भागवतानन्दिनी
1. अनिवार्यता
पातालमाविशतु यातु सुरेन्द्रलोकमा-
रोहतु क्षितिधराधिपति च मेरुम् ।
मन्त्रौषध प्रहरणैश्चकरोतु रक्षां-
यद्भावि तद्भवति नान विचारहेतुः ॥१॥
अर्थ- पातालमाविशत्वित-चाहे पाताल में जाकर छिप जावो, चाहे इन्द्रपुरी में चले जाओ, चाहे सुमेरु पर्वत पर चढ जावो, और चाहे अपनी रक्षा मन्त्र व ओषधियों में करते रहो, परन्तु जो भावी है सो होकर ही रहती है इस से कुछ विचार नहीं करना चाहिये ॥
2. विभिन्न वर्गों की शक्ति
मूर्खस्य च बलं मौनं तस्करस्यानृतं बलम् ।
दुर्बलस्य बलं राजा बालानां रोदनं बलम् ॥२॥
अर्थ- मूर्खस्येति मूर्ख का मौन, चोर का झूठ, दुर्बल का राजा और बालको का रोना ही बल है ॥
3. अनित्य अन्न
यत्प्राता संस्कृतं चान्नं सायं सद्यो विनश्यति ।
तदीयरसनिष्पन्ने कार्य का नाम नित्यता ॥३॥
अर्थ-यत्प्रात इति-जो अन्न प्रातः काल बनाकर खा लेते हैं वहीं अन्न शरीर में जाकर सायंकाल में नष्ट हो जाता है। फिर उस अन्न से उत्पन्न रस से जो यह शरीर पालन किया जाता है वह शरीर नित्य कैसे हो सकता अर्थात् शरीर का परिपोषक अन्न ही जब अनित्य है तो उस से यह शरीर भला कैसे नित्य रह सकता है ॥
4. अनित्य शरीर
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्म संग्रह ॥४॥
अर्थ – अनित्यानीति यह शरीर अनित्य है और यह धन ऐश्वर्य्यादि सब विनाशी हैं और मृत्यु बहुत समीप हैं ऐसे विचार कर धर्म का संग्रह करना चाहिए ॥
5. निराधि और निर्व्याधि जीवन
अव्याधिना शरीरेण मनसा च निराधिना ।
पूरयन्नथिनामाशां त्वं जीव शरदां शतम् ॥५॥
अर्थ- जो जीव निर्व्याधि शरीर से निराधि मन से अर्थियों की आशाओं को पूर्ण कर देते हैं वह जीव सौ वर्ष तक जीवें ॥
6. गुण दोष
स्फटिकस्य गुणो योसौ स एव याति दोषताम् ।
आश्रयादयमत्यंत निर्मलोपि मलीमसा॥६॥
अर्थ – स्फटिकस्येति-स्फटिक (बिल्लौर) के जो गुण हैं। वही उसका दोष हैं । यह निर्मल आत्मा अपने आश्रयरूप शरीर के दोष से मलीन भास होता है॥
7. महादेव की विभूतियाँ
जटायां गंगास्ते विधुरपि गले पन्नगपतिः-
शिवास्ते वामोरौ विलसति च कण्ठेहि गरलम् ।
करे शूलं तद्वत्स्रगपि नृकरोटी परिचिता-
गुणैरेतैर्भासि त्वमिति तव देहं श्रय अहो ॥७॥
अर्थ- जटायामिति – हे महादेव जी । गंगा आपकी जटा में और मस्तक पर चन्द्रदेव, कण्ड में सर्प, पार्वती देवी बामाङ्ग में, और गले में गरल विष, हाथ में त्रिशूल और मुंडमाला गले में यह सब विभूति आपको होते हुए भी आप शिव अर्थात् कल्याणकारी ही प्रसिद्ध हो ॥
8. कलियुग के लक्षण
एकाद्देशादनेकजनुषां संख्या च नो ज्ञायते ।
तस्मिन्योप्यनुरज्जते मतिमांस्त्रीबन्धु मित्रेष्वपि ॥
सारासारविचारमंथनविधौ नो युज्यते बुद्धितो ।
जीवन्मुक्ततया वदन्ति निजकं ह्येतत्कलेर्लक्षणम् ॥८॥
अर्थ – एकादिति – एक शरीर के वश से अनेक जन्मों की कुछ गणना नहीं की जाती तिस पर भी बुद्धिमान जन स्त्री, मित्र और अपने बन्धुओं में भी प्रेम करते हैं और बुद्धि से सार और असार को न जानते हुए भी अपने आप को जीवन्मुक्त कहते हैं बस यही कलियुग के लक्षण हैं ॥
9. मूढ़ता और पांडित्य
ग्रन्थानभ्यस्यभूयः परममदयुतो मूढतां प्राप्य नित्यं ।
विद्वत्तां प्राप्य नूनं प्रविचरित भवे ब्रह्म तत्त्वं न बुद्धम्
पाण्डित्यं चोपदेशे परहृदि विदिते स्वात्मधीनवबद्धा।
बद्धोजालैनितांतंशकटधुरि कृतः काष्ठदामाऽभिधानः ॥९॥
अर्थ- ग्रन्थानिति – बहुत से ग्रन्थ पढ़कर अभिमान वश मूढ़ ही रह गया और विद्वान् बन संसार भ्रमण करते हुए ब्रह्मतत्व को नहीं जान सका, और दूसरों को उपदेश के लिये पंडित बन बैठा; परन्तु अपनी बुद्धि को न बांध सका, हे जीव ! तुम अनेक जालों से बंधे हुए गाड़ी के धुरिकाष्ठ के समान प्रतीत होते हो ॥
10. कुसंगति और वैराग्य
दुःसङ्गो रजसा युतास्तु मनुजः श्रृङ्गारहारैर्युता ।
नारीणं गुणबोधनं प्रकथनं चाष्टांगसंलापनम् ॥
कामक्रोधमदादिकं हि सततं त्याज्यं सतां सौख्यदं ।
वैराग्यं भज भजानं दिविषदां संगच्छ नाकास्पदम्॥१०॥
अर्थ-दुस्संग इति-हे जीव ! तुम कुसंगति, रजो गुणी मनुष्य, श्रृङ्गार, हार, स्त्रियों की गुण कथा, आठ प्रकार का मैथुन, काम, क्रोध, मद, और लोभ यह सब छोड़ दो क्योंकि इनकी निवृत्ति ही सुखदायक होती हैं, इस लिये इनको छोड़ वैराग्य को धारण कर, देवताओं के स्थान स्वर्ग में निवास करो ॥
11. वीर्य रक्षा
तं रक्षन्ति त्रयो देवा वीर्य रक्षति यो नरः ।
स्वजेन्मोहात्कुयोन्यां यो देवाः कुप्यन्ति तं जनम ॥११॥
अर्थ – तमिति – जो पुरुष वीर्य्यं की रक्षा करते हैं उनकी रक्षा ब्रह्मा, विष्णु और महेश करते हैं, यदि मोह से कोई कुयोनी में वीर्य्य निक्षेप करता है, उस पर तीन देवता क्रुद्ध हो जाते हैं ॥
12. कुसंगति का प्रभाव
दुःसंगाच्चित्तचांचल्यं भवतीति सुनिश्चितम ।
पयोपि शौण्डिके गेहे वारुणीत्यभिधीयते ॥१२॥
अर्थ-दुरसङ्गादिति कुसंगति से ठीक चित्त चंचल हो जाता है अर्थात् स्थिर नहीं रहता जैसे कलालन के घर दूध भी मद्य कहा जाता है ॥
13. स्त्री का संग
सुन्दरी युवतिर्नारी मनः कर्पति दर्शनात् ।
तस्याः संगः परित्याज्या प्रत्यक्षविषभाजनम् ॥१३॥
अर्थ- सुन्दरीति–सुन्दर स्वरूप वाली और यौवनावस्था वाली स्त्री मन को खींच लेती है । इस लिये उसका संग न करे क्योंकि वह प्रत्यक्ष में ही विष का पात्र है ॥
14. विषय सुख और प्रभु की कृपा
अपिजानामि गोविन्द भवभोगा हि दुष्कराः ।
तथापि पूर्वपापाच्च प्रवृत्तिर्मम विद्यते ।
तत्कुण्ठितं करोम्यद्य विषये रुचितो गतम् ।
नमस्ते भगवन्भूयो रक्ष तद्यत्नतो विभो ॥१४॥
अर्थ – अपीति है गोबिन्द मैं जानता हूं कि इस संसार के विषय सुख दुःखदाई हैं तो भी पूर्व जन्म के पापों के कारण उन के सुख में लिप्त हो जाता हूं और अब मैं अपने मनको जो पुनः विषयों में लगना चाहता है, उसको विषयों से हटाता हूँ, हे भगवान ! आपको प्रणाम करता हूँ, आप मेरी रक्षा करो ॥
15. आत्म-संयम
देहो भवेद्रथो यत्ररथी देही स्वयं तथा ।
मनस्सारथिकं ज्ञेयमिन्द्रियाणि हयास्तथा ।
तान्नियम्य तथा सूतः सुमार्गेण नयेत्पुनः ।
स्यंदनस्थं तथा जीवं परमात्मनि योजयेत् ॥१५॥
अर्थ-देह इति-इस जगत में शरीर रथ और आत्मा उस में बैठे हुए पुरुष के समान और मन उसका सारथी, इन्द्रियें उसके घोड़े हैं इस प्रकार सत्पुरुष को चाहिये कि वह इन्द्रियरूपी घोड़ों को कुमार्ग से रोक सुमार्ग पर लावे और रथ में बैठे हुए इस जीव को परमात्मा से जोड़े ॥
16. स्त्री का प्रभाव
पुण्यानां कर्तरी नारी पापानां च प्रवर्द्धिनी ।
शांत्य संमार्जनी प्रोक्ता तस्याः पायाज्जनार्दनः ।
विचारे ब्रह्मणो नित्य चेशस्य परमात्मनः ।
स्त्रीणां संग परित्याज्याः स्त्रियोहिप्रतिबंधनम् ॥१६॥
अर्थ – पुण्यानामिति इस संसार में स्त्री पुण्य की कैंची, पाप प्रवर्द्धक और शान्ति की बुहारी है अतएव भगवान ही इस से बचाये और ब्रह्म परमात्मा के विचार में स्त्री रूप विघ्न को दूर करे क्योंकि इस उत्तम ज्ञान में स्त्री ही प्रति- बन्धक होती है ॥
17. भूत का कार्य
कार्य कृत्वा तु श्रेष्ठस्य पिशाचो ऽयं तत्र आगतः ।
कार्यातरं प्रयच्छ त्वं न चेद्वातं करोमि ते ।
भयाद्भूमि निखन्याथ स्तम्भञ्चारोप्य वै दृढम् ।
आरोहणं पुनश्चास्मिन्नवरोहणकं कुरु ।
धनिना वै वंश नीत्वा प्राणरक्षा यथा कृता ।
तथा मनो वंश नीत्वा जिज्ञासुः परमं पदम् ॥१७॥
अर्थ- कार्यमिति-उस श्र ेष्ठ पुरुष का कार्य्यं कर शीघ्र ही वह भूत उस स्थान पर आ गया और बोला कि हे श्रेष्ठ कार्य्यं बतला ! नहीं तो अभी तुम्हें मारता हूं। यह सुनकर ब्राह्मण ने भय से भूमि में एक खम्भा गाड़ा और उस भूत से कहा कि तुम प्रति दिन इस खम्भे पर चढ़ते और उतरते रहो ॥
18. भगवान का स्मरण
वंदे गणपति देवीं रामं राजीवलोचनम।
यत्कृपावशतो याम्नि विघ्नानि च पलायनम ॥१८॥
अर्थ- बन्द इति मैं, देवी जी, गणेश जी वा उन कमल- नेत्र राम जी के चरणों में प्रणाम करता हूं जिनकी कृपा से सब विघ्न दूर भाग जाते हैं ॥
19. विद्या का महत्त्व
सभाजितः सुमश्नाच्च कंठस्थाच्च विशेषतः ।
सभां स्वयं जयेन्मर्त्य: सुयशश्चाधिगच्छति ॥१९॥
अर्थ-सभाजितिइति-शास्त्रों के आलोडन और विद्या को कंठस्थ करने से प्रायः पुरुष सभा को स्वयं जींत लेता है। वह यश को पाता है ॥
20. शुद्धि और मुक्ति
ततु शुद्धं विधायैव मनः शुद्धं तथैव च ।
तीर्थ स्नानयशो नित्य’ जगज्जानाति निश्चितम् ।
वाराणसीं प्राप्य यथोच्चनीचा
मोक्षं लभन्ते श्रुतिमार्गगीतम् ।
चिज्जाडो थिविभेदबोधं
ग्रन्थं तथाऽऽलोक्य प्रयाति मुक्तिम ।
मोक्षकर्ती क्षितौ काशी, शास्त्रैरेतत्सुनिश्चितम् ।
शृणुध्वम्भो महाभागा मानं तत्र वदाम्यहम् ॥२०॥
अर्थ-तनुमिति – हे सज्जनों! शरीर शुद्धि, मन शुद्धि और तीर्थ स्नान पर स्नानादिक यह सब संसार जानता ही है और काशीपुरी में जैसे उंच नीच सब प्रकार के पुरुष मुक्त हो जाते हैं ऐसे ही श्रुति और शास्त्र सब पुकारते हैं और चित्त वा जड़ की ग्रंथी को तोड़ने वाले शास्त्रों को देख कर भी मुक्ति हो जाती है । इस पृथ्वी पर श्री काशी धाम ही मुक्तिप्रद है । ऐसा शास्त्रों का विचार है और इसका प्रमाण मैं आपको देता हूं, आप सब सुनिए ॥
21. मुक्ति के प्रमाण
नरदेवास्थितेर्लोकौ तयः काल श्चतुर्युगाः ।
शास्त्रवेदाश्च संत्येते प्रमाणान्यून विंशतिः ॥२१॥
अर्थ – नर इति इस मुक्ति में देवलोक वा भूलोक यह दोनों लोक श्रोर भूत, भविष्य, वर्तमान यह तीन काल और सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग यह चार युग और व्याकरण, न्याय, योग, मीमांसा, सांख्य और वेदान्त यह छः शास्त्र और ऋग, यजु:, साम और अथर्व यह चारों वेदों सहित 19 प्रमाण और कारण हैं ॥