वसुदेव और देवकी के दर्शन
अपने अति अद्भुत कर्मोको देखने से वसुदेव और देवकी को विज्ञान उत्पन्न हुआ देखकर भगवान्ने यदुवंशियों को मोहित करने के लिये अपनी वैष्णवी माया का विस्तार किया ॥ और बोले- “हे मातः ! है पिताजी ! बलरामजी और मैं बहुत दिनोंसे कंस के भय से छिपे हुए आपके दर्शनों के लिये उत्कण्ठित थे, सो आज आपका दर्शन हुआ है ॥ जो समय माता-पिताकी सेवा किये बिना बीतता है वह असाधु पुरुषों की ही आयुका भाग व्यर्थ जाता है ॥ हे तात! गुरु, देव, ब्राह्मण और माता-पिताका पूजन करते रहनेसे देहधारियोंका जीवन सफल हो जाता है ॥ अतः हे तात! कंसके वीर्य और प्रतापसे भीत हम परवशोंसे जो कुछ अपराध हुआ हो वह क्षमा करें ” ॥
कंस की पत्नियों और माताओं का विलाप
राम और कृष्णने इस प्रकार कह माता-पिताको प्रणाम किया और फिर क्रमशः समस्त यदुवृद्धों का यथायोग्य अभिवादन कर पुरवासियोंका सम्मान किया ॥ उस समय कंस की पत्नियाँ और माताएँ पृथिवी पर पड़े हुए मृतक कंस को घेरकर दुःख- शोक से पूर्ण हो विलाप करने लगीं ॥ तब कृष्णचन्द्रने भी अत्यन्त पश्चात्ताप से विह्वल हो स्वयं आँखों में आँसू भरकर उन्हें अनेकों प्रकारसे ढाँढ़स बँधाया ॥
उग्रसेन का बंधन मुक्ति
तदनन्तर श्रीमधुसूदन ने उग्रसेन को बन्धन से मुक्त किया और पुत्र के मारे जाने पर उन्हें अपने राज्यपदपर अभिषिक्त किया ॥ श्रीकृष्णचन्द्र द्वारा राज्याभिषिक्त होकर यदुश्रेष्ठ उग्रसेनने अपने पुत्र तथा और भी जो लोग वहाँ मारे गये। थे, उन सबके और्ध्वदैहिक कर्म किये ॥ और्ध्वदेहिक कर्मोंसे निवृत्त होनेपर सिंहासनारूढ़ उग्रसेनसे श्रीहरि बोले “हे विभो ! हमारे योग्य जो सेवा हो उसके लिये हमें निश्शंक होकर आज्ञा दीजिये ॥
ययातिका शाप होनेसे यद्यपि हमारा वंश राज्यका अधिकारी नहीं है तथापि इस समय मुझ दासके रहते हुए राजाओंको तो क्या, आप देवताओंको भी आज्ञा दे सकते हैं “॥
उग्रसेनसे इस प्रकार कह [धर्मसंस्थापनादि] कार्यसिद्धिके लिये मनुष्य रूप धारण करने- वाले भगवान् कृष्णने वायु का स्मरण किया और वह उसी समय वहाँ उपस्थित हो गया। तब भगवान्ने उससे कहा- ॥
“हे वायो! तुम जाओ और इन्द्रसे कहो कि हे वासव ! व्यर्थ गर्व छोड़कर तुम उग्रसेनको अपनी सुधर्मा नामकी सभा दो ॥ कृष्णचन्द्रकी आज्ञा है कि यह सुधर्मा-सभा नामक सर्वोत्तम रत्न राजाके ही योग्य है इसमें यादवोंका विराजमान होना उपयुक्त है” ॥
शिष्यत्व स्वीकार और शिक्षा
भगवान्की ऐसी आज्ञा होनेपर वायुने यह सारा समाचार इन्द्रसे जाकर कह दिया और इन्द्रने भी तुरन्त ही अपनी सुधर्मा नामकी सभा वायुको दे दी ॥ वायुद्वारा लायी हुई उस सर्वरत्न-सम्पन्न दिव्य सभाका सम्पूर्ण भोग वे यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओंके आश्रित रहकर करने लगे ॥ तदनन्तर समस्त विज्ञानोंको जानते हुए और सर्वज्ञान-
सम्पन्न होते हुए भी वीरवर कृष्ण और बलराम गुरु- शिष्य-सम्बन्ध को प्रकाशित करनेके लिये उपनयन संस्कारके अनन्तर विद्योपार्जनके लिये काशीमें उत्पन्न हुए अवन्तिपुरवासी सान्दीपनि मुनिके यहाँ गये ॥ वीर संकर्षण और जनार्दन सान्दीपनिका शिष्यत्व स्वीकार कर वेदाभ्यासपरायण हो यथायोग्य गुरुशुश्रूषादिमें प्रवृत्त रह सम्पूर्ण लोकोंको यथोचित शिष्टाचार प्रदर्शित करने लगे ॥ हे द्विज ! यह बड़े आश्चर्यकी बात हुई कि उन्होंने केवल चौंसठ दिनमें रहस्य (अस्त्र-मन्त्रोपनिषद्) और संग्रह (अस्त्रप्रयोग)-के सहित सम्पूर्ण धनुर्वेद सीख लिया ॥
सान्दीपनिने जब उनके इस असम्भव और अतिमानुष-कर्मको देखा तो यही समझा कि साक्षात् सूर्य और चन्द्रमा ही मेरे घर आ गये हैं ॥ उन दोनोंने अंगोंसहित चारों वेद, सम्पूर्ण शास्त्र और सब प्रकारकी अस्त्रविद्या एक बार सुनते ही प्राप्त कर ली और फिर गुरुजीसे कहा-“कहिये, आपको क्या गुरुदक्षिणा दें ?” ॥ महामति सान्दीपनिने उनके अतीन्द्रिय- कर्म देखकर प्रभासक्षेत्रके खारे समुद्रमें डूबकर मरे हुए अपने पुत्रको माँगा ॥
पांचजन शंख का उद्धार
तदनन्तर जब वे शस्त्र ग्रहणकर समुद्रके पास पहुँचे तो समुद्र अर्घ्य लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ और कहा-“मैंने सान्दीपनिका पुत्र हरण नहीं किया ॥ हे दैत्यदवन! मेरे जलमें ही पंचजन नामक एक दैत्य शंखरूपसे रहता है; उसीने उस बालकको पकड़ लिया था ॥
समुद्रके इस प्रकार कहनेपर कृष्णचन्द्रने जलके भीतर जाकर पंचजनका वध किया और उसकी अस्थियोंसे उत्पन्न हुए शंखको ले लिया ॥
जिसके शब्दसे दैत्योंका बल नष्ट हो जाता है, देवताओंका तेज बढ़ता है और अधर्मका क्षय होता है ॥ तदनन्तर उस पांचजन्य शंखको बजाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र और बलवान् बलराम यमपुरको गये और सूर्यपुत्र यमको जीतकर यमयातना भोगते हुए उस बालकको पूर्ववत् शरीरयुक्तकर उसके पिताको दे दिया ।
इसके पश्चात् वे राम और कृष्ण राजा उग्रसेनद्वारा परिपालित मथुरापुरीमें, जहाँके स्त्री-पुरुष [उनके आगमनसे] आनन्दित हो रहे थे ॥