17. भगवान्का-द्वारकापुरीमेलौटना और सोलह हजार एक सौ कन्याओंसे विवाह करना

भगवान्का-द्वारकापुरीमे लौटना

श्रीकृष्णजी बोले – हे जगत्पते ! आप देवराज इन्द्र हैं और हम मरणधर्मा मनुष्य हैं। हमने आपका जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करें ॥  मैंने जो यह पारिजातवृक्ष लिया था इसे इसके योग्य स्थान (नन्दनवन) – को ले जाइये। हे शक्र ! मैंने तो इसे सत्यभामाके कहनेसे ही ले लिया था ॥  और आपने जो वज्र फेंका था उसे भी ले लीजिये; क्योंकि हे शक्र ! यह शत्रुओंको नष्ट करनेवाला शस्त्र आपहीका है॥

इन्द्र बोले – हे ईश ! ‘मैं मनुष्य हूँ’ ऐसा कहकर मुझे क्यों मोहित करते हैं? हे भगवन्! मैं तो आपके इस सगुणस्वरूपको ही जानता हूँ, हम आपके सूक्ष्म- स्वरूपको जाननेवाले नहीं हैं ॥  हे नाथ! आप जो हैं वही हैं, [हम तो इतना ही जानते हैं कि] हे दैत्यदलन! आप लोकरक्षामें तत्पर हैं और इस संसारके काँटोंको निकाल रहे हैं ॥ हे कृष्ण ! इस पारिजात- वृक्षको आप द्वारकापुरी ले जाइये, जिस समय आप मर्त्यलोक छोड़ देंगे, उस समय वह भूर्लोकमें नहीं रहेगा ॥  हे देवदेव ! हे जगन्नाथ! हे कृष्ण ! हे विष्णो! हे महाबाहो ! हे शंखचक्रगदापाणे! मेरी इस धृष्टताको क्षमा कीजिये ॥ 

 तदनन्तर श्रीहरि देवराजसे ‘तुम्हारी जैसी इच्छा है वैसा ही सही’ ऐसा कहकर सिद्ध, गन्धर्व और देवर्षिगणसे स्तुत हो भूर्लोकमें चले आये ॥ हे द्विज! द्वारकापुरीके ऊपर पहुँचकर श्रीकृष्णचन्द्रने [अपने आनेकी सूचना देते हुए ] शंख बजाकर द्वारकावासियोंको आनन्दित किया ॥ तदनन्तर सत्यभामाके सहित गरुडसे उतरकर उस पारिजात- महावृक्षको [सत्यभामाके] गृहोद्यानमें लगा दिया ॥  जिसके पास आकर सब मनुष्योंको अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आता है और जिसके पुष्पोंसे निकली हुई गन्धसे तीन योजनतक पृथिवी सुगन्धित रहती है ॥

सोलह हजार एक सौ कन्याओंसे विवाह करना 

यादवोंने उस वृक्षके पास जाकर अपना मुख देखा तो उन्हें अपना शरीर अमानुष दिखलायी दिया ॥  तदनन्तर महामति श्रीकृष्णचन्द्रने नरकासुरके सेवकोंद्वारा लाये हुए हाथी-घोड़े आदि धनको अपने बन्धुबान्धवोंमें बाँट दिया और नरकासुरकी वरण की हुई कन्याओंको स्वयं ले लिया ॥  शुभ समय प्राप्त होनेपर श्रीजनार्दनने उन समस्त कन्याओंके साथ, जिन्हें नरकासुर बलात् हर लाया था, विवाह किया ॥  श्रीगोविन्दने एक ही समय पृथक्-पृथक् भवनोंमें उन सबके साथ विधिवत् धर्मपूर्वक पाणिग्रहण किया ॥

  वे सोलह हजार एक सौ स्त्रियाँ थीं; उन सबके साथ पाणिग्रहण करते समय श्रीमधुसूदनने इतने ही रूप बना लिये ॥  परंतु उस समय प्रत्येक कन्या ‘भगवान्ने मेरा ही पाणिग्रहण किया है’ इस प्रकार उन्हें एक ही समझ रही थी ॥  जगत्स्रष्टा विश्वरूपधारी श्रीहरि रात्रिके समय उन सभीके घरोंमें रहते थे ॥ 

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