् हरि प्रकट हुए ॥ हे द्विज ! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये और गद्गद वाणीसे ‘ विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है ! विष्णुभगवान्को नमस्कार है ! ‘ ऐसा बारम्बार कहने लगे ॥

प्रह्लादजी बोले – हे शरणागत – दुःखहारी श्रीकेशवदेव ! प्रसन्न होइये । हे अच्युत ! अपने पुण्य – दर्शनोंसे मुझे फिर भी पवित्र कीजिये ॥ श्रीभगवान् बोले- हे प्रह्लाद ! मैं तेरी अनन्यभक्तिसे अति प्रसन्न हूँ ; तुझे जिस वरकी इच्छा हो माँग ले ॥ प्रह्लादजी बोले- हे नाथ ! सहस्त्रों योनियोंमेंसे में जिस – जिसमें भी जाऊँ उसी – उसीमें , हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे ॥ अविवेकी पुरुषोंकी विषयोंमें जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदयसे कभी दूर न हो ॥ श्रीभगवान् बोले- हे प्रह्लाद ! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी ; किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वरकी इच्छा हो । मुझसे माँग ले ॥

प्रह्लादजी बोले- हे देव ! आपकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेसे मेरे पिताके चित्तमें मेरे प्रति जो द्वेष हुआ है , उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय ॥ इसके अतिरिक्त [ उनकी आज्ञासे ] मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये गये — मुझे अग्निसमूहमें डाला गया , सर्पोंसे कटवाया गया , भोजनमें विष दिया गया , बाँधकर समुद्र में डाला गया , शिलाओंसे दबाया गया तथा और भी जो – जो दुर्व्यवहारपिताजीने मेरे साथ किये हैं , वे सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुषके प्रति द्वेष होनेसे , उन्हें उनके कारण जो पाप लगा है , हे प्रभो ! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुक्त हो जायँ ॥

श्रीभगवान् बोले- हे प्रह्लाद ! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होंगी । हे असुरकुमार ! मैं तुमको एक वर और भी देता हूँ , तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो ॥

प्रह्लादजी बोले- हे भगवन् ! मैं तो आपके इस वरसे ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आपमें मेरी निरन्तर अविचल भक्ति रहेगी ॥ हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत्के कारणरूप आपमें जिसकी निश्चल भक्ति है , मुक्ति भी उसकी मुट्ठीमें रहती है , फिर धर्म , अर्थ , कामसे तो उसे लेना ही क्या है ? ॥ श्रीभगवान् बोले- हे प्रह्लाद । मेरी भक्तिसे युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपासे परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा ॥  ऐसा कह भगवान् उनके देखते – देखते अन्तर्धान हो गये और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिताके चरणोंकी वन्दना की ॥

हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने , जिसे नाना प्रकारसे पीड़ित किया था उस पुत्रका सिर सूँघकर , आँखोंमें आँसू भरकर कहा- ‘ बेटा , जीता तो है ! ‘ ॥ वह महान् असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रह्लादसे प्रेम करने लगा और इसी प्रकार धर्मज्ञ प्रह्लादजी भी अपने गुरु और माता – पिताकी सेवा – शुश्रूषा करने लगे ॥ तदनन्तर नृसिंहरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा पिताके मारे जानेपर वे दैत्योंके राजा हुए ॥ फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी , बहुत – से पुत्र – पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर , कर्माधिकारके क्षीण होनेपर पुण्य पापसे रहित हो भगवान्का ध्यान करते हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया ॥

हे मैत्रेय ! जिनके विषयमें तुमने पूछा था वे परम भगवद्भक्त महामति दैत्यप्रवर प्रह्लादजी ऐसे प्रभावशाली हुए ॥ उन महात्मा प्रह्लादजीके इस चरित्रको जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥ इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य प्रह्लाद चरित्रके सुनने या पढ़नेसे दिन – रातके ( निरन्तर ) किये हुए पापसे अवश्य छूट जाता है ॥ पूर्णिमा , अमावास्या , अष्टमी अथवा द्वादशीको इसे पढ़नेसे मनुष्यको गोदानका फल मिलता है ॥ जिस प्रकार भगवान्ने प्रह्लादजीकी सम्पूर्ण आपत्तियोंसे रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता है ॥

 

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