23. बलभद्रजीका व्रज-विहार तथा यमुनाकर्षण

बलभद्रजी और मदिरापान

अपने कार्योंसे पृथिवीको विचलित करनेवाले, बड़े विकट कार्य करनेवाले, धरणीधर शेषजीके अवतार माया-मानवरूप महात्मा बलरामजीको गोपोंके साथ वनमें विचरते देख उनके उपभोगके लिये वरुणने वारुणी (मदिरा) -से कहा- ॥ “हे मदिरे ! जिन महाबलशाली अनन्तदेवको तुम सर्वदा प्रिय हो; हे शुभे ! तुम उनके उपभोग और प्रसन्नताके लिये जाओ ” ॥  वरुणकी ऐसी आज्ञा होनेपर वारुणी वृन्दावनमें उत्पन्न हुए कदम्ब – वृक्षके कोटरमें रहने लगी ॥ 

तब मनोहर मुखवाले बलदेवजीको वनमें विचरते हुए मदिराकी अति उत्तम गन्ध सुँघनेसे उसे पीनेकी इच्छा हुई ॥  उसी समय कदम्बसे मद्यकी धारा गिरती देख हलधारी बलरामजी बड़े प्रसन्न हुए ॥ तथा गाने-बजानेमें कुशल गोप और गोपियोंके मधुर स्वरसे गाते हुए उन्होंने उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक मद्यपान किया ॥ 

यमुना स्नान

तदनन्तर अत्यन्त घामके कारण स्वेद-बिन्दुरूप मोतियोंसे सुशोभित मदोन्मत्त बलरामजीने विह्वल होकर कहा- ” यमुने! आ, मैं स्नान करना चाहता हूँ” ॥  उनके वाक्यको उन्मत्तका प्रलाप समझकर यमुनाने उसपर कुछ भी ध्यान न दिया और वह वहाँ न आयी। इसपर हलधरने क्रोधित होकर अपना हल उठाया ॥ और मदसे विह्वल होकर यमुनाको हलकी नोकसे पकड़कर खींचते हुए कहा- “अरी पापिनि! तू नहीं आती थी ! अच्छा अब [ यदि शक्ति हो तो ] इच्छानुसार अन्यत्र जा तो सही ॥ ” इस प्रकार बलरामजीके खींचनेपर यमुनाने अकस्मात् अपना मार्ग छोड़ दिया और जिस वनमें बलरामजी खड़े थे उसे आप्लावित कर दिया ॥ 

तब वह शरीर धारणकर बलरामजीके पास आयी और भयवश डबडबाती आँखोंसे कहने लगी- “हे मुसलायुध! आप प्रसन्न होइये और मुझे छोड़ दीजिये ॥  उसके ” उन मधुर वचनोंको सुनकर हलायुध बलभद्रजीने कहा- ‘अरी नदि! क्या तू मेरे बल-वीर्यकी अवज्ञा करती है ?

 रैवती से विवाह

देख, इस हलसे मैं अभी तेरे हजारों टुकड़े कर डालूँगा “॥  बलरामजी द्वारा इस प्रकार कही जानेसे भयभीत हुई यमुनाके उस भू-भागमें बहने लगनेपर उन्होंने प्रसन्न होकर उसे छोड़ दिया ॥  उस समय स्नान करनेपर महात्मा बलरामजीकी अत्यन्त शोभा हुई। तब लक्ष्मीजीने [सशरीर प्रकट होकर] उन्हें एक सुन्दर कर्णफूल, एक कुण्डल, एक वरुणकी भेजी हुई कभी न कुम्हलानेवाले कमल-पुष्पोंकी माला और दो समुद्रके समान कान्तिवाले नीलवर्ण वस्त्र दिये ॥  उन कर्णफूल, सुन्दर कुण्डल, नीलाम्बर और पुष्प- मालाको धारणकर श्रीबलरामजी अतिशय कान्तियुक्त हो सुशोभित होने लगे ॥  इस प्रकार विभूषित होकर श्रीबलभद्रजीने व्रजमें अनेकों लीलाएँ कीं और फिर दो मास पश्चात् द्वारकापुरीको चले आये ॥  वहाँ आकर बलदेवजीने राजा रैवतकी पुत्री रेवतीसे विवाह किया; उससे उनके निशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए ॥ 

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