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ब्रह्मयोग के बारे में केशीध्वज और खाण्डिक्य का वर्णन
केशिध्वज बोले- क्षत्रियों को तो राज्य-प्राप्ति से अधिक प्रिय और कुछ भी नहीं होता, फिर तुमने मेरा निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं माँगा ?
खाण्डिक्य बोले- मैंने जिस कारण से तुम्हारा राज्य नहीं माँगा वह सुनो। इन राज्यादि की आकांक्षा तो मूर्खो को हुआ करती है ॥ क्षत्रियों का धर्म तो यही है कि प्रजा का पालन करें और अपने राज्य के विरोधियों का धर्म-युद्ध से वध करें ॥
शक्तिहीन होने के कारण यदि तुमने मेरा राज्य हरण कर लिया है, तो मुझे कोई दोष न होगा। क्यों कि यद्यपि यह अविद्या ही है तथापि नियम विरुद्ध त्याग करने पर यह बन्धन का कारण होती है ॥ यह राज्य की चाह मुझे तो जन्मान्तर के सुखभोग के लिये होती है; और वही मन्त्री आदि अन्य जनों को राग एवं लोभ आदि दोषों से उत्पन्न होती है। केवल धर्मानुरोध से नहीं ॥ ‘ उत्तम क्षत्रियों का याचना करना धर्म नहीं है’| यह महात्माओं का मत है। इसीलिये मैंने अविद्या के अन्तर्गत तुम्हारा राज्य नहीं माँगा ॥ जो लोग अहंकार रूपी मदिरा का पान करके उन्मत्त हो रहे हैं तथा जिनका चित्त ममताग्रस्त हो रहा है वे मूढ़जन ही राज्य की अभिलाषा करते हैं; मेरे- जैसे लोग राज्य की इच्छा नहीं करते ॥
तब राजा केशिध्वज ने प्रसन्न होकर खाण्डिक्य जनक को साधुवाद दिया और प्रीतिपूर्वक कहा, मेरा वचन सुनो- ॥ मैं अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करने की इच्छा से ही राज्य तथा विविध यज्ञों का अनुष्ठान करता हूँ और नाना भोगों द्वारा अपने पुण्यों का क्षय कर रहा हूँ ॥ बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा मन विवेक सम्पन्न हुआ है अतः तुम अविद्या का स्वरूप सुनो ॥ संसार वृक्ष की बीजभूता यह अविद्या दो प्रकार की है- अनात्मा में आत्म बुद्धि और जो अपना नहीं है उसे अपना मानना ॥ यह कुमति जीव मोहरूपी अन्धकार से आवृत होकर इस पंचभूतात्मक देह में ‘मैं’ और ‘मेरापन’ का भाव करता है ॥ जब कि आत्मा आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी आदि से सर्वथा पृथक् है तो कौन बुद्धिमान् व्यक्ति शरीर में आत्मबुद्धि करेगा ? ॥ और आत्मा के देह से परे होने पर भी देह के उपभोग्य गृह- क्षेत्रादि को कौन प्राज्ञ पुरुष’ अपना’ मान सकता है ॥ इस प्रकार इस शरीर के अनात्मा होने से इससे उत्पन्न हुए पुत्र- पौत्रादि में भी कौन विद्वान् अपनापन करेगा ॥ मनुष्य सारे कर्म देह के ही उपभोग के लिये करता है; किन्तु जब कि यह देह अपने से पृथक् है, तो वे कर्म केवल बन्धन के ही कारण होते हैं ॥ जिस प्रकार मिट्टी के घर को जल और मिट्टी से लीपते-पोतते हैं उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर भी मृत्तिका और जल की सहायता से ही स्थिर रहता है॥ यदि यह पंचभूतात्मक शरीर पांचभौतिक पदार्थों से पुष्ट होता है तो इसमें पुरुष ने क्या भोग किया ॥ यह जीव अनेक सहस्र जन्मों तक सांसारिक भोगों में पड़े रहने से उन्हीं की वासनारूपी धूलि से आच्छादित हो जाने के कारण केवल मोहरूपी श्रम को ही प्राप्त होता है ॥ जिस समय ज्ञानरूपी गर्म जल से उसकी वह धूलि धो दी जाती है तब इस संसार-पथके पथिक का मोहरूपी श्रम शान्त हो जाता है ॥ मोह-श्रमके शान्त हो जाने पर पुरुष स्वस्थ-चित्त हो जाता है और निरतिशय एवं निर्बाध परम निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है ॥ यह ज्ञानमय निर्मल आत्मा निर्वाण-स्वरूप ही है, दु:ख आदि जो अज्ञानमय धर्म हैं वे प्रकृति के हैं, आत्मा के नहीं ॥ जिस प्रकार स्थाली के जलका अग्निसे संयोग नहीं होता तथापि स्थाली के संसर्गसे ही उसमें खौलने के शब्द आदि धर्म प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रकृति के संसर्ग से ही आत्मा अहंकारादि से दूषित होकर प्राकृत धर्मो को स्वीकार करता है; वास्तव में तो वह अव्ययात्मा उनसे सर्वथा पृथक् है ॥ इस प्रकार मैंने तुम्हें यह अविद्या का बीज बतलाया; इस अविद्या से प्राप्त हुए क्लेशों को नष्ट करनेवाला योग से अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है ॥
खाण्डिक्य बोले- तुम निमिवंश में योगशास्त्र के मर्मज्ञ हो, अतः उस योग का वर्णन करो ॥
केशिध्वज बोले- जिसमें स्थित होकर ब्रह्म में लीन हुए मुनिजन फिर स्वरूप से च्युत नहीं होते, मैं उस योग का वर्णन करता हूँ ॥
मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण केवल मन ही है; विषय का संग करने से वह बन्धनकारी और विषय शून्य होने से मोक्ष कारक होता है ॥ अतः विवेक ज्ञान सम्पन्न मुनि अपने चित्त को विषयोंसे हटाकर मोक्ष प्राप्ति के लिये ब्रह्मस्वरूप परमात्मा का चिन्तन करे ॥ जिस प्रकार अयस्कान्तमणि अपनी शक्ति से लोहे को खींचकर अपनेमें संयुक्त कर लेता है उसी प्रकार ब्रह्म चिन्तन करनेवाले मुनि को परमात्मा स्वभाव से ही स्वरूप में लीन कर देता है॥ आत्मज्ञानके प्रयत्नभूत यम, नियम आदिकी अपेक्षा रखने वाली जो मन की विशिष्ट गति है, उसका ब्रह्म के साथ संयोग होना ही ‘योग’ कहलाता है ॥
जिसका योग इस प्रकारके विशिष्ट धर्मसे युक्त होता है वह मुमुक्षु योगी कहा जाता है ॥ जब मुमुक्षु पहले-पहले योगाभ्यास आरम्भ करता है तो उसे ‘योगयुक्त योगी’ कहते हैं और जब उसे परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है तो वह ‘विनिष्पन्न समाधि’ कहलाता है ॥ यदि किसी विघ्नवश उस योग युक्त योगी का चित्त दूषित हो जाता है तो जन्मान्तर में भी उसी अभ्यास को करते रहनेसे वह मुक्त हो जाता है ॥ विनिष्पन्न समाधि योगी तो योगाग्नि से कर्म समूह के भस्म हो जाने के कारण उसी जन्म में थोड़े ही समय में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।। योगीको चाहिये कि अपने चित्त को ब्रह्मचिन्तन के योग्य बनाता हुआ ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रहका निष्कामभाव से सेवन करे ॥ तथा संयत चित्तसे स्वाध्याय, शौच, सन्तोष और तपका आचरण करे तथा मनको निरन्तर परब्रह्ममें लगाता रहे ॥ ये पाँच-पाँच यम और नियम बतलाये गये हैं। इनका सकाम आचरण करनेसे पृथक्- पृथक् फल मिलते हैं और निष्कामभाव से सेवन करने से मोक्ष प्राप्त होता है ॥
यति को चाहिये कि भद्रासनादि आसनोंमें से किसी एकका अवलम्बन कर यम-नियमादि गुणोंसे युक्त हो योगाभ्यास करे ॥ अभ्यासके द्वारा जो प्राणवायु को वशमें किया जाता है उसे ‘प्राणायाम’ समझना चाहिये। वह सबीज निर्बीज भेद से दो प्रकार का है ॥ सद्गुरु के उपदेश से जब योगी प्राण और अपानवायु द्वारा एक-दूसरेका निरोध करता है तो [क्रमशः रेचक और पूरक नामक ] दो प्राणायाम होते हैं और इन दोनों का एक ही समय संयम करने से तीसरा प्राणायाम होता है ॥ जब योगी सबीज प्राणायाम का अभ्यास आरम्भ करता है तो उसका आलम्बन भगवान् अनन्त का हिरण्यगर्भ आदि स्थूलरूप होता है ॥ तदनन्तर वह प्रत्याहार का अभ्यास करते हुए शब्दादि विषयों में अनुरक्त हुई अपनी इन्द्रियों को रोककर अपने चित्तकी अनुगामिनी बनाता है ॥ ऐसा करनेसे अत्यन्त चंचल इन्द्रियाँ उसके वशीभूत हो जाती हैं। इन्द्रियों को वशमें किये बिना कोई योगी योग-साधन नहीं कर सकता ॥ इस प्रकार प्राणायाम से वायु और प्रत्याहार से इन्द्रियों को वशीभूत कर के चित्तको उसके शुभ आश्रय में स्थित करे ।।
खाण्डिक्य बोले- यह बतलाइये कि जिसका आश्रय करनेसे चित्तके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं वह चित्तका शुभाश्रय क्या है ? ॥
केशिध्वज बोले- चित्तका आश्रय ब्रह्म है जो कि मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर- रूपसे स्वभावसे ही दो प्रकारका है ॥ हे भूप! इस जगत् में ब्रह्म, कर्म और उभयात्मक नामसे तीन प्रकार की भावनाएँ हैं ॥ इनमें पहली कर्मभावना, दूसरी ब्रह्मभावना और तीसरी उभयात्मि का भावना कहलाती है। इस प्रकार ये त्रिविध भावनाएँ हैं ॥ सनन्दनादि मुनिजन ब्रह्मभावना से युक्त हैं और देवताओं से लेकर स्थावर-जंगमपर्यन्त समस्त प्राणी कर्मभावनायुक्त हैं ॥ [स्वरूपविषयक] बोध और [ स्वर्गादिविषयक ] अधिकारसे युक्त हिरण्यगर्भादि में ब्रह्मकर्ममयी उभयात्मिका भावना है ॥ तथा
जबतक विशेष ज्ञान के हेतु कर्म क्षीण नहीं होते तभी तक अहंकारादि भेद के कारण भिन्न दृष्टि रखने वाले मनुष्यों को ब्रह्म और जगत् की भिन्नता प्रतीत होती है॥ जिसमें सम्पूर्ण भेद शान्त हो जाते हैं, जो सत्तामात्र और वाणी का अविषय है तथा स्वयं ही अनुभव करने योग्य है, वही ब्रह्मज्ञान कहलाता है ॥ वही परमात्मा विष्णु का अरूप नामक परम रूप है, जो उनके विश्वरूप से विलक्षण है ॥
योगाभ्यासी जन पहले-पहल उस रूप का चिन्तन नहीं कर सकते, इसलिये उन्हें श्रीहरि के । विश्वमय स्थूल रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥ हिरण्यगर्भ, भगवान् वासुदेव, प्रजापति, मरुत्, वसु, रुद्र, सूर्य, तारे, ग्रहगण, गन्धर्व, यक्ष और दैत्य आदि समस्त देवयोनियाँ तथा मनुष्य, पशु, पर्वत, समुद्र, नदी, वृक्ष, सम्पूर्ण भूत एवं प्रधानसे लेकर विशेष (पंचतन्मात्रा) पर्यन्त उनके कारण तथा चेतन, अचेतन, एक, दो अथवा अनेक चरणोंवाले प्राणी और बिना चरणवाले जीव—ये सब भगवान् हरिके भावनात्रयात्मक मूर्तरूप हैं ॥ यह सम्पूर्ण चराचर जगत्, परब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका, उनकी शक्ति से सम्पन्न ‘विश्व’ नामक रूप है ॥
विष्णुशक्ति परा है, क्षेत्रज्ञ नामक शक्ति अपरा है और कर्म नामकी तीसरी शक्ति अविद्या कहलाती है ॥ इस अविद्या शक्ति से आवृत होकर वह सर्वगामिनी क्षेत्रज्ञ शक्ति सब प्रकार के अति विस्तृत सांसारिक कष्ट भोगा करती है ॥ अविद्या- शक्ति से तिरोहित रहने के कारण ही क्षेत्रज्ञ शक्ति सम्पूर्ण प्राणियों में तारतम्य से दिखलायी देती है ॥ वह सबसे कम जड पदार्थों में है, उनसे अधिक वृक्ष-पर्वतादि स्थावरों में, स्थावरों से अधिक सरीसृपादि में और उनसे अधिक पक्षियों में है ॥ पक्षियों से मृगोंमें और मृगोंसे पशुओं में वह शक्ति अधिक है तथा पशुओं की अपेक्षा मनुष्य भगवान्की उस (क्षेत्रज्ञ) शक्तिसे अधिक प्रभावित हैं ॥ मनुष्योंसे नाग, गन्धर्व और यक्ष आदि समस्त देवगणोंमें, देवताओंसे इन्द्र में, इन्द्र से प्रजापतिमें और प्रजापति से हिरण्यगर्भ में उस शक्तिका विशेष प्रकाश है ।। ये सम्पूर्ण रूप उस परमेश्वरके ही शरीर हैं, क्योंकि ये सब आकाशके समान उनकी शक्तिसे व्याप्त हैं ॥
विष्णु नामक ब्रह्मका दूसरा अमूर्त रूप है, जिसका योगिजन ध्यान करते हैं और जिसे बुधजन ‘सत्’ कहकर पुकारते हैं॥ जिसमें कि ये सम्पूर्ण शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं वही भगवान्का विश्वरूपसे विलक्षण द्वितीय रूप है ॥ भगवान् का वही रूप अपनी लीला से देव, तिर्यक् और मनुष्यादि की चेष्टाओंसे युक्त सर्वशक्तिमय रूप धारण करता है ॥ इन रूपों में अप्रमेय भगवान्की जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है वह संसार के उपकार के लिये ही होती है, कर्मजन्य नहीं होती ॥ योगाभ्यासी को आत्म-शुद्धि के लिये भगवान् विश्वरूपके उस सर्वपापनाशक रूप का ही चिन्तन करना चाहिये ॥ जिस प्रकार वायुसहित अग्नि ऊँची ज्वालाओं से युक्त होकर शुष्क तृणसमूह को जला डालता है उसी प्रकार चित्त में स्थित हुए भगवान् विष्णु योगियों के समस्त पाप नष्ट कर देते हैं ॥ इसलिये सम्पूर्ण शक्तियों के आधार भगवान् विष्णु में चित्तको स्थिर करे, यही शुद्ध धारणा है ॥ तीनों भावनाओंसे अतीत भगवान् विष्णु ही योगिजनोंकी मुक्तिके लिये उनके चंचल तथा स्थिर रहनेवाले चित्तके शुभ आश्रय हैं॥
इसके अतिरिक्त मन के आश्रय भूत जो अन्य देवता आदि कर्म योनियाँ हैं, वे सब अशुद्ध हैं ॥ भगवान्का यह मूर्तरूप चित्त को अन्य आलम्बनोंसे निःस्पृह कर देता है। इस प्रकार चित्त का भगवान् में स्थिर करना ही धारणा कहलाती है ॥
धारणा बिना किसी आधारके नहीं हो सकती; इसलिये भगवान् के जिस मूर्तरूप का जिस प्रकार ध्यान करना चाहिये, वह सुनो ॥ जो प्रसन्नवदन और कमलदल के समान सुन्दर नेत्रों वाले हैं, सुन्दर कपोल और विशाल भाल से अत्यन्त सुशोभित हैं तथा अपने सुन्दर कानोंमें मनोहर कुण्डल पहने हुए हैं, जिनकी ग्रीवा शंखके समान और विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्न से सुशोभित है, जो तरंगाकार त्रिवली तथा नीची नाभिवाले उदर से सुशोभित हैं, जिनके लम्बी-लम्बी आठ अथवा चार भुजाएँ हैं तथा जिनके जंघा एवं ऊरु समानभाव से स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द सुघरतासे विराजमान हैं उन निर्मल पीताम्बरधारी ब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णु का चिन्तन करे ॥
किरीट, हार, केयूर और कटक आदि आभूषणों से विभूषित, शार्ङ्गधनुष, शंख, गदा, खड्ग, चक्र तथा अक्षमाला से युक्त वरद और अभययुक्त हाथों वाले रत्नमयी मुद्रिका से शोभायमान भगवान्के दिव्य रूपका योगी को अपना चित्त एकाग्र करके तन्मयभाव से तबतक चिन्तन करना चाहिये जबतक यह धारणा दृढ़ न हो जाय ॥ जब चलते-फिरते, उठते-बैठते अथवा स्वेच्छानुकूल कोई और कर्म करते हुए भी ध्येय मूर्ति अपने चित्त से दूर न हो तो इसे सिद्ध हुई माननी चाहिये ॥
इसके दृढ़ होने पर बुद्धिमान् व्यक्ति शंख, चक्र, गदा और शार्ङ्ग आदिसे रहित भगवान् के स्फटिकाक्ष माला और यज्ञोपवीतधारी शान्त स्वरूप का चिन्तन करे ॥ जब यह धारणा भी पूर्ववत् स्थिर हो जाय तो भगवान्के किरीट, केयूरादि आभूषणोंसे रहित रूपका स्मरण करे ॥ तदनन्तर विज्ञ पुरुष अपने चित्त में एक अवयव-विशिष्ट भगवान्का हृदय से चिन्तन करे और फिर सम्पूर्ण अवयवों को छोड़कर केवल अवयवीका ध्यान करे ॥
जिसमें परमेश्वर के रूप की ही प्रतीति होती है, ऐसी जो विषयान्तर की स्पृहा से रहित एक अनवरत धारा है उसे ही ध्यान कहते हैं, यह अपनेसे पूर्व यम- नियमादि छः अंगोंसे निष्पन्न होता है ॥ उस ध्येय पदार्थका ही जो मनके द्वारा ध्यानसे सिद्ध होनेयोग्य कल्पना हीन स्वरूप ग्रहण किया जाता है उसे ही समाधि कहते हैं ॥ विज्ञान ही प्राप्तव्य परब्रह्म तक पहुँचाने वाला है तथा सम्पूर्ण भावनाओंसे रहित एकमात्र आत्मा ही प्रापणीय है ॥ मुक्ति-लाभमें क्षेत्रज्ञ कर्ता है और ज्ञान करण है मुक्ति रूपी कार्य को सिद्ध कर के वह विज्ञान कृतकृत्य होकर निवृत्त हो जाता है ।। उस समय यह भगवद्भाव से भरकर परमात्मा से अभिन्न हो जाता है। इसका भेद-ज्ञान तो अज्ञानजन्य ही है ।। भेद उत्पन्न करनेवाले अज्ञानके सर्वथा नष्ट हो जानेपर ब्रह्म और आत्मा में असत् भेद कौन कर सकता है ? ॥ इस प्रकार तुम्हारे पूछने के अनुसार मैंने संक्षेप और विस्तार से योग का वर्णन किया; अब मैं तुम्हारा और क्या कार्य करूँ ? ॥
खाण्डिक्य बोले- आपने इस महायोग का वर्णन करके मेरा सभी कार्य कर दिया, क्योंकि आपके उपदेश से मेरे चित्त का सम्पूर्ण मल नष्ट हो गया है ॥ मैंने जो ‘मेरा’ कहा यह भी असत्य ही है, अन्यथा ज्ञेय वस्तु को जानने वाले तो यह भी नहीं कह सकते ॥ ‘मैं’ और ‘मेरा’ ऐसी बुद्धि और इनका व्यवहार भी अविद्या ही है, परमार्थ तो कहने-सुनने की बात नहीं है क्योंकि वह वाणी का अविषय है ॥ आपने इस मुक्तिप्रद योगका वर्णन करके मेरे कल्याणके लिये सब कुछ कर दिया, अब आप सुखपूर्वक पधारिये ॥
तदनन्तर खाण्डिक्य से यथोचित पूजित हो राजा केशिध्वज अपने नगर में चले आये ॥ तथा खाण्डिक्य भी अपने पुत्र को राज्य दे श्रीगोविन्द में चित्त लगाकर योग सिद्ध करनेके लिये वन को चले गये ॥ वहाँ यमादि गुणों से युक्त होकर एकाग्रचित्त से ध्यान करते हुए राजा खाण्डिक्य विष्णु नामक निर्मल ब्रह्म में लीन हो गये ॥
किन्तु केशिध्वज विदेह मुक्ति के लिये अपने कर्मों को क्षय करते हुए समस्त विषय भोगते रहे। उन्होंने फलकी इच्छा न करके अनेकों शुभ-कर्म किये ॥ इस प्रकार अनेकों कल्याणप्रद भोगों को भोगते हुए उन्होंने पाप और मल (प्रारब्ध-कर्म) का क्षय हो जानेपर तापत्रयको दूर करनेवाली आत्यन्तिक सिद्धि प्राप्त कर ली ॥