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प्रारब्ध और उसके प्रभाव
अध्यात्मोपनिषद् में कहा है कि जैसे प्रथम गौ न जानकर व्याघ्र बुद्धि से बाण छोड़ा हुआ, पश्चात गौ का ज्ञान हो जाने पर भी पूर्व वैग से छुटा हुआ बाण गौ को भेदन किये बिना नहीं रहता है। ऐसे ही तीव्र प्रारब्ध भोग रूपी फल को दिए बिना दूर नहीं होता है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि चंद्रमा के गुरुपत्नी को दूषित करने पर तारा ने चन्द्रमा को क्षयी रोग का शाप दिया और महादेव ने कहा कि हे चन्द्रमा ! जिस हेतु से आपने भाद्रपद की चतुर्थी में गुरुपत्नी को दूषित किया है इस हेतु से उस दिन में आपका दर्शन सर्व युगों में पापकारी होगा।
शुभ-अशुभ कर्म किया हुआ, पुरुष को अवश्य ही भोगना पड़ता है बिना भोगे से किये हुए कर्म का नाश ब्रह्मा के करोड़ कल्प पर्यन्त भी नहीं होता है। देखो प्रकाशमान चन्द्रमा आदि देवता को भी अपने पापादि कर्मों का कष्ट रूपी फल भोगना ही पड़ा, तो अस्मदादिक पुरुषों की तो कथा ही क्या है।
प्रारब्ध और पाप
स्कन्द पुराण में कहा है कि भावी की भवितव्यता ईश्वरों से भी अनिवार्य है। नीलकंठ शिवजी को नग्नपना और हरि विष्णु भगवान् का शेष नाग पर शयन करना। ईश्वर इन लीलाओं से भवितव्यता की प्रबलता सुचित करते हैं।
नारद पन्चरात्र में कहा है कि ब्रह्मा ने पूर्व कर्म के अनुसार जिस प्राणी की मृत्यु, जिस प्राणी के हाथ में लिख दी है उस मृत्यु को स्वय विष्णु और शंकर भी खंडित करने में समर्थ नहीं हो सकते।
धर्म और न्याय
वाल्मीकि रामायण में कहा है कि रामबाण से गत प्राण रणभूमि में पड़े हुए रावण का सर गोद में रख कर रोती हुई मन्दोदरी कहती है, हे पति ! श्री रामचन्द्र परमानन्द का कोई दोष नहीं है। मैं आपके असीम पाप फल को और विभीषण के असीम पुण्य फल को आँखों से देखती हूँ। पुण्य कर्ता पुण्य गति को प्राप्त होता है, और पाप कर्ता पाप गति को प्राप्त होता है।
विभीषण राम कृपा का पात्र हो कर सुख रूपी राज्य को प्राप्त हो गए हैं और आप हे पति ! पुत्र बन्धु सेना के सहित गत प्राण होकर रणभूमि में अति पाप कर्म से ऐसी कष्ट गति को प्राप्त हो गए हो। हाँ ! पाप कर्म की कष्ट गति का असीम दुःख है।
देवी भागवत में कहा है कि राजा हरिशचन्द्र ने काशी में जाकर चौदह भार सोने के दक्षिणा रूपी ऋण के बदले विश्वामित्र से कहा कि हे मुनिष्वर ! यह मेरे प्राण और यह मेरा प्रिय पुत्र और यह मेरी प्यारी पत्नी इनमें से जिससे आपका कार्य सिद्ध होता हो उसी को आज आप शीघ्र ही ग्रहण करे।
तब विश्वामित्र ने कहा हे राजन ये तीनों ही मेरे किसी काम के नहीं है मुझे तो चौदह भार सोने को शीघ्र देदों नहीं तो मैं शाप देता हूँ।
तब रानी ने कहा हे राजन ! पुरुषों को पुत्र रूपी फल पर्यन्त ही स्त्रियें ग्राह्य है। अब आप पुत्र हो है अब जिस प्रकार चुका आपका वाक्य असत्य न हो, तेसे ही आप मुझे धन से बाजार में बेच कर शीघ्र ही वे विप्र के प्रति दक्षिणा दे कर सत्य प्रतिज्ञ हो, तब राजा ने प्रतिज्ञा के पालन के लिए असीम दुःख सहन करते हुए प्रिय पुत्र को और प्यारी पत्नी को काशी के बाजार में बेच दिया फिर भी पूरा धन न मिलने से आप स्वयं चौदह भार सोने के पूरे करने के लिए चाण्डाल के हाथ में बिक गये।
प्रारब्ध की अनिवार्यता
मार्कण्डेय पुराण में रानी तारा ने कहा है कि हरिशचन्द्र के राज्य को नाश करके सुहृदों का त्याग कर स्त्री, पुत्र का बाजार में बेचकर ऐसी दशा को प्राप्त कर भी प्रारब्ध को संतोष न हुआ और अन्त में राजा को चाण्डाल वृत्ति वाले के अधीन कर दिया है।
जिस राजा हरिशचन्द्र के आगे चलते हुए के पूर्व काल में राजा लोग भृत्यता को प्राप्त हुए, अपने ऊपर के वस्त्रों से भूमि को कूड़े कचरे से साफ करते थे। आज उसी राजा की कर्मगति ने चाण्डाल बना दिया। हाँ प्रारब्ध की अनिवार्य असीम कष्ट गति है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि विधाता दैव कर्म के प्रभा से तृण से पर्वत को हनन कराने में समर्थ है। कीट से सिंह और शार्दूल को, मच्छर से हस्ती को हनन कराने में समर्थ है।
प्रारब्ध और शरणागत
अध्यात्म रामायण में कहा है कि श्री रामचन्द्र परमानन्द को तृणों के ऊपर शयन करते हुए देखकर निषाद राजा ने कहा अहो कष्ट है, कैकयी के वश होकर राजा ने रामचन्द्रजी को कैसा कष्ट दिया है, तब लक्ष्मण ने कहा- हे निषाद सुख-दुःख का दूसरा कोई भी देने वाला नहीं है पुरुष की यह शुभ-अशुभ बुद्धि ही पुण्य पाप द्वारा सुख- दुःख को देने वाली है। मैं कर्ता हूँ ऐसा अभिमान करना व्यर्थ है, क्योंकि प्राणी अपने कर्म रूपी सूत्र से बंधा हुआ है दूसरे को सुख- दुःख क्या दे सकता है।
इस हेतु से विद्वान पुरुष धैर्य करके इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति होने पर हर्ष-मोह को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि उसने सर्व संसार को माया रूप और मिथ्या निश्चय कर लिया हैं। गरुड़ पुराण में कहा है कि अवश्य ही होने वाली भावी कर्म की यदि निवृत्ति हो सकती तो नल राजा, श्रीरामचन्द्र, युधिष्ठिर बुद्धि के सागर महान दुःखों से युक्त क्यों होते ? परन्तु तीव्र प्रारब्ध का नाश भोगने से ही होता है। ऐसा श्रुति कहती है।
क्रोध और क्षमा
महाभारत में द्रोपदी ने कहा है कि हे भरतकुल श्रेष्ठ युधिष्ठिर क्रोध हीन क्षत्रिय मैंने आजतक न देखा न सुना है। आज आपको नेत्रों से देख लिया है क्योंकि आपको निश्चय ही कभी भी क्रोध नहीं आता है जो आपका मन दीन भ्राताओं को और मेरे को देखकर व्यथित नहीं होता है। हे राजन ! आपके क्षमा रूपी व्रत ने इन्द्र के समान बलवाले भीमसेन, अर्जुन को हम सर्व को भिक्षु बना दिया है, अब आगे को आपकी क्रोध हीनता और क्षमावंतता न जाने हमारी क्या दशा करेगी।
तब युधिष्ठिर ने शान्ति कारक धर्म युक्त वचनों से कहा कि हे द्रोपदी ! इस कल्याणकारी मनुष्य देह में क्रोध के विजय करने की ही साधु महात्मा प्रशन्सा करते हैं क्योंकि सर्व शास्त्रों में क्रोधजित क्षमा वाले साधु महात्मा की ही सर्वदा जय होती है और यही श्रेष्ठ महात्माओं का मत है क्योंकि भृगु के लात मारने पर त्रिलोकी नाथ विष्णु जीतक्रोध और क्षमाव्रत के प्रभाव से सर्व देवताओं में अधिक पूजनीय, सर्व ऋषियों से श्रेष्ठ जाने गए हैं इस हेतु से मैं जीत क्रोध, क्षमाव्रत करके मैं सर्व को जीतना चाहता हूँ।
सत्य भाषण से धर्म उत्पन्न होता है और दानादि से धर्म बढ़ता है और अक्रोध क्षमादि से धर्म स्तर रहता है और क्रोध से धर्म नाश हो जाता है इससे अक्रोध क्षमा ही धर्म का मुख्य साधन हैं।
मृत्यु और शोक
अभिमन्यु की मृत्यु के शोक से मूर्छित हुए युधिष्ठिर को उठाकर व्यासजी ने कहा राजन ! शोक से पापों की वृद्धि होती है इस हेतु से बुद्धिमान शोक को त्याग कर अपने कल्याण के लिए प्रयत्न करे।
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि प्रिय बन्धु की मृत्यु हो जाने । पर रोते हुए सम्बन्धियों के मुख, नेत्रों से जो श्लेष्म और आंसु गिरते । हैं उनको वो मृतक परवस हुए प्रेत होकर खाता है, इस कारण से मरे हुए के निमित रूदन करना योग्य नहीं है। मरे हुए बन्धु की शास्त्र विधि से स्वशक्ति अनुसार क्रिया ही करवाना योग्य है।
अध्यात्म रामायण में कहा है कि पिता की मृत्यु से और श्रीरामचन्द्रजी के वियोग रूप दावानल से दग्ध होते हुए भरत को अमृत वाक्य वृष्टि से सिंचन करते हुए, वशिष्ठजी कहते हैं कि इस निःसार संसार में ज्ञानी विचारशील पुरुषों को जब प्रिय बन्धुओं का वियोग होता है सो वियोग वैराग्य हेतु है और सो ही वैराग्य तीव्र होने पर पुरुष को शान्ति और जीवन मुक्ति सुख को विस्तार करने वाला होता है।
रघुवंश में कहा है कि इन्दुमती रानी की मृत्यु से राजा अज के अधीर होने पर यह शिक्षा शिष्य द्वारा दी है कि हे राजन ! संसार में अज्ञानी और ज्ञानी दो प्रकार के पुरुष होते हैं इसमें अज्ञानी मूढ़ पुरुष को प्रिय बन्धु आदि के नाश होने पर हृदय में शल्यकारी बाण के समान दुःख को प्राप्त होते हैं और स्थिर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष उस प्रिय बन्धु के नाश को कल्याणकारी मानकर मोहकारी वेदना से अपने को रहित जान कर आनन्दित होता है।
यदि अति सम्बन्धी प्रिय स्वशरीर का और जीवात्मा का शास्त्रो में संयोग वियोग सुना जाता है तो हे राजन! कहो बुद्धिमान पुरुष को बाह्य विषय से वियोग क्या ताप का हेतु हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है।
सर्वभूत प्राणियों के मन को आनन्द से पूर्ण करते हुए भी रामचन्द्रजी राज्य पालन करते हये जिसे श्रीरामचन्द्रजी की धर्मकारी प्रजा के मुख से राम-राम ये ही सर्वदा कथा होती थी और हे राजन! जिस रामचन्द्र ने हत राक्षस को मार गिराया था सो राम भी शरीर की अनित्यता को दिखलाते हुये परलोक पधार गये हैं।
धर्म और सत्य
महाभारत में कृष्णचन्द्र ने अर्जुन से कहा है पुरुष श्रेष्ठ अभिमन्यु शूरवीर का, महारथियों से रण में मारे हुए का, शोक न करों क्योंकिं पूर्वज धर्म स्थापक महात्माओं ने यह सनातन धर्म नियत कर दिया है कि क्षत्रियों की रण में मृत्यु होना श्रेष्ठ है।
महाभारत में कहा है कि द्रोणाचार्य का प्रण था कि अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर मैं युद्ध नहीं करूँगा, तब कृष्णचन्द्र ने युधिष्ठिर से कहा कि आप द्रोणाचार्य को सुना कर कहो कि ‘अश्वत्थामा हत’ धर्मपुत्र ने कहा मिथ्या भाषण से महापाप होता है, तब कृष्णचन्द्र जी ने कहा कि विवाह काल में, रतिकाल में, प्राण जाने पर, सर्व धर्म नाश होने पर और ब्राह्मण की रक्षा के लिये असत्य भाषण का दोष नहीं है। ये पाँच असत्य भाषण पाप जनक नहीं है, तब युधिष्ठिर ने कहा ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुञ्जरो वा’ ऐसा सुनकर दोणाचार्य शक्तिहीन होकर युद्ध से उपरत हो गये ।
अपशब्द शास्त्रों से भारी
कर्ण बाण से पीड़ित युधिष्ठिर ने कहा- हे अर्जुन ! आपने कहा का प्रण था कि मैं एक क्षण में त्रिलोकी का नाश कर सकता हूँ। आज तक कर्ण का भी नाश नहीं हुआ तो गाण्डीव धनुष को फेंक दो। अर्जुन था कि जो कहे गाण्डीव धनुष को फेंक दो ऐसे कहने वाले का सिर काट देगा इसी प्रण के अनुसार ही अर्जुन युधिष्ठर का सिर काटने लगे तब श्रीकृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन ! आपको यह ज्ञात नहीं है कि कैसे मारा जाता है, युधिष्ठर जैसे धर्मात्मा पूजनीय को शस्त्र से मारना उचित नहीं है क्योंकि माननीय पुरुष जब मान को प्राप्त होता है तब इस लोभ में वह अपने को जीवित मानता है
और जब वही माननीय पुरुष किसी महान अपमान को प्राप्त होता है तब जीता ही अपने को मरे के समान जानता है, तब अर्जुन ने युधिष्ठर से कहा कि आप तो युद्ध में बहुत पीछे रहने वाले हो आप युद्ध को क्या जान सकते हैं? युद्ध को तो भीम अथवा मैं ही जान सकता हूँ। इस प्रकार के तिरस्कारी शब्दों से अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पुरी की। यह सुनकर युधिष्ठर ने कहा हे अर्जुन ! इन अप शब्दों के कहने से तो शस्त्र से मार देता तो अच्छा था।