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मीराबाई

मीराबाई

मीराबाई का जीवन और भक्ति

1. परिचय

मीराबाई का नाम कौन नहीं जानता ? जिस भक्तशिरोमणि राजपूतरमणीकी गुण-गाथाको गा-गाकर आज लाखों जन भगवत्प्रेम को प्राप्त होते हैं, जिसके प्रेमपूरित पुनीत पदोंका गानकर अगनित नर-नारी भक्तिरसके पावन प्रवाह में बह जाते हैं, जिस प्रातःस्मरणीया देवीके अनुपम चरित्रका अनुसरण कर प्रेमी भक्त अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके नव-नील-नीरद मुख-कमलका दर्शन कर कृतार्थ होते हैं, उस भगवत्प्रेम की जीती-जागती मूर्ति का किंचित् यशोगान कर आज यह अधम लेखक भी कृतार्थ होना चाहता है; क्योंकि भगवान् भक्त-यश-वर्णन और कीर्तनसे जितने प्रसन्न होते हैं उतने अपने गुणोंके कीर्तनसे नहीं होते ।

2. प्रारंभिक जीवन

भारतकी नारी जाति को धन्य करनेवाली भक्तिपरायणा मीराबाई का जन्म मारवाड़ के कुड़की नामक ग्राममें संवत् १५५८ के लगभग हुआ था। इनके पिताका नाम राठौर श्रीरतनसिंहजी था। मीरा अपने पिता-माताकी एकलौती लड़की थी। बड़े लाड़ चावसे पाली गयी थी। मीराके चित्तकी वृत्तियाँ बचपन से ही भगवान की ओर झुकी हुई थीं। एक दिन उनके घरमें एक साधु आये, साधुके पास भगवान्‌की एक सुन्दर मूर्ति थी।

मीराने साधु से कहकर वह मूर्ति ले ली। साधने मूर्ति देकर मीरा से कहा कि ये भगवान् हैं, इनका नाम श्रीगिरधरलालजी है। तू प्रतिदिन प्रेम के साथ इनकी पूजा किया कर।’ सरलहृदया बालिका मीरा सच्चे मनसे भगवान्की सेवा करने लगी। मीरा इस समय दस वर्ष की थी, परंतु दिनभर उसी मूर्तिको नहलाने, चन्दन- पुष्प चढ़ाने, भोग लगाने और आरती उतारने आदिके काममें लगी रहती। सूरदासजीका एक पद उसने याद कर लिया और उसे भगवान् के सामने बारम्बार गाया करती ।

मीरा यह पद गाते-गाते कई बार बेहोश हो जाती। शायद उसे ‘छवि-राशि श्यामघन’ के दर्शन होते होंगे !

3. विवाह

इस समय मीरा स्वयं भी पद-रचना करने लगीं, जब वह स्वरचित सुन्दर पदोंको भगवान्‌के सामने मधुर स्वरोंमें गाती तो प्रेमका प्रवाह-सा बह जाता। सुननेवाले नर-नारियोंके हृदयमें प्रेम उमड़ने लगता। इस प्रकार भाव-तरङ्गोंमें पाँच साल बीत गये। संवत् १५७३ में मीराका विवाह चित्तौड़के सिसोदिया वंशमें महाराणा सांगाजीके ज्येष्ठ कुमार भोजराजके साथ सम्पन्न हुआ। विवाहके समय एक अद्भुत घटना हुई। कृष्णप्रेमकी साक्षात् मूर्ति मीराने अपने श्यामगिरधरलालजीको पहलेसे ही मण्डपमें विराजित कर दिया और कुमार भोजराजके साथ फेरा लेते समय श्रीगिरधरगोपालजी के साथ भी फेरे ले लिये। मीराने समझा कि आज भगवान् के साथ मेरा विवाह भी हो गया।

मीराकी माताको इस घटनाका पता था, उसने मीरासे कहा कि ‘पुत्री ! तैने यह क्या खेल किया ?’ मीराने मुसकराते हुए कहा- मीराके भगवत्प्रेमके इस अनोखे भावको देखकर माता बड़ी प्रसन्न हुई । जब सखियोंको इस बातका पता लगा तो उन्होंने दिल्लगी करते हुए मीरासे गिरधरलालजीके साथ फेरे लेनेका कारण पूछा। मीराने कहा- प्राणोंकी पुतली मीराको माता-पिताने दहेजमें बहुत-सा धन दिया; परंतु मीराका मन उदास ही देखा; तो माताने पूछा कि ‘बेटी ! तू क्या चाहती है ? तुझे जो चाहिये सो ले लो।’ मीराने मातासे कहा-

भक्त को अपने भगवान्‌ के अतिरिक्त और क्या चाहिये ? माताने बड़े प्रेमसे गिरधरलालजी का सिंहासन मीरा की पालकी में रखवा दिया। कुमार भोजराज नववधू को लेकर राजधानी में आये। घर-घर मङ्गल बधाइयाँ बँटने लगीं। रूप-गुणवती बहूको देखकर सास प्रसन्न हो गयी। कुलाचारके अनुसार देवपूजा की तैयारी हुई, परंतु मीराने कहा कि मैं तो एक गिरधरलालजीके सिवा और किसी को नहीं पूजूँगी। सास बड़ी नाराज हुई, मीराको दो-चार कड़ी-मीठी भी सुनायी, परंतु मीरा अपने प्रणपर अटल रही।

4. भक्तिपूर्ण जीवन

राजपूताने में प्रतिवर्ष गौरीपूजन हुआ करता है। छोटी-छोटी लड़कियाँ और सुहागिन स्त्रियाँ सुन्दर रूप गुणसम्पन्न वर और अचल सुहागके लिये बड़े चावसे ‘गौर-पूजा’ करती हैं। मीरासे भी गौरी पूजनेको कहा गया, मीराने साफ जवाब दे दिया। सारा रनिवास मीरासे नाराज हो गया। सास और ननद ऊदाबाईने मीराको बहुत समझाया; परंतु वह नहीं मानी। उसने कहा- सास बड़ी नाराज हुई। समवयस्क सहेलियोंने मीरासे कहा कि ‘बहिन ! यह तो सुहागकी पूजा है, सभीको करनी चाहिये ।’ मीराने उत्तर दिया कि ‘बहिनो ! मेरा सुहाग तो सदा ही अचल है, जिसको अपने सुहागमें संदेह हो, वह गिरधरलालजीको छोड़कर दूसरेको पूजे।’ मीराके इन शब्दोंका मर्म जिसने समझी वह तो धन्य हो गयी; परंतु अधिकांश स्त्रियोंको यह बात बहुत बुरी लगी।

मीरा की इस भक्ति-भावना को देखकर कुमार भोजराज पहले तो कुछ नाराज हुए; परंतु अन्तमें मीराके सरल हृदयकी शुद्ध भक्ति से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मीरा के लिये अलग श्रीरणछोड़जी का मन्दिर बनवा दिया। कुमार भोजराज एक साहसी, वीर और साहित्यप्रेमी युवक थे। मीराकी पद-रचना से उन्हें बड़ा हर्ष होता और इसमें वे अपना गौरव मानते। मीराका प्रेम-पुलकित मुखचन्द्र वे जब देखते तभी उनका मन मीरा की ओर खिंच जाता। जब मीरा नये-नये पद बनाकर पतिको गाकर सुनाती, तब कुमार का हृदय आनन्दसे भर जाता ।

5. कुमार भोजराज का देहांत

यद्यपि मीरा अपना सच्चा पति केवल श्रीगिरधरलालजी को ही मानती थी और प्रायः अपना सारा समय उन्हींकी सेवा में लगाती; परंतु उसने अपने लौकिक पति कुमार भोजराज को कभी नाराज नहीं होने दिया। अपने सुन्दर और सरल स्वभावसे तथा निःस्वार्थ सेवाभावसे उसे सदा प्रसन्न रखा। कहते हैं, कुछ समय बाद मीराकी अनुमति लेकर कुमारने दूसरा विवाह कर लिया था। मीराको इस विवाहसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसे इस बातका सदा संकोच रहता था कि मैं स्वामीकी मनोकामना पूरी नहीं कर सकती। अब दूसरी रानीसे पतिको परितृप्त देखकर और पतिके भी परम पति परमात्माकी सेवामें अपना पूरा समय लगने की सम्भावना समझकर मीरा को बड़ा आह्लाद हुआ।

6. मीराबाई का आत्मसमर्पण

मीरा अपना सारा समय भजन-कीर्तन और साधु-सङ्गतमें लगाने लगी। वह कभी विरहसे व्याकुल होकर रोने लगती, कभी ध्यानमें साक्षात्कार कर हँसती, कभी प्रेमसे नाचती; भूख-प्यासका कोई पता नहीं। लगातार कई दिनोंतक बिना खाये-पीये प्रेम-समाधिमें पड़ी रहती। कोई समझाने आता तो उससे भी केवल कृष्ण प्रेमकी ही बातें करती। दूसरी बात उसे सुहाती ही नहीं। शरीर दुर्बल हो गया, घरवालोंने समझा बीमार है, वैद्य बुलाये गये, मारवाड़से पिता भी वैद्य लेकर आये।

वैद्य देख गये। परंतु इन अलौकिक प्रेमके दीवानोंकी दवा बेचारे इन वैद्योंके पास कहाँसे आयी ?

जिसका मन-भ्रमर उस श्यामसुन्दरके चरणारविन्दके मकरन्दपानमें रम जाता है, उसे दूसरी बात कैसे अच्छी लग सकती है ? जिसने एक बार उस अनूप रूप-राशिका स्वप्नमें भी दर्शन कर लिया, जिसके हृदयमें उस पुनीत प्रेमका जरा-सा भी अङ्कुर उत्पन्न हो गया, जिसने उस मधुर प्रेमसुधाका भूलकर भी रसास्वादन कर लिया, वह कभी भी इस जगत्के भोगोंकी ओर नहीं देख सकता ।

7. भगवत्कृपा

नवयुवती राजपुत्री और राजवधू मीराने भी इसी प्रेमरसका पान करनेके कारण द्वापरकी गोपरमणियोंकी भाँति अपना सर्वस्वउस विश्वविमोहन मोहनके चरणोंमें अर्पण कर दिया, संसारका कोई भी प्रलोभन या भय उसे विचलित नहीं कर सका। मीरा अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे गद्रदकण्ठ होकर रणछोड़जीसे प्रार्थना करने लगी-

विवाह के बाद इस प्रकार भक्ति के प्रवाहमें दस साल बीत गये । संवत् १५८३में कुमार भोजराजका देहान्त हो गया। महाराणा सागाजी भी परलोकवासी हो गये। राजगद्दीपर मीराके दूसरे देवर विक्रमाजीत आसीन हुए। मीरा भगवत्प्रेमके कारण वैधव्यके दुःखसे दुःखित नहीं हुई । साधु-महात्माओंका संग बढ़ता गया, मीराकी भक्तिका प्रवाह उत्तरोत्तर जोरसे बहने लगा। राणा विक्रमाजीतको मीराका रहन-सहन, बिना किसी रुकावटके साधु- वैष्णव का महलों में आना-जाना और चौबीसों घंटे कीर्तन होना बहुत अखरने लगा।

उन्होंने मीराको समझानेकी बड़ी चेष्टा की ।
चम्पा और चमेली नामकी दो दासियाँ इसी हेतुसे मीराके पास रखी गयीं. राणाकी बहन ऊदाबाई भी मीराको समझाती रही, परंतु मीरा अपने मार्गसे जरा भी नहीं डिगी । मीराजीने समझानेवाली सखियोंसे पहले तो नम्रतापूर्वक अपना संकल्प सुनाया, अन्त में स्पष्ट कह दिया-

सखियोंने कहा – ‘मीराजी ! आप भगवान्से प्रेम करती हैं। तो करें। इसमें किसीको कोई आपत्ति नहीं, परंतु कुलकी लाज छोड़कर दिन-रात साधुओंकी मण्डलीमें रहना और नाचना-गाना उचित नहीं। इससे महाराणा बहुत नाराज हैं।’

मीराने कहा- कैसा अटल निश्चय है? कितना अचल विश्वास है ? कितनी निर्भयता है ? कैसा अद्भुत त्याग है ? ऊदा और दासियाँ आयी थीं समझानेको, परंतु मीरा की शुद्ध प्रेमाभक्ति को देखकर उनका चित्त भी उसी ओर लग गया। वे भी मीराके इस गहरे प्रेम-रंगमें रँग गयीं । अन्तमें राणाने चरणामृतके नामसे मीराके पास विषका प्याला भेजा। चरणामृतका नाम सुनते ही मीरा बड़े प्रेमसे उसे पी गयी । भगवान्ने अपना विरद सँभाला, विष अमृत हो गया, मीराका बाल भी बाँका नहीं भगवत्कृपासे क्या नहीं होता ?

मीरा नाचने लगी दासियोंने जाकर यह समाचार राणाजीको सुनाया, वे तो दंग रह गये। कलियुगमें यह दूसरा प्रह्लाद कहाँसे आ गया ?

मीराके आठों पहर भजन-कीर्तनमें बीतने लगे। नींद- भूखका कोई पता नहीं, शरीरकी सुधि नहीं, वह दिनभर रोती और गाया करती ।

8. प्रसिद्धि और सत्संग

मीरा रात को मन्दिरके पट बंद करके भगवान्‌ के आगे उन्मत्त होकर नाचती। मानो भगवान् प्रत्यक्ष प्रकट होकर मीराके साथ बातचीत करते । महलोंमें तरह-तरहकी चर्चा होने लगी । सखियोंने कहा— ‘मीरा ! तुम युवती स्त्री हो, दिनभर किसकी बाट देखती हो, किसके लिये यों क्षण-क्षणमें सिसक-सिसककर रोया करती हो।’ मीरा भावोन्मत्त होकर गाने लगी-

दासियोंने समझाया कि ‘बाईजी ! यह सारी बात तो ठीक है, परंतु इस तरह करनेसे आपका कुल लज्जित होता है।’ मीराने कहा- ‘क्या करूँ, मेरे वशकी बात नहीं है।’

कितना पवित्र भाव है, परंतु ‘जाकी जेती बुद्धि है, तेती कहत बनाय’ के अनुसार लोगोंने कुछ-का-कुछ बना दिया। मनुष्य प्रायः अपने ही मनके पापका दूसरेपर आरोप किया करता है। किसीने जाकर राणाजीके कान भर दिये, उन्हें समझा दिया कि मीराका तो चरित्र भ्रष्ट हो गया है। दिनभर तो वह विरहिणीकी तरह रोया करती है और रातको आधी रातके समय उसके महलमें किसी दूसरे पुरुषकी आवाज सुनायी देती है। हो-न-हो कुछ-न-कुछ दालमें काला अवश्य ही है।

राणाको यह बात सुनकर बड़ा क्रोध हुआ, उसी दिन रातको वह आधी रातके समय नंगी तलवार हाथमें लेकर मीराके महलमें गये। किंवाड़ बंद थे। राणाको भी अंदरसे किसी पुरुषकी आवाज सुन पड़ी, नहीं कह सकते कि यह राणाके दृढ़ संकल्पका फल था या भगवान्‌की लीला थी। खैर, राणाने अकस्मात् किवाड़ खुलवाये। देखते हैं तो मीरा प्रेमसमाधिमें बैठी है। दूसरा कोई नहीं है। राणाने मीराको चेत कराकर पूछा कि ‘बताओ, तुम्हारे पास दूसरा कौन था ?’ मीराने झटसे जवाब दिया- ‘मेरे छैल-छबीले गिरधरलालजीके सिवा और कौन होता। जगत्‌में दूसरा कोई हो तो आवे।’ राणा इन वचनोंका मर्म क्यों समझने लगे। उन्होंने बड़ी सावधानीसे सारे महलमें खोज की, परंतु कहीं कोई नहीं दीख पड़ा, तब लज्जित होकर लौटने लगे।

राणाके विलास-विभ्रमरत, मोह-आवृत मलिन मनपर मीराकी अमृत वाणीका कोई असर नहीं हुआ, राणा वापस लौट गये। मीरा उसी तरह ‘लोक-लाज कुलकान’ बहाकर बेधड़क हरिचर्चा करने लगी। एक दिन एक भण्ड साधुने आकर मीरासे कहा कि ‘मुझे गिरधरलालजीने तुम्हारे पास भेजा है और तुम्हें मेरे -‘अच्छी साथ अङ्ग-सङ्गके लिये आज्ञा दी है।’ मीराने कहा-‘ बात है; पहले आप भोजन कर लीजिये।’ मीराने आदरपूर्वक उसे भोजन कराया और फिर साधुओंकी मण्डलीमें पलँग बिछाकर बोली कि ‘महाराज ! आइये।’ दुरात्माने चुपकेसे मीराके पास आकर कहा कि स्त्री-पुरुषका संग कहीं यों इतने लोगोंके सामने होता है ?’ मीराने कहा – ‘महाराज ! ऐसा कौन-सा एकान्त स्थल है जहाँ मेरे गिरधरलालजी नहीं विराजते हों।

मैं तो जहाँ देखती हूँ वहीं खड़े दीखते हैं। फिर इस शरीरमें तो अनेक देवताओंका निवास है। चन्द्र, सूर्य, तारागण हमारे सम्पूर्ण कर्मोक साक्षी हैं। यमराजके दूत तो हिसाब ठीक रखनेके लिये सदा ही घूमते रहते हैं। जब इतने लोग देखेंगे तो फिर साधु-मण्डलीसे ही आपको लज्जा क्यों होती है।’ मीराने जब सबके सामने जोरसे यों कहा, तब वह बड़ा लज्जित हो गया। लोग उसे धिक्कारने लगे, उसका मोह भङ्ग हो गया, मीराके चरणोंमें पड़कर उसने अपने पापके लिये क्षमा माँगी और उद्धारका उपाय पूछा।

मीराके दिव्य उपदेशसे वह नामधारी साधु असली साधु बन गया।कहते हैं कि मीराके पदोंकी प्रशंसा सुनकर एक बार तानसेनको साथ लेकर बादशाह अकबर वैष्णवके वेशमें मीराके पास आये थे और मीराकी भक्तिका अद्भुत प्रभाव देखकर रणछोड़जीके लिये एक अमूल्य हार देकर लौट गये थे। इससे भी लोगोंमें बड़ी चर्चा फैली। राणाने क्रोधित होकर मीराके नाशके लिये एक पिटारीमें काली नागिनको बंद करके शालग्रामजी की मूर्तिके नामसे उसके पास भेजी। शालग्रामका नाम सुनते ही मीराके नेत्र डबडबा आये। उसने बड़े उत्साहसे पिटारी खोली, देखती है

तो सचमुच उसमें एक श्रीशालग्रामजीकी सुन्दर मूर्ति और मनोहर पुष्पोंकी माला है। मीरा प्रभुके दर्शन कर नाचने लगी।

राणाजीने और भी अनेक उपायोंसे डिगाना चाहा, परंतु मीरा किसी तरह भी नहीं डिगी। जब राणा बहुत सताने लगे तब मीराने गोसाईं तुलसीदासजी को एक पत्र लिखा ।

गोसाईंजी महाराजने उत्तरमें एक प्रसिद्ध पद लिख भेजा  पत्रको पाकर मीराने घर छोड़कर वृन्दावन जानेका निश्चय कर लिया । राणाजीको तो इस बातसे बड़ी प्रसन्नता हुई, परंतु ऊदाजी और मीराकी अन्यान्य प्रेमिका सखियोंको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने मीराको रोकना।

प्रेमरस में छकी हुई मीरा यों विरह के गीत गाती फिरती। जब भक्त भगवान्के लिये व्याकुल होते हैं तब भगवान् भी उनसे मिलनेके लिये वैसे ही व्याकुल हो उठते हैं। एक दिन मीरा गा रही थी।
भक्त भगवान्‌को बाध्य कर लेते हैं। मीराके निकट बाध्य होकर भगवान्‌को आना पड़ा। उस मनोहर छविको निरख मीरा मोहित हो गयी। नाच-नाचकर गाने लगी-

उस रूपराशि को देखकर किसका चित्त उन्मत्त नहीं होता ? जिसने उसे देख पाया वही पागल हो गया।

9. वृन्दावन और द्वारका

मीरा पागल की तरह चारों ओर उसकी मधुर छविका दर्शन करती हुई गाती फिरती है-

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।

एक बार मीराजी वृन्दावनमें श्रीचैतन्यमहाप्रभुके शिष्य परमभक्त जीव गोस्वामीजीका दर्शन करनेके लिये गयीं। गोसाईंजीने भीतरसे कहला भेजा कि हम स्त्रियोंसे नहीं मिलते। मीराने इसपर उत्तर दिया कि ‘महाराज ! आजतक तो वृन्दावनमें पुरुष एक श्रीनन्दनन्दन ही थे और सभी स्त्रियाँ थीं, आज आप भी पुरुष प्रकट हुए हैं।’ मीराका रहस्यमय उत्तर सुनकर जीवजी महाराज नंगे पैरों बाहर आकर बड़े प्रेमसे मीराजीसे मिले।

मीराके कई पदोंसे पता लगता है कि मीरा भक्तप्रवर रैदासजीकी चेली थी; परंतु एक पदसे यह भी मालूम होता है कि मीरा श्रीचैतन्यमहाप्रभुके सम्प्रदायकी वैष्णवी थी और शायद जीव गोस्वामीको उसने अपना गुरु बनाया था। सम्भव है कि दो समय में दोनोंसे दीक्षा ली हो।

अंतिम समय

कुछ काल वृन्दावन निवास कर मीरा द्वारकाको चली गयी। और वहाँ श्रीरणछोड़ भगवान्‌के दर्शन और भजनमें अपना समय बिताने लगी। कहते हैं, एक बार चित्तौड़से राणाजी उसे वापस लौटानेके लिये द्वारकाजी गये थे। मीराजीके चले जानेके बाद चित्तौड़में बड़े उपद्रव होने लगे थे। लोगोंने राणाको समझाया कि आपने मीरा सरीखी भगवत्की प्रेमिकाका तिरस्कार किया है, उसीका यह फल है। राणा इसीलिये मीरासे क्षमा-याचनाकर उसे वापस लौटाकर ले जाना चाहते थे। परंतु मीराने जाना किसी तरह भी स्वीकार नहीं किया।

राणाजीको यों ही वापस लौटना पड़ा। मीरा प्रभु के सामने गाने लगी ।

मीराजी श्रीद्वारकाधीशजी के मन्दिर में आकर प्रेम में उन्मत्त होकर गाने लगी।

मीरा नाचने लगी और अन्तमें भगवान् रणछोड़जी की मूर्ति में समा गयी।

उपसंहार

कहा जाता है कि संवत् १६३० के अनुमान मीराजीका देह भगवान् में मिला था। मीराजीने कई ग्रन्थ रचे थे, जो इस समय नहीं मिलते हैं। मीराके भजन तो प्रसिद्ध हैं, जो गाता और सुनता है, वही प्रेम में मत्त हो जाता है। मीरा ने प्रकट होकर भारतवर्ष, हिन्दू-जाति और नारी-कुलको पावन और धन्य कर दिया।

FAQ‘s

मीराबाई कौन थीं?

मीराबाई एक प्रमुख भक्ति कवि और संत थीं, जिनका जन्म १५५८ के लगभग मारवाड़ के कुड़की ग्राम में हुआ था। वे कृष्ण भक्ति की एक प्रमुख हस्ती हैं, जिन्होंने अपने पदों और भजनों के माध्यम से भक्ति साहित्य को समृद्ध किया।

मीराबाई का प्रारंभिक जीवन कैसा था?

मीराबाई का प्रारंभिक जीवन भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन था। वे केवल 10 वर्ष की उम्र में भगवान श्रीगिरधरलाल की मूर्ति लेकर नियमित पूजा करने लगी थीं। उनके सरल और भक्तिपूर्ण स्वभाव ने उन्हें भगवान के प्रति एक गहरी श्रद्धा प्रदान की।

मीराबाई का विवाह किसके साथ हुआ था?

मीराबाई का विवाह चित्तौड़ के सिसोदिया वंश के महाराणा सांगाजी के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ था। विवाह के समय, मीराने भगवान श्रीगिरधरलाल को भी मंडप में उपस्थित किया और उन्हें अपने पति के साथ फेरे लिए, मानो भगवान से भी विवाह कर रही हों।

मीराबाई ने भक्ति जीवन में क्या किया?

विवाह के बाद भी मीराबाई ने अपनी भक्ति को जारी रखा और भगवान श्रीगिरधरलाल के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को बनाए रखा। उन्होंने एक अलग मंदिर बनवाने का आग्रह किया और भक्ति में निरंतर रहीं। उन्होंने भजन और कीर्तन के माध्यम से भगवान के प्रति अपनी गहरी श्रद्धा प्रकट की।

कुमार भोजराज का निधन कब हुआ?

कुमार भोजराज का निधन संवत् १५८३ में हुआ। इस घटना के बाद मीराबाई ने अधिक समय भजन और साधु-संगत में बिताया और अपना सारा ध्यान भगवान की भक्ति में लगाना शुरू कर दिया।

मीराबाई ने आत्मसमर्पण कब किया?

मीराबाई ने अपने जीवन का अधिकांश समय भगवान की भक्ति में बिताया। जब राणा विक्रमाजीत ने मीराबाई को सताने की कोशिश की, उन्होंने भगवान की भक्ति में पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर दिया और विष का प्याला पीकर अपनी भक्ति को दर्शाया।

मीराबाई की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं?

मीराबाई की प्रमुख विशेषताएँ उनके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपार प्रेम, भक्ति और समर्पण थीं। उन्होंने समाज की पारंपरिक मान्यताओं को नकारते हुए अपने जीवन को पूर्ण रूप से भक्ति में समर्पित किया और कई भजन और पद रचे।

मीराबाई का अंतिम समय कैसे बीता?

मीराबाई ने वृंदावन और द्वारका में भक्ति का समय बिताया। अंत में, उन्होंने श्रीरणछोड़ जी के मन्दिर में उन्मत्त होकर भजन किया और भगवान में समा गईं। उनके निधन के बाद, उनकी भक्ति की गाथाएँ और पद आज भी भक्तों के बीच लोकप्रिय हैं।

मीराबाई के बारे में प्रमुख साक्षात्कार और घटनाएँ कौन सी हैं?

मीराबाई की भक्ति और अद्भुत घटनाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं, जैसे कि विष पीने की घटना और अकबर के दरबार में उनके भजन सुनने की घटना। इन घटनाओं ने मीराबाई की भक्ति और अद्वितीयता को दर्शाया।

मीराबाई के पद और ग्रंथों की उपलब्धता कैसी है?

मीराबाई के कई पद और भजन प्रसिद्ध हैं, जो भक्तों के बीच सुसज्जित हैं। हालांकि, उनके द्वारा रचित ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं, पर उनके भजन और पद आज भी भक्तों को भक्ति की प्रेरणा देते हैं।

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