ब्रह्मस्वरूप

ब्रह्मस्वरूप

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।

समं पश्यन्नात्मयाजी स्वाराज्यमधिगच्छति ।।1।।

पूर्व एकादश अध्याय में वेदरूप श्रुति से प्रतिपादित श्रौताद्वैत का कथन करा। अब द्वादश अध्याय में स्मृति पुराणों से प्रतिपादित स्मार्तकपौराणिकाद्वैत का कथन करते हैं।

मनुस्मृति में मनु भगवान् ने कहा है कि ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतविचाररूप यज्ञ करने बाला आत्मयाजी जिज्ञासु सर्व चराचर प्राणी वर्ग में सम एकरस व्यापक सच्चिदानन्द साक्षी आत्मा को देखता हुआ और स्थावर जङ्गम प्राणीवर्ग को सर्वव्यापी ब्रह्मस्वरूप परमानन्द आत्मा में निजात्मरूप से देखता हुआ अद्वैततत्ववित् स्वयंप्रकाश परमानन्द स्वाराज्य रूप अपुनरावृत्ति कैवल्यमोक्ष को प्राप्त होता है ।। 1 ।।

ये हीमं विष्णुमव्यक्तं देवं वापि महेश्वरम् ।

एकीभावेन पश्यन्ति न तेषां पुनरुद्भवः ।।2।।

पद्मपुराण में कहा है कि जो विवेकशील निश्चित शुद्धचित्त पुरुष इन्द्रिय-अगोचर सर्वव्यापी विष्णु परमदेव को और कल्याणरूप महादेव को एक अद्वैत परमानन्द ब्रह्मस्वरूप से ही देखते हैं तिन परमार्थ अद्वैतदर्शी महान् विवेकी पुरुषों का पुनः संसार में जन्म नहीं होता है अर्थात् वे अद्वैतज्ञान से परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।।2।।

मन्यन्ते ये स्वमात्मानं विभिन्नं परमेश्वरात् ।

न ते पश्यन्ति तं देवं वृथा तेषां परिश्रमः ।।3।।

जो विवेकहीन पापबुद्धि वाले पुरुष अपने निजात्मा को परमानन्दस्वरूप परमेश्वर से भिन्न मानते हैं वे अद्वैत विचारहीन पुरुष तिस ब्रह्मात्मस्वरूप प्रकाशमान् देव को नहीं देख सकते हैं तिन भेददर्शी पुरुषों का संसार में जन्म वृथा ही परिश्रमरूप कष्ट भोगने के लिये ही होता है। हा ! भेदग्राहग्रस्त प्राणियों की कष्ट गति है ।।3।।

शिवे विष्णौ न वा भेदो न च ब्रह्ममहेशयोः ।

तेषां पादरजः पूतं बहाम्यघविनाशनम् ।।4।।

पद्मपुराण में कहा है कि कल्याणरूप शिव में और सर्वव्यापी विष्णु में भेद नहीं है और जैसे ही ब्रह्मा महादेव में भी भेद नहीं है ऐसे जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव तीनों को एक अद्वैत स्वरूप ब्रह्म देखने वाले हैं तिन अद्वैतदर्शी महात्मा के चरणों की पवित्र पापनाशक रज को व्यासजी कहते हैं कि मैं मस्तक पर धारण करता हूँ ।। 4 ।।

मायामयमिदं देवि वपुर्मे न तु तात्त्विकम् ।

सृष्टिस्थित्युपसंहारक्रियाजालं तु बृंहितम् ||5||

विष्णु भगवान् लक्ष्मी के पूछने पर कहते हैं कि हे रमादेवी ! त्रिगुणात्मक माया से कल्पित रूप यह मेरा शरीर है, नाशवान् होने से यह शरीर वास्तव में सत्यस्वरूप नहीं है।

सृष्टिकारक ब्रह्मा स्थितिकारक विष्णु, संहारकारक शिव आदि शरीर यह सर्व क्रियाजाल नामरूप प्रपंच मायामय स्वप्नवत् कल्पित है और अस्ति भाति प्रियरूप से ब्रह्मस्वरूप है ||5||

दृश्यते श्रूयते यद्यद्विद्धि तत्तु शिवात्मकम् ।

भेदो जनानां लोकेऽस्मिन् प्रतिभासोऽविचारतः ||6||

लिङ्गपुराण में कहा है कि यह प्रपथ ब्रह्म का विवर्त होने से जो-जो वस्तु देखी जाती है। और जो-जो वस्तु सुनी जाती है सो सर्व प्रपञ्च ब्रह्मस्वरूप चेतन शिवात्मक है और इस लोक में जो प्राणियों को भेद प्रतीत होता है सो भेद ब्रह्मात्वस्वरूप अद्वैत का विचार न होने से भासता है। वेदान्तशास्त्र से अद्वैत का विचार करने पर भेद सिद्ध नहीं हो सकता है ||6||

त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यिति वै भिदाम् ।

सर्वेभूतात्मनां ब्रह्मन्स शान्तिमधिगच्छति ।।7।।

भागवत में भगवान् ने दक्ष से कहा है कि हे ब्रह्मन् ! हमारे एक अद्वैतस्वरूप ब्रह्मा विष्णु शिव इन सर्व भूतप्राणियों के आत्मा तीनों देवों में जो विवेकीजन भेद नहीं देखता है सो ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतदर्शी विवेकीजन अनर्थ की निवृति और परमानन्द की प्राप्तिरूप शान्तिस्वरूप कैवल्य मोक्ष को प्राप्त होता है। भेदद्रष्टा मुक्त नहीं होता है ।।7।।

आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।

तस्य भिन्नद्दशो मृत्युर्विदधे भयमुल्वणम् ॥8॥

कपिलदेवजी अपनी माता देवहूति से कहते हैं कि हे मातः ! जो प्राणि सर्वभूतप्राणिवर्ग में स्थित व्यापी आत्मा को न जानकर मृत पाषाण की मूर्ति पूजता है सो जानो राख में आहुति डालता है। आत्मस्वरूप चेतन में और परब्रह्मस्वरूप चेतन में जो मन्दबुद्धिजन अल्पमात्र भी भेद करता है तिस भेददर्शी पापीजन को मैं यमराज रूप से महादारूण कष्टरूप नरक की महापीड़ारूप भय दण्ड देता हूँ ।। 8 ।।

अनादिनिधने देवे हरिशंकरसंज्ञिते ।

अज्ञानसागरे मग्नाः भेदं कुर्वन्ति पापिनः  ||9||

नारदीय पुराण में कहा है कि उत्पत्ति नाशादि से रहित सर्व के प्रकाशक पापहारी हरि और सुखकारी शंकर नाम के देव में जो भेद करते हैं वे पापीजन ब्रह्मात्मस्वरूप परमानन्द

अद्वैत के अज्ञानरूप द्वैतसागर में डूबे हुए हैं क्योंकि हरि और शंकर में वास्तव भेद न होने पर तिनमें भेदरूप झूठा कथन करना ही महापाप है ।।9।।

त्वया यदभयं दत्तं बाणस्य तु मयापि तत् ।

आवयोर्न्नास्ति हि भेदो भेदी नरकमाप्नुयात् ||10||

अग्निपुराण में कृष्णचन्द्र भगवान् ने वाणासुर के लिये अभय मांगते हुए महादेव से कहा कि हे शंकर ! जो आप के द्वारा बाणासुर को अभयदान दिया गया है मेरे द्वारा भी बाणासुर को सोई अभयदान दिया गया है क्योंकि शिव और कृष्ण अपने दोनों में भेद नहीं है जो महापापीजन शिव और कृष्ण रूप हममें भेद कथन करता है सो पापीजन निश्चित ही महादु ः ख रूप नरकों को प्राप्त होता है ।।10।।

वेदार्थः परमाद्वैतं नेतरत्सुरपुङ्गवाः ।

नो चेदत्रैव मे मूर्धा पतिष्यति न संशयः ।।11।।

सूतसंहिता में देवताओं ने ब्रह्मा से पूछा कि वेदों का यथार्थ मुख्यार्थ क्या है। ब्रह्मा ने कहा कि हे सारग्रही श्रेष्ठ देवताओं ! वेदों का यथार्थ मुख्यार्थ जीव ब्रह्म की एकता रूप परमार्थ अद्वैत है। तिस ब्रह्मात्मस्वरूप परमाद्वैत से इतर वेदों का अर्थ मुख्य नहीं है। यदि वेदों का मुख्यार्थ ब्रह्मात्मस्वरूप परमाद्वैत न हो तो मुझ ब्रह्मा का शिर निश्चित ही इसी स्थान में टूटकर पतन हो जायेगा इसमें कोई संशय नहीं, यह मैं निश्चित ही कहता हूँ ||11||

श्रु|तिस्मृतिपुराणानि प्राहुरेकत्वमात्मनः ।

तथापि परमाद्वैतं नैव वाञ्छन्ति मानवाः ।।12।।

वेदरूप श्रुति, स्मृति, पुराण सर्व शास्त्र ब्रह्मस्वरूप आत्मा की अद्वैततारूप एकता को प्रतिपादन करते हैं तो भी हतभाग्य मनुष्य ब्रह्मात्मस्वरूप परमाद्वैत को निज मोक्ष के लिये जानने की इच्छा ही नहीं करते हैं इससे परे निज के साथ और शत्रुता क्या है ।।12।।

ब्रह्माणं केशवं रुद्रं भेदभावेन मोहिताः ।

पश्यन्त्येकं न जानन्ति पाषण्डोपहता जनाः ।।13।।

सूतजी कहते हैं कि जो पुरुष अज्ञान से हतबुद्धि मोहित हुए सर्व के आत्मा ब्रह्मा,विष्णु, शिव अद्वितीयस्वरूप को भेद रूप से देखते हैं उन्हें एक अद्वैतरूप से नहीं जानते हैं वे मन्द भाग्य वाले जन जानो पापबुद्धि पाखण्डियों से मोहित हतबुद्धि हो गये हैं ।।13।।

तर्कतश्च प्रमाणाच्च चिदेकत्वे व्यवस्थिते ।

अपि पापवतां पुंसां विपरीता मतिर्भवेत् ।।14।।

अनुमानरूप तर्क से और सर्वशास्त्रों के प्रमाण से ब्रह्मात्मस्वरूप एकरस अद्वैत चेतन निश्चित स्थापित होने पर भी पापशील पुरुषों की तो परमानन्दाद्वैत से विपरीत दुर्गतिकारी भेदबुद्धि ही सदा बनी रहती है ।।14।।

उचुस्ते देहि भगवन्वरमस्माकमीश्वर ।

भिन्नदृष्ट्या महत्पापं यदाप्तं तत्प्रयातु नः ।।15।।

वामनपुराण में महादेव के गण महादेव से कहते हैं कि हे भगवन् सर्व के अन्तर्यामी ईश्वर ! आप हमारे को कृपा करके ऐसा वर देओ कि जो हम विवेकहीनों ने एक अद्वैतस्वरूप शिव ब्रह्मा विष्णु ईश्वरों में भेददृष्टि से महान् नरकयातना के देने वाले उग्र पाप संपादन करे हैं सो भेददृष्टीजन्य महापाप हमारे लोगों के आप ईश्वर की कृपा से निवृत्त हो जाय ।। 15||

विष्णुं रुद्रकृतं ब्रू याच्छ्रीगौरीति निगद्यते |

एतयोरन्तरं यच्च सोऽधमेत्युच्यते जनैः ||

तं नास्तिकं विजानीयात्सर्वधर्मबहिष्कृतम् ।।16।।

बराहपुराण में कहा है कि सर्वव्यापी विष्णु को अज्ञाननाशक रुद्रस्वरूप जानकर कथन करें और लक्ष्मी को उमास्वरूप जानकर कथन करें। इन दोनों विष्णु शिव में जो पुरुष अल्पमात्र भी भेद करता है सो भेददर्शी सर्व प्राणीजनों द्वारा अधम नीच कहा जाता है। तिस भेददर्शी पापीजन को सर्व धर्म-कर्मों से रहित बहिर्मुख नास्तिक जानना ||16||

सर्वसङ्गान्परित्यज्य ज्ञात्वा मायामयं जगत् ।

अद्वैतं भावयात्मानं द्रक्ष्यसे परमेश्वरम् ।।17।।

कूर्मपुराण में भगवान् ने प्रिय भक्त से कहा है कि सर्व संसारीजनों के संगों का परित्याग कर और सर्व प्रपंच को स्वप्न के समान कल्पित मिथ्या मायामय जान करके ब्रह्मात्मस्वरूप एक अद्वैत आत्मतत्त्व को सर्वदा निश्चय करें तब आप अद्वैतस्वरूप परमानन्द परब्रह्म परमेश्वर को निजानन्दात्मस्वरूप से शुद्ध बुद्धि में देख लेवोगे ।।17।।

एकीभावेन पश्यन्ति मुक्तिभाजो भवन्ति ते ।

यो विष्णुः स्वयं रुद्रो यो रुद्रः स जनार्दनः ।।18।।

जो चेतनस्वरूप विष्णु है सोई चेतनरूप रुद्र है जो रुद्र है सोई असुरो का मर्दक विष्णु जनार्दन है। इन विष्णु शिव दोनों को जो विवेकीजन एक अद्वैत भाव से देखते हैं वे एक अद्वैत परमार्थदर्शी पुरुष ही परमानन्द कैवल्य मोक्ष के भागी होते हैं दूसरे नहीं ।।18।।

प्रशान्तामृतकल्लोले केवलामृतवारिधी ।

मज्ज मज्जसि किं द्वैतग्राहक्षाराब्धिवीचिषु ।।19।।

योगवासिष्ठ में वसिष्ठजी ने घोषणा से कहा है कि हे जीव ! यदि संसारदुःख से पीड़ित हुआ समुद्र में मज्जन रूप डूबना ही चाहता है तो प्रशान्त चेतन स्वरूप परमानन्दकारी अमृत के तरड़ों वाले केवल ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत अमृत के समुद्रों में शीघ्र ही डूबकर मर जिससे फिर जन्म-मरणरूप संसार दुःख न हो। हे मूढ़ ! जन्म-मरणरूप कष्टकारी द्वैतरूप ग्राह और रागद्वेषादि तरंगों वाले विषयरूप समुद्र में क्यों डूबकर मरता है ।।19।।

 वृक्षमूले निवासो मे छत्रेणा किं गृहेण च ।

रौद्रवृष्टिवारणार्थं सांप्रतं कटमस्तकम् ||20||

नारदपञ्चरात्र में कहा है कि मार्कन्डेयादि दीर्घायुवाले ऋषियों ने लोमश ऋषि के पास जाकर पूछा कि आपकी कितनी आयु है तब लोमश ऋषि ने कहा कि जब ब्रह्मा की आयु समाप्त होती है तब मेरे शरीर का एक रोम टूट जाता है। अब तक पाद से लेकर गोड़े पर्यन्त लोम टूटे हैं और जब सर्व लोम टूट जावेंगे तब मेरी आयु समाप्त हो जावेगी।

तब ऋषियों ने कहा कि आप इतनी दीर्घायु वाले हुए सुख से रहने के लिये गृह मकान क्यों नहीं बनाते हो। तब वीतराग अद्वैतदर्शी लोमश ऋषि ने कहा कि वृक्ष के मूल में मेरा निवास है, छत्री गृहादि से मेरे को क्या प्रयोजन है। महान् वृष्टि के निवारण करने के लिये भली प्रकार मस्तक के ऊपर घास की चटाई लिये हुए हूँ। इस नाशवान् शरीर के लिये गृहादियों को क्या बनाना है ||20||

जलबुदबुदविद्युद्वत्त्रैलोक्यं च कृतिमद्विज ।

ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव स्वप्नवत् ।।21।।

जल के बुदबुदे के समान और मेघ की दामिनी के समान यह तीन लोक रूप यावत् अनात्मप्रपंच है। हे मार्कण्डेयद्विज ! सो सर्व प्रपंच माया का कार्य होने से कृत्रिम है जो कृत्रिम होता है सो नित्य रहने वाला नहीं होता है। सत्य ज्ञान आनन्द ब्रह्मात्मस्वरूप एक अद्वैत चेतन से भिन्न साकारमान ब्रह्मलोकवासी ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त यावत् प्रपञ्च है सो सर्व प्रपञ्च निश्चित ही स्वप्नप्रपंच के समान माया से कल्पित मिथ्या है। नाशवान् संसारिक गृहादिपदार्थों के संपादन के लिये नित्य ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञाननिष्ठ वीतराग महात्माओं की प्रवृत्ति कभी भी नहीं हो सकती है ।। 21।।

मस्तकस्थायिनं मृत्युं यदि पश्येदयं जनः ।

आहारोऽपि न रोचेत किमुताकार्यकारिता ।।22।।

स्कंदपुराण में कहा है कि जैसे राजा अपराधीजन को फांसी की सजा सुनाकर ही पांच मिनट में कहे कि यह नाना मिष्ठान्न पड़े है जो तुम्हारी इच्छा हो सो खाओ तब वह अपराधी पांच मिनिट के बाद निजमृत्यु को जानकर कुछ नहीं खा सकता है। तैसे ही यह विवेकीजन यदि अपने मस्तक पर प्राप्त हुई फांसी के समान मृत्यु को देखे तब वह सुधा होने पर भी नाना प्रकार के मिष्ठान्न भोजन खाने की इच्छा नहीं करता है और जो करने के अयोग्य पाप कर्म हैं उस अकर्त्तव्य कार्य का तो क्यों ही करना। ऐसे मस्तकस्थायी मृत्यु को देखने वाले वीतराग महात्मा ब्रह्मात्म सुखरूप अद्वैतज्ञाननिष्ठ हुए अनित्य संसारी पदार्थों में राग नहीं करते हैं ||22||

मां भक्तमनुरक्तं च नाथ मा करु वञ्चनाम्।

त्वमेव कृष्णस्त्वं शंभुर्द्वयोर्भेदो न साम्नि च ।। 23।।।

नारदपञ्चरात्र में समीप प्राप्त हुए नारदजी को महादेवजी ने कहा कि हे नारद! पूजने में श्रीकृष्ण देव ही श्रेष्ठ हैं यह सुन नारद ने कहा हे नाथ ! सर्व के ईश्वर आप में भक्ति और दृढ़ अनुराग वाले मेरे को आप कृष्ण में और कल्याण रूप शिव में दुर्गतिकारी भेद सुनाकर मोक्ष से वञ्चित न करें क्योंकि आप ही निश्चित कृष्ण भगवान् हो और आप ही परम सुखकारी शंभु हो एक समस्वरूप कृष्ण और शिव दोनों में अल्पमात्र भी भेद नहीं है। कृष्ण और शिव में जो पुरुष भेद देखते हैं वे पुरुष परमानन्द अद्वैतस्वरूप मोक्ष से वञ्चित ही रहते हैं  ||23||

दिक्कालाद्यनवच्छिन्ने कृष्णे चेतो विधाय च ।

तन्मयो भवति क्षिप्रं जीवो ब्रह्मणि योजनात्  ||24||

नारदजी कहते हैं कि देश काल वस्तु तीन प्रकार के भेदरूप परिच्छेद से रहित पर ब्रह्मस्वरूप परमानन्द कृष्ण में चित्त को सम्यक् लगाकर तदाकरयोजना से शीघ्र ही जीवात्मा परमानन्द परब्रह्म कृष्णस्वरूप हो जाता है वा पञ्चरात्र में नारदजी ने प्राणियों के मोक्ष के लिये कर्मों की निष्कर्त्तव्यता रूप जीवब्रह्म की एकतारूप इस अद्वैत का ही कथन करा है ||24||

आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा ।

वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः ||25||

माण्डूक्योपनिषद् की गौडपादकारिका में कहा है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्वकाल में और सृष्टि के लय होने पर अन्तकाल में जैसे एक परमानन्दस्वरूप अद्वैत ब्रह्म से भिन्न द्वैतरूप प्रपंच नहीं है तैसे ही वर्तमान काल में भी ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत से भिन्न द्वैतप्रपंच नहीं है।

जैसे रज्जु में सर्प न पूर्वकाल में था न अन्तकाल में होगा तैसे ही वर्तमान काल में भी नहीं है, परन्तु रज्जु के अज्ञान से सर्प सत्य जैसा भान होता है, रज्जु के ज्ञान से निश्चित हो जाता है कि रज्जु में सर्प कभी नहीं हुआ है। तैसे ही ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत आत्मा के अज्ञान से मिथ्या रज्जु सर्प के समान सर्व मिथ्या हुआ भी प्रपञ्च सत्य जैसा अज्ञानियों को भान होता है। ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से भेद ज्ञात नहीं होता है ।।26।।

मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः ।

इति ब्रूते श्रुतिः साक्षात्सुषुप्तावनुभूयते ।।26।।

यथा स्वप्नप्रपञ्चोऽयं मयि मायाविजृम्भितः ।

तथा जाग्रत्प्रपञ्चोऽपि मयिमायाविजृम्भितः ।।27।।

विवेकचूड़ामणि में कहा है कि यह दृश्यमान् द्वैतरूप प्रपंच सर्व मायामय कल्पित होने से मिथ्या है और ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत परमानन्द रूप परमार्थ होने से सत्य है ऐसा श्रुति कहती है। और सुषुप्ति काल में एक परमानन्द अद्वैत सर्व प्राणियों को साक्षात् अनुभवसिद्ध है, श्रुतिसिद्ध और अनुभवसिद्ध परमानन्द अद्वैत को जो पापी नहीं मानता है सो मूढ कष्टकारी संसार कूप में पड़े ||26||

सूतसंहिता में कहा है कि जैसे यह स्वप्न का प्रपंच मुझ परमानन्द साक्षी आत्मा में मायारूप अविद्या करके मिथ्या ही कल्पित हुआ महान् विस्तारवाला स्वप्नकाल में सत्य जैसा प्रतीत होता है तैसे ही जाग्रत् काल का भी यह दृश्यमान सकल प्रपंच परमानन्द परब्रह्म की अचिन्त्यशक्तिरूप माया द्वारा मिथ्या ही कल्पित रचना से विस्तृत हुआ ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत के अज्ञान से अविवेकियों को सत्य जैसा प्रतीत होता है। ब्रह्मस्वरूप आत्मज्ञान होने से फिर सत्यरूप से भान नहीं होता है ||27||

गच्छ दूरमिति देहमुताहो देहिनं परिजिहीर्षसि विद्वन् ।

भिद्यतेऽन्नमयतोऽन्नमयं किं साक्षिणश्च यतिपुङ्गव साक्षी ||28||

शंकर दिग्विजय में कहा है कि काशी में शंकराचार्य के अद्वैत निष्ठा की परीक्षा लेने के लिये महादेव चाण्डाल का रूप धारण कर साथ में चार श्वानों को लेकर शंकराचार्य को मार्ग में मिले। शंकराचार्य ने चाण्डालरूपधारी महादेव से कहा कि मार्ग छोड़कर दूर चले जाओ। तब श्वपचरूपधारी शिव ने कहा कि हे विद्वन् यतिवर ! जो आप कहते हो कि दूर चले जाओ यह दूर करना स्थूल शरीर का कहते हो अथवा तीन शरीरों के साक्षी आत्मा चेतन को आप दूर करना चाहते हो।

यदि कहो कि स्थूल देह को दूर करना चाहता हूँ सो भी कहना नहीं बन सकता है क्योंकि पाञ्चभौतिक अन्नमय स्थूलदेह को क्या कोई अन्नमय स्थूलदेह से दूसरा प्राणमय या मनोमय बना सकता है। इस कारण से अन्नमय देह से अन्नमय देह का दूर करना विचार करने पर नहीं बन सकता है और सर्व शरीरों में साक्षी आत्मा एक होने से तिस साक्षी आत्मा अद्वैतस्वरूप का भी दूर करना नहीं बन सकता है। हे यति- वर ! क्या साक्षी साक्षी से भिन्न है यह आपका निश्चय है ।।28।।

भाति यस्य तु जगद् दृढबुद्धेः सर्वमप्यनिशमात्मतयैव ।

सद्विजोऽस्तु भवतु श्वपचो वा वन्दनीय इति मे दृढनिष्ठा ।। 29।।

तब शंकराचार्य ने कहा कि जिस दृढ़ अद्वैतबुद्धिवाले विवेकी पुरुष को सर्व चराचर प्रपंच सर्वदा निश्चित ही एक अद्वैत ब्रह्मात्मस्वरूप से भान होता है सो पुरुष चाहे तो ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य रूप द्विज हो चाहे वो श्वपच चाण्डाल हो ऐसा ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत का निश्चय वाला पुरुष सर्वदा पूजापूर्वक नमस्कार करने के योग्य है यह मेरा ‘शंकर’ का दृढ निश्चय है। तब शिवजी ने प्रगट होकर दर्शन दिया। इस कारण से परमानन्द ब्रह्म में और जीवात्मा में भेददर्शी वेदाधीत ब्राह्मण भी वन्दनीय वा पूजनीय नहीं है, इस शंकराचार्य के कथन से द्वैतदर्शी पुरुष ही चाण्डाल है ||29||

ऐसे पूर्वोक्त श्रुतिस्मृतिपुराणादियों के प्रमाणों से अद्वैत विद्वान् शास्त्री पुरुषों को प्रसिद्ध ही है और युक्ति से भी अद्वैत ही सिद्ध होता है। प्रथम तो भेदवाचक शब्द ही श्रुति स्मृति पुराणादि में नहीं हैं। जो ‘द्वा सुपर्णा’ ऐसे शब्द देखे जाते हैं सो भी दो संख्या के वाचक हैं भेद के नहीं क्योंकि भ्रम से दो चन्द्रमा के भान होने से वास्तव चन्द्रमा दो भेदवाला नहीं हो सकता है, दो चन्द्रमा का प्रत्यक्ष, भ्रमरूप व्यभिचारी है। और जीवब्रह्म को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि से रहित होने से श्रोत, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण इन पांच इन्द्रियों के जीवब्रह्म विषय नहीं है।

अनुयोगी प्रतियोगी ज्ञानपूर्वक भेदज्ञान होता है। जिसमें भेद रहता है सो अनुयोगी है और जिसका भेद होवे सो प्रतियोगी है। अनुयोगी प्रतियोगी रूप जीव ब्रह्म के ज्ञान से बिना तिनके भेद का ज्ञान ही नहीं हो सकता है। और दुर्जनतोष न्याय से यदि भेद मान भी लें तो भी सो भेद ब्रह्म में रहता है अथवा जीव में रहता है। प्रथम शुद्ध ब्रह्म में तो भेद कोई भी नहीं मानता है, दूसरा यदि कहो कि जीव में भेद रहता है तो सो भेद जीव का ही रूप होकर रहता है, तब तो वस्तु से भिन्न भेद कोई पदार्थ ही नहीं है अद्वैत ही सिद्ध हो गया है।

परन्तु यदि कहो कि भेद जीव से भिन्न होकर रहता है तो भी सो भेद स्वयं भिन्न होकर रहता है वा दूसरे भेद से भिन्न करा हुआ रहता है, यदि कहो कि स्वयं भिन्न होकर रहता है तो आत्माश्रय दोष प्राप्त हुआ, यदि कहो कि दूसरे भेद से भिन्न करा हुआ रहता है, तब पूर्व जैसे विकल्पकर पूछे कि दूसरा भेद किससे भिन्न करा हुआ रहता है। यदि कहें कि पूर्व के भेद से भिन्न करा हुआ है और पूर्वला दूसरे से तब अन्योन्याश्रय दोष आता है। यदि कहें कि पूर्वला दूसरे से भिन्न करा हुआ दूसरा तीसरे से और तीसरा फिर पूर्वले से यह चक्रिका दोष आता है।

 यदि कहें कि पूर्वला दूसरे से दूसरा तीसरे से तीसरा चतुर्थ से भिन्न करा हुआ है, ऐसे परम्परा की स्थिति न होने से अनवस्था दोष आता है, इस प्रकार जीव ब्रह्म का भेद सिद्ध नहीं होता है और विचार करने पर अति स्थूल घटादि में भी भेद सिद्ध नहीं होता है। सो ऐसे है- जिस बुद्धि ने दो घटों के भेद को जाना है तिस बुद्धि ने तिन दो घटों के भेद के साथ निज आपका अभेद जाना वा भेद जाना है। यदि कहें कि तिन दो घटों के भेद के साथ बुद्धि ने अपना अभेद जाना है तब तो अभेद ही सिद्ध हुआ।

दूसरा यदि कहें कि भेद जाना है तो सो भेद, बुद्धि ने अपने आप ही जाना है वा दूसरी बुद्धि ने जाना है। यदि कहें कि अपने भेद को बुद्धि ने आप ही जाना है तो आप ही कर्म आप ही कर्ता यह कर्मकर्तृविरोध और आत्माश्रय दोष आता है। यदि कहें कि पूर्व बुद्धि के भेद को दूसरी बुद्धि ने जाना है तब दूसरी बुद्धि ने भी अपना अभेद जाना वा भेद जाना, अभेद कहें तो अद्वैत की सिद्धि और भेद कहें तो कर्मकर्तृ विरोध ।

यदि कहें दूसरी बुद्धि के भेद को पूर्वली बुद्धि ने जाना है और पूर्वली बुद्धि का भेद दूसरी ने जाना है तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, यदि कहें कि पूर्वली बुद्धि का भेद दूसरी बुद्धि ने जाना है और दूसरी का तीसरी ने, तीसरी का भेद फिर पूर्वेली ने जाना है तब चक्रिका दोष प्राप्त होता है। यदि कहें कि पूर्वली बुद्धि के भेद को दूसरी बुद्धि ने जाना और दूसरी के भेद को तीसरी ने तीसरी के भेद को चतुर्थी ने जाना, ऐसे परम्परा की स्थिति न होने से अनवस्था दोष आता है। इत्यादि युक्तियों से भेद कहीं भी सिद्ध नहीं हो सकता है ब्रह्मात्मस्वरूप एक अद्वैत ही परमानन्द कैवल्यमोक्षकारी हैं ।।

MEGHA PATIDAR
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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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