मोक्ष के चार साधन

आत्म स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन अद्वैत ब्रह्म विचार रूप ही आन्तरीय पूजा है।
मैत्रेय्योपनिषद् में महादेवजी ने मैत्रेय ब्राह्मण से कहा है कि यह पंच भौतिक देह देवालय रूप है। इस देह रूपी देवालय में जीवात्म केवल प्रकाश स्वरूप शिव देव स्थित है। जिस प्रकाश स्वरूप आत्म शिव रूप अद्वितीय प्रकाश रूप देव को साक्षात कर अज्ञान रूप नैवेद्य समर्पण कर दे। और जो सत्यज्ञान आनन्द स्वरूप ब्रह्म है सो मैं हूँ। ऐसे अद्वैत-भाव से पूजा करें।

(१) जीव ब्रह्म के अभेद साक्षात् रूप दर्शन का नाम ज्ञान हैं।
(२) और आत्मा से भिन्न अनात्म रूप प्रपंच विषयों से मन के रहित होने का नाम ध्यान है।
(३) आत्म ब्रह्म स्वरूप अद्वैत के विचार से मन के पाप रूप मल के त्यागने का नाम स्नान है।
(४) और विषयों से इन्द्रियों के निग्रह करने का नाम शौच रूप पवित्रता है।

देह में अहंता, पुत्र दारादि में ममता, यह दो विषय सूत्र है और काम, क्रोध, मोह आदि भी जान लेवें। चित से जिस दुर्गन्ध के लेप को दूर करना ही पवित्र शौच कहा है और जब मृतिका से तो साधारण लौकिक देह शुद्धि कही हैं।

तीन वासना का नाश करना ही चित्त की शुद्धि करने वाला पवित्र शौच है- देह वासना, शास्त्र वासना, लोक वासना। देह अजर अमर बना रहे यह देह वासना है। और सर्व शास्त्रों को पढ़ने की इच्छा का नाम शास्त्र वासना है। लोगों में मान प्रतिष्ठिादि की इच्छा का नाम लोक वासना है अथवा पुत्र की इच्छा, धन की इच्छा व मान, पूजादि की इच्छा यह तीन वासना है। इनसे चित्त मलीन है, इन मलों का विवेक वैराग्य ज्ञान रूप मृतिका जलों से प्रक्षालन करने को ही पवित्र शौच कहा है।

ब्रह्म विधोपनिषद् में कहा है कि सर्वभूत प्राणियों में व्यापक रूप से स्थित प्रकाशमान देव सर्व के ईश्वर ज्ञान स्वरूप सर्व दुःखों से रहित ब्रह्म को अपनी आत्मा जानकर अद्वैत भाव से पूजन करें।

पदम पुराण में कहा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रेरक केशव अन्तर्यामी परमात्मा के संतोषकारी आठ पुष्प हैं।

(१) मन वाणी शरीर से किसी भी प्राणि को पीड़ा न देनी यह, अहिंसा नाम का प्रथम पुष्प हैं।

(२) इन्द्रियों को विषयों से निग्रह करना, यह दम नाम का द्वितीय पुष्प है।

(३) सर्वभूत प्राणियों पर दया करना, यह दया नाम का तीसरा पुष्प हैं।

(४) निर्बल प्राणियों के अपकार करने पर भी क्रोध न कर क्षमा करना यह क्षमा नाम का चौथा पुष्प है।

(५) विषयों से मन का निग्रह करना यह राम नाम का पाँचवा पुष्प है।

(६) यथा लाभ वस्तु में संतोष करना, यह संतोष नाम का छठवां पुष्प है।

(७) ध्येयाकार चित्त की वृत्ति का करना रूप ध्यान यह,सातवां पुष्प है।

(८) कपट से रहित जैसा देखा है और जैसा सुना है, वैसा सत्य भाषण करना आठवां पुष्प है। इन आठों पुष्पों से अन्तर्यामी भगवान् केशव सन्तुष्ट होते हैं।

सर्व श्रुति, स्मृति, पुराणों में जीव ब्रह्म की एकता-रूप अद्वैत के निश्चय करने से ही पुरुष को सर्व अनर्थ की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति रूप मोक्ष की घोषणा की हैं। अद्वैत के निश्चय के बिना और कोई संसार में केवल्य मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग नहीं है।

स्कन्ध पुराण में कहा है कि व्यासजी के जावाली पत्नी के १२ वर्ष पर्यन्त गर्भ की स्थिति होने पर व्यासजी ने गर्भ स्थित प्राणी से पूछा कि हे गर्भ स्थित प्राणी ! आप दशमास की मर्यादा को उल्लंघन करने वाले गर्भ में कौन हो ? तब गर्भ में स्थित शुकदेव ने कहा कि कीट पतंग आदि सर्व योनियों की जो चौरासी हजार संख्या हैं इन सर्व में मैंने भ्रमण करा है तो अब मैं क्या कहूँ कि मैं कोन हूँ ?

हे द्विजो में श्रेष्ठ व्यासजी जब तक जन्तु माता के गर्भ में स्थित रहता है, तब तक ही प्राणी को सौ जन्म के शुभ-अशुभ का ज्ञान और वैराग्य तथा पूर्व जन्मों की सर्व जाति की स्मृति रहती है।

गर्भ से बाहर आ जाने पर प्राणी का सर्वज्ञान, वैराग्य आदि माया करके नष्ट हो जाता है, माता के जठराग्नि के ताप से माया का ताप अधिक दग्ध करने वाला है। इस कारण से मैं गर्भ में स्थित है यदि आप दो घड़ी माया मोह को रोक सकते हो तो मैं गर्भ से बाहर निकल आता है, तब व्यासजी ने कहा कि मैं २ घड़ी आप को माया मोह व्याप्त नहीं होने दूंगा। आप गर्भ से बाहर आयें। यह सुन शुकदेव गर्भ से बाहर निकल कर शीघ्र ही वन को चल दिये।

व्यासजी पुत्र के तेज पराक्रम से मोहित होकर कहते हैं कि हे पुत्र ! प्रथम संस्कार पूर्वक विद्या पढ़ो पश्चात् वन को जाना। शुकदेव ने कहा इसी कारण से मैंने ब्राह्मण, बन्धनकारी माता, पिता, पुत्र का सम्बन्ध रूप माया के मोह का विरोध मांगा था। यही माया मोह अनर्थकारी और पूर्व जन्मों में क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियों के अनुसार मेरे हजारों बार ही संस्कार हुये हैं। जिन जाति अभिमान के जनक बन्धन रूप उपनयन आदि संस्कारों ने मुझे अब तक संसार सागर में सर्व ओर से पटक रखा है। अस्तु अब मैं आत्म स्वरूप ब्रह्म अद्वैत चिन्तन से बिना दूसरा बन्धन रूप कार्य कोई भी नहीं करूँगा।

ऋग्वेद में कहा है कि गर्भ में स्थित हुये वामदेव सर्व चराचर को एक अद्वैत स्वरूप अपना आत्मा जानकर कहते हैं कि मैं ही पूर्व काल में सूर्य था, और मैं ही मनु था, मैं ही विप्र कक्षीवान् ऋषि था, मैं ही कुत्स और आर्जुनेय ऋषि था, मैं ही शुक्राचार्य रूप उशना कवि था। सर्वदा सर्व जगे, यावत् चराचर वस्तु देखने में आती है, सो सर्व रूप मैं ही हूँ। इस प्रकार अद्वैत, ज्ञान वामदेव को पूर्व जन्म के साधनों से गर्भ में प्राप्त हो गया।

जन्म दुःखं जरा दुःखं च मरणे तथा ।

गर्भ वासे पुनर्दुःखं विष्ठा मूत्र मये पित: ।।

देवी भागवत् में शुकदेव जी व्यासजी से कहते हैं कि हे पिता  जन्म होने काल में महान दुःख होता है, और वृद्ध अवस्था में भी अति कष्ट होता है तथा मरण काल में भी महान दुःख होता है और विसा मूत्र रूप गर्भ में वास करने पर महा दुःख होता है। अस्तु आत्महीन प्राणी को संसार में कहीं भी सुख नहीं है।

इस लोक में राज अपराधी पुरुष अपने अपराध का फल भोग कर काल पूरा करने पर कभी न कभी तो लोहे की बेड़ी से अथवा जेल (कारागृह) के बन्धन से मुक्त हो जाता है। परन्तु पुत्र दारादिकों के राग से बन्धा हुआ पुरुष किसी भी काल में मुक्त नहीं होता है।

हे पिता। इन पुत्र दारा आदि बन्धनों से बन्धा हुआ मैं अब तक, चौरासी हजार योनि रूप जेल भोगता रहा हूँ अब कुछ संसार रूप कारागार से मुक्त होने का साधन वैराग्य प्राप्त हुआ है ! वेद व्यासजी ने कहा है, “हे पुत्र ! वेद शास्त्रों का अध्ययन करने के पश्चात् वैराग्य पूर्वक जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत-ज्ञान से समस्त बन्धनों का उच्छेद कर, संसार में जीवन मुक्त होकर विचरना।

शुकदेवजी ने कहा हे पिता ! जो पुरुष बड़े शास्त्रों को अर्थ सहित पढ़कर भी संसार के पदार्थों मे राग वाले हैं। उन पुरुषों से बढ़कर संसार में और कोई मूर्ख नहीं है वे पुरुष जानों श्वान, घोड़ा तथा शुकरों के समान धर्म वाले हैं। ऐसे पुरुषों के जो वेद शास्त्र अध्ययन करते हैं, वे केवल अल्पश्रुत पुरुषों का वंचन करने के लिये ही है। इसी कारण से वे श्वान आदि के समान धर्म वाले हैं। क्योंकि परवचन आदि कर्मों से श्वान आदि योनियों की प्राप्ति कही है।

प्रथम तो पुण्य के प्रभाव से मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। उसमें भी त्रिवर्णक द्विजाति शरीर की प्राप्ति होना अति दुर्लभ है उसमें भी वेद शास्त्रों का ज्ञाता होना महान पुण्यों का फल है। वेद शास्त्रों का ज्ञाता होकर भी यदि पुरुष संसार के पदार्थों में राग कर, बन्धायमान होता है तब कहो संसार के बन्धनों से कौन पुरुष मुक्त होगा। अर्थात् जो वेद शास्त्रों का ज्ञाता होकर भी सांसारिक पदार्थों में राग से बन्धा हुआ है। उस पुरुष के मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं है।

योगवसिष्ठ में कहा है कि शास्त्रों का विचार करना उस पुरुष की सफलता जानने योग्य है कि जिस शुभ बुद्धि वाले की दिन प्रतिदिन शास्त्र विचार से भोगों को भोगने की इच्छा वासना नष्ट होती. है। भोग पदार्थों की इच्छा करने वाले का शास्त्र विचार करना व्यर्थ ही है।

जिस पुरुष के वाणी में कथन मात्र ही विवेक की वार्ताएँ है और हार्दिक चित्त में विवेक नहीं है। जैसे चित्र में प्रचण्ड अग्नि की ज्वाला लटालट प्रकाश वाली प्रतीत होती है। परन्तु उसमें दाह प्रकाश करण की शक्ति नहीं है। वैसे ही वाचिक विवेकी का विवेक हार्दिक अज्ञान रूप अन्धकार को नाशकर आत्मबोध का प्रकाश करने वाला नहीं है। उस वाचिक विवेकी ने जानों निश्चित दुःख के लिये अविवेकता का त्याग नहीं किया है।

तेजो बिन्दु उपनिषद् में कहा है कि जो पुरुष ब्रह्माकार वृत्ति से हीन है और सांसारिक विषयों में दृढ़ राग वाले हैं और ब्रह्म की वार्ता करने में कुशल हैं वे पुरुष निश्चित ही अज्ञानी होने से इस संसार में जन्मते हैं और मरते हैं उनका आवागमन दूर नहीं होता है।

देवी भागवत में कहा है कि दूसरे को उपदेश करने वाले पुरुष संसार में बहुत से होते हैं। परन्तु धर्म, कर्म की कर्त्तव्यता प्राप्त होने पर सर्वदा काल स्वयं विचार कर कर्म करने वाला पुरुष प्राप्त होना अति दुर्लभ है।

मुक्तिकोपनिषद् में प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने हनुमान से कहा कि हे वायु पुत्र ! जो पुरुष चारों वेदों को और सर्व शास्त्रों को तथा सर्व स्मृतियों और पुराणों को पढ़कर जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत् तत्त्व को नही जानता है, वो पुरुष ऐसा है जैसे कड़छी दूध-पाक में नाना प्रकार के व्यंजनों में फिरती-फिरती घिस जाती है, परन्तु दूध पाक आदि के रस को नहीं जानती है अर्थात् अद्वैत तत्त्व ब्रह्मानंद ज्ञान से बिना पुरुष परिश्रम को ही प्राप्त होता है।

भागवत में कहा है कि सर्वदा सन्तुष्ट मन वाले पुरुष को सर्व दिशाएँ सुख रूपी देखने में आती है। जैसे पाद में पदत्राण पहिने हुये पुरुष को सर्व पृथ्वी कंकर कंटक आदि से रहित सुख रूप देखने में आती हैं।

नारदजी युधिष्ठर से कहते हैं कि हे राजन् ! संसार में बहुत से पण्डित हैं और बहुत से शास्त्रों के ज्ञाता संशयों के छेदन करने वाले हैं। बहुत से सभापति बन कर सभा को वाक्य जाल से रंजन करने वाले हैं, परन्तु सन्तोष न होने से परमानन्द से पतित होकर अधोगति को प्राप्त होते हैं।

योगवाशिष्ठ में कहा है कि जो पुरुष गुरु मुख द्वारा शास्त्रों का श्रवण करके आत्मा के अतिरिक्त अनात्म पदार्थों में निःसारता निश्चय करके भी दुष्टमति रमणीक सारपने की भावना बांधता है वो पुरुष नहीं माना जाता है वो तो भारवाही गर्दभ ही है।

महाभारत में शुकदेव के तीव्र वैराग्य को देखकर वेद व्यासजी कहते हैं हे तात ! हजारों ही माता-पिता, तथा पुत्र दारा भाई बन्धु आदि पूर्व जन्मों में हो चुके हैं और हजारों ही बार आगे होवेंगे। क्योंकि जब तक जीव ब्रह्म के अद्वैत ज्ञान पूर्वक कैवल्य मोक्ष को प्राप्त नहीं होता, तब तक जन्म मरण का चक्र दूर नहीं होता। ऐसे असंख्यात् जन्मों के प्रवाह में क्या निश्चय हो सकता है कि कौन किसका माता- पिता है और कौन किसका पुत्र है।

बहुत सी बार मैं आपका पुत्र हुआ हूँ और बहुत सी बार आप मेरे पुत्र हुए हो। अब कहो कि किस जन्म के पिता पुत्र का नाता माना जाय। विचार करने पर न पूर्व जन्मों के किसी के माता-पिता या पुत्र आदि हैं और वर्तमान इस काल में न हम किसी के पिता-पुत्र आदि हैं।

शिवपुराण में कहा है कि न तो इस प्राणी का कोई माता-पिता या पुत्र आदि हुआ है और न ही आगे कोई होगा और न ही यह प्राणी किसी का माता-पिता या पुत्र हुआ है और न किसी का होगा जैसे कोई सम्बन्ध न होने पर भी एक मार्ग में बहुत से मिलकर चलने वाले पुरुष कल्पित नाते बहुत से बना लेते हैं ऐसे कर्म भोग रूपी मार्ग में मिलकर वास्तव से कोई नाता न होने पर भी कल्पित माता-पिता तथा पुत्र बन्धु रूप से बहुत से नाते बना लेते हैं।

कर्म के भोग रूपी मार्ग के समाप्त हो जाने पर मर कर भिन्न हुए का फिर समागम नहीं होता। इसलिये बुद्धि से शास्त्रों का विचार करके विवेक, वैराग्य, श्रवणादि से ब्रह्म क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु से अजर, अमर, मोक्ष पद को प्राप्त करें।

योगवासिष्ठ में कहा है कि राजा जनक ऋषभदेव के नव पुत्र ब्रह्मनिष्ठ वितरागियों को देखकर और राजलक्ष्मी तथा सर्व प्रपंच को नाशवान, जानकर कहते हैं कि अहो खेद है हमारे पूर्वज बल पराक्रम वाले महीपालों के धन एकत्र करे हुये कहां चले गये और ब्रह्म के हजारों ही प्रपंच रचे हुए कहां नष्ट हो गये जब प्राचीन ब्रह्मा के रचे हुए जगत् नष्ट हो गये तो अल्प काल रहने वाले पदार्थों का और मेरे शरीर का स्थिर रहने का क्या ही विश्वास है।

वृद्धावस्था

अब मैं वृद्धावस्था रूप महान कष्ट से ही कष्ट को प्राप्त हो गया हूँ और पदार्थों की तृष्णा से महान दुःख से भी दुःख को प्राप्त हो गया हूँ। अहो आश्चर्य है जिन भोग पदार्थों को जन्म से लेकर अभी तक भोग रहे हैं उन भोग पदार्थों से मेरी कब तृप्ति होगी। अहो मैं मृत्यु की भगिनी जरावस्था के मुख का ग्रास होकर, आज भी मैं भोग पदार्थों से विरक्त नहीं हुआ। हाँ धिक्कार है, ऐसे मेरे को नीच अधम आशय वाले को बार बार धिक्कार है।

भर्तृहरि वैराग्य शतक में कहा है कि वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर मुख की कान्ति नष्ट हो जाती है और श्वैत केशों से सिर चित्र विचित्र हो जाता है और शरीर के सर्व अंग और इन्द्रिय शक्ति से हीन शिथिल हो जाते हैं नेत्रों से पुरा दिखता नहीं कानों से पुरा सुनाता नहीं। जैसे हिमालय से सर्व नदियाँ चलकर समुद्र में स्थिर हो जाती हैं। वैसे ही सब रोग वृद्धावस्था में आकर स्थिर होते हैं। शरीर की सर्वशक्ति नष्ट होने पर भी एक तृष्णा वृद्ध शरीर में योवन अवस्था को प्राप्त होती है। तृष्णा रूपी पिशाचिनी के दूर करने का मन्त्र वैराग्य पूर्वक आत्म विचार है।

भागवत में कपिलदेव जी अपनी माता से कहते हैं कि, हे मात ! ऐसे पुर्वोक्त प्रकार वृद्ध शरीर में इन्द्रियों के शिथिल हो जाने पर अपने शरीर के पालन पोषण करने की भी शक्ति नहीं होने पर पुरुष को उसके पुत्र- स्त्री आदि जैसे पूर्व काल में धन कमाने पर आदर सत्कार करते थे वैसे फिर वृद्ध होने पर आदर सत्कार नहीं करते हैं। जैसे कृषि करने वाले हल में बहते बैल की सेवा करते हैं वैसी हारे हुये अशक्त बूढ़े बैल की सेवा नहीं करते हैं।

योगवासिष्ठ में कहा है कि थोड़े से दिनों के बीतने से बाल्यावस्था की शोभा नष्ट हो जाती है उसके पश्चात् कल्प दिनों में ही युवावस्था की शोभा को जरावस्था ग्रास कर लेती हैं। अहो कष्ट है यदि अति समीपवर्ती देह में भी एक रूपता स्थिर नहीं रहती है तो बाह्यधन, पुत्र, स्त्री आदि तथा अन्य पदार्थों में तो स्थिरता अथवा एक रूपता रहने की क्या आशा कर सकते हैं ?

महोपनिषद् में कहा है कि बाल अवस्था में तो प्राणी मूर्खता रूपी अज्ञान से हत बुद्धि रहता है और युवावस्था में स्त्री के हाव भावों सेहत बुद्धि रहता है और शेष आयु में पुत्र-स्त्री आदि के पालन की चिन्ता से दुःखी रहता है। विद्वान पुरुषों के संग के बिना कहो ऐसी दशा में अधम पुरुष क्या कर सकता है ? ऐसी दशा में तो ‘संता संगों ही भेषजम्।’

स्वराज्य सिद्धि में कहा है कि स्वर्गवासी पुरुषों को स्वर्ग से पतन होने का दुःख रहता है और नरक में तो दुःखों का कोई अन्त ही नहीं है और माता के गर्भ में वास काल में जठराग्नि से अति दुःख होता है और बाल्यावस्था में खान-पान के लिये स्वतन्त्र न होकर नव ग्रहों की पीड़ा से और मच्छर कीट आदियों की पीड़ा से रूदन करके शिशु अवस्था में महान दुःख होता है और युवावस्था में काम, क्रोध, लोभ, व्यसन, तिरस्कार, चित्त में उद्वेग तथा आदि नाना दुःख प्राप्त होते हैं। वृद्धावस्था में शोक, मोह, तृष्णा, इन्द्रियों की शक्तिहीनता और नाना प्रकार के रोगों से अन्तिम अवस्था में अति दुःख होता है।

इस प्रकार से जो प्राणी कर्मों से बद्ध परवश हुआ जन्मों के समूह करके संसार चक्र में भ्रमण करता हुआ दुःखों के अन्त को नहीं जान सकता है और अज्ञान के कारण से असंख्यात् जन्मों के संधात को स्मरण नहीं करता है। उस पुरुष के लिये सर्व अनंत का मूल जो अज्ञान उसका जिस विधि से नाश हो जाय और जीव ब्रह्म की एकता प्रकाश रूपी स्वात्म में स्थिति रूपी अभिषेक हो जाय।

संयोग-वियोग

पद्म पुराण में लक्ष्मणजी श्री रामचन्द्रजी से कहते हैं कि हे रामजी ! मृत हुये प्राणियों के पीछे जाता हुआ इस संसार के पुत्र, स्त्री, धन आदि कुछ भी नहीं देखा जाता है और शास्त्रों के ज्ञाता बुद्धिमान ऋषि मुनि ऐसा कहते हैं कि अपने-अपने कर्म योग के अनुसार प्राणी संयोग वियोग को प्राप्त होते हैं। ऐसे ही पिता दशरथ हम सबको यहां छोड़कर आप अकेले ही परलोक को पधार गये हैं।

सन्तोष

पदम पुराण में कहा है कि सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त हुये शान्त चित्त वाले पुरुषों को जो संसार में सुख है सो सुख धन के लोभी पुरुषों को धन की इच्छा से दशो दिशाओं में इधर-उधर भागते हुओं को कहां से हो सकता है। अर्थात् सन्तोष से हीन पुरुष को किसी भी लोक में सुख नहीं है।

नारद परिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि जैसे यज्ञकुण्ड का कृष्ण वर्त्म नाम अग्नि, घृत आदि हवि के पुनः-पुनः डालने पर अधिक वृद्धि को प्राप्त होता है। वैसे ही पुत्र-स्त्री आदि काम्य विषयों की कामनाएँ पुनः पुनः भोगने मात्र से कभी भी शान्त नहीं होती है। पुनः- पुनः वृद्धि को प्राप्त होती है।

विरक्ति

ये ही वार्ता विष्णु पुराण में ययाति राजा ने अपने छोटे पुत्र से युवावस्था लेकर बहुत काल विषय भोगने पर भी तृप्ति नहीं होने से वैराग्य होने पर कही है। पुरुष के शरीर की जर्जरिभूत अवस्था हो जाने पर भी उसकी धन की आशा और अधिक जीवन की आशा कभी भी जीर्ण नहीं होती हैं।

इस कारण से तृष्णा अग्नि के वर्धक इन विषयों को त्याग करके अब मैं सच्चिदानंद शुद्ध बुद्ध आत्म स्वरूप अद्वितीय ब्रह्म में चित्त को लगाकर सर्व द्वन्द्वों से रहित होकर ममता आदि से मुक्त होकर सर्व संग दोषों को छोड़कर वनों में मृगों के साथ विचरूगां, क्योंकि विषयों के संग करने से ही पुरुष बन्धन को प्राप्त होता है। ऐसा विचारकर ययाति राजा अपने पुत्र का युवावस्था और राज्य देकर विरक्त होकर वनों में चला गया।

भागवत में शुकदेवजी ने सांसारिक विषयों से विरक्त हुये परीक्षित राजा को परमहंस संहिता रूपी भागवत सुनाकर अन्त में कहा कि है राजन! जो आप यह पशु बुद्धि कर रहे हो, कि मैं मर जाऊँगा ऐसी पशु बुद्धि को आप त्याग दें क्योंकि न तो आप कभी पूर्व काल में देह के समान उत्पन्न हुये हो और न आज नाशवान् देह के समान आपके नित्य अजर, अमर, शुद्ध बुद्ध आत्म स्वरूप का नाश होगा ऐसा निश्चय कर अद्वितीय आत्म स्वरूप में स्थित हों।

अन्नपूर्णोपनिषद् में कहा है कि जो पुरुष सर्व भूत प्राणियों को अपना आत्म स्वरूप देखता है और भय आदि के निमित्त न होने से केवल स्वभाव से ही, जो पुरुष पराये के द्रव्य को गन्दे ढेलों के समान देखता है। ऐसा समदर्शी पुरुष ही जानों देखता है और सर्व अन्धे ही कहे जाते हैं।

पद्म पुराण में भागवत के महात्म में कहा है कि जैसे सुख एकान्तवासी मननशील विरक्त महात्मा को होता है, ऐसा सुख न तो राजा इन्द्र को होता है और न ही चक्रवर्ती राजा को, क्योंकि अधिक ऐश्वर्य आदि होने से बलि आदि असुरों से सर्वदा भय बना रहता है।

मैत्रायण्युपनिषद् में कहा है कि बृहद्रथ राजा अपने राज्य को ज्येष्ठ पुत्र को देकर इस शरीर को अनित्य क्षण भगुर जानकर सर्व राज समाज को दुःख रूप जानकर महातीव्र वैराग्य को प्राप्त होकर वनों में गये। वहाँ जाकर शाकायन्य ऋषि के पास जाकर बोले है भगवन् ! इस विष्ठा मूत्र के और वात, पित, कफ के संधान में दुर्गान्ध से पूर्ण निस्सार शरीर से विषय भोगों के भोगने से प्राणी को क्या लाभ हो सकता है।

तब शाकायन्य ऋषि प्रसन्न होकर कहते हैं कि है।इक्ष्वाकु वंशी महाराज ब्रहद्रथ ऐसे ही वैराग्य वाला पुरुष आत्म तत्त्व को जान सकता है। हे राजन् ! जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं का प्रकाशक है उस ब्रह्मस्वरूप अद्वय परमानन्द को अपनी आत्मा जानकर जीवन मुक्त होकर संसार में विचरें।

नारद परिब्राजकोपनिषद् में कहा है कि मांस, रुधिर, राध, विष्ठा, मूत्र, आंत, मज्जा, अस्थि आदि के संधात शरीर में अति अपवित्र में मूर्ख पुरुष यदि प्रीति वाला है तो ऐसा बुद्धिहीन पुरुष तो नरक में भी रमणीक बुद्धि कर प्रीति करने वाला ही हो जायेगा।

गीता में श्री कृष्णचन्द्र भगवान् ने कहा है कि राज्य भोग ऐश्वर्य पदार्थों में अति आसक्त चित्त वाले पुरुषों को भोग पदार्थों की इच्छा से आत्म विचार में आत्मस्वरूप अद्वय ब्रह्म में, मैं सच्चिदानंद ब्रह्म हूँ ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धि की प्राप्ति नहीं होती है। हे कुन्ती नंदन ! इन भोग पदार्थों से तीव्र वैराग्य वाला होकर आत्म स्वरूप अद्वय ब्रह्म मैं हूँ ऐसी निश्चयात्मिक बुद्धि वाला हो।

अध्यात्म रामायण में कौशल्या माता ने कहा है कि हे रामचन्द्रजी ! आप तो मेरे हत, भाग्य को, त्याग कर वनों में दूर जा रहे हैं परन्तु हां कष्ट है कर्म योग के दुःख मुझे त्याग कर दूर नहीं जाते हैं। ऐसे आर्त वचन माता कौशल्या के सुनकर क्षात्रजोश से पूर्ण लक्ष्मण रामचन्द्रजी से कहते हैं कि मैं उन्मत भ्रान्त मन वाले कैकयी के वश वर्ति को और भरत तथा मामादियों को बाध्य कर हनन करूँगा। आप निशंक होकर राजगद्दी पर बैठकर मेरी भुजाओं का बल देखें।

ऐसे जोश पूर्ण वचन सुनकर रामचन्द्रजी वैराग्य के वचनों से लक्ष्मण को शान्त करते हैं। हे रघुवंशमणि वीर ! जो कुछ भी यह देखने में आता है-राज्य, देह, स्त्री, पुत्र, भाई बन्धु आदि अगर ये सब सत्य हुए तो आपका परिश्रम सफल होवे। ये सब भोग पदार्थ तो ऐसे है जैसे मेघ मण्डल में स्थित चमकती बिजली की रेखा । ऐसे चंचला है। और पुरुष की आयु भी कैसी है, जैसे अग्नि से संतप्त लोहे पर जल का बिन्दु पड़कर शीघ्र ही दग्ध हो जाता है, ऐसे ही आयु नष्ट होने वाली है।

अहो आश्चर्य है जैसे सर्प के मुख में भी स्थित हुयी मेढ़की मच्छरों को खाने की आशा रखती हैं। वैसे ही अल्पायु पुरुष काल रूपी सर्प से ग्रस्त हुआ नाशवान भोज पदार्थों को भोगने की इच्छा रखता है। हे रघुकुल नन्दन ! आप सूर्यवंशी होकर सत्यज्ञान आनंद आत्म स्वरूप अद्वैत ब्रह्म को छोड़कर विषयी पुरुषों के समान भोग पदार्थों में चित्त नहीं लगावें ।

पद्म पुराण में कहा है कि, तब तक ही संसार के द्रव्य भोग पदार्थों में शुभ गुण रूप सुख प्रतीत होता है जब तक आत्म स्वरूप ब्रह्म अद्वेय परमानंद चेतन स्वरूप सुख प्राप्त नहीं होता है। उस परम ब्रह्मानंद सुख के प्राप्त हो जाने पर इस संसार के सुख ऐसे तुच्छ निस्सार हो जाते हैं जैसे अमृत के प्राप्त हो जाने पर छाछ अति तुच्छ निस्सार प्रतीत होती है।

योगवासिष्ठ में वशिष्ठजी ने कहा है कि हे राम ! ब्रह्मात्म स्वरूप स्थिति के विरोधी भोगों को अनर्थकारी जान। जैसे रोग मृत्यु के समीप करने वाला होता है, वैसे ही शब्द, स्पर्श, रूपादि भोगों को संसार चक्र में डालने वाले रोग जान, एक-एक शब्दादि भोग मृत्युप्रद कहा है जिससे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ऐसे ५ व्यसन हैं। उसकी मृत्यु का तो क्या ही कहना है और पुत्र दारादि बन्धु दृढ़ बेड़ी रूप बंधन जान।

– नित्य अनित्य वस्तु के विचार का नाम विवेक है।

– इस लोक और परलोक के विषय भोगों से वितृष्णा होने का नाम वैराग्य है।

– शम, दम, श्रद्धा, समाहितता, उपरति, तितिक्षा, इनका नाम षट् सम्पत्ति है।

-मुक्त होने का नाम मुमुक्षुता है। इनके सम्पादन करने में सम्यक् अभ्यास करें।

मन की सन्तति स्त्री-पुरुष रूप दुर्लभ मनुष्यता को प्राप्त होकर उस में भी स्त्री की अपेक्षा से उत्तम पुरुष शरीर है। उस में भी ब्रह्म की प्राप्ति के योग्य अरोग्य रूप ब्राह्मण शरीर को प्राप्त होकर जिसने सर्व व्यापी महाविष्णु को वेदान्त शास्त्र के श्रवण आदि से वर्णाश्रमों के सम्बन्ध से रहित सर्व का आत्मा रूप सच्चिदानंद स्वरूप को नहीं जाना है, सो विद्या से हीन पुरुष अज्ञान के कारण इस संसार कारागृह से कब मुक्त होगा।

विवेक चुड़ामणि में कहा है कि ब्रह्म विकाल अबाध्य रूप सत्य है और नाशमान, जगत्, मिथ्या अर्थात् अनित्य असत्य है। ऐसे निश्चय से नित्य और अनित्य वस्तु का विचार रूप विवेक का लक्षण है।

योगदर्शन में कहा है कि जिस काल में पुण्य आत्मा पुरुष को त्रिगुणात्मिक विषय पदार्थों में तीव्र वैराग्य हो जाता है। उस तीव्र वैराग्य से राग रूपी दोष के सहित अनर्थ के बीज अज्ञान के नाश होने पर पुरुष कैवल्य मोक्ष को प्राप्त होता है।

बृहदारण्यकोपनिषद् में षट् सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाहितता, श्रद्धा) साधना रूप विभूति से युक्त होकर के ही पुरुष यथार्थ शुद्ध आत्मा में आत्मा बुद्धि निश्चित करके ही परमानंद निजात्म स्वरूप को देख सकता है।

शंकर भगवान षट् सम्पत्ति को अपरोक्षानुभूति में कहते हैं कि सर्वदा भोग पदार्थ विषयों में भी सूक्ष्म इच्छा रूपी वासनाओं का  परित्याग है। इसको मन का निरोध रूप शम कहा है और इन्द्रियों की बाहर प्रवर्तनशील वृत्तियों का जो विषयों से निरोधरूप दमन करना है। उसका नाम दम है। और विषयों से अति उपराम होने का नाम उपरति है। और क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि सर्व दुःखों को जो सहन करना है उसका नाम शोभन तितिक्षा है परन्तु यदि आत्म विचार पूर्वक धन आदि की इच्छा से रहित होकर सर्व दुःखों को सहता है उसको शुभतितिक्षा कहा है।

वेदशास्त्रों में और आचायों के कल्याणकारी वाक्यों में, जो विश्वासरूप भक्ति है उसका नाम श्रद्धा है और सत्यज्ञान आनन्द, रूप, तत, पद और त्व पद के लक्ष्य आत्म स्वरूप ब्रह्म जो चित्त की एकाग्रता रूप समाहितता है उसका नाम शास्त्रों में समाधान कथन कहा है।

विवेक चुड़ामणि में कहा है कि अहंकार आदि से लेकर देह पर्यन्त अज्ञान से कल्पित जन्म-मरण रूपी संसार के बन्धनों को जीव ब्रह्म की एकता रूप आत्म स्वरूप ब्रह्म के अद्वैत ज्ञान करके नाश कर मुक्त होने की इच्छा का नाम मुमुक्षता है।

सीतोपनिषद् में श्रुति का शारीरिक भाष्य में यह अर्थ किया है, कि पूर्व उक्त विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति, मुमुक्षता रूप साधन चतुष्ट्य के विद्यमान होने पर उसके पश्चात् ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा हो सकती है अन्यथा नहीं।

ब्रह्म सूत्र में वेद व्यासजी ने ब्रह्म का लक्षण कहा है कि जिस सत्य, ज्ञान, आनन्द स्वरूप परमात्मा से इस त्रिगुणात्मक प्रपंच का उदय स्थिति और संहार होता है। सो उदय स्थिति भंग कैसा है जैसे समुद्र से ही तरंग आदि उत्पन्न होते हैं और समुद्र में ही स्थित रहते हैं। वैसे समुद्र में ही लय हो जाते हैं क्योंकि समुद्र रूपी जल से भिन्न तरंग आदि कोई वस्तु सिद्ध नहीं हो सकती है। वैसे ही यह प्रपंच ब्रह्म से उत्पन्न होता है और ब्रह्म में ही स्थित रहता है और उस ब्रह्म में ही लय हो जाता है।

उस ब्रह्म से भिन्न प्रपंच की कोई सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती हैं उसका नाम ब्रह्म है। कर्म करना, ध्यान करना, अन्यथा ध्यान नहीं करना रूप पुरुष के आधीन है। और ज्ञान वेदशास्त्र आदि प्रमाणों द्वारा वस्तु के आधीन है। वेदशास्त्र के ज्ञान से बिना पुरुष उस व्यापक ब्रह्म को नहीं जान सकता और उस आत्म स्वरूप अद्वितीय ब्रह्म के ज्ञान के बिना अपुनरावृत्ति परमधामरूप केवल्य मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता है। उस ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत ज्ञान से सदा एक रस प्रकाश स्वरूप ब्रह्म को जानकर अज्ञान रूपी सर्व पाप का नाश हो जाता है।

योगवसिष्ठ में कहा है कि जिस काल में विवेकी पुरुष सांसारिक विषय भोगों को सर्व प्रकार से त्याग कर ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत, चिन्तन में स्थित होता है। उस काल में उसका अज्ञान ऐसे भाग जाता है, जैसे वृक्ष के छेदन करने पर वृक्ष पर रहने वाला पिशाच भाग जाता है।

कैवल्योपनिषद् में कहा है कि न तो श्रौत स्मार्त कर्मों से, न पुत्र से, और न लौकिक पारलौकिक धन से पुरुष अमृतस्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है, केवल विषय भोगों के त्यागने से ही पुरुष अमृत्व मोक्ष को प्राप्त होता है।

न्यायदर्शन में कहा है कि त्रिगुणात्मक संसार के विषयों से वीतराग पुरुष का जन्म कहीं शास्त्र में नहीं देखा गया है। सराग का ही जन्म होता है वीतराग का पुनः जन्म नहीं होता है।

मैत्रायन्युपनिषद् में कहा है कि जैसे प्राणी का चित्त संसार के विषयों में सर्व प्रकार से आसक्त रहता है। ऐसे यदि आत्म स्वरूप ब्रह्म में पुरुष का चित्त आसक्त हो जाय तब कहो कौन प्राणी संसार के बन्धनों से मुक्त न होगा अर्थात् अवश्य ही मुक्त हो जाता है।

ब्रह्म बिन्दूपनिषद् में कहा है कि मन ही निश्चय रूप से पुरुषों को बन्ध और कैवल्य मोक्ष का कारण है। संसार के भोग पदार्थ विषयों में दृद राग वाला मन पुरुषों के बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन पुरुषों की मुक्ति का कारण है। भागवत में कहा है कि शुद्ध अशुद्ध मन ही पुरुष के पूर्व जन्म के शुभ अशुभ भावों को सूचित कर देता है।

गीता में कहा है कि हे कृष्ण ! मन अति चंचल है जिस का रोकना वायु के समान दुर्लभ है। ऐसे अर्जुन के प्रश्न करने पर कृष्ण भगवान् कहते हैं कि हे महावाहों कुन्ती पुत्र ! चंचल मन का विरोध करना दुर्लभ है इसमें कोई संशय नहीं परन्तु संसारी विषयों में नाशवान् दुःखकारी दोष दृष्टि रूप वैराग्य से और ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत के पुनः पुनः चिन्तन रूप अभ्यास से मन ऐसे वश में हो जाता है जैसे दो अंकुशों के परिहार से हस्ती वश में आ जाता है।

संसारी विषयों की सर्व वासना त्याग के बिना और सत्य, प्रिय, परिमित भाषण रूप मौन के बिना, ब्रह्मात्म स्वरूप उत्तम पद् की प्राप्ति नहीं होती है।

अन्नपूर्णोपनिषद् में कहा है कि वासना, अग्नि, ऋण, व्याधि और शत्रुओं का राग का बैर तथा विष इन सर्व का अति अल्प भाग भी शेष रहा हुआ महान बाधा करने वाला हो जाता है इस कारण से वासना आदि सर्व का मूल से त्याग, नाश करना उचित हैं।

योगदर्शन में कहा है कि चित्त की वृत्तियों का विषयों में दोष दृष्टि पूर्वक विरोध का नाम योग है उसको ही वेदान्त शास्त्र में शम कहा हैं। जिस चित्त वृत्ति के विरोध से शीघ्र ही सर्व पापों का नाश कर ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत, ज्ञानरूप ब्रह्म विद्या को प्राप्त करके पुरुष जीवनमुक्ति के आनन्द रूपी महान ऐश्वर्य वाला हो जाता है। उस विद्या का अवश्य ही सम्पादन करना चाहिये।

परमानन्द परब्रह्म है सो चेतन रूप मैं हूँ, इस प्रकार के चिन्तन का नाम ध्यान है और ऐसे ध्यान की विस्मृति करके केवल ब्रह्मात्म स्वरूप से सम्यक् जो स्थिति है उसका नाम ऋषियों ने समाधि विधान कहा है। जैसे जल में डाला हुआ सेंधा नमक का ढेला जल के साथ योग होने से जल रूप ही हो जाता है वैसे ही विषयों से विरोध कर एक ब्रह्मात्म स्वरूप के योग से आत्मा और मन की जो एक रूपता है उसका नाम भी समाधि कहा है।

यह विद्वान ज्ञानियों का अष्टांग योग है। संयमी पुरुष मन को स्थिर भाव कर शीघ्र ही अनात्म प्रत्ययों से रहित ब्रह्मात्मस्वरूप नाद को निश्चित ही धारण करें। निपुण वैद्य की औषधि से ज्वर निवृत्त हो जाय तब रोगी को शान्ती आ जाती है, वैसे ही अज्ञान युक्त प्राणी को अज्ञान रूपी ज्वर रूप दाह के कारण भोगों को भोगने की आशा रूपी प्यास सर्वदा बनी ही रहती है, परन्तु ब्रह्मवेत्ता को यह भोग पदार्थ रूपी जल रूचता नहीं हैं, क्योंकि बाजीगर के बनाये हुये मिथ्या मिष्ठानादि पदार्थ बुद्धिहीन बालक के सिवाय दूसरे किसी मनुष्य को खाने के लिये रूचि जनक नहीं होते हैं।

यजुर्वेद में कहा है कि ब्रह्मस्वरूप पुरुष परमात्मा की सत्ता से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता सिद्ध नहीं होती है। जैसे- जल की सत्ता से भिन्न तरंग, बुदबुदे आदि की सत्ता नहीं हो सकती है। ये ही नारायणोपनिषद् में कहा है कि सर्व का अधिष्ठान नारायण परमात्मा ही स्वरूप भूत है और यह जो वर्तमान, भूत, भविष्य काल का दृश्यमान प्रपंच है सो नारायण रूप ही है।

सर्व दोष कलंकों से रहित माया से रहित, विकल्प रहित, मन वाणी के विषय से रहित, शुद्ध बुद्ध प्रकाश रूपी देव त्रिविध, भेद रहित एक अद्वैत स्वरूप नारायण से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है इस श्रुति प्रतिपादित ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत ज्ञान के बिना कोई भी प्राणी मुक्त नहीं हो सकता है।

योग शिखोपनिषद् में कहा है कि जो मूढ पुरुष एक अद्वैत स्वरूप आत्मा और ब्रह्म में थोड़ा सा भी भेद मानकर स्थित होता है उस भेद द्रष्टा को महान जन्म मरण रूप भय की प्राप्ति वेद ने कही है।

तुरीयातीतोपनिषद् में नारायण ने कहा है कि वीतराग महान पुरुष है उसका चित्त निश्चित ही मेरे शुद्ध स्वरूप में ही स्थित रहता है और मैं परमानन्द रूप से सदा ज्ञात हुआ उस वीतराग महात्मा में स्थित रहता हूं।

कैवल्योपनिषद् में कहा है कि जाग्रत में, स्वप्न में, सुषुप्ति में, आदि से सविकल्प समाधि में, सर्व प्रपंच जिस सच्चिदानन्द परब्रह्म से प्रकाशित होता है सो परमानन्द ब्रह्म मैं हूं ऐसा निश्चित ब्रह्मत्म स्वरूप अद्वैत को जान कर पुरुष, संसार के सर्व बन्धनों से मुक्त होकर जीवन मुक्त हो जाता है।

नारायणोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मस्वरूप आत्मा अशुद्ध चित्त पुरुषों को अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है अर्थात् अज्ञान है और शुद्धचित्त पुरुषों को महान से भी महान व्यापक है अर्थात् ब्रह्म आत्मस्वरूप से ज्ञात है।

सर्वसारोपनिषद् में ब्रह्मवित्त ने कहा है कि न तो मैं कर्ता हूँ न भोक्ता हूं, प्रकृति रूप माया का प्रकाशक साक्षी हूँ मैं। सच्चिदानंद के सत्ता स्फूर्ति रूप सामीप्य सम्बन्ध से जड़ इन्द्रिय शरीरादि भी चेतन के समान स्व-विषयों में प्रवृत्त होते हैं। ऐसे असंग रूप से ब्रह्मनिष्ठ की स्थिति होती है।

सूत संहिता में सूतजी कहते हैं कि इस वृक्ष रूपी शरीर में दो पक्षियों के समान जीव-ईश्वर नाम वाले दोनों समान रूप वाले हुए साथ ही स्थित है जिन में जीव कर्मों के फल को भोगता है और नित्य शुद्ध स्वभाव परमेश्वर परमात्मा कर्मों के फल को न भोगता हुआ केवल साक्षी हुआ, प्रकाशक रूप से स्थित है।

मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि वृक्ष के समान नाशवान एक ही इस शरीर में जीव-ईश्वर दोनों स्थित है जिसमें पुरुष रूपी जीव अज्ञान रूप मोह में डूबा हुआ अन्नमय कोश देह में आत्मबुद्धि करके, मैं गौर हूं, मैं श्याम हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, ऐसा मानता हुआ शक्तिहीन रूपी अनिश्वरता से इष्ट की प्राप्ति अनिष्ट की निवृत्ति करने को निशक्त हुआ । अविवेक से दीनता रूपी मोह को प्राप्त हुआ शोक करता है।

जब कमियां करके सेवित जो देह उपाधि वाला जीव जिससे विलक्षण नित्य तृप्त सर्व का नियंता ईश्वर मैं हूँ ऐसे अद्वैत रूप से देखता है तब ईश्वर की इस ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत महिमा को जानकर कृत कृत्य हुआ सर्व शोक से रहित हो जाता है अर्थात् शोक समस्त प्रपंच का अधिष्ठान जो सत्यज्ञान आनन्द, घन, शुद्ध, बुद्ध, परब्रह्म सो मैं हूँ, ऐसा ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत निश्चय करके ! पुरुष से रहित हो जाता है।

जब विवेक से इस शुद्ध बुद्ध चेतन स्वरूप परमात्मा की और स्वनिजानन्द सर्व के साक्षी आत्मा कूटस्थ की ब्रह्मात्म स्वरूप परमानन्दकारी महिमा को जानता है, तब निश्चित ही आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वैत ज्ञान से निजानन्द को साक्षी करके यह पुरुष सर्व शोक से रहित हो जाता है।

पद्म पुराण में कहा है कि जो विवेकशील, निश्चित शुद्ध चित्त, पुरुष इन्द्रिय अगोचर सर्वव्यापी विष्णु परमदेव को और कल्याण रूपी महादेव को एक अद्वैत परमानन्द ब्रह्मस्वरूप से ही देखते हैं उन परमार्थ अद्वैतदर्शी महान विवेकी पुरुषों का पुनः संसार में जन्म नहीं होता है अर्थात् अद्वैतज्ञान से परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

और जो विवेकहीन पाप बुद्धि वाले पुरुष अपने निजात्मा को परमानन्द स्वरूप परमेश्वर से भिन्न मानते हैं, वे अद्वैत विचारहीन पुरुष उस ब्रह्मात्मस्वरूप प्रकाशमान देव को नहीं देख सकते हैं, उन भेददशी पुरुष का संसार में जन्म वृथा ही परिश्रमस्वरूप कष्ट भोगने के लिए ही होता है। हाँ भेद ग्राहग्रस्त प्राणियों की कष्ट गति है।

पदमपुराण में कहा है कि कल्याणरूप शिव में और सर्व व्यापी विष्णु में भेद नहीं हैं और वैसे ही ब्रह्म महादेव में भी भेद नहीं हैं। ऐस जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव तीनों को एक अद्वैत स्वरूप ब्रह्म देखने वाले हैं उन अद्वैतदर्शी महात्मा के चरणों की पवित्र रज पापनाशक को व्यासजी कहते हैं कि मैं मस्तक पर धारण करता हूँ।

विष्णु भगवान् लक्ष्मी के पूछने पर कहते हैं कि रमा देवी त्रिगुणात्मक माया से कल्पित रूप, यह मेरा शरीर है नाशवान् होने से यह शरीर वास्तव में सत्य स्वरूप नहीं हैं। सृष्टिधारक ब्रह्मा, स्थिति कारक विष्णु, संहार कारक शिव आदि शरीर, यह सर्व क्रिया जाल नाम रूप प्रपंच मायामय स्वप्नवत् कल्पित हैं और अस्ति भाति प्रियरूप से ब्रह्मस्वरूप हैं।

और भागवत् में भगवान् दक्ष ने कहा है कि हे ब्राह्मण ! हमारे एक अद्वैत स्वरूप ब्राह्मण विष्णु शिव इन सर्व भूत प्राणियों के आत्मा तीनों देवों में जो विवेकीजन भेद नहीं देखता है सो ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत दर्शी विवेकीजन अनर्थ की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति कैवल्य शान्ति स्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है। भेद दृष्टा मुक्त नहीं होता है।

कपिलदेवजी अपनी माता देवहूति से कहते हैं कि हे मात ! जो प्राणी सर्वभूत प्राणी वर्ग में स्थित व्यापी आत्मा को न जानकर मृत पाषाण की मूर्ति पूजता है, सो जानो राख में आहुति डालता है। आत्मस्वरूप चेतन में और परब्रह्म स्वरूप चेतन में जो मन्द बुद्धि जन अल्प मात्र भी भेद करता है उस भेद पापी जन को मैं यमराज रूप से महादारुण कष्ट रूपी नरक की महा पीड़ा रूपी भय दण्ड देता हूँ।

वेद रूप श्रुति स्मृति पुराण सर्व शास्त्र ब्रह्मस्वरूप आत्मा की अद्वैतता रूप एकता को प्रतिपादन करते हैं, तो भी ह्त भाग्य मनुष्य ब्रह्मात्म स्वरूप परमाद्वैत को निज मोक्ष के लिये जानने की इच्छा ही नहीं करते हैं इससे परे निज के साथ और शत्रुता क्या है ?

कूर्म पुराण में भगवान ने प्रिय भक्त से कहा है कि सर्व संसारी जनों के संगों का परित्याग कर और सर्व प्रपंच को स्वप्न के समान कल्पित मिथ्या मायामय जान करके, ब्रह्मात्मस्वरूप एक अद्वैत, आत्मा तत्त्व को सर्वदा निश्चय करें, तब आप अद्वैत स्वरूप परमानन्द परब्रह्म परमेश्वर को निजानन्दात्म स्वरूप से शुद्ध बट देख लेवोगे ।

जो चेतन स्वरूप विष्णु है, सोई चेतन रूप रूद्र है, जो रूद्र है सोई असुरों का मर्दक विष्णु जनार्दन है। इन विष्णु शिव दोनों को जो विवेकीजन एक अद्वैत भाव से देखते हैं वे एक अद्वैत, परमार्थदर्शी पुरुष ही परमानन्द कैवल्य मोक्ष के भागी होते हैं दूसरे नहीं।

स्कन्धपुराण में कहा है कि जैसे राजा अपराधी जन को फांसी की सजा सुनाकर ही पांच मिनट में कहे कि यह नाना मिष्ठान पड़े हैं जो तुम्हारी इच्छा हो सो खाओ।

तब वह अपराधी पांच मिनट के बाद निज मृत्यु को जान कर कुछ नहीं खा सकता है। वैसे ही यह विवेकीजन यदि अपने मस्तक पर प्राप्त हुयी फांसी के समान मृत्यु को शिर पर स्थित हुयी को सर्वदा देखें तब प्राणी क्षुधा होने पर भी नाना प्रकार के मिष्ठान भोजन खाने की इच्छा नहीं करता है और जो करने के अयोग्य पाप कर्म हैं उस अकर्त्तव्य कार्य का तो क्या ही करना था।

ऐसे मस्तक स्थायी मृत्यु को देखने वाले वीतराग महात्मा ब्रह्मात्म सुखरूप अद्वैत ज्ञान निष्ठ हुये अनित्य संसारी पदार्थों में राग नहीं करते हैं।

विवेक चूड़ामणि में कहा है कि यह दृश्यमान अद्वैत रूप प्रपंच सर्व मायामय कल्पित होने से मिथ्या हैं और ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत परमानन्द रूप परमार्थ होने से सत्य है। ऐसा श्रुति कहती है और सुषुप्ति काल में एक परमानन्द अद्वैत सर्व प्राणियों को साक्षात् अनुभव सिद्ध है, श्रुति सिद्ध और अनुभव सिद्ध परमानन्द अद्वैत को जो पापी नहीं मानता है सो मूढ कष्टकारी संसार कूप में पड़े हैं।

विवेक चूड़ामणि में कहा जो ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत निष्ठ गत् पूर्वकाल की वस्तु के विचार से उपराम हैं और भविष्यत काल के पदार्थ का विचार ही नहीं करता हैं और प्राप्त वर्तमान काल के संसारी पदार्थों में भी जो उदासीन साक्षी भाव से स्थित है वह जीते हुये ही परमानन्द सुख लेने वाले जीवनमुक्तों का लक्षण है।

ईशावास्योपनिषद् में कहा है कि जिस काल में ब्रह्म स्वरूप आत्मा को जान लिया है, तब विवेकी जन को निश्चित ही ब्रह्मा से लेकर चींटी पर्यन्त सर्व भूत प्राणी ब्रह्मात्म स्वरूप ही प्रतीत होते हैं। सर्व प्राणी वर्ग का आत्मा मैं हूँ, ऐसा ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान होने काल में ब्रह्मवित को निजात्म का आवरणात्मक मोह नहीं हो सकता है और विक्षेप रूप शोक नहीं हो सकता है, वही जीवनमुक्ति का सुख है।

ब्रह्मबिन्दुपनिषद् में कहा है कि बुद्धिमान पुरुष अद्वैत बोधक वेदान्त शास्त्र के ग्रन्थ समूह का सम्यक् ज्ञान पर्यन्त और ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत परमानन्द तत्त्व के अपरोक्ष ज्ञान पर्यन्त गुरु मुख द्वारा अभ्यास करके सर्व ग्रन्थों को ऐसे परित्याग कर, जैसे कृषि वाला धान्य का अभिलाषी पलाल में से धान्य को निकाल कर भूस्सी रूप पलाल को निस्सार जानकर परित्याग कर देता हैं वैसे ही शास्त्र ग्रन्थों में से ब्रह्मात्म अद्वैत ज्ञान को निश्चय कर अन्य ग्रन्थों को त्याग दें।

स्वराज्य सिद्धि में कहा है कि संसार में निश्चित वो ही पुरुष कन्यवाद के योग्य हैं और वो ही पुरुष सर्व से माननीय है जिसका कुल श्री पुनः पुनः धन्यवाद के योग्य हैं। जो पुरुष संसार रूपी कारागृह में इन्धन करने वाले कर्म रूपी बेड़ी का परित्याग करके, वेद प्रतिपादित सार ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत परमानन्द में चित्त को लगाकर, नित्य निर्भय निजानन्द आत्मस्वरूप में परमानन्दी नित्य तृप्त हुआ विरक्त पुरुष ही जीवनमुक्त कहा जाता है।

पैङ्गलोपनिषद् में कहा है कि जो विरक्त विद्वान ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत परमानन्द रूपी प्रकाश की शिक्षा से और पवित्र आचरण रूपी शीतलता से विवेक सचक्षु पुरुषों के अज्ञान रूपी अन्धकार और शोक रूप ताप को हरता हुआ चन्द्रमा के समान संसार में विचरता है और ब्रह्मात्म अद्वैत विचार का प्रतिबन्धक कुटि, मठ, बन्धनादि से रहित जो विद्वान विरक्त पुरुष हैं वो ही संसार में जीवनमुक्त कहा जाता है। ऐसे विद्वान विरक्त जीव नमुक्त पुरुष चाहे तो पवित्र तीर्थ भूमि में देह का परित्याग करे, चाहे अति अपवित्र श्वपच चाण्डालादि के गृह में देह का परित्याग करे सो निश्चित ही अपुनरावृत्ति रूप परमानन्द कैवल्य मोक्ष को प्राप्त होता हैं।

नृसिंहोत्तरतापिन्युपनिषद् में कहा है कि जिस ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत् ज्ञानी विरक्त विद्वान जीवनमुक्त के देह पात होने पर, प्राण किसी लोकान्तर को उत्क्रमण रूप गमन नहीं करते हैं। निश्चित इसी लोक में अपने कारण रूप समष्ठि वायु में लय हो जाते हैं, क्योंकि ब्रह्मस्वरूप आत्मा की कामना से भिन्न-हिरण्य गर्भ आदि शरीरों की कामना न होने से लोकान्तर को अद्वैत् ब्रह्मात्मवित्त के प्राण नहीं जाते हैं स्सो जीवनमुक्त विरक्त जीता ही ब्रह्म स्वरूप हुआ, देह पात होने से भी निश्चित विदेह मोक्ष रूप परब्रह्म को ही प्राप्त होता है।

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FAQs

अद्वैत ब्रह्म प्राप्ति क्या है?

अद्वैत ब्रह्म प्राप्ति का अर्थ है आत्मा (जीवात्मा) और ब्रह्म (सर्वव्यापी चेतना) की एकता का अनुभव करना। यह वेदांत दर्शन का मूल सिद्धांत है, जिसमें आत्मा और ब्रह्म को एक ही माना जाता है।

अद्वैत ब्रह्म अन्य ब्रह्म पूजा से कैसे भिन्न है?

अद्वैत ब्रह्म में, आत्मा और ब्रह्म के बीच कोई भेद नहीं होता, जबकि द्वैतवाद में उपासक और भगवान अलग माने जाते हैं। अद्वैत दर्शन में व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म से एक मानता है।

मैत्रेय्योपनिषद् के अनुसार आंतरिक पूजा (अंतर पूजा) क्या है?

मैत्रेय्योपनिषद् में आंतरिक पूजा का अर्थ है अपने शरीर को मंदिर के रूप में देखना और जीवात्मा को शिव के प्रकाश रूप में पहचानना। इसमें अज्ञान रूपी नैवेद्य को समर्पित कर सच्चिदानंद ब्रह्म की प्राप्ति का अनुभव होता है।

पद्म पुराण में वर्णित आठ पुष्प क्या हैं?

पद्म पुराण के अनुसार, अंतर्यामी भगवान के संतोष हेतु आठ प्रतीकात्मक पुष्प हैं: अहिंसा (प्रथम पुष्प), इंद्रियों का निग्रह (दम), दया (तीसरा पुष्प), क्षमा, मन का निग्रह (राम), संतोष, ध्यान, और सत्य भाषण।

अद्वैत दर्शन में वैराग्य का क्या महत्व है?

अद्वैत दर्शन में वैराग्य का महत्व अत्यधिक है। वैराग्य का अर्थ है सांसारिक वस्तुओं और इच्छाओं का त्याग, जो मन को शुद्ध करता है और आत्म-ज्ञान की ओर ले जाता है।

अद्वैत दर्शन में जन्म और मृत्यु का क्या प्रभाव है?

अद्वैत में जन्म और मृत्यु को माया का भाग माना जाता है। जब व्यक्ति आत्मा के सत्य स्वरूप को पहचान लेता है, तब वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है, जिसे मोक्ष कहा जाता है।

तीन वासनाएं (वासना) क्या हैं जो आत्मिक विकास में बाधा डालती हैं?

तीन वासनाएं हैं: देह वासना (शरीर से जुड़ी इच्छाएं), शास्त्र वासना (अधिक से अधिक शास्त्र पढ़ने की इच्छा), और लोक वासना (समाज में प्रतिष्ठा की इच्छा)। इनसे छुटकारा पाना आत्म शुद्धि के लिए आवश्यक है।

अद्वैत दर्शन में मन की शुद्धि का क्या महत्व है?

अद्वैत दर्शन में मन की शुद्धि का अर्थ है सभी इच्छाओं, अहंकार, और अज्ञान को त्यागना। यह आत्म-ज्ञान प्राप्त करने और ब्रह्म से एकता के अनुभव का मार्ग है।

विवेक (भेद बुद्धि) का आत्मा-ब्रह्म प्राप्ति में क्या महत्व है?

विवेक का अर्थ है नित्य और अनित्य वस्तुओं में भेद करना। यह ज्ञान आत्मा-ब्रह्म की एकता को समझने के लिए आवश्यक है और मोक्ष की दिशा में बढ़ने का साधन है।

योग वसिष्ठ में विषयों से विरक्ति (वैराग्य) का क्या महत्व है?

योग वसिष्ठ में कहा गया है कि सांसारिक इच्छाएं और विषय भोग अनर्थकारी होते हैं। वैराग्य द्वारा, व्यक्ति ब्रह्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है और आत्मा-ब्रह्म की एकता का अनुभव करता है।


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Deepika patidar is a dedicated blogger who explores Hindu mythology through ancient texts, bringing timeless stories and spiritual wisdom to life with passion and authenticity.

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