प्राचीनबर्हि का जन्म और प्रचेताओंका भगवदाराधन
पृथुके अन्तर्द्धान और उनकी संतति
पृथुके अन्तर्द्धान और वादी नामक दो धर्मज्ञ पुत्र हुए ; उनमेंसे अन्तर्द्धानसे उसकी पत्नी शिखण्डिनीने हविर्धानको उत्पन्न किया ॥ हविर्धानसे अग्निकुलीना धिषणाने प्राचीनबर्हि , शुक्र, गय , कृष्ण , वृज और अजिन- ये छ : पुत्र उत्पन्न किये ॥ हविर्धानसे उत्पन्न हुए भगवान् प्राचीनबर्हि एक महान् प्रजापति थे , जिन्होंने यज्ञके द्वारा अपनी प्रजाकी बहुत वृद्धि की ॥ हे मुने ! उनके समयमें [ यज्ञानुष्ठानकी अधिकताके कारण ] प्राचीनाग्र कुश समस्त पृथिवीमें फैले हुए थे , इसलिये वे महाबली ‘ प्राचीनबर्हि ‘ नामसे विख्यात हुए ॥
प्राचीनबर्हि एक महान् प्रजापति
उन महीपतिने महान् तपस्याके अनन्तर समुद्रकी पुत्री सवर्णासे विवाह किया ॥ उस समुद्र कन्या सवर्णाके प्राचीनबर्हिसे दस पुत्र हुए । वे प्रचेता नामक सभी पुत्र धनुर्विद्याके पारगामी थे ॥ उन्होंने समुद्रके जलमें रहकर दस हजार वर्षतक समान धर्मका आचरण करते हुए घोर तपस्या की ॥
प्राचीनबर्हि का आदेश और प्रचेताओंकी प्रतिक्रिया
एक बार प्रजापतिकी प्रेरणासे प्रचेताओंके महात्मा पिता प्राचीनबर्हिने उनसे अति सम्मानपूर्वक सन्तानोत्पत्तिके लिये इस प्रकार कहा ॥
प्राचीनबर्हि बोले- हे पुत्रो ! देवाधिदेव ब्रह्माजीने मुझे आज्ञा दी है कि ‘ तुम प्रजाकी वृद्धि करो ‘ और मैंने भी उनसे ‘ बहुत अच्छा ‘ कहदिया है ॥ अतः हे पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नताके लिये सावधानतापूर्वक प्रजाकी वृद्धि करो , क्योंकि प्रजापतिकी आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है ॥
उन राजकुमारोंने पिताके ये वचन सुनकर उनसे ‘जो आज्ञा ‘ ऐसा कहकर फिर पूछा ॥
प्रचेता बोले- हे तात ! जिस कर्मसे हम प्रजा वृद्धिमें समर्थ हो सकें उसकी आप हमसे भली प्रकार व्याख्या कीजिये ॥
प्रचेताओंकी तपस्या
पिताने कहा- वरदायक भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे ही मनुष्यको निःसन्देह इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है और किसी उपायसे नहीं । इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ ॥ इसलिये यदि तुम सफलता चाहते हो तो प्रजा – वृद्धिके लिये सर्वभूतोंके स्वामी श्रीहरि गोविन्दकी उपासना करो ॥ धर्म , अर्थ , काम या मोक्षकी इच्छावालोंको सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी ही आराधना करनी चाहिये ॥ कल्पके आरम्भमें जिनकी उपासना करके प्रजापतिने संसारकी रचना की है , तुम उन अच्युतकी ही आराधना करो । इससे तुम्हारी सन्तानकी वृद्धि होगी ॥
पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर प्रचेता नामक दसों पुत्रोंने समुद्रके जलमें डूबे रहकर सावधानतापूर्वक तप करना आरम्भ कर दिया ॥ सर्वलोकाश्रय जगत्पति श्रीनारायणमें चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहीं ( जलमें ही ) स्थित रहकर देवाधिदेव श्रीहरिकी एकाग्र – चित्तसे स्तुति की , जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालोंकी सभी कामनाएँ सफल कर देते हैं ॥
भगवान् विष्णुका दर्शन और वरदान
इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान् समाधिस्थ होकर प्रचेताओंने महासागरमें रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या की ॥ तब भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर उन्हें खिले हुए नील कमलकी – सी आभायुक्त दिव्य छविसे जलके भीतर ही दर्शन दिया ॥ प्रचेताओंने पक्षिराज गरुड़पर चढ़े हुए श्रीहरिको देखकर उन्हें भक्तिभावके भारसे झुके हुए मस्तकोंद्वारा प्रणाम किया ॥
तब भगवान्ने उनसे कहा – “ मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ , तुम अपना अभीष्ट वर माँगो ” ॥ तब प्रचेताओंने वरदायक श्रीहरिको प्रणाम कर , जिस प्रकार उनके पिताने उन्हें प्रजा – वृद्धिके लिये आज्ञा दी थी वह सब उनसे निवेदन की ॥ तदनन्तर , भगवान् उन्हें अभीष्ट वर देकर | अन्तर्धान हो गये और वे जलसे बाहर निकल आये ॥