अनेकानि च शास्त्राणिं स्वल्पामुर्विघ्नकोटयः

तत्मात्सारं विजानीयात्क्षीरं हंस इवाम्भासि ।।

गरुड़ पुराण में कहा है कि संसार में बहुत से अनेक शास्त्र हैं। उनके अर्थ जानने के योग्य बहुत से हैं और गूढ़ हैं। पुरुष की आयु अति अल्प है। इस अल्प आयु में भी करोड़ों ही विघ्न प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी दशा में सर्व शास्त्रों को अध्ययन करके पुरुष पार नहीं पा सकता है इसलिये सारग्राही पुरुष साररूपी आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वितीय ज्ञान को प्राप्त करें।

जैसे हंस पक्षी अपने मुख की वायु से जल में मिले हुए दूध सार को भिन्न कर ग्रहण कर लेता है वैसे ही स्थूल देह अन्नमय आदि पंचकोशों में जो आत्मबुद्धि है सो एक अनात्म रूपी जल में आत्म-रूपी दूध मिला हुआ है वैसे सार रूपी आत्म दूध को विवेकादि साधनयुक्त वेदान्त विचारशील बुद्धिमान, परमहंस, महात्मा अनात्मारूपी जल से भिन्न करके जानते हैं।

भागवत् में कहा है कि धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों को भययुक्त अनित्य कहा है, क्योंकि ये त्रिवर्ग रूप तीन पुरुषार्थ नाशवान होने से सर्वदा प्राणियों के नाश करने वाले यमराज के भय से युक्त हैं। और नित्य परमानन्द स्वरूप मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है । सर्व भयों से रहित अभय रूप हैं।

सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः ।।

गीता के उपसंहार में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन! परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति के लिये सर्व धर्म और अधर्मों का परित्याग कर (कठवल्ली उपनिषद में भी धर्म अधर्म दोनों का त्याग कहा है) मुझ का एक अद्वैत स्वरूप सर्व प्राणियों का आत्मा जन्मजरा मरण आदि से रहित सच्चिदानन्द सर्वानर्थ की निवृत्ति रूप कृष्ण को अपनी आत्मा जान। ऐसे अद्वैत की शरण को प्राप्त हो ऐसे निश्चित् अद्वैत् बुद्धि वाले तेरे आत्म ज्ञान स्वरूप प्रकाश करके मैं सर्व धर्म अधर्म बन्धन रूप पापों से मुक्त कर दूंगा। शोक न करो अथवा धारण करने से धर्म कहाँ है ?

अन्नमयादि पंच कोशो को धारण आत्मक भ्रान्ति रूप सर्व धर्मों को त्याग कर। मैं जो सर्व का धारक अधिष्ठान एक अद्वैत स्वरूप धर्म जिसकी शरण हो, आत्म ब्रह्म स्वरूप अद्वैत ज्ञान से ही सर्व पापों का नाश कहा है।

सर्व धर्मानयरित्यज्य निर्ममो निरहंकारो।

भूत्वा ब्रह्मश्रेष्ठं शरणमुपगम्य ।।

निरालम्बोपनिषद् में कहा है कि सर्व धर्मों का परित्याग करके निर्ममता निरहंकार होकर आत्म ब्रह्म स्वरूप अद्वितीय विभु परमानन्द ब्रह्म में हूँ। ऐसे सच्चिदानन्द अद्वैत ईष्ट सुख स्वरूप की शरण को जिज्ञासुजन प्राप्त होवे। ऐसा श्रुति भगवती कहती है।

कठवल्ली उपनिषद् में नचिकेता से यमराज ने कहा है कि है परम पुरुषार्थ मोक्ष प्रमादहीन नचिकेता ! बहुत से पुरुष मूर्खता रूपी अविद्या के चक्र में वर्तमान हुए अपने को धैर्य वाले और पण्डित मानते हैं। अहंकार से धर्म आदि आत्मविचार में गूढ़ पुरुष परलोक और परमानंद से वंचित हुए। जैसे अन्धे पुरुष ने अन्धे को पकड़कर मार्ग प्राप्त करना चाहा तब दोनों ही खड्डे में जा पड़े। ऐसे ही आत्म विद्या वाले सचक्षु सदाचारी से मोक्ष मार्ग न पूछकर अहकारी दम्भी के पीछे चलने वाले मूढ जन दोनों ही नरक में पड़ते हैं।

हे नचिकेत् ! धन के मोह से और अहंकार से अन्ध प्रभारी मूढ़ बाल बुद्धि पुरुष को शास्त्र विहिन कर्म, उपासना, आत्मज्ञान यह पारलौकिक मार्ग प्रतीत नहीं होता है। ऐसे धन के मद से अन्ध पुरुष को यह मृतलोक भी सुखकारी नहीं है। परलोक की प्राप्ति तो अति दुर्घट है। ऐसा पुरुष बारम्बार मुझ यमराज के वश में पुनःपुनः नरक भोगने के लिये प्राप्त होते हैं।

पद्म पुराण में कहा है कि विचार करने पर धन किसी काल में भी सुख नहीं देता है, क्योंकि धन सम्पत्ति के प्राप्त होने पर मोह, अहंकार से अन्ध हुए पुरुष पूजनीय पुरुषों का तिरस्कार कर दुर्गति के भागी होते हैं और धन सम्पत्ति के प्राप्त न होने पर पुरुष तपते रहते हैं और कहते हैं कि हम धन के होने पर ऐसा कार्य करते और ऐसे धर्म- कर्म करते। अब हमारी धनहीनों की क्या गति होगी ? और धन के उपार्जन में झूठ, दम्भ, कपट करते हुए दुर्जन नीच जाति वाले धनियों की शाशना सहते हुए महाकष्ट भोगते हैं। कहो धन, सम्पत्ति, रूप, अर्थ, धर्म हीन पुरुषों को किस काल में सुख प्राप्त कराने वाले हैं।

वामन पुराण में कहा है कि इस संसार में एक तो जन्म से अन्धा पुरुष कुछ भी नहीं कर सकता, दूसरा पुत्र – स्त्री आदि में राग में अन्धा हुआ कल्याण का मार्ग नहीं देख सकता है। तीसरा धन के मद में अन्धा व सुरा आदि के पान से मदोन्मत हुआ नहीं देख सकता है। चौथा लोभ ग्राह से ग्रस्त होने पर लोभ करके अन्धा हुआ पुरुष धर्म-कर्म तथा पूजनीय अपूजनीय को नहीं देख सकता है।

नरसिंह पुराण में कहा है कि धन-भोग और ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त पुरुष जीव ब्रह्म की एकता रूपी तत्व ज्ञान से बहिर्मुख हुआ संसार के विषय रूपी कीचड़ में ऐसे डूब जाता है, जैसे अति जीर्ण गौ महा दलदल (कीचड़) में फँसने पर डूब (मर) जाती है।

भागवत में कुबेर के पुत्र नल, कूबर और मणिग्रीव धनमद से सुरा पान के मद उन्मत्त ऋषि महात्माओं को अवज्ञाकारियों को यमलार्जुन रूपी वृक्ष होने का शाप देने पर नारदजी ने कहा है कि धन-लक्ष्मी के मद से अन्धे दुर्जन के बुद्धि रूपी नेत्र खोलने के लिए दरिद्र होना ही परम अंजन है, क्योंकि सर्व भूत प्राणियों को दरिद्र अपने ही आत्मा के समान करुणा दृष्टि से देखता है। अहो आश्चर्य है, देवताओं की भी धनादि के मद से दुर्गति होती है, तो पुरुषों की तो कथा ही क्या है ?

भागवत में कहा है कि अवंतिकापुरी में एक कृपण (कंजूस) धर्म कर्म हीन द्विज ने धन संग्रह से किसी को भी सुख नहीं दिया था। तब सम्बन्धियों ने उसका सर्वधन छीन लिया तब कृपण (कंजूस) द्विज ने भिक्षु होकर वैराग्य से पश्चाताप करते हुए यह कहा, “हे कृपण (कंजूस)! पुरुषों को धन किसी काल में भी बहुलता करके सुख देने वाला नहीं है। इस लोक में धन से खानपान आदि सुख न लेकर कृपण पुरुष धन के उपार्जन, रक्षण आदि के कष्टों से तपते ही रहते हैं। धर्म न करने से मृत हुए कृपणों को धन नरक की प्राप्ति के लिये ही होता है।

धन के प्राप्त करने में, प्राप्त करे हुए को बढ़ाने में, बढ़े हुए रक्षा करने में, खर्च होने में, चोरादि से नाश होने पर, खानपान भोगादि में खर्च हो जाने पर पुरुषों को भय, चिन्ता, परिश्रम, भ्रान्ति आदि बहुत से कष्ट होते हैं।

धन की प्राप्ति करने में चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध ६ अनर्थ होते हैं और धन के प्राप्त हो जाने पर सूक्ष्म, अहंकार, प्रगट मद, सर्व से भेद रखना, बैर रखना, विश्वास न होना ईर्ष्या करना और स्त्री में सख्त होना, द्यूत क्रीड़ा, सुरापान ये तीन व्यसन कहे जाते हैं और ये अनर्थ धन की रक्षा और व्यय में होते हैं।”

६ और ९ मिलाकर १५ अनर्थ पुरुषों को धन के कारण माने गये हैं। इस प्रकार से अनेक अनर्थों का कारण जो अर्थ नामक धन है वैसे अनर्थकारी अर्थ नामक धन को मुक्ति की इच्छा वाला पुरुष दूर से ही परित्याग कर दे।
धन, रूप, अर्थ सम्पन्न पुरुषों को विशेष कर मोह के लिये ही होता है और मोह नरक देने के लिये होता है अर्थात् धन, रूप, अर्थ पुरुषों को सर्वदा अनर्थ के लिये ही होता है। अस्तु मुक्ति की इच्छा वाला पुरुष नरकप्रद अनर्थकारी अर्थ रूप धन को दूर से ही त्याग दे ।

जिस पुरुष को धर्म करने के लिये धन की इच्छा है उस पुरुष को भी धर्म के लिये धन की इच्छा से रहित होना ही श्रेष्ठ है। जैसे कर्दम कीच का स्पर्श कर फिर उस कीच को जल से धोने के परिश्रम से प्रथम ही कदम कीच आदि का दूर से ही स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ है, वैसे ही कीच रूपी धन प्रतिग्रह को ग्रहण कर जो पुरुष फिर सुपात्र को खोज कर धर्म दान रूपी जल से धन से प्रतिग्रह रूपी पाप कीच को धोता है। उस पुरुष से धन प्रतिग्रह रूपी कीच का दूर से ही त्याग कर स्पर्श न करने वाला पुरुष श्रेष्ठ है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि इस संसार में पुरुष के चित्त, एकाग्र रूप तपो मार्ग द्वार को बन्द करने वाली स्त्री एक लोह दण्ड रूप अर्गला है और स्त्री ही निरन्तर सर्वदा मुक्ति द्वार को बन्द करने वाली कपारिका है और पापहारी मोक्षकारी हरि भक्त में व्यवधान करने वाली स्त्री एक परदा है और झूठ, कपट, दम्भ, रूप, सर्व माया की स्त्री एक पिटारी है और दुःखकारी इस संसार रूपी कारागृह में बाध कर देने वाली स्त्री एक प्राचीन बेड़ी रूप है, उस स्त्री रूप बेड़ी को काटना (त्यागना) शूरवीर बुद्धिमान पुरुषों का काम है। इसी प्रकार स्त्री पुरुष को संसार में बन्धन रूपी बेड़ी है।

देवी भागवत में कहा है कि स्त्री पुनः पुनः भोग करके पुरुष के वीर्य और सर्व धन को हर लेती है और हाव-भाव के कुटिल भाषणों से मन को हर लेती है। स्त्री पुरुष के सर्वस्व को हर लेती है। स्त्री के समान पुरुष को लूटने वाला और कोई चोर नहीं है।
याज्ञवल्क्योपनिषद् में कहा है कि पुत्र के न प्राप्त होने पर माता-पिता को पुत्र न उत्पन्न होने का चिरकाल तक क्लेश होता है और गर्भ प्राप्त होने पर गर्भपात न हो जाए इस भय से पुत्र क्लेश देता है और बालक उत्पन्न होने पर कभी-कभी स्त्रीयाँ मर जाती हैं, यदि न भी मरे तो भी प्राणान्त कष्ट तो प्रसव काल में होता ही है।

और उत्पन्न हुए बालक को नवग्रहों के कोप से बहुत से रोग हो जाते हैं। इससे भी माता-पिता को अति कष्ट होता है और कुमारावस्था में धूर्तता का दुःख होता है और यज्ञोपवित संस्कार होने पर भी पुत्र के मूर्ख रहने का माता-पिता को दुःख होता है और पुत्र के पंडित होने पर भी पुत्र के विवाह न होने पर माता-पिता को महान कष्ट होता है।

विवाह हो जाने पर भी युवान पुत्र के परस्त्री गमन आदि व्यसनों से माता-पिता को कष्ट होता है और पुत्र के व्यसनी न होने पर भी कुटुम्बी होकर दरिद्र होने का भी माता-पिता को अतिकष्ट होता है। यदि पुत्र धनी भी हुआ और उसकी मृत्यु हो जाए तो भी माता-पिता को कष्ट होता है।

कहाँ तक कहें, पुत्र के दुःख का कोई अन्त ही नहीं है। माता-पिता के प्रारब्ध जन्म दुःख को श्री रामचन्द्र और कृष्णचन्द्र ईश्वर भी पुत्रभाव से प्राप्त हुए, दूर नहीं कर सके तो फिर अति पापात्मा कर्म-धर्म से हीन आज कल के पुत्रों से दुःख दूर करने की और सुख प्राप्त करने की आशा रखना महामूर्खता है। आत्म ब्रह्म के अद्वैत ज्ञान के निश्चय के बिना सर्व दुःखों का नाश और परमानन्द की प्राप्ति होना दुर्घट है।

श्री जाबाल दर्शनोपनिषद् में कहा है कि सत्य ज्ञान आनंद स्वरूप आत्म तीर्थ का परित्याग करके जो पुरुष मृत पाषाण जल रूपी बाहर के तीर्थों में भ्रमण करता है, ऐसा पुरुष बुद्धिहीन माना जाता है। जैसे कोई पुरुष हाथ में प्राप्त हुए महान मोल वाले रत्न को त्याग करके तुच्छ कांच के टुकड़े को खोजता फिरता है। आत्मतीर्थ समुत्सृज्य बहिस्तीर्थानि यो व्रजेत्। करस्थं स महा रत्नं त्यक्त्वा काचं विभार्गते।।

स्कन्ध पुराण में अयोध्या माहात्म्य में कहा है कि इन्द्रिय समूह को जीतने वाला पुरुष जिस किसी भी स्थान में वास करता है। उस पुरुष को उसी स्थान में महापुण्यकारी कुरुक्षेत्र तीर्थ तथा नैमिषारण्य और पुष्कर आदि सर्व तीर्थ प्राप्त हो जाते हैं। एक क्षण भी एकाग्र चित्त से आत्म विचार करने पर पुरुषों को सर्व तीर्थों का पुण्य फल प्राप्त हो जाता है।

निग्रहीतेन्द्रयग्रामो यत्रैव वसते नरः ।

तत्र तस्य कुरुक्षेत्रं नैमिषं पुष्करं तथा ।।

वराहोपनिषद् में उपवास का यह अर्थ किया है कि जीवात्मा और परमात्मा की उपनाम समीप में बास नाम एक अद्वैत अभेद स्वरूप से जो स्थिति है, ऐसे अद्वैत निश्चय का नाम उपवास है और अज्ञानियों का हठ करके जो क्षुधा पिपासा आदि से शरीर का शोषण करना रूप उपवास है। सो उपवास अद्वैत ब्रह्म विचारशील महात्मा पुरुषों का नहीं है, क्योंकि शुद्ध बुद्ध अक्रिय अविनाशी विभु सच्चिदानंद अद्वय ब्रह्म सर्व का आत्मा होने से नित्य प्राप्त है। अज्ञान से अप्राप्त निश्चय से अज्ञान की निवृत्ति होना ही नित्य प्राप्त ब्रह्म की प्राप्ति है। उस आत्म स्वरूप ब्रह्म के अद्वैत ज्ञान से भिन्न ब्रह्म भी प्राप्ति में सर्व क्रिया कर्मजाल का निषेध रूप अपवाद किया है।

उपसमीये यो वासो जीवात्मपरमात्मनोः।

उपवासः सविज्ञेयो नतु कायस्य शोषणम्।।

ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत, परमानन्द के ज्ञान के लिये साधन चतुष्ट्य सम्पन्न शिष्य प्रथम गुरु वेदान्त शास्त्र का श्रवण करें, तत् पश्चात् श्रवण करे हुये अर्थ का युक्तियों से मनन करें, जिसके पश्चात् मनन करे हुये अर्थ का अभ्यास रूप पुनः-पुनः निदिध्यासन करें। ये श्रवण, मनन और निदिध्यासन संशय विपर्यय की निवृत्ति पूर्वक ब्रह्मात्म स्वरूप पूर्ण ज्ञान के कारण हैं।

व्यापक, वाचिक, मानसिक पापरूपी दुराचरण से निवृत्त हुये बिना अशान्त पुरुष इस ब्रह्मात्म-स्वरूप को प्राप्त नहीं हो सकता है। और समाहित चित्त वाला भी समाधि के फल, अणिमा आदि से अनिवृत मन वाला आत्म-स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त नहीं हो सकता है और सर्व पदार्थ विषयों से विरक्त समाहित चित्त वाला भी शान्ति आदि साधन हीन अशान्त मन पुरुष आत्म को जान नहीं सकता है।

गुरु से शिक्षित हुआ ज्ञान के साधन निदिध्यासन आदि करके प्रपकब्रह्मात्म स्वरूप और ज्ञान से निजात्म स्वरूप को प्राप्त हो सकता है। आत्म स्वरूप शुद्ध परब्रह्म को निश्चित जानकरके प्राणि इस संसार की कष्ट गतिरूप मृत्यु को उल्लंघन कर अनर्थ की निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति रूपी मोक्ष को प्राप्त होता है। इस ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान के बिना कैवल्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिये संसार में और कोई दूसरा मार्ग विद्यमान नहीं है।

तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि जिस वेदान्तब्रह्म से और विद्वानों के अनुभव प्रसिद्ध इस प्रत्येक आत्म स्वरूप ब्रह्म से शब्द गुण वाला आकाश उत्पन्न हुआ, आकाशयुक्त ब्रह्म से शब्द, स्पर्श दो गुण वाला वायु हुआ, वायु युक्त ब्रह्म से शब्द, स्पर्श, रूप तीन गुण वाला अग्नि हुआ, अग्नि युक्त ब्रह्म से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, चार गुण वाला जल हुआ, जल युक्त ब्रह्म से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पाँच गुण वाली पृथ्वी उत्पन्न हुयी। इन पांच भूतों से सर्व चराचर सृष्टि हुयी।

तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि सर्व शक्तिमान ईश्वर इच्छा करता है कि मैं भूत प्राणि रूप से उत्पन्न होकर बहुत रूप से प्रकट होऊँ। ऐसी इच्छा कर सो ईश्वर तप रूप विचार करते हैं। विचार करके इस दृश्यमान चराचर सर्व प्रपंच को कर्मों के अनुसार रचते हैं। फिर ईश्वर उस रचे हुये प्रपंच रूप प्राणि समूह में मस्तक रूपी कपाल न्ध्र द्वारा आत्म रूप से प्रवेश करते हैं।

नैष्कर्म्यसिद्धि में देहात्म वादि से सुरेश्वराचार्य कहते हैं कि जिस देह को अंजन, मंजन, भूषणों से भूषित करके उसी दे के मृत्यु होने पर वन में फेंके हये शिर को खाने के लिये श्वान अपने पाद से नीचे दबा कर अपना अधिकार जमा कर खाने के लिए आये हुये दूसरे श्वानों को क्रोध से तर्जनाकर पास में नहीं आने देता है। हे देहात्मवादी ! ऐसे ही सर्व देहों की समान दशा देखकर के भी आप किस कारण से इस नाशवान देह में राग कर युक्त हो रहे हैं।

आत्मप्रबोधपनिषद् में कहा है कि कुलीनता, अकुलीनता और गोत्रपना और विष्णु दत्त आदि नाम, सुन्दर, रूपता और कुरूपता और ब्राह्मणत्व आदि जातियाँ यह सर्व अन्नमयकोश रूपी स्थूल शरीर को धर्म कहा है। और अन्नमय कोश रूपी स्थूल देह से भिन्न आत्मा को जानने वाला कहता है कि ब्राह्मणत्व आदि जातियाँ स्थूल देह के धर्म हैं। मेरे शुद्ध स्वरूप आत्मा के धर्म नहीं हैं।

योगचूड़ामण्युपनिषद् में कहा है कि हृदय में प्राण वायु रहता है, गुदाचक्र में अपान वायु रहता है, नाभि में समान वायु, कण्ठ में उदान वायु और सर्व शरीर में व्यान वायु रहता है। ये ५ वायु प्रधान कहे जाते हैं। डकार लेने में नाग नाम का वायु प्रकट होता है, नेत्रों के खोलने में कर्म वायु, छींक आने पर कृकर नाम का वायु, जम्भाई लेने पर देवदत्त नाम का वायु और मृत्यु होने पर शरीर को न त्याग कर देह को वजनदार कर देता है, सो सर्वशरीर व्यापी वायु धनंजय नाम से कहा जाता है ये पांच वायु गौण कहे जाते हैं।

सन्यासोपनिषद् में कहा है कि अभ्यासी पुरुष उदर के दो भागों को अन्न से पूर्ण करें, तीसरे भाग को जल से और चतुर्थ भाग को श्वास रूप वायु के संचार के लिये शेष रखे, क्योंकि सुख रूपी श्वांस वायु के संचार से बिना अभ्यास नहीं हो सकता।

आत्मप्रबोधोपनिषद् में कहा है कि क्षुधा, पिपासा प्राणों के धर्म हैं। अन्धा, बहरा आदि चक्षु क्षोत्र आदि इन्द्रियों के धर्म हैं। काम, क्रोध, लोभादि मनबुद्धि के धर्म हैं। ये सर्व देह के धर्म कहे जाते हैं। सूक्ष्म देह से रहित शुद्धात्मा के ये धर्म नहीं है।

आत्म प्रबोधोपनिषद् में कहा है कि जड़ता और वस्तु की प्राप्ति से प्रियता और भोगने से मोदता आदि धर्म अविद्या रूप कारण शरीर के कहे हैं, यह सच्चिदानन्द नित्य शुद्ध निर्विकार स्वरूप मुझ आत्मा के नहीं है ऐसे ब्रह्मवेत्ता कहता है। जैसे उल्लू को नित्य प्रकाश स्वरूप सूर्य अन्धकार रूप से प्रतीत होता है वैसे ही मूढ़, अज्ञानी पुरुष को स्वप्रकाश परमानन्द आत्म स्वरूप ब्रह्म में जन्म, मरण, कर्त्ता, भोक्ता रूपी अज्ञान ही दृढ़ हो रहा है।

सांख्य दर्शन में कहा है कि जैसे किसी राजा का पुत्र देववश से भील जाति वालों से पालन पोषण किया हुआ, जवान होने पर अपने को भील मानता था, परन्तु जब राज्यमंत्रियों ने खोज कर कहा कि आप भील नहीं हो आप तो राजपुत्र हो चलकर राज्य पालन करे तब भील जाति का अभिमान त्याग कर उसने अपने को राजपुत्र मान लिया। वैसे ही पुरुष अज्ञान से ब्रह्म स्वरूप आत्मा को कर्ता, भोक्ता रूपी जीव मानता है, परन्तु जब ब्रह्म वेत्ता गुरु से अपने ब्रह्मात्मस्वरूप को जान लेता है, तब अपने को ब्रह्मात्मस्वरूप मानता है।

तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि अन्नमयादि पांच कोशों से और तीन शरीरों से भिन्न (स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर) सर्व के अन्तर प्रकाशमान सर्व का अधिष्ठान अद्वयात्म स्वरूप परब्रह्म है। वेदान्त विचार से ऐसा जानकर प्राणि कृत कृत्य हो जाता है।

आत्म प्रबोधोपनिषद् में कहा है कि जैसे विष को देखकर और अमृत को देखकर बुद्धिमान पुरुष विष को प्राणघाती जानकर त्याग देता है और अमृत को सुखकारी जानकर ग्रहण कर लेता है वैसे ही आत्म वेत्ता कहता है कि मैं ब्रह्मस्वरूप आत्मा परमानन्द को जानकर अब मैं दुःख रूपी अनात्म रूप प्रपंच को त्यागता हूँ।

मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि जैसे गंगा, यमुना नदियां बहती हुई गंगा, यमुनादि नाम को और स्वेत, नीलादिरूप को त्याग कर समुद्र के साथ में मिलकर एकरूपता को प्राप्त हो जाती है, वैसे ही विद्वान ब्रह्मवेत्ता मनुष्य, देव, असुर आदि नाम रूप से रहित होकर ब्रह्मा, विष्णु आदि से भी उत्कृष्ट प्रकाशमान ब्रह्मात्मरूप परम पुरुष को प्राप्त हो जाता है।

कठोपनिषद् में कहा है कि जैसे सूर्य सर्व लोकों का प्रकाशक रूप चक्षु है। सो सूर्य नेत्रों के विषय रस आदि के बहार के दोषों से लिपायमान नहीं होता है। तैसे ही सर्व भूत प्राणियों के अन्तर में स्थित हुआ एक अद्वैत स्वरूप शुद्ध आत्मा बाहर के अनात्म दुःखों से लिपायमान नहीं होता है। विशुद्ध आत्म स्वरूप ब्रह्म में सूर्य, चन्द्रमा और तारा गण प्रकाश नहीं कर सकते हैं और न ही यह विद्युत प्रकाश कर सकती है तो यह लौकिक अग्नि तो क्या ही प्रकाश कर सकती है।

उस प्रकाशमान आत्मस्वरूप ब्रह्म के प्रकाश को लेकर ही सूर्य आदि सर्व प्रकाशित होते हैं। उस आत्मस्वरूप ब्रह्म के प्रकाश से ही, यह दृश्यमान सर्व प्रपंच प्रकाशित होता है और इस सर्व प्रकाशक ब्रह्म के भय से ही अग्नि दाह और प्रकाश करता है, सूर्य ताप और प्रकाश करता है, इन्द्र वर्षा करने को और वायुशोषण करने को भागता है और पांचवां यमराज प्राणियों के प्राण हरने को भागता है।

छांदोग्योपनिषद् में कहा है कि जैसे कमल के पत्र को जल में रहते हुए कोई भी जलों के दोष स्पर्श नहीं कर सकते हैं, वैसे ही एक अद्वैत आत्म स्वरूप शुद्ध ब्रह्म वित पुरुष में पाप कर्म स्पर्श नहीं कर सकते हैं।

आत्मोपनिषद् में कहा है कि बन्ध और मोक्ष भी यह दोनों बुद्धि के ही धर्म हैं। इस कारण से माया करके ही बन्ध और मोक्ष दोनों कल्पित हैं, शुद्ध स्वरूप आत्मा में वास्तव से बन्ध और मोक्ष दोनों ही नहीं है।

अध्यात्मोपनिषद् में वैराग्य, ज्ञान, उपरति इन तीनों की सीमा ऐसे कही है कि ब्रह्मलोक पर्यन्त सांसारिक भोग पदार्थों में भोगने की वासना इच्छा का पुनः उदय न होना, यह वैराग्य की सीमा कही है। और अहं कर्त्ता, अहं भोक्ता, अहं मम् भाव का उदय न होने का नाम ज्ञान की परमावधि कही है। ब्रह्मात्म स्वरूप में लीन हुई मन की वृत्ति भी पुनः उत्पत्ति न होना यह उपरति की सीमा कही है। ऐसा जो विरक्त यानि ब्रह्मात्म रूप में स्थित बुद्धि वाला है। सो सर्वदा परमात्मा का अनुभव करता है।

यह परमात्मा, सर्वव्यापी पुरुष मैं हूँ। ऐसे यदि गुरु कृपा से ब्रह्मस्वरूप अद्वितीय आत्मा को प्राणी जान ले तो सर्व को अपना आत्मा होने से भोग पदार्थ की इच्छा कर, किस फल की कामना के लिये बुद्धिमान पुरुष शरीर को संतप्त करेगा। अर्थात् ब्रह्मात्म स्वरूप का ज्ञाता संतृप्त नहीं होता है। जिस ब्रह्म स्वरूप आत्मा को जानकर बुद्धि ब्रह्मवेत्ता जीवन मुक्ति आनन्दकारी केवल आत्माकार शान्त बुद्धि का सम्पादन करे और बहुत से विक्षेपकारी शब्दजाल रूपी व्याकरण शास्त्रों को प्रयोजन से अधिक न अध्ययन करे, क्योंकि ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत बोधक वाक्यों से भिन्न जो शब्द जाल हैं, सो केवल वाक् इन्द्रिय को थकित करने वाला है।

आपस्तम्बस्मृति में कहा है कि ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत बोधक वेदान्त शास्त्र से अन्य व्याकरणादि शास्त्रों में सद्य अभिरत पुरुष का मोक्ष नहीं होता है। इसी तरह रमणिक जन्म भूमि आदि वास स्थानों में आसक्त पुरुष का तथा सर्वदा काल भोजन वस्त्राच्छादन आदि में तत्परायण पुरुष का और निजमान प्रतिष्ठा के लिए लोकों के मन को रंजन कर अपने वशीभूत करने में अभिरत है। इन सभी का मोक्ष नहीं होता है अर्थात् इन सर्व से विरक्त का ही मोक्ष होता है।

श्वेताश्वरोपनिषद् में कहा है कि यह सर्वगत ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष है और न ही नपुंसक है। जैसे अग्नि से ढाला हुआ सुवर्ण नाना सांचे रूपी उपाधियों को प्राप्त होकर नाना आकारों वाला हो जाता है, वैसे ही सो ब्रह्म स्वरूप आत्मा जिस-जिस देव- मनुष्य-असुर आदि-शरीर उपाधि को प्राप्त होता है तिस-तिस शरीर के नाम आकारों से युक्त हो जाता है।

यह ब्रह्मस्वरूप आत्मा सर्व भूत प्राणियों के अन्तर में प्रकाश स्वरूप, अतिसूक्ष्म, सर्व शुभाशुभ कर्म का दृष्टा, सभी अधिष्ठान का साक्षी चेतन स्वरूप में गुण रहित, निर्विकार रूप में स्थित है। जैसे अग्नि सर्वकाष्ठों में अनुभव है, सर्व तिलों में तेल अनुगत है वैसे ही सर्व चराचर प्राणियों में अनुगत उस आत्म स्वरूप ब्रह्म को जानकर प्राणी जन्म-मृत्यु के कष्ट से छुटकारा पाकर परमानन्द स्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है।

पुरुष पूर्व जन्म के पूण्य पूंज प्रभाव से ऐसी इच्छा करता है कि मनुष्य होकर संसार में मूढ़ प्राणियों के समान क्यों स्थित हुआ हूँ। मैं ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत सत्य के चिन्तक सज्जनों से मैं वेदान्त शास्त्र का अध्ययन करूं। विषयों से वैराग्यपूर्वक ऐसी इच्छा का नाम बुद्धिमानों ने शुभेच्छा नाम की प्रथम भूमिका कही है और वेदान्त शास्त्र के चिन्तक सज्जन महात्माओं के सम्बन्ध से विषयों में दोष दृष्टि रूप वैराग्य के अभ्यासपूर्वक जो श्रेष्ठाचार की प्रवृत्ति है, उसे विचारणा नाम की दूसरी भूमिका कही है।

शुभेच्छा और विचारणा इन दो भूमिका के अभ्यास से जिस अवस्था में इन्द्रियों के विषयों में पुरुष के मन का राग अति कृषता को प्राप्त हो जाता है इस अवस्था को तनुमानसी नाम की तीसरी भूमिका कही है। इन तीनों भूमिका के अभ्यास से राग रहित शुद्ध चित्त होने पर सर्व अनात्म वस्तु में वैराग्य के प्रभाव से सच्चिदानन्द शुद्ध ब्रह्मात्म स्वरूप में चित्त की एक रस स्थिति होने पर सत्वापत्ति नाम की चौथी भूमिका कही गई है।

इन चारों भूमिकाओं के अभ्यास से असंगता रूप फल है, जिसका ऐसा जो सत्य, ज्ञान, आनन्द आत्म-स्वरूप ब्रह्म में दृढ़ स्थिति रूप चमत्कार वाली इस अवस्था को असंसक्ति नाम की पांचवीं भूमिका बताई गई है।

इन पांचों भूमिकाओं के अभ्यासी को जो कि आत्मस्वरूप में, जो दृढ़ स्थिति है और बाहर के स्थूल पदार्थों का तथा अन्तर्मन के सूक्ष्म मानसी पदार्थों में मग्न ब्रह्म वेत्ता को न भान होने से खानपान आदि में भी समाधिनिष्ठ दूसरे पुरुष के चिरकाल प्रयत्न करके नियुक्त करने से उत्थान होकर प्रवृत्त होता है, तो ऐसी अवस्था को पदार्थ नाम की छठी भूमिका कही है और उपरोक्त भूमिकाओं के पुनः-पुनः विचार के अभ्यास से ब्रह्मात्म स्वरूप ज्ञान परिपक्व होने पर भेद का अत्यन्त अभाव होने से ब्रह्मवित्त आत्म निजानन्द की स्थिति में स्थित होने पर दूसरे पुरुष के प्रयत्न से भी उत्थान नहीं होता है।

इस अवस्था को जीवनमुक्ति की अन्तिम गति रूप ज्ञान की सातवीं भूमिका कही है। इस प्रकार संक्षेप में यह ज्ञान की सप्त भूमिका बताई है।

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MEGHA PATIDAR
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