105. भूगोलका विवरण

भूगोल का विवरण

सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ और देवता की पुरियाँ

 जितने भी सागर , द्वीप , वर्ष , पर्वत , वन , नदियाँ और देवता आदिकी पुरियाँ हूँ , उन सबका जितना – जितना परिमाण है , जो आधार है , जो उपादान – कारण है और जैसा आकार है , वह सब आप यथावत् वर्णन कीजिये ॥

द्वीप और समुद्र

श्रीपराशरजी बोले-  सुनो , मैं इन सब बातोंका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ , इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो सौ वर्षमें भी नहीं हो सकता ॥  जम्बू , प्लक्ष , शाल्मल , कुश , क्रौंच , शाक और सातवा पुष्कर- ये सातों द्वीप चारों ओरसे खारे पानी , इक्षुरस , मदिरा , घृत , दधि , दुग्ध और मीठे जलके सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं ॥

जम्बूद्वीप

 जम्बूद्वीप इन सबके मध्यमें स्थित है और उसके भी बीचों – बीचमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत योजन है ॥ इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है और नीचेकी ओर यह सोलह हजार योजन पृथिवीमें घुसा हुआ है । इसका विस्तार ऊपरी भागमें बत्तीस हजार योजन है तथा नीचे ( तलैटीमें ) केवल सोलह हजार योजन है । इस प्रकार यह पर्वत इस पृथिवीरूप कमलकी कर्णिका ( कोश ) के समान है ॥ इसके दक्षिणमें हिमवान् , हेमकूट और निषध तथा उत्तरमें नील , श्वेत और श्रृंगी नामक वर्षपर्वत हैं [ जो भिन्न – भिन्न वर्षोंका विभाग करते हैं ] ॥

उनमें बीचके दो पर्वत [ निषध और नील ] एक – एक लाख योजनतक फैले हुए हैं , उनसे दूसरे – दूसरे दस – दस हजार योजन कम हैं । [ अर्थात् हेमकूट और श्वेत नब्बे नब्बे हजार योजन तथा हिमवान् और शृंगी अस्सी – अस्सी सहस्र योजनतक फैले हुए हैं । ] वे सभी दो – दो सहस्र योजन ऊँचे और इतने ही चौड़े हैं ॥  मेरुपर्वतके दक्षिणकी ओर पहला भारतवर्ष है तथा दूसरा किम्पुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष है ॥ उत्तरकी ओर प्रथम रम्यक , फिर हिरण्मय और तदनन्तर उत्तरकुरुवर्ष है जो [ द्वीपमण्डलकी सीमापर होनेके कारण ] भारतवर्षके समान [ धनुषाकार ] है ॥

सुमेरु पर्वत और इसके चारों ओर के पर्वत

इनमें से प्रत्येकका विस्तार नौ – नौ हजार योजन है तथा इन सबके बीचमें इलावृतवर्ष है जिसमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत खड़ा हुआ है यह इलावृतवर्ष सुमेरुके चारों ओर नौ हजार योजनतक फैला हुआ है । इसके चारों ओर चार पर्वत हैं ॥ ये चारों पर्वत मानो सुमेरुको धारण करनेके लिये ईश्वरकृत कीलियाँ हैं [ क्योंकि इनके बिना ऊपरसे विस्तृत और मूलमें संकुचित होनेके कारण सुमेरुके गिरनेकी सम्भावना है ] । इनमेंसे मन्दराचल पूर्वमें , गन्धमादन दक्षिणमें , विपुल पश्चिममें और सुपार्श्व उत्तरमें है । ये सभी दस – दस हजार योजन ऊँचे हैं ॥ इनपर पर्वतोंकी ध्वजाओंके समान क्रमशः ग्यारह – ग्यारह सौ योजन ऊँचे कदम्ब , जम्बू , पीपल और वटके वृक्ष हैं ॥

इनमें जम्बू ( जामुन ) वृक्ष जम्बूद्वीपके नामका कारण है । उसके फल महान् गजराजके समान बड़े होते हैं । जब वे पर्वतपर गिरते हैं तो फटकर सब ओर फैल जाते हैं ॥ उनके रससे निकली जम्बू नामकी प्रसिद्ध नदी वहाँ बहती है , जिसका जल वहाँके रहनेवाले पीते हैं ॥ उसका पान करनेसे वहाँके शुद्धचित्त लोगोंको पसीना , दुर्गन्ध , बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता ॥ उसके किनारेकी मृत्तिका उस रससे मिलकर मन्द – मन्द वायुसे सूखने पर जाम्बूनद नामक सुवर्ण हो जाती है , जो सिद्ध पुरुषोंका भूषण है ॥ मेरुके पूर्वमें भद्राश्ववर्ष और पश्चिममें केतुमालवर्ष है तथा इन दोनोंके बीचमें इलावृतवर्ष है ॥

जम्बूद्वीप के वन और सरोवर

इसी प्रकार उसके पूर्वकी ओर चैत्ररथ , दक्षिणकी ओर गन्धमादन , पश्चिमकी ओर वैभ्राज और उत्तरकी ओर नन्दन नामक वन है ॥ तथा सर्वदा देवताओंसे सेवनीय अरुणोद , महाभद्र , असितोद और मानस ये चार सरोवर हैं ॥  शीताम्भ , कुमुन्द , कुररी , माल्यवान् तथा वैकंक आदि पर्वत [ भूपद्मकी कर्णिकारूप ] मेरुके पूर्व – दिशाके केसराचल हैं ॥ त्रिकूट , शिशिर , पतंग , रुचक और निषाद आदि केसराचल उसके दक्षिण ओर हैं ॥ शिखिवासा , वैडूर्य , कपिल , गन्धमादन और जारुधि आदि उसके पश्चिमीय केसरपर्वत हैं ॥ 

मेरु पर्वत के केसराचल

मेरुके अति समीपस्थ इलावृतवर्षमें और जठरादि देशोंमें स्थित शंखकूट , ऋषभ , हंस , नाग तथा कालंज आदि पर्वत उत्तरदिशाके केसराचल हैं ॥

ब्रह्मपुरी और देवताओं के नगर

मेरुके ऊपर अन्तरिक्षमें चौदह सहस्र योजनके विस्तारवाली ब्रह्माजीकी महापुरी ( ब्रह्मपुरी ) है ॥ उसके सब ओर दिशा एवं विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालोंके आठ अति रमणीक और विख्यात नगर हैं ॥ विष्णुपादोद्भवा श्रीगंगाजी चन्द्रमण्डलको चारों ओरसे आप्लावित कर स्वर्गलोकसे ब्रह्मपुरीमें गिरती सीता , अलकनन्दा हैं ॥ वहाँ गिरनेपर वे चारों दिशाओंमें  सीता , अलकनन्दा , चक्षु और भद्रा नामसे चार भागोंमें विभक्त हो जाती हैं ॥

उनमेंसे सीता पूर्वकी ओर आकाश मार्गसे एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर जाती हुई अन्तमें पूर्वस्थित भद्राश्ववर्षको पारकर समुद्र में मिल जाती है ॥ इसी प्रकार ,  अलकनन्दा दक्षिण दिशाकी ओर भारतवर्षमें आती है और सात भागोंमें विभक्त होकर समुद्रमें मिल जाती है ॥ चक्षु पश्चिमदिशाके समस्त पर्वतोंको पारकर केतुमाल नामक वर्षमें बहती हुई अन्तमें सागरमें जा गिरती है ॥ तथा भद्रा उत्तरके पर्वतों और उत्तरकुरुवर्षको पार करती हुई उत्तरीय समुद्रमें मिल जाती है ॥ माल्यवान् और गन्धमादनपर्वत उत्तर तथा दक्षिणकी ओर नीलाचल और निषधपर्वततक फैले हुए हैं । उन दोनोंके बीचमें कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है ॥ द्रादि मर्यादापर्वतोंके बहिर्भागमें स्थित भारत , केतुमाल , भद्राश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्मके पत्तोंके समान हैं ॥

जम्बूद्वीप के पर्वतों के बीच की भूमि

जठर और देवकूट- ये दोनों मर्यादापर्वत हैं जो उत्तर और दक्षिणकी ओर नील तथा निषधपर्वततक फैले हुए हैं ॥ पूर्व और पश्चिमकी ओर फैले हु हुए गन्धमादन और कैलास – ये दो पर्वत जिनका विस्तार अस्सी योजन है , समुद्रके भीतर स्थित हैं ॥ पूर्वके समान मेरुकी पश्चिम ओर भी निषध और पारियात्र नामक दो मर्यादापर्वत स्थित हैं ॥ उत्तरकी ओर त्रिशृंग और जारुधि नामक वर्षपर्वत हैं । ये दोनों पूर्व और पश्चिमकी ओर समुद्रके गर्भमें स्थित हैं ॥

इस प्रकार , तुमसे जठर आदि मर्यादापर्वतोंका वर्णन किया , जिनमेंसे दो – दो मेरुकी चारों दिशाओं में स्थित हैं ॥ मेरुके चारों ओर स्थित जिन शीतान्त आदि केसरपर्वतोंके विषयमें तुमसे कहा था , उनके बीचमें सिद्ध चारणादिसे सेवित अति सुन्दर कन्दराएँ हैं ॥ उनमें सुरम्य नगर तथा उपवन हैं और लक्ष्मी , विष्णु , अग्नि एवं सूर्य आदि देवताओंके अत्यन्त सुन्दर मन्दिर हैं जो सदा किन्नरश्रेष्ठोंसे सेवित रहते हैं ॥ उन सुन्दर पर्वत – द्रोणियोंमें गन्धर्व , यक्ष , राक्षस , दैत्य और दानवादि अहर्निश क्रीडा करते हैं ॥  ये सम्पूर्ण स्थान भौम ( पृथिवीके ) स्वर्ग कहलाते हैं ; ये धार्मिक पुरुषोंके निवासस्थान हैं । पापकर्मा पुरुष इनमें सौ जन्ममें भी नहीं जा सकते ॥ 

श्रीविष्णुभगवान् भद्राश्ववर्षमें हयग्रीवरूपसे , केतुमालवर्षमें वराहरूपसे और भारतवर्षमें कूर्मरूपसे रहते हैं ॥ तथा वे भक्तप्रतिपालक श्रीगोविन्द कुरुवर्षमें मत्स्यरूपसे रहते हैं । इस प्रकार वे सर्वमय सर्वगामी हरि विश्वरूपसे सर्वत्र ही रहते हैं । वे सबके आधारभूत और सर्वात्मक हैं ॥  किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष हैं उनमें शोक , श्रम , उद्वेग और क्षुधाका भय आदि कुछ भी नहीं है ॥ वहाँकी प्रजा स्वस्थ , आतंकहीन और समस्त दुःखोंसे रहित है तथा वहाँके लोग दस – बारह हजार वर्षकी स्थिर आयुवाले होते हैं ॥ उनमें वर्षा कभी नहीं होती , केवल पार्थिव जल ही है और न उन स्थानोंमें कृतत्रेतादि युगकी ही कल्पना है ॥  इन सभी वर्षोंमें सात – सात कुलपर्वत हैं और उनसे निकली हुई सैकड़ों नदियाँ हैं ॥

 

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