भक्ति की महिमा
प्रथम अध्याय में शास्त्र महिमा और शास्त्रों का श्रवण साधु महात्माओं से कहा क्योंकि गृहस्थ कैसा भी विद्वान हो तो भी संसार सम्बन्धी ही वार्ता करेगा और साधु महात्मा थोड़ा पढ़ा हुआ भी ईश्वर सम्बन्धी ही वार्ता करेगा, इस कारण से साधु महिमा और साधु लक्षण द्वितीय अध्याय में कहे हैं।
साधु विरोधी और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पदार्थों के घातक जो दुर्जन पुरुष हैं उनके लक्षण और उनके संग का त्याग तृतीय अध्याय में कहा है। दुर्जन संग त्याग कर साधु सत्संग पूर्वक धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पदार्थों को संपादन करना पुरुष का कर्तव्य है। ये चार पदार्थ वेद-शास्त्र-स्मृति, पुराण – इतिहास आदि में कथन करे हैं और श्रद्धा भक्ति आदि साधनों से सम्पन्न पुरुष को ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त होते हैं अन्य को नहीं।
यह वार्ता चतुर्थ अध्याय में निरूपण करी और भगवान् श्री कृष्णचन्द्रजी ने गीता में भुजा उठाकर कहा है कि भक्ति से दिये हुए फलफूल पत्र जल आदि तुच्छ पदार्थों को भी मैं आनन्दपूर्वक ग्रहण करता हूँ बिना भक्ति से नहीं और अध्यात्म रामायण में भक्ति को ज्ञान की जननी कहा है। भागवत् महात्म्य में भक्ति को विवेक वैराग्य ज्ञान की जननी कहा है। नास्तिकों के ग्रन्थों को छोड़कर और सर्व शास्त्र भक्ति से ही चार पदार्थों की प्राप्ति कहते हैं। इस कारण से अब पांचवें अध्याय में भक्ति का लक्षण और भक्ति की महिमा निरूपण करते हैं :-
(शाण्डिल्य सू. अ. 1 आ. – 1 – सू. 2)
सा परानुरक्तिरीश्वरे ।।1।।
शाण्डिल्य सूत्रों में शाण्डिल्य ऋषि भक्ति का लक्षण कहते हैं:-
‘आत्म स्वरूप परमेश्वर में एकरस परम प्रीति का नाम भक्ति है ” दूसरा अर्थ-जैसे मछली की जल से, भूखे पुरुष की अन्न से, लोभी पुरुष की द्रव्य से और कामी पुरुष की कामिनी से प्रीति होती है वैसी ही आत्मस्वरूप अद्वितीय परमेश्वर में निरन्तर एक रस प्रीति का नाम पराभक्ति है। शाण्डिल्य ऋषि पराभक्ति से ही मोक्ष मानते हैं।।1।।
(भा. स्कंध 11 – अ. 20- श्लो. 6-7-8)
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो विधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ||2||
निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।
तेष्वर्निण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ||3||
यद्दच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः ||4||
भागवत में श्री कृष्णचन्द्रजी उद्धव से कहते हैं कि हे उद्धव ! पुरुषों के कल्याण विधान की इच्छा से मैंने तीन योग रूप काण्ड कहे हैं। 1 ज्ञानयोग 2 कर्मयोग 3 भक्तियोग (जिसको उपासना भी कहते हैं) इनसे भिन्न किसी काल में किसी देश में कल्याण का कोई दूसरा साधन नहीं है ||2||
शुभ कर्मों के फल स्वर्ग आदि को भी अनित्य जानकर कर्मों के त्यागने वाले वीतरागों के लिए ज्ञानयोग कहा है। और ऐहिक व पारलौकिक भोग पदार्थों में आसक्त तथा संसार सम्बन्धी धन, पुत्र, स्त्री आदि में राग वालों के लिए कर्मयोग कहा है ||3||
देव इच्छा से अथवा किसी पुण्य प्रभाव से पापों को हनन करने वाली मेरी कथा में, कीर्तन में तथा सत्संग में अत्यन्त श्रद्धावान् तथा कर्मों में उदासीन पुरुष को भक्तियोग ही कल्याण रूप सिद्धि देने वाला है ।14।।
(भा. स्कंध 10-अ. 81 – श्लो. 3-4 )
अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत् ।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ||5||
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः||6||
भागवत में श्री कृष्णचन्द्रजी सुदामा से कहते हैं हे शुभव्रत मित्र ! प्रीति से अणुमात्र भी भक्तों से दिया हुआ मैं बहुतसा आनन्दकारी मानता हूँ और बहुतसा भी बिना भक्ति से दिया हुआ मेरे को तुष्ट नहीं करता है।
एक समय श्री कृष्णचन्द्रजी आनन्दकन्द जगन्निवास वासुदेव के चरणानुरागी पूर्णभक्त श्री सुदामाजी से उनकी पत्नी ने कहा- हे प्राणनाथ ! आपके मित्र द्वारकावासी श्री कृष्णचन्द्रजी से याचना कर बहुत से ब्राह्मण धनाढ्य हो गये ऐसा सुना गया है। अस्तु आप भी कृपाकर कुछ कष्ट उठाकर श्यामसुन्दर दरिद्रनाशक श्रीकृष्णचन्द्रजी से मिल आवें, तब संतोषी सुदामा ब्राह्मण ने कहा हे प्रिये ! मिल तो आवें परन्तु श्रीकृष्णचन्द्र ऐसा न समझें कि हमारे मित्र कुछ मांगने आये हैं। और हमारे पास इस समय श्री कृष्णचन्द्र मित्र को भेंट देने योग्य कुछ नहीं है।
इसलिए मित्र के पास खाली हाथ कैसे जावें। यह सुन पत्नी ने कहीं से दो मुट्टी चावलों को लाकर पति के वस्त्र में बांधकर कहा अब तो जाइए। तब सुदामा ने कहा है प्रिये ! तुम्हारे शब्दों से जाना जाता है कि तुमको इच्छा रूपी व्याघ्री ने ग्रस लिया है, तो अच्छा मैं श्री कृष्णचन्द्रजी के दर्शन निमित्त जाता हूँ। जब सुदामा द्वारिका में श्री कृष्णचन्द्रजी के पास पहुँचे तो भगवान् ने नमस्कारपूर्वक चरण धोकर उस जल को मस्तक पर धारण कर सर्व रानियों को जल देते हुए कहते हैं। भो विप्रवर ! मैं आज आपके आने से कृतकृत्य हुआ हूँ।
पश्चात् भोजन से तुष्ट होकर दिव्य आसन पर साथ बैठाकर श्री कृष्णचन्द्रजी सुदामाजी से कहते हैं। हे, मित्रवर ! मेरे लिए क्या लाये हो। तब सुदामाजी कहते हैं कि हे भगवन् ! आप सर्व के कर्ता भर्ता हर्ता हो, सर्वज्ञ हो मेरे से क्या पूछते हो । तब श्री कृष्णचन्द्रजी ने कहा हे मित्रवर ! तुम जो कुछ हमारे लिए लाये हो वह हम लिये बिना ऐसे मानने वाले नहीं हैं।
तब सुदामाजी ने कहा आप लक्ष्मीपति हो दो चावलों की मुट्ठी से क्या तुम तुष्ट होंगे ? तब श्रीकृष्णचन्द्रजी कहते हैं कि अणुमात्र भी प्रीति से भक्तों के दिये हुए को हम बहुत आनन्दकारी मानते हैं। और बिना भक्ति से बहुत सा दिया हुआ मेरे को तुष्ट नहीं करता है। अस्तु श्रद्धालु पुरुष के भक्ति से दिये हुए को मैं आनंदित होकर खाता हूँ।
इतना कह कृष्णचन्द्रजी पूर्ण भक्त सुदामा के भक्ति पूर्वक दिये हुए दो मुट्ठी चावलों को तुरंत चाब गये। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियां देखती ही रह गई ऐसे भक्त वत्सल भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी हैं-
भागवत् में भगवान् कृष्णचन्द्रजी सुदामाजी से कहते हैं कि जो पुरुष भक्ति सहित फल फूल पत्र जल आदि भी मेरे को देता है। उस श्रद्धालु पुरुष के भक्ति से दिये हुए को मै आनन्दित होकर खाता हूँ ||6||
(नारदपंचरात्र. 1 अ. – 2 श्लो. 28)
वेदोपयुक्ता यज्ञाश्च कर्माणि च शुभानि च ।
न निष्पुनात्यभक्तं च सुराकुम्भमिवापगा ||7||
पंचरात्र में नारदजी कहते हैं। वेद के कहे हुए यज्ञ और शुभ कर्म भक्ति रहित पुरुष को पवित्र नहीं कर सकते जैसे सुरा से पूर्ण घट को गंगाजी शुद्ध नहीं करती है ।।7।।
(अध्यात्मरामा काण्ड – 6- सर्ग – 7 श्लो. 67)
भक्तिर्जनित्री ज्ञानस्य भक्तिर्मोक्षप्रदायिनी ।
भक्तिहीनेन यत्किंचित्कृतं सर्वमसत्समम् ।।8।।
अध्यात्म रामायण में रावण कुम्भकर्ण को जगा कर कहते हैं। हे भ्रातः ! दशरथ के दो पुत्रों ने मेरी बहुत सी सेना का नाश कर दिया अब आप मेरी सहायता करें। तब कुम्भकर्ण ने कहा हे भाई ! सुनो एक समय मेरे को वीणा युक्त दिव्यस्वरूप नादरजी मिले। मैंने उन सर्व के हितकारी । हर्ष प्रदर्शन वीतराग देव ऋषि से पूछा कि आप कहाँ से आये हैं। तब ब्रह्मपुत्र वीणा बजाकर हरि गुण गाकर कहते भये कि मैं स्वर्ग से आया हूँ स्वर्ग में सर्व देवता मिलकर विष्णुजी से पुकार करते हैं कि हे शेषशायी ! हम रावण कुम्भकर्ण आदि असुरों से पीड़ित हुओं की रक्षा करो।
यह सुन विष्णु ने कहा ‘मैं दशरथ के यहाँ पुत्र रूप से प्रकट होकर रावण आदि का शीघ्र ही नाश करूँगा। हे देवताओं ! तुम निर्भय रहो। ऐसे परमात्मा की भक्ति ज्ञानकी जननी और ज्ञान द्वारा मोक्ष को देने वाली है। हे रावण ! ऐसी मोक्षकारी परमात्मा की भक्ति से हीन पुरुष जो भी कार्य करता है वह सर्वं न करे के समान है। ऐसे मैंने नारदजी से सुना है ।।8।।
(त्रिपादविभूति महानारायणो. मं. 8 – वासुदेवो. मं. )
भक्त्या बिना ब्रह्मज्ञानं न कदापि जायते ||9||
मद्रूपमद्वयं ब्रह्म आदिमध्यान्त वर्जितम् ।
स्वप्रभं सच्चिदानन्दं भक्त्या जानाति चाव्ययम् ||10||
त्रिपाद विभूति महानारायणोपनिषद् में कहा है कि भक्ति रहित पुरुष को शुद्ध बुद्ध अद्वय स्वरूप ब्रह्म का ज्ञान किसी काल में भी नहीं हो सकता ||9||
वासुदेवोपनिषद् में वासुदेव अन्तर्यामी ने कहा है कि आदि मध्य अन्त से रहित स्वयं प्रकाश सत् चेतन आनन्द स्वरूप सर्व विकारों से रहित अक्रिय अविनाशी सर्वचराचर के अधिष्ठान दूध में घृत के समान सर्वव्यापी भेद रहित अद्वैतस्वरूप मुझ ब्रह्म को अनन्य भक्ति से ही पुरुष जान सकता है भक्ति से रहित पुरुष नहीं जान सकता है ।।10।।
(अध्यात्मरामा काण्ड – 2- सर्ग-1 श्लो. 6-30)
संसारिणां मुनिश्रेष्ठ दुर्लभं तव दर्शनम् ।
अस्माकं विषयासक्तचेतसां नितरां मुने ।।11।।
अहं त्वद्भक्तभक्तानां तद्भक्तानां च किंकरः ।
अतो मामनुगृह्णीष्व मोहयस्व न मां प्रभो ।।12।।
अध्यात्म रामायण में कहा है कि नारद ऋषिजी आनन्दकन्द कोशलचन्द्र श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिए अयोध्या में आये। श्रीरामचन्द्रजी ने उठकर नमस्कार पूर्वक स्वागत कर सुखासन पर बैठाकर कहा हे मुनि श्रेष्ठ ! संसारी पुरुषों को आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। और हमारे जैसे विषयों में आसक्त चित्त वालों को तो महान् दुर्लभ आपका दर्शन है ।।11।।
ऐसे श्रीराम पूर्णकाम करुणाधाम के वचन सुनकर नारदजी ने कहा हे रामचन्द्रजी मैं तो आपके भक्तों के जो भक्त हैं उनके भी जो सेवक रूप भक्त हैं तिन भक्तों का मैं किंकर हूँ इस कारण से भगवान् आप मोहकारी वचनों से मेरे को मोहित मत करो ऐसी कृपा करो जिससे मेरी आप में सदा भक्ति बनी रहे ।।12।।
(अध्यात्मरामा. काण्ड – 3 – सर्ग- 10 श्लो. 20-42)
पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः ।
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम् ।।13।।
किं दुर्लभं जगन्नाथे श्रीरामे भक्तवत्सले ।
प्रसन्नेऽधमजन्मापि शबरी मुक्तिमाप सा ।।14।।
अध्यात्म रामायण में श्री रामचन्द्रजी कहते हैं कि हे शबरी । पुरुषत्व, स्त्रीत्व, ब्राह्मणत्व आदि जाति तथा गृहस्थादि आश्रम मेरे भजन करने में कारण नहीं हैं। एक भक्ति ही कारण है। और भक्ति का ही मैं मुख्य नाता मानता हूँ दूसरा नहीं । भक्ति के बिना मैं किसी के वश में नहीं होता हूँ ।।13।।
ऐसे श्री रामचन्द्रजी परमानन्द की भक्तवत्सलता देखकर महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं। हे शैलपुत्रि । संसारी विषयों को छोड़कर योगीजन एकाग्रचित्त से रमण करते हैं जिसमें ऐसे श्री रामचन्द्र भक्तवत्सल, जगत् के नाथ प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ वस्तु रह जाती है नीच जाति वाली शबरी भी भक्ति से मुक्ति को प्राप्त हो गई ।।14।।
(स्कन्द, पु. खण्ड-7 खं. 4- अ. 38-श्लो. 26)
संकीर्णयोनयः पूता ये भक्ता मधुसूदने ।
म्लेच्छतुल्याः कुलीनास्ते ये न भक्ता जनार्दने ||15||
(अध्यात्मरामा काण्ड – 4 सर्ग 1 – श्लो. 89-90)
न कांक्षे विजयं राम न च दारासुखादिकम् ।
भक्तिमेव सदा कांक्षे त्वथि बन्धविमोचनीम् ।।16।।
माया मूलमिदं सर्व पुत्रदारादिबन्धनम् ।
तदुत्सारयमायां त्वं दासींतव रघूत्तम ! ||17||
स्कन्द पुराण में कहा है कि जो पुरुष मधुदैत्य के नाशक श्री कृष्णचन्द्रजी में भक्तिवाले हैं वो यदि वर्ण-शंकरी नींच जाति वाले भी हैं तो भी पवित्र माने जाते हैं और जो पुरुष परमात्मा की भक्ति से रहित हैं वे उच्च कुल जाति के होने पर भी ग्लेच्छों के तुल्य हैं ||5||
अध्यात्म रामायण में कहा है कि दशरथ नन्दन दुष्ट निकन्दन श्री रामचन्द्रजी में सुग्रीव की जब तक ईश्वर बुद्धि न हुई तब तक स्त्री, पुत्र, राज्य आदि की आशा रही।
पर जब श्रीराम के एक ही वाण से सप्तताल वृक्षों की निष्पत्र रूप अद्भुत घटना देखी तब सुग्रीव ने श्री रामचन्द्रजी को पूर्ण ब्रह्म ईश्वर जान कर कहा कि हे परिपूर्ण रामजी ! अब मैं बाली को मारकर विजय नहीं चाहता हूँ श्री रामचन्द्रजी ने कहा अभी तो आप स्त्री-राज्यादिकों की प्राप्ति की इच्छा करते थे और अब कहते हो हम नहीं चाहते, तो आप और क्या चाहते हो। तब सुग्रीव ने कहा मैं संसार बन्धन के नाश करने वाली आप परमानन्द स्वरूप में भक्ति ही सदा के लिए चाहता हूँ ।।16।।
हे रघुकुल शिरोमणि करुणानिधान रामजी मैं अविवेक से स्त्री राज्य पुत्रादि की याचना करता था अब विवेकजनक आपके दर्शन से मायामूलक पुत्र स्त्री राज्यादि सर्व को संसार रूपी बंधन का कारण मानता हूँ, अब आप कृपाकर के इस माया बन्धन को मेरे गले में से निकालो। और यदि आप कहो कि यह काम दूसरे से कराना तो यह बन नहीं सकता क्योकि आप मायापति हैं, आप के बिना इस जीव को माया से कोई नहीं छुड़ा सकता ||17||
( गीता अ.-12 श्लो.19)
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केन चित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।।18।।
गीता में श्रीकृष्ण भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि निन्दा स्तुति समान है जिस पुरुष को और जैसी कैसी वस्तु के ही लाभ में संतुष्ट है और शरीर को क्षणभंगुर जानकर घर नहीं बांधते हैं और अद्वितीय आत्मस्वरूप ब्रह्म में ही स्थिर बुद्धि वाले हैं ऐसे एकरस- प्रीतिरूप भक्तिवाले पुरुष ही मेरे को प्रिय हैं ॥18॥
(भारतसार पर्व 8 अ -69-श्लो. 52)
दानेन पाणीर्न तु कंकणेन, ज्ञानेन शुद्धिर्न तु स्नानकेन ।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन भक्त्या तु मुक्तिर्न तु मण्डनेन ॥19॥
महाभारत सार में अर्जुन के बाणों से व्यथित किंचित् प्राणशेष-भूशायी कर्ण को देखकर श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा अहो कष्ट है आज पृथ्वी दानवीर कर्ण से रहित होना चाहती है। अर्जुन ने कहा आप कर्ण की बहुत प्रशंसा करते हैं। तब श्री कृष्णचन्द्रजी ने कहा है अर्जुन ! चलो आज तुम्हें कर्ण की दानवीरता दिखलावें। इतना कहकर श्रीकृष्णचन्द्रजी वृद्ध ब्राह्मण का स्वरूप और अर्जुन ब्रह्मचारी का स्वरूप धारणकर कर्ण के पास गये। कर्ण ने वाणी मात्र से नमस्कार कर कहा कि हे वृद्ध विप्र ! मैं आपकी क्या सेवा करूं ।
कृष्णजी ने कहा मैं अपनी कन्या के विवाह के लिये धन चाहता हूँ कर्ण ने प्रसन्नता पूर्वक कहा कि मेरे दांतो में सवा मन स्वर्ण के मोल के हीरे हैं वो आप तोड़कर निकाल लो। कृष्णजी ने कहा हम ऐसा हिंसा का काम नहीं कर सकते हैं हिंसा न करना ही परम धर्म है। ऐसा कहकर चलने लगे। तब कर्ण ने कहा अहो कष्ट है। आज प्राणों के होते हुए मेरे पास से ब्राह्मण निराश होकर जा रहे हैं।
पुनः विचार कर कर्ण ने कहा हे ब्राह्मण ! आइए, इतना कहकर जोश से उठकर कर्ण ने हाथ में पत्थर उठाकर कृष्ण – अर्जुन के देखते हुए दांतों को तोड़ने के लिए हाथ उठाया तब भगवान् ने कृष्ण रूप होकर कर्ण का हाथ पकड़ लिया और कहा हे कर्ण । ऐसी संकट अवस्था में तुम्हारी दान वीरता देखने के लिए हम अर्जुन के साथ ऐसा रूप धर कर आये थे। कहो आपकी क्या इच्छा है। कर्ण ने हाथ जोड़कर कहा अहो ! भाग्य हैं मेरे जो मरण दशा में भी त्रिलोकीनाथ कृष्ण के दर्शन स्पर्श को प्राप्त हुआ हूँ।
पुरुष के हाथ दान देने से ही शोभा पाते हैं। कंकणादि से नहीं, बुद्धि की शुद्धि ज्ञान से होती है स्नानादि से नहीं। माननीय पुरुष की तृप्ति मान से ही होती है भोजनादि से नहीं और मुक्ति तो केवल आप वासुदेव सच्चिदानन्द की भक्ति से ही होती है मण्डन करने से नहीं होती है। हे कृष्णचन्द्रजी ऐसा मन्दभाग्य कौन होगा जो मुक्ति कारक आपकी भक्ति को छोड़कर कुछ और माँगे। मैं तो एक मात्र आपकी भक्ति ही चाहता हूँ ।।19।।
(विवेक चूड़ा. श्लो. 32)
मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ॥20॥
(श्वेताश्वतरो अ. 6- मं. 23 )
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता हार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।21।।
विवेकचूड़ामणि में मोक्ष के कारण साधनों में भक्ति को ही मुख्य माना है। कैसी है वो भक्ति सो कहते हैं स्वात्मस्वरूप ब्रह्म के विचार करने का नाम भक्ति है ।।2011 अब गुरु शिष्य लक्षण पूर्वक गुरुभक्ति कहते हैं :-
श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा है कि जिस पुरुष की जैसे ईश्वर में परम भक्ति है तैसी ही गुरु में भक्ति है उसका नाम शिष्य है। उस महात्मा शिष्य के अन्तःकरण में गुरु से कथन करे हुए महावाक्यों के अर्थ प्रकाशित होते हैं ।। 21 ।।
(गर्गसं खण्ड 9- अ. 5-श्लो. 7)
निर्गुरोर्दर्शनं कृत्वा हतपुण्यो भरेन्नरः ।
गुरोः सेवाविधिं शिक्षेच्छ्रीकृष्णपरमात्मनः ॥22॥
(मनुस्मृति अ. 2- श्लो. 72)
व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः ।
सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणाः ॥23॥
गर्ग संहिता में कहा है कि निगुरे का दर्शन करने से पुरुष के पुण्य क्षीण हो जाते हैं। इस हेतु से शास्त्रज्ञ गुरु से शिक्षा लेकर श्री कृष्ण परमात्मा का विधि से पूजन करे और शुद्ध बद्ध श्री कृष्ण मैं हूँ ऐसी अहंग्रह उपासना करे ।।22।।
मनु भगवान् गुरु पूजन की रीति कहते हैं। वेदशास्त्र के ज्ञाता ब्रह्मनिष्ठ गुरु को दण्डवत नमस्कार करता हुआ हाथों को बायें दाहिने कर वाम हाथ से गुरु के वाम पाद का स्पर्श करना और दाहिने हाथ से दाहिने पाद का स्पर्श करना और तन, मन, धन समर्पणपूर्वक गुरु की शरण को प्राप्त होना ॥23॥
(ब्रह्मवै. खण्ड 1-अ. 23- श्लो. 17)
स पिता स गुरुर्बन्धुः स पुत्रः स सदीश्वरः ।
यः श्रीकृष्णपादपद्ये॑दृढां भक्तिञ्च कारयेत् ॥24॥
( अद्वयतारको. मं.)
गु शब्दस्त्वन्धकारः स्याद्रूब्दस्तन्निरोधकः ।
अंधकारविरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते ॥25॥
( योगकुंडल्यो. अ. 3-मं. 16 )
स्वकायं घटमित्युक्तं यथा दीपो हि तत्पदम् ।
गुरुवाक्यसमाभिन्ने ब्रह्मज्ञानं स्फुटी भवेत् ॥26॥
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि सो ही पिता है, सो ही माता है, सो ही गुरु है, सो ही शुभ पुत्र है और सो ही ईश्वर रूप है जो श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरणकमलों में दृढ़ भक्ति उत्पन्न कराये ॥24॥
अद्वयतारकोपनिषद् में गुरु शब्द का अर्थ कहा है कि ‘गु’ अक्षर अन्धकार का नाम है और ‘रु’ शब्द अन्धकार का नाशक है अस्तु, अज्ञानरूप अन्धकार को नाश करने वाले का नाम गुरु कहा जाता है ॥25॥
योग कुंडल्योपनिषद् में अज्ञान रूप कारण शरीर को घट कहा है। उसमें प्रकाश रूप आत्मा दीपक है, गुरु के महावाक्य रूपी दण्ड से अज्ञान रूपी घट के सम्यक् फूटने पर ब्रह्मज्ञान रूपी दीपक प्रकाशित होता है ॥26॥
(ब्रह्मवै – उत्तरार्ध खण्ड-4-3-59 श्लो 47 )
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ||27||
(देवीभा. स्कंद 11-अ. 1 – श्लो. 49 )
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुरुदेवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।28।।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि अज्ञान से अन्ध पुरुष के बुद्धि रूपी नेत्र आत्मज्ञान रूप अंजन की शलाका से खोल दिये हैं जिसने, उस श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के लिए नमस्कार है ||27||
देवी भागवत में कहा है कि विवेक आदि साधनों द्वारा गुरु ज्ञान का जनक होने से ब्रह्मा रूप है ब्रह्माकार वृत्ति ज्ञान का पालक होने से गुरु विष्णु रूप है और संसार के देने वाले अज्ञान का संहारक होने से गुरु शिव रूप है और ब्रह्मवेत्ता होने से गुरु पर ब्रह्म रूप है, अस्तु संसार-सागर से तारने वाले ऐसे श्रीगुरु के प्रति नमस्कार है ||28||
(महाभारत पर्व – 5 अ- 10 श्लो. 48 )
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ||29||
( योगप्रकरण 4-सर्ग- 38 श्लो. 26)
अपरीक्ष्य च यः शिष्यं प्रशास्यस्त्यति मूढधीः ।
स एवं नरकं याति यावदाभूतसंप्लवम् ||30||
महाभारत में कुपथगामी गुरु का त्याग कहा है। काशी राज की कन्या अम्बा को साथ लेकर परशुरामजी भीष्म पितामह के पास आये। और कहा कि इस राजकन्या के साथ ब्याह कर लो। यह गुरु की आज्ञा मानो नहीं तो युद्ध करो, भीष्मजी ने नमस्कार कर कहा मैं ब्याह नहीं करूँगा। युद्ध करने को तैयार हूँ। क्योंकि कार्य-अकार्य को नहीं जानते हुए लिपायमान कुपथगामी गुरु का भी शास्त्र में त्याग करना कहा है।। 29।।
योग वसिष्ठ में कहा है कि जो मूढधी बिना परीक्षा किये वैराग्य आदि साधनों से हीन शिष्य को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देता है वह जब तक पश्च भूतों की सृष्टि है तब तक निश्चय ही नरक में रहता है ||30||
(भा. स्कंद 10 अ. 80-श्लो. 41)
एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं गुरुनिष्कृतिम् ।
यद्वै त्रिशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ ||31||
भागवत में कहा है कि सर्वधर्मस्थापक श्री कृष्णचन्द्रजी आवंतिकावासी सांदीपनी ऋषि के पास एकादश वर्ष की आयु में उपनयनपूर्वक पढ़ते हुए गुरु की आज्ञा से, शिष्य के लक्षण को चरितार्थ करने के लिए, सुदामा के साथ वन में लकड़ी बीनने को गये। तब वन में अति वर्षा होने से मार्ग न दिखने पर रात हो गई। तब श्रीकृष्णचन्द्रजी ने सुदामा से कहा है। मित्र ! गुरुपत्नी ने जो चने दिये थे वह लाओ अब चाब लें। सुदामा पहिले ही चनों का हरिहर कर गये थे इसी से चुप हो गये।
श्रीकृष्णजी ने कहा हे मित्र क्यों नहीं बोलते ? सुदामा ने कहा चने तो मैं चाब गया। कृष्णजी ने कहा बहुत अच्छा चाबने के लिए तो लाये ही थे चुप होने का क्या काम है। तब रात्रि व्यतीत होने पर गुरुभक्त लकड़ियों का बोझ उठाकर चले। उधर से श्रीकृष्णचन्द्रजी के शुभ गुणों से आकर्षित हुए सान्दीपनि ऋषि शिष्यों के साथ खोजते हुए आ गये। तब बोझ डालकर चरणों में पड़े हुए सुदामा और कृष्णचन्द्र ऐसे ही श्रेष्ठ शिष्यों द्वारा गुरु का ऋण चुकाया जाता है। इतना ही शिष्यों का कर्त्तव्य है जो शुद्ध भाव से सर्वस्व धन, शरीर, मन, गुरु के समर्पण कर देना, ऐसे आप गुरु भक्तों को सर्व विद्यायें प्राप्त हों ||31||
(याज्ञवल्क्य शिक्षा – श्लो. 1-2)
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ।
सखार्थी चेत्त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत्त्यजेत्सुखम् ||32||
गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ||33||
याज्ञवल्क्य शिक्षा में कहा है कि जैसे कूप खोदने के प्रयत्न से पुरुष को जल प्राप्त होता है तैसे ही शिष्य, गुरु-सेवा रूपी प्रयत्न से गुरु हृदयगत विद्या रूपी जल को प्राप्त होता है और जभी पुरुष सुख की आशा वाला है तो विद्या की आशा न करे और विद्या की आशा वाला सुख की आशा न करे ||32||
विद्या की प्राप्ति तीन मार्ग से होती है, एक तो गुरु की सेवा से, दूसरा बहुत धन खर्चने से, तीसरा विद्या के बदले विद्या देने से, जैसे ऋतुपर्ण राजा ने नल राजा को गणित विद्या देकर बदले में उससे अश्वविद्या को लिया और इससे अतिरिक्त कोई चतुर्थ मार्ग विद्या की प्राप्ति का नहीं है ||33||
(रघुवंश-सर्ग 2- श्लो. 47)
एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च ।
अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन्विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम् ||34||
रघुवंश में गोसेवा द्वारा गुरु सेवा कही है- ‘किसी काल में दिलीप राजा के पुत्र न होने से कुल गुरु वशिष्ठजी को जाकर नमस्कार पूर्वक निवेदन किया। भो गुरो ! पुत्रहीन मेरे को राज्य दुःखरूप दिखता है, तब वशिष्ठजी ने कहा हे राजन ! आप गो सेवा करें तो पुत्र होगा। तब राजा गुरुसेवा पूर्वक घास लाना गो चराना रूप गोसेवा करते भये। किसी दिन वशिष्ठजी की नन्दनी गो चरती हुई घोर बन में जाकर राजा की परीक्षा के लिए माया का सिंह बनाकर आप उसके नीचे पड़कर आर्त शब्द करने लगी।
राजा गो का आर्त शब्द सुनकर तलवार लेकर भागा सिंह को मारने को जब हाथ न उठा तब राजा ने विचारा कि यह कोई दैव घटना है जिससे मुझ हतभाग्य का गुरु की गोरक्षा के लिए हाथ नहीं उठता है तो अब शरीर बल से रक्षा न होने पर बुद्धिबल से गो की रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है।
यह विचारकर राजा ने कहा कि हे सिंह रूप देव ! इस गुरु की गो को छोड़कर आप इसे मेरे शरीर को खाकर क्षुधा की निवृत्ति करें। तब माया के सिंह ने कहा हे राजन् ! आप एक छत्रपति चक्रवर्ती राज्य को, जगत् के स्वामीपने को, युवावस्था को, हृष्टपुष्ठ कान्तिमान इस सुन्दर शरीर को, असंख्यात प्रजा के पालन को और देवताओं के समान विभूति को एक अल्प गो के लिए पूर्व उक्त बहुत को त्यागना चाहते हो इस कारण से आप हमारे को मूढ़ बुद्धि वाले प्रतीत होते हो ||34||
(पद्मपु-खण्ड 6-अ 199- श्लो. 37)
ददामि देहमात्मीयमपकीर्तिमलीमसम् ।
एवं न धर्महानिः स्याद्दषेस्तव तु भोजनम् ।।
गवार्थे त्यजतः प्राणान्ममापि गतिरुत्तमा ||35||
(स्कन्द खण्ड 2-खं. 4-अ 10- श्लो. 26)
अग्रतः सन्तु मे गावो गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।
गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहं ||36||
महान् तथ दिलीप राजा ने कहा है सिंह रूप देव । गुरु के अल्प धन रूप गो की रक्षा से धर्म होता है अस्तु महान् धर्म के लिए बहुत का त्याग करने में कोई हानि नहीं है इस हेतु से मैं अपकीर्ति देने वाले मल मूत्र रूप अपने शरीर को देता हूँ ऐसा करने पर गुरु वशिष्ठ के अग्निहोत्र आदि धर्म की हानि भी नहीं होगी और आपका भोजन भी हो जायेगा। और गो के अर्थ प्राणों को त्यागने से मेरी भी उत्तम गति होगी अस्तु आप मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार करें ऐसा पद्मपुराण में कहा है ||36||
स्कन्द पुराण में गोभक्तों ने कहा है कि गोएं मेरे आगे हो और गोएं मेरे पीछे हो, गोएं मेरे हृदय में सदावास करे और गोओं के बीच में सदा वास हो क्योंकि गोलोकवासी कृष्ण गोरक्षा को ही धर्म कहते हैं ||36||
(पद्यपु खण्ड 6 – अ 119 – श्लो. 39)
तस्य प्रतीक्षमाणस्य सिंहपातं सुदुःसहम् ।
पपातोपरि पुष्पाणां वृष्टिर्मृक्ता सुरेश्वरैः ||37||
(गरुडपु. काण्ड 2-अ. 42 श्लो. 8)
अकर्तव्यं न कर्तव्यं प्राणैः कंठगतैरपि ।
कर्तव्यमेव कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः ||38||
यह सुन सिंह ने कहा, अच्छा आओ। मैं तुम्हारे को ही खाता हूँ। तब दिलीप राजा गो की रक्षा के लिए अपने शरीर को सिंह के भोजन का ग्रास करते हुए सिंह के आगे पड़ गये। असहनीय दुःखकारी प्राणहारी सिंह के प्रहार की प्रतीक्षा करते हुए तिस दिलीप राजा के उपर इन्द्रादि देवता ने फूलों की वर्षा की और मंगलकारी बाजे बजाये।
तब सिंह के अन्तर्ध्यान होने पर सुरभी गौ की पुत्री नन्दिनी ने सन्तुष्ट होकर कहा हे राजन् ! कहो आपकी क्या इच्छा है ? राजा ने कहा हे गो मातः ! आपको सर्व ज्ञात है। नन्दिनी ने कहा है. राजन् ! मेरा दूध दुहकर रानी को पिलाओ इससे आपके धर्मात्मा पुत्र होगा। ऐसे गुरु सेवा पूर्वक गौ सेवा से राजा दिलीप के रघु धर्मात्मा पुत्र हुए ||37||
गरुड़पुराण में कहा है अकर्तव्य जो अधर्म उसको पुरुष प्राणों के कण्ठ में आने से भी न करें और कर्तव्य जो धर्म उसको प्राणों के कण्ठ में आने से भी करें ऐसा धर्मवेत्ता कहते हैं ||38||
(गर्ग संहिता, खण्ड 10-अ. 33-श्लो. 24)
सत्याद्रामसमं पुत्र तत्याज कौशलेश्वरः ।
हरिश्चन्द्रः प्रियां पुत्र स्वात्मानं चैव भूपते ||39||
गर्ग संहिता में यह कथा है कि श्रीकृष्णचन्द्रजी से पालित उग्रसेन ने राजसूय यज्ञ के पश्चात् अश्वमेघ यज्ञ करने को कहा – कृष्णचन्द्रजी ने तत्काल यादवों से कहा, अश्वमेघ के अश्व पालने को कौन जावेगा। सर्व के चुप होने पर षोड़श वर्ष के अनिरुद्ध ने हाथ जोड़कर कहा- ‘मैं जाऊँगा’ श्रीकृष्णचन्द्रजी ने गोद में लेकर कहा हे वत्स ! कोमल शरीर बालक तुम वज्र के समान शरीर वाले असुरों को कैसे जीतोगे।
अनिरूद्ध ने श्रीकृष्णचन्द्रजी से कहा कि मैं आपकी कृपा से तीन लोक का चूर्ण कर डालूं फिर असुरों की तो वार्ता ही क्या है तब कृष्णचन्द्रजी ने चुम्बन कर कहा हे वत्स ! जाओ तुम्हारी जय होगी। तब सर्व को जय करते हुए अनिरुद्ध ने बल्वलासुर को जाकर पत्र दिया, असुर ने पत्र देखकर डोंडी पिटवा दी, कि प्रातःकाल सूर्य उदय से पहिले जो युद्ध में नहीं आवेगा उसको प्राण दण्ड होगा ऐसा सुन सर्वआ गये परन्तु राजपुत्र और मंत्री पुत्र दोनों नहीं आये। तब गणना करके गणक ने कहा मंत्री पुत्र नहीं आये तब राजा ने उसको बुलवाकर तोप से मरवा दिया। इस पर दुःखी होकर मंत्री ने कहा है राजन् ! इसी दण्ड का भागी आपका पुत्र भी है।
यह सुन राजा चुप हो गया। तब मन्त्री ने कहा हे असुरराज सुनो ! कौशलेश राजा दशरथ सत्य प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए प्राणों से प्यारे श्रीरामचन्द्रजी जैसे पुत्र को भी त्यागते भये और हरिशचन्द्र राजा विश्वामित्र भिक्षु के साथ दक्षिणा देने की प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिए काशीजी में जाकर आज्ञाकारी राजकुमारी प्यारी शुभ गुणखानी रानी को शुभ गुणराशि रोहित पुत्र के साथ बाजार में बेच दिया, ब्राह्मण आदि से माननीय राजा ने अपने को भी शवकर से जीवन करने वाले भंगी के हाथ बेच दिया। ऐसे ही राजे राजसभा में स्मरणीय होते हैं ||39||
(स्कन्द खंड 6-अ. 51 – श्लो. 45)
यः स्वं वाक्यं प्रतिज्ञाय न करोति यथोदितम् ।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणाकृतबुद्धिना ||40||
(गर्गसं. खंड 10-अ 33- श्लो. 43 )
स्मरणात्तव गोविन्द ग्राहान्मुक्तो मतंगजः ।
स्वायंभुवश्च प्रह्लादो हांबरीषो ध्रुवस्तथा ||41||
स्कंद पुराण में कहा है कि जो पुरुष स्वयं वाणी की प्रतिज्ञा कर फिर जैसे कहा है तैसे नहीं करता उस मलिन बुद्धि वाले चोर पुरुष ने संसार में कौन-सा पाप नहीं करा है अर्थात् सर्व ही पाप उसने करे हैं ||40||
ऐसे सत्यप्रतिज्ञ धर्मात्मा राजाओं की कथा सुनकर बल्वलासुर राजा ने कहा हे मन्त्री ! कुनन्दन नाम मेरे पुत्र को शीघ्र ही लाकर तोप से मार डालो, तब मंत्री ने कुनन्दन को लाकर तोप के आगे खड़ा कर दिया कुनन्दन ने विचार किया कि अहो बड़ा कष्ट है मैंने न तो पिता की आज्ञा पाली और न कृष्ण स्वरूप अनिरुद्ध से युद्ध कर स्वर्गप्रद मृत्यु प्राप्त करी, आज अपमृत्यु से मारा जा रहा हूँ।
तब कोई रक्षक न देखकर कुनन्दन ने श्रीकृष्णचन्द्र दुःख नाशक का जैसे गर्ग संहिता में कहा है वैसे ही चिन्तन किया वह निरुपण करते हैं- ‘हे गोविंद सर्व रक्षक, आपके स्मरण मात्र से गजेन्द्र ग्राह के मुँह से मुक्त हो गये और मनु, राजा अम्बरीष, प्रह्लाद, भक्त ध्रुव आदि भी आपके स्मरण से संसार कष्ट से सदा के लिए मुक्त हो गये ||41||
(पद्मपु. खण्ड. 6-अ. 189- श्लो. 3)
द्रौपदी च परित्राता येन कौरव कश्मलात् ।
पालिता गोपसौन्दर्यः स कृष्ण क्वापि नो गतः ||42||
पद्मपुराण में सुना है कि दुर्योधन आदि कौरवों के दुष्ट पाप कर्म से सभा में ऋतुमती दीन द्रौपदी की नग्न होने से आप कृष्ण ने वस्त्र रूप होकर रक्षा करी है। और इन्द्र के कोप से मूसलाधार वर्षा से पीड़ित गोप-गोपियों की रक्षा के लिए सात वर्ष के कृष्ण मुरारी, सात रोज गिरधारी शुभकारी प्रह्लाद भक्त की करी रखवारी सर्वभक्तों के हितकारी ऐसी सुनी रीति तुम्हारी।
‘मैं भी शरण लई सुखकारी अब कहां जाय छिपे मम दास की बारी’ अथवा पूर्व रीति बिसारी, नहीं सुनते अब कान मझारी, वज्र हृदेन करुणाधारी, क्या निद्रा आ गई भारी, क्यों नहीं सुनते देवकीनन्दन-दुष्ट निकन्दन भक्त मन रंजन करो गरुड़ असवारी, आकर- तोप से मृत्यु देवो निवारी कृष्ण मुरारी ।। कृष्ण घनश्याम पूर्णकाम अति अभिराम करुणाधाम सब शास्त्र कहे पुकारी-कृष्ण नाम दुःखहारी, पतितों के पावन कारी, कहां गये मम पतित की बारी ।।42।।
(महाभा. पर्व 2 – अ. 68 – श्लो. 41 )
गोविन्द द्वारकावासिन्कृष्ण गोपीजनप्रियः ।
कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव ।।43।।
महाभारत में कहा है कि दुर्योधन की आज्ञा से दुश्शासन दीन द्रौपदी को केशों से पकड़ कर सभा में ला नग्न करने लगे तब द्रौपदी किसी को भी अपना रक्षक न देखकर भक्त दुःखहारी दुष्टसंहारी कृष्ण का चिन्तन करती है। ‘हे माधव गोविन्द बालमुकुन्द परमानन्द, हे द्वारकावासी शुभगुणरासी मैं हूँ आपकी दासी । हे कृष्ण घनश्याम पूर्ण काम करूणाधाम, हे गोपीजनप्यारे वसुदेव दुलारे गज रखवारे, मैं पाँच पति की दारा मेरा सभा में चीर उतारा देख सभा ने मौन को धारा।
मैंने सबकी आश बिसारी एक शरण लई गिरधारी, ऋतुधर्म अति लज्जाकारी, गई कौरवों की मतिमारी इनसे हूँ मैं अति दुःखारी, क्या जानो नहीं केशी संहारी। दीन द्रौपदी का ऐसा आर्त चिन्तन-सुनकर चीर बहुकारी दुश्शासन बलहारी-कृष्ण ने कहा हे द्रौपदी जो आपने गंगा स्नान करते हुए दुर्वासा की कौपीन बह जाने पर उनको गंगा में खड़े देखकर अपनी साड़ी फाड़कर ऐसे छोड़ी ताकि वह नग्न दुर्वासा को प्राप्त हो जाय उसके बदले में आज हजार वर्ष तक वस्त्रों के उतारने पर भी मैं तुम्हारे को नग्न नहीं होने दूंगा ।।43।।
(नारद पंचरात्र 4-अ. 1 – श्लो. 43 )
कृष्णाय यादवेन्द्राय ज्ञानमुद्राय योगिने ।
नाथाय रुक्मिणीशाय नमो वेदान्तवेदिने ||44||
नारद पंचरात्र में कृष्ण प्रसन्नकारी यह मंत्र कहा है कि यादवों के स्वामी, रुक्मणी के स्वामी, सर्व के ईश्वर, योगीराज, जीव ब्रह्म की एकता अद्वैतज्ञान रूप मुद्रा के धारण करने वाले । अद्वैत ज्ञान बोधक-वेदान्त शास्त्रों के वेत्ता । सत्य सुख प्रकाश का वाचक ‘कृष’ शब्द है और अनर्थ की निवृत्ति का वाचक ‘ण’ शब्द है दोनों मिलकर कृष्ण नाम बनता है। ऐसे अनर्थ की निवृत्ति तथा परमानन्द की प्राप्ति रूप कृष्ण के ताई नमस्कार है ।।44।।
(ब्रह्मवे. उत्तरार्ध खण्ड 4-अ. 86-श्लो. 103)
वेदाः स्तुवन्ति यं कृष्णं स्तौति भीता सरस्वती ।
स्तौति यं प्रकृतिर्हष्टा प्राकृतं प्रकृतेः परम् ||45||
स यं हन्ति य सर्वेशो रक्षिता तस्य कः पुमान्।
स यं रक्षति सर्वात्मा तस्य हन्ता नकोऽपि च ||46||
(गर्ग सं. खण्ड 10-अ. 33- श्लो. 60)
यं च रक्षति श्रीकृष्णस्तं को भक्षति मानव: ।
भक्तं हन्तुं चागतो यः स विनश्यति दैवतः ||47||
हे सुन्दर गोपाल उर वनमाल नयनविशाल। मथुरा के अवतारी गोकुल में गोचारी वृंदावनविहारी कंस संहारी वसुदेव देवकी बन्धनहारी द्वारकावासी शिशुपालविनाशी हे कृष्ण अविनाशी हे भक्तिवश अर्जुन के शाला आकर कुंती पुत्र युधिष्ठिर पाला अब मेरी बार क्या लग गया द्वारका को ताला जिससे नहीं आता कृष्ण काला।
इस प्रकार कृष्णचन्द्र के चिन्तन करने वाले बल्वलासुर राज के पुत्र कुनन्दन के ऊपर तोप को दो बार चलाने पर एक रोम की भी हानि न हुईं। तब कृष्ण चिन्तनहीन द्वेषदूषित मंत्री ने अपने हाथ से तीसरी बार कुनन्दन के ऊपर तोप चलाई तब तोप के उल्टा चलने पर हत पुण्य मंत्री ही मारा गया और कृष्ण भक्त कुनन्दन के ऊपर देवताओं ने फूलों की वर्षा करी ऐसी महिमा श्रीकृष्ण परमात्मा की ब्रह्म वैवर्त पुराण में कही है।
जिस सच्चिदानन्द अद्वैतस्वरूप माया रहित शुद्ध बुद्ध ज्ञान धन स्वरूप माया से रहित शुद्ध बुद्ध ज्ञान धन स्वरूप माया से राम कृष्णादि अवतार धारी की चार वेद स्तुति करते हैं और भयभीत हुई सरस्वती वीणा से गुण गाती है और लक्ष्मी हर्ष से स्तुति करती है जिस कृष्ण की ||45||
सो सर्व का ईश्वर हंता है जिसका, उसकी कौन पुरुष रक्षा करने वाला है। और जिसका रक्षक सर्व का आत्मा कृष्ण है उसको हनन करने वाला संसार में कोई नहीं है ||46||
गर्ग संहिता में कृष्ण-स्मरण के महत्व को नेत्रों से देखकर दैत्यों ने कहा है कि जिसके श्रीकृष्णचन्द्र रक्षक हैं उसका कोई पुरुष हानिकारक नहीं है। कृष्णभक्त कुनन्दन को हनन करने को आया जो मंत्री सो अपने दृष्ट कर्म से आप ही मारा गया ||47||
(भा. स्कंद 1- अ. 8- श्लो. 25-41)
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ||48||
अथ विश्वेश विश्वात्मन्विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि द्दढं पाण्डुषु वृष्णिषु ||49||
भागवत में हस्तिनापुर से द्वारका को जाते हुए कृष्णचन्द्रजी से कुन्ती विपत्ति को माँगती है। हे वासुदेव, आज तक मैंने आपसे कुछ नहीं माँगा, आज माँगती हूँ। कृष्णचन्द्रजी ने कहा मांगो। तब कुन्ती ने कहा हे जगद्गुरो ! जहाँ-जहाँ हमारा जन्म हो तहाँ-तहाँ हमारे ऊपर सर्वदा विपत्ति ही आती रहे क्योंकि सुख में पुरुष आपको याद नहीं करता, 1 विपत्ति आने पर ही आप दुःख नाशक हरि याद आते हो, जिससे संसार का पुनः दर्शन नहीं होता ऐसा आप परमात्मा का दर्शन होता है ।।48॥
दूसरा यह मांगती हूँ कि हे विश्व के ईश्वर, हे विश्व के आत्मा, हे सर्वव्यापी सर्वरूप दोनों कुल के सम्बन्धियों में (पाण्डवों में और यादवों में) जो स्नेह है सो मेरे गले में दृढ़ फांसी है उसको आप पाप हारक हरि छेदन करें क्योंकि राग ही अज्ञान का चिन्ह है राग
नाश के बिना आत्मा ब्रह्म स्वरूप है ऐसा अद्वैत ब्रह्मज्ञान नहीं होता है। हे कृष्ण आपके द्वारका को जाने से पाण्डवों का शुभ नहीं और न जाने से यादवों का शुभ नहीं। ऐसी रागरूपी दो फांसियों से मेरे को छुड़ाओ ।।49।।
(भा. स्कंध 8-अ. 2-श्लो. 32)
न मामिमे ज्ञातय आतुरं गजाः कुतः करिण्यः प्रभवन्ति मोचितुम् ।
ग्राहेण पाशेन विधातुरावृतोऽप्यहं च तं यामि परं परायणम् ||50||
भागवत में गजराज ग्राह से पीड़ित हुआ कहता है इस प्राणहारक ग्राह के कष्ट से दुखी को यह मेरी जाति वाले तथा मेरे समान बलबाले हस्ती जमी छुड़ाने में समर्थ नहीं तो हस्तिनियां क्या छुड़ा सकती हैं। अस्तु ग्राहरूप विधाता की फांसी से बंधा हुआ मैं उस हरि की शरण को प्राप्त होता हूँ क्योंकि वो हरि ब्रह्मा आदि चराचर सर्व का अधिष्ठान है ऐसा विचार कर गजेन्द्र ने शृंड में फूल लेकर पापहारी हरि से पुकार करी तब हरि ने गजेन्द्र को मुक्त कर दिया ||50||
(भा. स्कंध 10 अ. 44 – श्लो. -15)
या दोहनेऽवहनने मथनोपलेपप्रेङ्खेङ्खनार्थरुदितोक्षणमार्जनादी ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो धन्याव्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ||51||
भागवत में कहा है कि धन्य हैं ब्रज-स्त्रीयां जो एक मास के बालरूप पूतनाप्राणहारी में चित्त लगाकर कृष्ण में ही अनुरक्त बुद्धिवाली हुई नेत्रों के कण्ठपर्यन्त आँसू बहाती हुई अद्भुत कर्म वाले कृष्ण वासुदेव आदिनाम से लेकर गाती हैं। कैसे गाती हैं। गौओं के दूहने में- धान्य के कूटने में- दूध के मंथन करने में गृह लीपने बालकों को झूला झुलाने में रोते हुए बालकों को गोविन्द वासुदेव कृष्ण आदि नाम ले लेकर खिलाती है तथा झाड़ देने में, पात्र मांजने में, सर्व गृह के कार्यों में क्लेशनाशक कृष्ण को ही गाती हैं धन्य हैं! वे ब्रज की स्त्रीयां जो कृष्ण गुणगान में काल बिताती हैं ||51||
(भा. स्कंध 10 अ. 47- श्लो. 47 )
परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिंगला ।
तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाप्याशा दुरत्यया ||52||
(विष्णु पु. अंश. 5-अ. 18 – श्लो. 22 )
गुरुणामग्रतो वक्तुं किं ब्रवीमि न नः क्षमम् ।
गुरवः किं करिष्यन्ति दग्धानां विरहाग्निना ||53||
श्री कृष्णचन्द्रजी मथुरा से ब्रह्मनिष्ठ भक्त उद्धव को कृष्ण ने विरह-आतुर गोपियों को धैर्य देने के लिए गोकुल में भेजा, उद्धव ने जाकर श्रीकृष्ण वियोगातुर गोपियों से कहा है महाभाग-गोपियों ! ब्रह्मस्वरूप कृष्ण सर्वव्यापी को अपना ही रूप जानकर सर्व आशा छोड़कर शांत रहो। गोपियों ने कहा हे उद्भव ! निराश होना ही परम सुख है ऐसा पिंगला नाम की सर्वभोग्या गणिका भी कहती है, ऐसा जानते हुए भी हमारी तो श्रीकृष्णचन्द्र यशोदानन्दन में अनिवार्य आशा लग रही है यह सुनकर उद्धवजी चकित हो गये ||52||
विष्णु पुराण में गोपियों की कृष्ण से मिलने की उत्कष्ठा कही है। एक समय गोपियों ने मिलकर कहा चलो मथुरा में श्रीकृष्ण मन मोहन से मिल आवें तब दूसरी गोपियों ने कहा हम माता-पिता से क्या कहें कि हम श्रीकृष्ण को मिलने जाती हैं। गुरुरूप माता-पिता के आगे हमारी ऐसी बोलने की शक्ति नहीं है। यह सुन गोविन्द बालमुकुन्द की दर्शनाभिलाषी गोपियों ने कहा कृष्ण वंशीधारी माखनहारी के वियोग रूपी अग्नि से दग्ध हुइयों का हमारा माता पिता क्या करेंगे, ऐसा विचार कर मथुरा को चल दीं।
जाकर द्वार पालों से कहा, यहाँ गोकुलवासी नन्द को छोरो सुनो है। द्वारपालों ने कहा देखो ये छाछ की बेचने वाली महाराज कृष्णचन्द्रजी को नन्द का छोरा कहती हैं। तब ललिता विशाखा चन्द्रावती ने कहा कि वो यहाँ आकर राजा हो गये हैं। हम कृष्ण से मिलने आयी हैं। तुम जाकर हमारा नाम तो सुना दो तब एक द्वारपाल ने कहा चलो सुना दे, हमारी क्या हानि है। ललिता आदि नाम सुन कृष्ण ने कहा उनको शीघ्र ही लाओ। तब हाथ जोड़कर लाये गोपियों ने मणि से भूषित युवा प्रकाशमान् कृष्ण को देखकर कहा यह नन्द का बालमुकुन्द छोरा नहीं है।
तब एक- एक ने कहा नाक कान नेत्र हास विलास तो वही हे कृष्णचन्द्रजी भी मड़क में आकर बिना बुलाये न बोले। गोपियों ने कहा ये चाहे वो ही हो पर हमारा इतने बड़े से प्रेम नहीं हमारा तो बालमुकुन्द माखन चोर से प्रेम है। ऐसा कहकर वहाँ से चल दीं। विचार नेत्र वालों को गोपियों का बाल कृष्ण में शुद्धभाव शास्त्र दिखाते हैं एकादश वर्ष के बालक कृष्ण व्यभिचारी हैं ऐसा तो विचार से अन्धे नरकगामी पुरुष ही कह सकते हैं। यदि दुर्जनतोष न्याय से कृष्ण को व्यभिचारी भी मान लें तो भी उपनयन संस्कार से पूर्व बालक पर शास्त्र विधि-निषेध नहीं कहता है ऐसे शुद्ध कृष्ण में शुद्ध गोपियों की भक्ति कही है ||53||
(भा. स्कंध 10 अ. 46 – श्लो. 4)
ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका : ।
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम् ।।54।।
(गर्ग सं. खण्ड 10 अ. 55-श्लो. 54)
मायया मम पुर्या त्वं मोहितश्चापि मा खिदः ।
सर्वे मुह्यन्ति देवर्षे ब्रह्मा रुद्रादयः सुराः ||55||
भागवत में श्रीकृष्णचन्द्रजी उद्धव से कहते हैं ये ब्रज की स्त्रियाँ मेरे में मन लगाकर मेरे को ही अपने प्राण मानती हैं और मेरे लिए शरीर सम्बन्धी सुखों को त्याग दिया है। जिन नन्द यशोदा आदि गोप गोपियों ने सर्व लोकधर्म इन्द्रपूजा आदि मेरे लिए त्याग दिये हैं उनका मैं सर्वदा पालन करता हूँ ||54||
गर्ग संहिता में यह कथा है कि एक समय उग्रसेन के यज्ञ में दीक्षित होकर कृष्ण रुक्मिणी के साथ स्वर्णघट में जल भरकर लाये नारदजी ने देखा कि भगवान् ने रुक्मिणि को शुभ काम में साथ लिया है सत्यभामा आदि को नहीं लिया इसलिए आपस में कलह कराने के लिए सत्यभामा के घर गये, तब श्रीकृष्णचन्द्रजी ने नारदजी का विचार जानकर माया रची। सत्यभामा के घर आकर नारदजी ने कृष्णजी को वहाँ पर भी देखा, तब कृष्णजी ने कहा आओ। देव ऋषि, भोजन करो।
यह सुन नारदजी ने कहा मैं तो आपको अभी यज्ञ में छोड़कर आया हूँ। देखें और भी आगे जाता हूँ। तब नारदजी जाम्बवती के घर गये तो वहाँ पर भी श्रीकृष्णचन्द्रजी ने ब्रह्मभोज कराते हुए हाथ जोड़कर नारदजी से भोजन करने को कहा। इस प्रकार सर्व घरों में फिरते हुए नारदजी ने श्रीकृष्णचन्द्रजी के धार्मिक नये-नये चरित्र देखे तब बहुत फिर कर थकित हुए नारदजी ने विचारा कि एक पुरुष के दो स्त्री होने पर बहुत कलह होती है यहाँ श्रीकृष्णचन्द्रजी के सोलह हजार एक सौ आठ स्त्रियाँ होने पर भी कलह का नामोनिशान देखने में नहीं आता।
ऐसे मोहित नारदजी को देखकर श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा हे देवऋषि । मेरी पुरी में मोहित होकर आप खेद न करें क्योंकि आप कलहप्रिय भी बीतराग होने से मेरे को अतिप्रिय हो। और मेरी माया से तो ब्रह्मा रुद्रादि देवता भी मोह को प्राप्त होते हैं। तब नारदजी ने हाथ जोड़कर आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्रजी से कहा कि आपका वास्तव स्वरूप ये ही नाना रूप होना ही है अथवा और है ||55||
(महाभा. पर्व 12-अ. 339 – श्लो. 45)
माया होषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद ।
सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैवं त्वं ज्ञातुमर्हसि ||56||
तब जैसे भीष्म ने महाभारत में वास्तव रूप कहा है तैसे कहते हैं- हे नारद जो आप नाना स्वरूप मेरे को और सर्व ऐश्वर्य को देखते हो यह सर्वतीन गुण रूपी मेरी माया रची हुई है। आप जैसे वीतरागियों को मेरे वास्तव स्वरूप अक्रिय अविनाशी सत् चित् आनन्द अद्वैत स्वरूप गुणातीत को गुणों से युक्त जानना योग्य नहीं ||56||
(आग्नेय अ. 15- श्लो. 10 )
तद्धनुस्तानि चास्राणि स रथस्ते च वाजिनः ।
विना कृष्णेन तन्नष्टं दानं चाश्रोत्रिये यथा ||57||
अग्निपुराण में कहा है कि प्रभास क्षेत्र में यादवों के नष्ट होने पर श्रीकृष्णचन्द्र वैकुण्ठ को पधारते हुए अर्जुन को बुलाकर कहते हैं। आठ रोज में द्वारका के डूबने से पहिले हे अर्जुन ! सर्व को हस्तिनापुर ले जाओ तब अर्जुन श्रीकृष्णचन्द्र आनन्द कन्द परमात्मा के वियोग को न सहते हुए भी भगवान् की आज्ञा को अपना कर्तव्य मानते हुए द्वारका में जाकर सब को लेकर हस्तिनापुर को चल दिये। रास्ते में अल्प बल वाले तुच्छ भीलों ने अर्जुन से स्त्रीयाँ तथा सर्व वस्तु छीनकर कहा चुपचाप चले जाओ नहीं तो प्राण भी जावेंगे। तब कृष्ण से बिना शक्तिहीन दीन दुःखी अर्जुन भीलों से तिरस्कृत हुआ हस्तिनापुर में युधिष्ठिर के पास गया।
युधिष्ठर ने अर्जुन को हतशोभा देखकर कहा हे- भ्रातः क्या त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्णचन्द्र के शोकनाशक दर्शन न होने से दीन हो, अथवा शरणागत की रक्षा न होने से दुःखी से देखने में आते हो ? तब अर्जुन ने धर्मपुत्र के चरणों में पड़कर हा कृष्ण ! हा वासुदेव !! ऐसे रुदन करता हुआ कहता है कि हे भ्राता ! वो ही गांडीव धनुष वो ही बाण, वो ही रथ, वो ही घोड़े और वो ही मैं अर्जुन हूँ जिसने खांडव वन में मूसलाधार वर्षा को कृष्ण की कृपा से रोककर इन्द्र के मद को दूर किया था। और भीलरूप महादेव को जिस कृष्ण की कृपा से मैंने बाणों की वर्षा से तुष्ट किया था।
आज मैं भीष्म की बाण वर्षा से रक्षक, रथांगपाणि से हीन अद्वैत बोधक वेदान्त उपदेशक ज्ञानी से बिना अल्प बल वाले भीलों से तिरस्कृत हुआ। भीलों ने मेरे को तृण समान तुच्छ मानकर द्वारका से लाई सर्व वस्तु को लूटकर कहा हे अर्जुन ! अपने प्राण लेकर चले जाओ। ऐसा सुनकर भी मैं भीलों का कुछ न कर सका। धनुष आदि सर्व के होने पर भी एक श्री कृष्णचन्द्रजी से बिना मेरे हतशोभा दीन-दुखी के सर्व पराक्रम आदि ऐसे नष्ट हो गये जैसे वेद शास्त्र न पढ़े हुए को दिया हुआ दान नष्ट हो जाता है ऐसा सुनकर युधिष्ठिर राज्य को तृण जैसे त्याग कर हिमालय को चले गये ।15711
(विष्णुपु. अंश 1- अ. 17 – श्लो. 78)
प्रयास: स्मरणे कोऽस्य स्मृतो यच्छति शोभनम् ।
पापक्षयश्च भवति स्मरतां तमहर्निशम् ||58||
(भा. स्कंध. 7-अ. 5-श्लो. 23)
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||59||
विष्णु पुराण में कहा है कि असुरों के बालकों ने प्रह्लाद से पूछा आप किस मंत्र को जपकर सर्व से निर्भय हुए हो । प्रह्लाद ने कहा कि मैं विष्णु के स्मरण से निर्भय हुआ हैं। है असुर बालकों तुम भी विष्णु स्मरण करो तो कोई तुमको कष्ट न दे सकेगा क्योंकि विष्णु के दिन-रात स्मरण करने वाले को कोई कष्ट नहीं होता। उसको अग्नि दग्ध नहीं करता, पत्थर की चोट नहीं लगती, जल में नहीं डूबता और सर्व पाप उसके नाश हो जाते हैं। विष्णु भगवान् अपने स्मरण करने वालों को जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत ज्ञान देकर मोक्ष देते हैं जिसको प्राप्त होकर जन्म मरण रूप संसार से मुक्त हो जाते हैं ||58||
हिरण्यकशिपु ने एक समय प्रह्लाद को बुलाकर गोद में बैठाकर पूछा हे पुत्र ! कहो आज तक तुम गुरु से क्या पढ़े हो ? तब प्रह्लाद ने माता के गर्भ में नारदजी से भागवत में जैसा सुना था तैसे कहा । भो तात ! सर्वव्यापी विष्णु का श्रवण करना
1. विष्णु के नामों का ही कीर्तन करना
2. विष्णु के ही शुद्ध स्वरूप का एकान्त में स्मरण करना
3. विष्णु के ही चरणों की सेवा करनी
4. विष्णु की ही पूजा करना
5. विष्णु को ही नमस्कार करना
6. विष्णु का ही दास होना
7. विष्णु को ही मित्र मानना
8. विष्णु को ही तन, मन, धन, सर्वस्व समर्पण कर देना
9. इतना ही मैं पढ़ा हूँ।
यदि कोई पूछे कि नवधा भक्ति किस किसने करी है सो कहते हैं। विष्णु की श्रवणरूप भक्ति परीक्षित् ने करी है – 1. विष्णु की कीर्तन रूप भक्ति शुकदेव ने करी है 2. स्मरण रूप भक्ति प्रहलाद ने करी है 3. पाद सेवा रूप भक्ति लक्ष्मी ने करी है 4. पूजनरूप भक्ति पृथु राजा ने करी है 5. वन्दना रूप भक्ति अक्रूर ने करी है 6. दासरूपी भक्ति हनुमानजी ने करी है 7. सखा रूप भक्ति अर्जुन ने करी है 8. सर्वस्व आत्म समर्पण रूप भक्ति बलि ने करी है 9.इन नवधा भक्ति करने वालों को सर्वव्यापी विष्णु-कृष्ण की प्राप्ति हुई है ||59||
(विष्णु पु. अंश. 1-अ. 17 – श्लोक 31-39)
दुरात्मा वध्यतामेष नानेनार्थोऽस्ति जीवता ।
स्वपक्षहानि कर्तृत्वाद्यः कुलांगारतां गथः ||60||
कः केन हन्यते जन्तुर्जन्तु कः केन रक्ष्यते ।
हन्ति रक्षति चैवात्मा हासत्साधुसमाचरन् ||61||
विष्णु पुराण में कहा है कि ऐसी विष्णु-परायणता प्रहलाद की देखकर हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को गोद में से नीचे पटकी कर असुरों से कहा मार डालो इस दुष्ट प्रह्लाद को । इसके जीने से हमारा कोई प्रयोजन नहीं यह हमारे हरे-भरे असुर-कुल रूप वन को दग्ध करने के
लिए अग्नि का अंगार उत्पन्न हुआ है अतः इसका शीघ्र ही वध करो 116011 यह सुन हाथ जोड़कर प्रह्लाह ने पिता से विष्णु पुराण की कथा कही कि, हे तात ! कोई प्राणी किसी प्राणी से नहीं मारा जाता है, और कोई प्राणी किसी प्राणी से रक्षित नहीं होता, केवल अपने असाधुपने और दुष्ट भाव से मारा जाता है। और अपने साधु पने से रक्षित होता ||61||
(विष्णु पु. अंश. 1-अ. 19- श्लोक 44-45-7)
सर्व एव महाभाग महत्वं प्रति सोद्यमाः ।
तथापि पुंसां भाग्यानि नोद्यमा भूतिहेतवः ||62||
जड़ानामपि लोकानामशूराणामपि प्रभो ।
भाग्यभोग्यानि राज्यानि संत्यनीतिमतामपि ||63||
सोऽहं न पापमिच्छामि न करोमि वदामि च ।
चिन्तयन्सर्वभूतस्तणात्मन्यपि च केशवम् ||64||
भो महाभाग्य तात ! सर्वप्राणी इस संसार में अपने महत्व के लिए अति उद्यम करते हैं। तो भी पुरुषों के पूर्वकृत पुण्यरूप भाग्य ही सुखप्रद विभूति रूप से फलित होते हैं। भाग्यहीनों के उद्यम भी फलीभूत नहीं होते हैं ||62||
भाग्य से ही मूर्ख लोगों को, शूरता से हीनों को और राजनीति से हीनों को भी हे प्रभो! धन, ऐश्वर्य, राज्य आदि भोग प्राप्त हो जाते हैं। परन्तु इन नाशवान् राज्यादि लोभों के मद से सर्वव्यापी मुक्तिप्रद विष्णु में बुद्धि के बैरी ही द्वेष करते हैं ||63||
हे पिता ! मैं न तो पाप कर्म करता हूँ, न पाप कर्म की इच्छा करता हूँ और न मुख से कहता हैं। केवल अपने में और सर्व प्राणी मात्र में केशी दैत्य रूप अज्ञान के नाशक केशव भगवान को सर्वव्यापी जानकर उनका चिन्तन करता हूँ और जैसे ज्वर से ग्रसित पुरुष घृत को अच्छा नहीं मानता तैसे ही आप विष्णुचिन्तन को अच्छा नहीं मानते हो ||64||
(भा. स्कंध 7 – अ. 8 श्लो. -13)
यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः ।
क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात् स्तंभे न दृश्यते ||65||
भागवत में कहा है कि तब हिरणयकशिपु ने तलवार उठाकर कहा है दुष्ट !अति दुःखकारी कुटिलभाषी प्रह्लाद। अब मैं तेरे को न छोडूंगा। हे मन्दभाग्य जो तुमने मुझे पिता को छोड़कर दूसरा जगत का ईश्वर कहा है सो कहो वो तुम्हारा ईश्वर कहां है ? यदि वह सर्व जगह है तो हे पेट भर झूठ बोलने में लज्जा न करने वाले मूर्ख ! इस सभा स्तंभ में से तुम अपने ईश्वर को सर्वसभा में क्यों नहीं दिखाता । क्या वह ईश्वर मेरे भय से छिपता है जिससे मेरे को नहीं दिखता है। तब प्रहलाद ने कहा कि अहो भाग्य ! मेरे पिता के जो आज ईश्वर दर्शन की इच्छा तो करी है ||65||
(भारतसार प. 15-अ. 89- श्लो. 47-48-50)
पुत्रेण भार्यया भिन्नं मयूरध्वज मस्तकम् ।
द्विधाजातं शरीरर्द्ध दक्षिणाङ्ग त्वमानय ||66||
गायन् हरिगुणांस्तत्र हरिभक्तिरतः सदा ।
करपत्रं करे धृत्वा निजनाथं विदारयत् ||67||
विभेदकरपत्रेण समक्षं कृष्णार्जुनयोः ।
हाहाकारो महानासीत्तदा जनमेजय प्रिय ||68||
भारतसार में मयूरध्वज राजा का ऐसा आख्यान है। श्रीकृष्णचन्द्र और अर्जुन से रक्षित अश्वमेघ के घोड़ों को ताम्रध्वज ने अपनी शूरवीरता के बल से बाँध लिया। तब अर्जुन ने श्रीकृष्णचन्द्रजी से कहा कि भो भगवन् ! ऐसे अद्भुत शूरवीर ताम्रध्वज से घोड़ा कैसे छुड़ाएँ। श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा कि हे अर्जुन ! इस ताम्रध्वज की अद्भुत शूरवीरता का कारण मैं तुम्हारे को दिखलाता हूँ। तब कृष्णचन्द्र ब्राह्मण के रूप में होकर और अर्जुन को ब्रह्मचारी का रूप शिष्य बनाकर मयूरध्वज राजा के पास गए। मयूरध्वज ने श्रद्धापूर्वक स्वागत किया और कहा ‘भो विप्र मैं आपकी क्या सेवा करूँ।
तब कृष्णचन्द्र ने कहा कि हे राजन् मैं हस्तिनापुर से निज पुत्र के विवाह के लिये आपके नगर में सुशील ब्राह्मण की सुन्दरी कन्या की याचना के लिए आ रहा था, आते हुए घोर वन में मेरे पुत्र को सिंह ने पकड़ लिया। मैंने सिंह से कहा कि आप मेरे पुत्र को किस रीति से छोड़ सकते हो। तब सिंह ने कहा कि मैं आपके पुत्र को मयूरध्वज के अर्ध शरीर का भाग लाओ तब छोड़ सकता हूँ अन्यथा नहीं।
तब अति प्रसन्न हुए मयूरध्वज राजा को निज हाथों से आरे द्वारा निज देह को चीरने के लिये यत्नशील देखकर रानी कुमुद्वती ने कहा भो विप्र, आप मेरी देह का दान लीजिये क्योंकि मैं पति की अर्द्धाङ्गी स्त्री हूँ, यह श्रुति सिद्ध निर्णय है।पति के अर्द्धाङ्ग रूप मेरी देह के बदले आप पुत्र की रक्षा करें और दूसरे के मारे हुए को सिंह नहीं खाता है। कृपा कर आप मेरे जीवित शरीर को सिंह के लिये दें। तब ब्राह्मण बोले कि सिंह में कहा है कि मैं वामाङ्ग ग्रहण नहीं करता हूँ, तब ताम्रध्वज ने कहा कि भो, विप्रश्रेष्ठ मैं राजा का दक्षिणाङ्ग हूँ क्योंकि आत्मना जायते पुत्र ऐसा श्रुति कहती है।
तब ब्राह्मण ने कहा हे वत्स ! तुम्हारा कथन सत्य है, परन्तु सिंह का कथन यह है कि पुत्र और स्त्री के हाथों से भेदन किए हुए मयूर ध्वज के मस्तक पर्यन्त के दो भागों में से दक्षिण भाग आप हमारे लिये लावें। तब राजा मयूरध्वज स्त्री-पुत्र दोनों को हटा करके ऐसे आत्मप्रदानावसर में हरि के गुणों का गायन करते हुए हरिभक्तों में सर्वदा प्रीतिमान मस्तक पर आरे को रखकर पुत्र स्त्री से कहा यदि – तुम पुत्र- स्त्री का सम्बन्ध रखते हो तो मेरे को शीघ्र ही आरे से चीरकर ब्राह्मण के पुत्र की रक्षा के लिये प्रदान करें।
तब पुत्र-स्त्री सम्बन्धी धर्म को पालने के लिये ताम्रध्वजऔर कुमुद्वती रानी ने निज हाथों से आरा लेकर अपने स्वामी प्राणनाथ मयूरध्वज को श्रीकृष्ण और अर्जुन के सामने भेदन कर दिया। वैशम्पायन मुनि ने कहा कि हे प्रिय जनमेजय जब महान् हाहाकार शब्द की घोषणा हुई तब कृष्णचन्द्रजी ने अर्जुन के सहित निज रूप से प्रकट होकर राजा को जीवित कर कहा हे राजन् ! हम तुम्हारी परीक्षा के लिये ऐसा रूप धारण कर आये थे। आपकी धार्मिक निष्ठा को देख हम अति प्रसन्न हुए हैं।
अब आप हमारे से अभिलषित वस्तु माँगे। तब राजा ने कहा भो भगवन् ! आपके सच्चिदानन्द स्वरूप से भिन्न कोई सार वस्तु नहीं है तब और क्या माँगे। यह राजा मयूरध्वज का धार्मिकाख्यान है। बहुत लोग रास और साङ्गों में ताम्रध्वज का आरे से चीरती बतलाते हैं। ऐसा कहीं मूल ग्रंथों में मिलता नहीं, बहुत से ग्रंथ श्लोक गाथादि की रचना बिना मूल पर्व, खण्ड, काण्ड, अध्याय, श्लोकादि की संख्या से देखे जाते हैं, तिनसे केवल लोगों को भ्रान्ति उत्पन्न करना सिद्ध होता है।