मोक्ष पुरूषार्थ
अनेकानि च शास्राणि स्वल्पायुर्विघ्नकोटयः ।
तस्मात्सारं विजानीयात्क्षीरं हंस इवाम्भसि ||1||
प्रथम वेदविहित दुःख- सम्बन्ध से रहित पुरुष के इष्ट सुख का जनक धर्म पुरुषार्थ कहा। दूसरा न्याय-उपार्जित धन-धान्य आदि से पुरुष को इष्ट सुख का जनक अर्थ पुरुषार्थ कहा। तीसरा स्त्री पुत्र आदि से पुरुष को इष्ट सुखका जनक काम पुरुषार्थ कहा। इन तीन पुरुषार्थों का सुख जन्य होने से नाशवान है और नित्य परमानन्द शुद्ध बुद्ध अक्रिय अविनाशी आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से अज्ञानसहित दुःखरूप प्रपंच अनर्थ की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति रूप पुरुष का परम इष्ट सुखरूप मोक्ष पुरुषार्थ चतुर्थ अब कहते हैं।
जिज्ञासु को आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वैतज्ञान के लिये जो धर्म अर्थ काम इन तीन पुरुषार्थ रूप प्रपंच का शुद्धात्मस्वरूप ब्रह्म में तीन काल में भी न हुए का जो कथन है सो अध्यारोप है। अब शुद्ध आत्मस्वरूप ब्रह्म में अज्ञान से अध्यारोपित जो अर्थ, धर्म, काम इन तीन पुरुषार्थ रूप प्रपंच का निषेध रूप अपवाद का कथन करते हैं।
गरुड़ पुराण में कहा है कि संसार में बहुत से अनेकों ही शास्त्र हैं और तिन के अर्थ जानने के योग्य बहुत से हैं और गूढ़ हैं पुरुष की आयु अति अल्प है तिस अल्प आयु में भी करोड़ों ही विघ्न प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी दशा में सर्व शास्त्रों को अध्ययन करके पुरुष पार नहीं पा सकता है इशलिये सारग्राही पुरुष साररूप आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वितीय ज्ञान को प्राप्त करे।
जैसे हसपक्षी अपने मुख की वायु से जल में मिले हुए दूध सार को भिन्न कर ग्रहण कर लेता है तैसे ही स्थूल देह अन्नमय आदि पञ्च कोशों में जो आत्मबुद्धि है सो एक अनात्मरूप जल में आत्मरूप दूध मिला हुआ है तिस साररूप आत्मदूध को विवेकादि साधनयुक्त वेदान्तविचारशील बुद्धिमान् परमहंस महात्मा अनात्मारूप जल से भिन्न करके जानते है ।।1।।
तत्रापि मोक्ष एवार्थ आत्यन्तिकतयेष्यते ।
त्रैयोंऽथों यतो नित्यं कृतान्तभयसंयुतः ||2||
भागवत में कहा है कि धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों को भययुक्त अनित्य कहा है। तिन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थों में अनर्थ की निवृत्ति परमानन्द की प्राप्ति रूप मोक्ष पुरुषार्थ मुमुक्षु पुरुष को अत्यन्त ही अभिलाषित है क्योंकि धर्म, अर्थ, काम ये त्रिवर्ग रूप तीन पुरुषार्थ नाशवान होने से सर्वदा प्राणियों के नाश करने वाले यमराज के भय से युक्त हैं और नित्य परमानन्द स्वरूप मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है सर्व भयों से रहित अभय रूप है ||2||
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः ||3||
गीता के उपसंहार में कृष्णचन्द्र परमानन्द ने कहा है कि हे अर्जुन ! परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति के लिये सर्व धर्म और अधर्मों का परित्याग कर। कठवली उपनिषद् में धर्म अधर्म दोनों का त्याग कहा है। मेरे को एक अद्वैत स्वरूप सर्व प्राणियों का आत्मा, जन्म जरा मरण आदि से रहित सच्चिदानन्द, सर्वानर्थ की निवृत्ति रूप कृष्ण को अपनी आत्मा जान।
ऐसे अद्वैत की शरण को प्राप्ति हो ऐसे निश्चित् अद्वैत बुद्धि वाले तेरे को आत्मज्ञान स्वरूप प्रकाश करके मैं सर्व धर्म अधर्म बन्धन रूप पापों से मुक्त कर देऊंगा शोक न करो। अथवा धारण करने से धर्म कहा है! अन्नमयादि पञ्च कोशों को धारण- आत्मक भ्रांति रूप सर्व धर्मों का त्याग कर मैं जो सर्व का धारक अधिष्ठान एक अद्वैतस्वरूप धर्म तिसकी शरण हो । आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से ही सर्व पापों का नाश कहा है ।।3।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य निर्ममो निरहंकारो |
भूत्वा ब्रह्येष्ठं शरणमुपगम्य ||4||
निरालम्बोपनिषद में कहा है कि सर्व धर्मों का परित्याग करके निर्ममता निरहंकार होकर आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वितीय विभु परमानन्द ब्रह्म मैं हूँ। ऐसे सच्चिदानन्द अद्वैत दृष्ट सुख स्वरूप की शरण को जिज्ञासुजन प्राप्त होवें ऐसा श्रुति भगवती कहती है ||4||
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयंधीराः पण्डितं मन्यमानाः ।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढ़ा अन्धेनेव नीयमाना यथान्धाः ||5||
कठवल्ली उपनिषद् में नचिकेता से यमराज ने कहा है हे परम-पुरुषार्थ मोक्ष में प्रमादहीन नचिकेता ! बहुत से पुरुष मूर्खता रूप अविद्या के चक्र में वर्तमान हुए अपने को धैर्य वाले और पण्डित मानते हैं !
अहंकार से धर्म आदि आत्मविचार में मूढ़ पुरुष परलोक और परमानन्द से वञ्चित हुए जैसे अन्धे पुरुष ने पकड़कर अन्धे को मार्ग में प्राप्त कराना चाहा तब दोनों खड्डे में जा पड़े ऐसे ही आत्मविद्या वाले सचक्षु सदाचारी से मोक्ष मार्ग न पूछ कर अहंकारी दम्भी के पीछे चलने वाले मूढ़ जन दोनों नरक में पड़ते हैं ।।5।।
न सांपरायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम् ।।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ||6||
हे नचिकेतः । धन के मोह से और अहंकार से अन्ध प्रमादी मूढ़ बालबुद्धि पुरुष को शास्त्र विहित कर्म उपासना आत्मज्ञान यह पारलौकिक मार्ग प्रतीत नहीं होता है। ऐसे धन के मद से अन्ध पुरुष को यह मर्त्य लोक भी सुखकारी नहीं हैं। परलोक की प्राप्ति तो अति दुर्घट है। ऐसा मानी पुरुष बारम्बार मुझ यमराज के वश में पुनः पुनः नरक भोगने के लिये प्राप्त होते हैं ।।6।।
विमोहयन्ति संपत्सु तापयन्ति विपत्सु वा ।
वेदयन्त्यर्जने दुःखं कथमर्था: सुखावहाः ||7||
पद्मपुराण में कहा है कि विचार करने पर धन किसी काल में भी सुख नहीं देता है क्योंकि धन संपत्ति के प्राप्त होने पर मोह अहंकार से अन्ध हुए पुरुष पूजनीय पुरुषों का तिरस्कार कर दुर्गति के भागी होते हैं और धन संपत्ति के प्राप्त न होने पर पुरुष तपते रहते हैं. और कहते हैं कि हम धन के होने पर ऐसा कार्य करते और ऐसे धर्म कर्म करते अब हमारी धन हीनों की क्या गति होगी धन के उपार्जन करने में झूठ दम्भ कपट करते हुए दुर्जन नीच जाति वाले धनियों की शासना सहते हुए महाकर भोगते हैं कहो धन संपत्ति रूप अर्थ धर्म हीन पुरुषों को किस काल में सुख प्राप्त कराने वाले हैं ||7||
न पश्यतीह जात्यन्धो रागान्धोऽपि न पश्यति ।
न पश्यति मदोन्मत्तो लोभाक्रान्तो न पश्यति ||8||
वामनपुराण में कहा है कि इस संसार में एक तो जन्म अन्ध पुरुष कुछ नहीं देख सकता हैं, दूसरा पुत्र स्त्री आदि में राग से अन्ध हुआ अपने कल्याण का मार्ग नहीं देख सकता है। तीसरा धन के मद से अन्ध वा सुरा आदि के पान से मदोन्मत्त हुआ नहीं देख सकता है, चतुर्थ लोभग्राह से ग्रस्त होने पर लोभ करके अन्धा हुआ पुरुष धर्म-कर्म तथा पूजनीय अपूजनीय को नहीं देख सकता है ।।8।।
भौगश्वर्यमदोन्मत्तस्तत्त्वज्ञानपरांमुखः ।
संसारे सुमहापके जीर्णा गौरव मज्जति ।।9।।
नरसिंह पुराण में कहा है कि धन भोग और ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त पुरुष जीव ब्रह्म की एकता रूप तत्वज्ञान से बहिर्मुख हुआ संसार के विषयरूप कीच में ऐसे डूब जाता है जैसे अति जीर्ण गौ माहदलदल (कीचड़ में फंसने पर डूब (मर) जाती है।।9।।
असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्रयं च परमञ्जनम् ।
आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते ||10||
भागवत में कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव धनमद से सुरापान के मद से उन्मत्त ऋषि महात्माओं की अवग्याकारियों को यमलार्जुन रूप वृक्ष होने का शाप देने पर नारदजी ने कहा है कि धनलक्ष्मी के मद से अन्ध दुर्जन के बुद्धिरूप नेत्र खोलने के लिये दरिद्री होना ही परम अंजन है क्योंकि सर्वभूत प्राणियों के दरिद्री अपने ही आत्मा के समान करुणा दृष्टि से देखता है। अहो आश्चर्य है देवताओं की भी धनादि के मद से दुर्गति होती है तो पुरुषों की तो क्या ही कथा है ||10||
प्रायेणार्थाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन ।
इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च ||11||
भागवत में कहा है कि अवंतिकापुरी में एक कृपण धर्म-कर्म-हीन द्विजने धनसंग्रह से किसी को भी सुख नहीं दिया था। जब सम्बन्धियों ने उसका सर्वधन छीन लिया तब कृपण द्विज ने भिक्षु होकर वैराग्य से पश्चाताप करने हुए ने यह कहा कि कृपण पुरुषों को धन किसी काल में भी बहुलता करके सुख देने वाला नहीं है। इस लोक में धन से खान- पान आदि सुख न लेकर कृपण पुरुष धन के उपार्जन, रक्षण आदि के कष्टों से तपते ही रहते हैं। धर्म न करने से मृत हुए कृपणों को धन नरक की प्राप्ति के लिये ही होता है ||11||
अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये ।
नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ताभ्रमो नृणाम् ।।12।।
धन के प्राप्त करने में, प्राप्त करे हुए की बढ़ाने में, बड़े हुए की रक्षा करने में, खर्च होने में, चोरादि से नाश होने पर, खान-पान, भोगादि में खर्च हो जाने पर पुरुषों को भय, चिन्ता, परिश्रम, भ्रान्ति आदि बहुत से कष्ट होते हैं ।।12।।
स्तेयं हिंसाऽनृतं दंभः कामः क्रोधः स्मयो मदः ।
भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्द्धा व्यसनानि च ।।13।।
धन की प्राप्ति करने में, चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, ये छे: अनर्थ होते हैं और धन के प्राप्त हो जाने पर सूक्ष्म अहंकार, प्रगट मद, सर्व से भेद रखना, बैर करना, विश्वास न होना, ईर्षा करनी और स्त्री में सक्त होना, द्यूत क्रीड़ा, सुरापान ये तीन व्यसन कहे जाते हैं ये नव अनर्थ धन की रक्षा और व्यय में होते है ।।13।।
एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम् ।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् ।।14।।
छे और नब ये मिलकर पन्द्रह अनर्थ पुरुषों को धन के कारण से माने गये हैं। इस प्रकार से अनेक अनर्थों का कारण जो अर्थ नामक धन हैं तिस अनर्थकारी अर्थ नामक धन को मुक्ति की इच्छा वाला पुरुष दूर से ही परित्याग कर दे ।।14।।
अर्थसंपद्विमोहाय विमोहो नरकाय च ।
तस्मादर्थमनर्थाय श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् ।।15।।
पद्मपुराण में कहा है कि भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, वामदेव, असित, अँगिरा ये सप्त महाऋषि बारा वर्ष का दुर्भिक्ष काल पड़ने पर अन्न की अप्राप्ति से किसी के मरे हुए लड़के को उठाकर खाने के लिये वन में लिये जाते थे। तब एक राजा ने सप्त ऋषियों से कहा कि इस मृत बालक को आप क्यों लिये जाते हो। यह सुन ऋषियों ने कहा कि अन्न न मिलने के कारण इस मृत बालक को खाकर क्षुधा निवारण करेंगे।
राजा ने कहा आप लोग धर्म-मर्यादा के स्थापक ऐसा अधर्म क्यों करते हो, चलो हमारे राज मन्दिर में जो आप लोगों को मिष्टान्न आदि खाने की इच्छा हो सो खाना । तब ऋषियों ने विचारकर कहा कि राजा के अन्न से तो अमेध्य नरमांस खा लेना ही अच्छा है। ऐसा कहकर ऋषि मृत बालक को लेकर बन को चल दिये। राजा ने विचारा कि यदि यह राजधन ऋषियों की सेवा में लग जाय तो हमारा शुभ हो, ऐसा निश्चय कर राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा कि जैसे ऋषियों को मालूम न हो ऐसे फलों में मोहरें भरकर रख दो ।
तब राजकर्मचारियों ने ऐसा ही करा। ऋषियों ने मार्ग में फल देखकर कहा कि इन फलों का कोई स्वामी नहीं है ये फल खा लेने चाहिये एक जब तक ऋषि ने खाने के लिये फल उठाकर देखा तो फल में मोहरों को देखकर उसका त्याग कर दिया और कहा कि धन रूप अर्थ संपत् पुरुषों को विशेषकर मोह के लिये ही होती है और मोह नरक के देने के लिये होता है अर्थात् धनरूप अर्थ पुरुषों को सर्वदा अनर्थ के लिये ही होता है। अस्तु मुक्ति की इच्छावाला पुरुष नरकप्रद अनर्थकारी अर्थरूप धन को दूर से ही त्याग दे ।।15।।
यस्य धर्मार्थमर्थेहा तस्यानीहा गरीयसी ।
प्रक्षालनाद्धि पस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ।।16।।
जिस पुरुष को धर्म करने के लिये धन की इच्छा है तिस पुरुष को भी धर्म के लिये धन की इच्छा से रहित होना ही श्रेष्ठ है। जैसे कर्दम कीच का स्पर्शकर फिर उस कीचको जल से धोने के परिश्रम से प्रथम ही कर्दमकीच आदि का दूर से ही स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ है वैसे ही कीचरूप धन-प्रतिग्रह को ग्रहण कर जो पुरुष फिर सुपात्र को खोजकर धर्म दानरूप जल से धन प्रतिग्रह रूप पापकीच को धोता है उस पुरुष से धन-प्रतिग्रह रूप कीच का दूर से ही त्याग कर स्पर्श न करने वाला पुरुष श्रेष्ठ है।
ऐसा विचारकर सप्त ऋषि फलों के सहित धन को मलमूत्र के समान त्याग कर चले गये। तब धन से उपराम हुए ऋषियों को देखकर राजा ने कहा कि जिस पुरुष का धन ऋषि महात्माओं की सेवा में नहीं लगता है उस धन से जीवन व्यतीत करना व्यर्थ है। ऐसा विचारकर राज्य को त्यागकर राजा एक आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वैत को जानकर वीतराग जीवन्मुक्त हो गया ।।6।।
तपोमार्गागंलां शश्वन्मुक्तिद्वारकपाटिकाम् ।
हरिभक्तिव्यवहितां सर्वमायाकरण्डिकाम् ||17||
संसारकारागारे च शश्वन्निगड़रुपिणीम् ||18||
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि इस संसार में पुरुष के चित्त एकाग्रता रूप तपोमार्गद्वार को बन्द करने वाली स्त्री एक लोहदंड रूप अर्गला है, स्त्री ही निरन्तर सर्वदा मुक्तिद्वार को बन्द करने वाली दृढ़ कपाटिका है पापहारी मोक्षकारी हरिभक्ति में व्यवधान करने वाली स्त्री एक पड़दा है, झूठ कपट दम्भ रूप सर्वमाया की स्त्री एक पिटारी है और दुःखकारी इस संसाररूप कारागृह में बांध देने वाली स्त्री एक प्राचीन बेड़ी रूप है तिस स्त्री रूप बेड़ी को काटना ( त्यागना) शूरवीर बुद्धिमान् पुरुषों का काम है। इसी प्रकार स्त्री पुरुष को संसार में बन्धन रूप बेड़ी है ।।17।। 18 ।।
सुधामयं वचो यासां कामिनां रसवर्धनम् ।
हृदयं क्षुरधाराभं प्रियः को नाम योषिताम् ।।19।।
भोगवयं धनं पूर्ण मनः कुटिलभाषणैः ।
कान्ता हरति सर्वस्वं कः स्तेनस्तादृशोऽपरः ||20||
पद्म पुराण में कहा है कि गोकर्ण के भ्राता धुन्धुकारी को स्त्रियों ने कहा कि आप हमारे को धन लाकर देवो हम आपकी दासियां है। ऐसे खियों के मीठे वचनों से मोहित होकर धुन्धकारी राजधन चुराकर लाया। तब स्त्रियों ने मीठे वचनों से धन लेकर धुन्धुकारी की जीर्य-बल से हीन जानकर उसको रात्रि में बान्धकर मुख में जलती अग्नि डालकर अपमृत्यु से मार दिया।
ऐसी स्त्रियों की कठोरता पर व्यासजी ने कहा है कि जिन स्त्रियों के बच्चन तो मीठे-मीठे अमृत के समान हैं और रागी पुरुषों को राग और काम बढ़ाने वाले हैं और स्त्रियों का हृदय छुरे की धारा के समान तीक्ष्ण है। स्त्री पति को भी घात कर देती है।
ऐसी स्त्रियों को संसार में कौन पुरुष प्रिय है स्त्रियों को किसी प्राणी पर भी दया नहीं आती देवीभागवत में कहा है कि स्त्री पुनः पुनः भोग करके पुरुष के वीर्य और सर्वधन को हर लेती है और हाव भाव के कुटिल भाषणों से मन को हर लेती है। स्त्री पुरुष के सर्वस्व को हर लेती है स्त्री के समान पुरुष को लूटने वाला और कोई चोर नहीं है ।।20।।
अलभ्यमानस्तनयः पितरौ क्लेशयेच्चिरम् ।
लब्धोऽथ गर्भपातेन प्रसवेन च बाधते ।।21।।
याज्ञवल्क्योपनिषद् में कहा है कि पुत्र के न प्राप्त होने पर माता-पिता को पुत्र न उत्पन्न होने का चिरकाल तक क्लेश होता है और गर्भ प्राप्त होने पर गर्भपात न हो जाय इस भय से पुत्र केश देता है। बालक उत्पन्न होने पर कभी-कभी स्त्रियाँ मर जाती हैं यदि न भी मरें तो भी प्राणान्त कष्ट तो प्रसव काल में होता ही है ।। 21।।
जातस्य ग्रहरोगादि कुमारस्य च धूर्तता ।
उपनीतेऽप्यविद्यत्वमनुद्वाहश्च पण्डितः ।।22।।
और उत्पन्न हुए बालक को नवग्रहों के कोप से बहुत से रोग हो जाते हैं। इससे भी माता-पिता को अति कष्ट होता है। कुमारावस्था में धूर्तता का दुःख होता है और यज्ञोपवीत संस्कार होने पर भी पुत्र के मूर्ख रहने का माता-पिता को दुःख होता है और पुत्र के पंडित होने पर भी पुत्र के विवाह न होने पर माता-पिता को महान् कष्ट होता है।।22।।
पुनश्च परदारादि दारिद्रयं च कुटुम्बिनः ।
पुत्रदुःखस्य नास्त्यन्तो धनी चेन्द्रियते तदा ।। 23।।
विवाह हो जाने पर भी युवान् पुत्र के परस्त्री गमन आदि व्यसनों से माता-पिता को कष्ट होता है और पुत्र के व्यसनी न होने पर भी कुटुम्बी होकर दरिद्री हुए, माता-पिता को अतिकष्ट होता है। यदि पुत्र धनी भी हुआ और उसकी मृत्यु हो जाय तो भी माता-पिता को अति कष्ट होता है। कहाँ तक कहे पुत्र के दुःख का कोई अन्त ही नहीं है।
माता-पिता के प्रारब्ध- जन्म दुःख को श्री रामचन्द्र और कृष्णचन्द्र ईश्वर भी पुत्रभाव से प्राप्त हुए दूर न कर सके तो फिर अति पापात्मा कर्म-धर्म से हीन आजकल के पुत्रों से दुःख दूर करने की और सुख प्राप्त करने की आशा रखना महामूर्खता है। आत्म ब्रह्म के अद्वैतज्ञान के निश्चय से बिना सर्व दुःखों का नाश और परमानन्द की प्राप्ति होना दुर्घट है ||23||
आत्मतीर्थ समुत्सृज्य बहिस्तीर्थानि यो व्रजेत ।
करस्थं च महारत्नं त्यक्त्वा काचं विमार्गते ||24||
श्री जाबालदर्शनोपनिषद् में कहा है कि सत्य ज्ञान आनंद स्वरूप आत्मतीर्थ का परित्याग करके जो पुरुष मृत् पाषाण जल रूप बाहर के तीर्थों में भ्रमण करता है ऐसा पुरुष बुद्धिहीन माना जाता है जैसे कोई पुरुष हाथ में प्राप्त हुए महान् मोल वाले रत्न को त्याग करके तुच्छ काँच के टुकड़े को खोजता फिरता है ।। 24।।
निगृहीतेन्द्रयग्रामो यत्रैव वसते नरः ।
तत्र तस्य कुरुक्षेत्रं नैमिषं पुष्करं तथा ||25||
स्कंदपुराण के अयोध्या महात्म्य में कहा है कि इन्द्रिय समूह को जीतने वाला पुरुष जिस किसी भी स्थान में वास करता है तिस पुरुष को तिसी स्थान में महापुण्यकारी कुरुक्षेत्र तीर्थ तथा नैमिषारण्य और पुष्कर आदि सर्व तीर्थ प्राप्त हो जाते हैं। एक क्षण भी एकाग्र चित्त से आत्म विचार करने पर पुरुषों को सर्व तीर्थों का पुण्य फल प्राप्त हो जाता है ||25||
उप समीपे यो वासो जीवात्मपरमात्मनोः ।
उपवासः स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम् ||26||
वराहोपनिषद् में उपवास का यह अर्थ करा है कि जीवात्मा और परमात्मा की उप अर्थात् समीप में वास नाम एक अद्वैत अभेदस्वरूप से जो स्थिति है ऐसे अद्वैत निश्चय का नाम उपवास जानना। यह ब्रह्मवित् अद्वैतवादी महात्माओं का उपवास है और अज्ञानियों का हठ करके जो क्षुधा पिपासा आदि से शरीर का शोषण करना रूप उपवास है सो उपवास अद्वैत ब्रह्मविचारशील महात्मा पुरुषों का नहीं है। क्योंकि शुद्ध बुद्ध अक्रिय अविनाशी विभु सच्चिदानंद अद्धय ब्रह्म सर्व का आत्मा होने से नित्य प्राप्त है।
अज्ञान से अप्राप्त के समान ब्रह्म प्रतीत होता है। जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतज्ञान के निश्चय से अज्ञान की निवृत्ति होना ही नित्य प्राप्त ब्रह्म की प्राप्ति है। तिस आत्मस्वरूप ब्रह्म के अद्वैत ज्ञान से भिन्न ब्रह्म की प्राप्ति में सर्वक्रिया कर्मजाल का निषेध रूप अपवाद करा है ||26||