18. माता-पिता साधु शिक्षा

माता-पिता का कर्तव्य

हरि नाम, दान, धर्मादि आदि की शिक्षा बालकों को देना सर्वप्रथम माता-पिता का कर्त्तव्य है। शास्त्र आदि में भी इस सम्बन्ध में कथन आये हैं।

भागवत में राजा उत्तानपाद का वर्णन

जैसे-भागवत में राजा उत्तानपाद का वर्णन आया है, जिसमें सुनीति रानी के पुत्र ध्रुव को जब राजा ने अपनी गोद में बैठाना चाहा तब सुरुचि रानी ने उसे अलग कर अपने पुत्र उत्तम को राजा की गोद में बैठाकर बालक ध्रुव को नीचे गिराते हुए बोली कि तुमने निर्भाग्य सुनीति की कोख से जन्म लिया है इसलिए तुम राजा की गोद में बैठने योग्य नहीं हो। ध्रुव ने यह बर्ताव अपनी माता सुनिति को सुनाकर कहा कि हे मां ! आज मेरे दुःख की कोई सीमा नहीं है।

सुनीति ने अपने पुत्र से कहा कि हे पुत्र ! मैं निर्भाग्य तेरे इस असीम दुःख को दूर न कर सकूंगी और तुम भी केवल रोने मात्र से दूर न कर सकोगे। अस्तु हे पुत्र ! जिस पदम्लोचन भगवान के बिना दूसरा इस संसार में तेरे इस असीम दुःख का नाश करने वाला नहीं है । संसारी पुरुषों द्वारा खोजी जाने वाली लक्ष्मी भी स्वयं हाथ में पदम् लेकर उन्हें ही खोजती है इसलिये हे पुत्र ! उस दुःख छेदक विष्णु की आप खोज करो। ऐसा सुनकर बालक ध्रुव ने जब तक हरि नहीं मिले तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करने की प्रतिज्ञा कर वन को चले जाते हैं।

नारदजी और ध्रुव की भेंट

रास्ते में नारदजी के मिलने पर ध्रुव ने पूरी वार्ता सुना दी, तब नारदजी ने कहा, “हे ध्रुव! तुम पांच वर्ष के बालक होकर माता के तिरस्कारी वचन भी सहन नहीं कर सकते हो और जिस विष्णु से तुम मिलना चाहते हो सो वज्र के समान कठोर हृदय वाला है, दुसाध्य है इसलिए तुम वापिस घर को लौट जाओ”, लेकिन ध्रुव के स्पष्ट मना करने पर कि बिना हरि के मिले मैं घर नहीं जाऊंगा। नारदजी ने हरि प्रीति से ध्रुव को गोद में लेकर उसे मथुरा जाने को कहा जहां पर तुम्हें हरि दर्शन शीघ्र हो सकेंगे।

“जो पुरुष अपना कल्याण चाहता है, उसको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हेतु एक हरि विष्णु का पादसेवन ही करना चाहिए। “

भगवान श्रीकृष्ण का कथन

गोपालोत्तर तापिन्युपनिषद् में भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा से कहा है कि हे ब्रह्मन् ! शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला, धारण कर मैं मथुरा में सर्वदा वास करूंगा।

बालक ध्रुव की तपस्या

बालक ध्रुव ने, जैसा नारदजी ने बताया वैसा आसन लगाकर “ओम् नमो भगवते वासुदेवाय” यह मन्त्र एकाग्रचित्त होकर जाप किया। छः माह से पहले ही विष्णु ने तुष्ट होकर ध्रुव को दर्शन दिये और ध्रुव को राज्य भोग देकर कहा कि आपके पिता आपको खोज रहे हैं। आप जाकर पिता का मनोरथ पूरा करें।

मदालसा का उपदेश

मार्कण्डेय पुराण में यह भी वर्णन आया है कि मदालसा अपने पुत्र कोलोरी देती हुई (झुलाती-खिलाती हुई) संसारी, दुःखहारी, मोक्षकारी शिक्षा देती है। हे पुत्र ? तू शुद्ध स्वरूप है यह मायाकृत नामरूप आदि तेरे नहीं हैं। यह सर्व तेरी कल्पना से रचे हुए हैं। अभी देखने में आते हैं।

सदा रहने वाले नहीं हैं और अनित्य जड़ दुःख रूप यह पंच भुतात्मक देह तेरा नहीं है और त्वं सुख रूप इस दुःख रूपी देह का नहीं है ! हे पुत्र अहंता, ममता और माया से रहित हुआ तू किस हेतु से रोता है। संसार का स्वप्न का कारण मोह और अज्ञान रूपी निद्रा को त्याग कर रुदन करने का कोई हेतु नहीं है। इस प्रकार मदालसा ने ऐसी मोक्षकारी शिक्षा और उपदेश से बहुत से अपने पुत्रों को जीवन मुक्त कर दिया।

भगवान दत्तात्रेय का उपदेश

भगवान् दत्तात्रेय ने शिवपुराण की शिक्षा कही, हे अलर्क ! जिस दुःखहारी सुखकारी रहस्य को करोड़ों ग्रंथों में कथन किया है उस रहस्य की मैं अर्ध श्लोक में कहता हूं यह मेरा है यह मेरा है, ऐसी ममता ही महान संसार के दुःख को देने वाली है और सुख स्वरूप आत्मा से भिन्न मेरा कोई भी द्रव्य नहीं है ऐसी निर्ममता ही संसार में परम सुख स्वरूप है।”

गरुड़ पुराण में माता-पिता का कर्तव्य

गरुड़ पुराण में कहा है कि जिस माता पिता ने अपने बालकों को शुभ शिक्षा न पढ़ाई वे माता पिता बालकों के बैरी और शत्रु कहे जाते हैं। क्योंकि जैसे हंसों की पंक्ति में बैठकर बगुला शोभा नहीं पाता हैं वैसे ही माता-पिता से अशिक्षित मूर्ख बालक बुद्धिमान विद्वान पुरुषों की सभा में बैठकर शोभा नहीं पाता है।

वाल्मीकि रामायण में दशरथ का कथन

वाल्मीकि रामायण में कहा है कि श्री रामचन्द्रजी के वन में जाने पर कौशल्या के गृह में रोते हुए राजा दशरथ ने राम की माता से कहा कि मैं बालक हूँ राम की माता ने कहा आप वृद्ध होकर भी बालक कह कर मुझ से मजाक करते हो। तब राजा दशरथजी ने कहा कि मैं शास्त्र की दृष्टि से तो बालक ही हूँ क्योंकि जैसे सर्व कर्मों के आरम्भ में द्रव्य केन्यून और अधिक खर्च को और, कर्मों के फलों को और कर्मों में हिंसा आदि दोषों को जो पुरुष नहीं जानता है, सो बालक ही कहा जाता है। ऐसा मैं हूँ।

मूर्ख पुरुष का उदाहरण

जैसे किसी मूर्ख पुरुष ने फल की इच्छा से पुष्पों की शुभ अशुभता देखकर सर्व आम के वन को छेदन करा दिया और फूल मात्र की शोभा देखकर पलाश के वन को जल से सींचा, परन्तु जब दूसरों के आम वृक्षों में अमृत के समान फल आये और अपने पलाशों में निस्सार फल आये को देखकर वो मूर्ख पुरुष पुनः पुनः सोचता है (पछताता है) ऐसा ही मैंने श्री रामचन्द्र आनन्द कौशलचन्द्र को वन में भेजना, रूपी आम वन को छेदन करा है और विषय सुख रूपी फूल शोभा से मृत्यु फल देने वाली कैकयी रूपी पलाश वन को सींचा है।

MEGHA PATIDAR
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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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