24. मुचुकुन्दका तपस्याके लिये प्रस्थान और बलरामजीकी व्रजयात्रा

मुचुकुन्दका तपस्याके लिये प्रस्थान

परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दके इस प्रकार स्तुति करनेपर सर्वभूतोंके ईश्वर अनादिनिधन भगवान् हरि बोले ॥ 

श्रीभगवान्ने कहा- हे नरेश्वर। तुम अपने अभिमत दिव्य लोकोंको जाओ; मेरी कृपासे तुम्हें अव्याहत परम ऐश्वर्य प्राप्त होगा ॥ वहाँ अत्यन्त दिव्य भोगोंको भोगकर तुम अन्तमें एक महान् कुलमें जन्म लोगे, उस समय तुम्हें अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहेगा और फिर मेरी कृपासे तुम मोक्षपद प्राप्त करोगे ॥

 भगवान् के इस प्रकार कहनेपर राजा मुचुकुन्दने जगदीश्वर श्रीअच्युतको प्रणाम किया और गुफासे निकलकर देखा कि लोग बहुत छोटे- छोटे हो गये हैं ॥ उस समय कलियुगको वर्तमान समझकर राजा तपस्या करनेके लिये श्रीनरनारायणके स्थान गन्धमादनपर्वतपर चले गये ॥  इस प्रकार कृष्णचन्द्रने उपायपूर्वक शत्रुको नष्टकर फिर मथुरामें आ उसकी हाथी, घोड़े और रथादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत किया और उसे द्वारकामें लाकर राजा उग्रसेनको अर्पण कर दिया। तबसे यदुवंश शत्रुओंके दमनसे निःशंक हो गया ॥

गोकुल में बलरामजी की विलासित लीलाएँ

गोपियों के साथ मधुर सम्बोधन

 इस सम्पूर्ण विग्रहके शान्त हो जानेपर बलदेवजी अपने बान्धवोंके दर्शनकी उत्कण्ठासे नन्दजीके गोकुलको गये ॥  वहाँ पहुँचकर शत्रुजित् बलभद्रजीने गोप और गोपियोंका पहलेहीकी भाँति अति आदर और प्रेमके साथ अभिवादन किया ॥  किसीने उनका आलिंगन किया और किसीको उन्होंने गले लगाया तथा किन्हीं गोप और गोपियोंके साथ उन्होंने हास-परिहास किया ॥  गोपने बलरामजीसे अनेकों प्रिय वचन कहे तथा गोपियोंमेंसे कोई प्रणयकुपित होकर बोलीं और किन्होंने उपालम्भयुक्त बातें की ॥

गोपियों का प्रश्न 

किन्हीं अन्य गोपियोंने पूछा- चंचल एवं अल्प प्रेम करना ही जिनका स्वभाव है, वे नगर-नारियोंके प्राणाधार कृष्ण तो आनन्दमें हैं न ? ॥  वे क्षणिक स्नेहवाले नन्दनन्दन हमारी चेष्टाओंका उपहास करते हुए क्या नगरकी महिलाओंके सौभाग्यका मान नहीं बढ़ाया करते ? ॥ 

क्या कृष्णचन्द्र कभी हमारे गीतानुयायी मनोहर स्वरका स्मरण करते हैं? क्या वे एक बार अपनी माताको भी देखनके लिये यहाँ आवेंगे ? ॥  अथवा अब उनकी बात करनेसे हमें क्या प्रयोजन है, कोई और बात करो। जब उनकी हमारे बिना निभ गयी तो हम भी उनके बिना निभा ही लेंगी ॥ क्या माता, क्या पिता, क्या बन्धु, क्या पति और क्या कुटुम्बके लोग ? हमने उनके लिये सभीको छोड़ दिया, किन्तु वे तो अकृतज्ञोंकी ध्वजा ही निकले ॥ 

तथापि बलरामजी ! सच-सच बतलाइये क्या कृष्ण कभी यहाँ आनेके विषयमें भी कोई बातचीत करते हैं? ॥  हमें ऐसा प्रतीत होता है कि दामोदर कृष्णका चित्त नागरी-नारियोंमें फँस गया है; हममें अब उनकी प्रीति नहीं है, अतः अब हमें तो उनका दर्शन  दुर्लभ ही जान पड़ता है ॥ 

 तदनन्तर श्रीहरिने जिनका चित्त हर लिया है, वे गोपियाँ बलरामजीको कृष्ण और दामोदर कहकर सम्बोधन करने लगीं और फिर उच्चस्वरसे हँसने लगीं ॥  तब बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रका अति मनोहर और शान्तिमय, प्रेमगर्भित और गर्वहीन सन्देश सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी ॥  तथा गोपोंके साथ हास्य करते हुए उन्होंने पहलेकी भाँति बहुत-सी मनोहर बातें कीं और उनके साथ व्रजभूमिमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते रहे ॥ 

MEGHA PATIDAR
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