यदुवंशविनाश तथा भगवान् श्रीकृष्ण का स्वधाम सिधारना–
प्रस्तावना-
संसार के उपकार के लिये बलभद्रजीके सहित श्रीकृष्णचन्द्र ने दैत्यों और दुष्ट राजाओंका वध किया ॥ तथा अन्तमें अर्जुनके साथ मिलकर भगवान् कृष्ण ने अठारह अक्षौहिणी सेनाको मारकर पृथिवी का भार उतारा ॥ इस प्रकार सम्पूर्ण राजाओंको मारकर पृथिवीका भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणोंके शाप के मिष से अपने कुलका भी उपसंहार कर दिया ॥अन्तमें द्वारकापुरीको छोड़कर तथा अपने मानव शरीरको त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने अंश (बलराम-प्रद्युम्नादि)-के सहित अपने विष्णुमय धाममें प्रवेश किया ॥
यदुवंशविनाश-
श्रीजनार्दनने विप्रशाप के मिष से किस प्रकार अपने कुलका नाश किया और अपने मानव-देहको किस प्रकार छोड़ा ?
एक बार कुछ यदुकुमारोंने महातीर्थ पिण्डारक क्षेत्र में विश्वामित्र, कण्व और नारद आदि महामुनियों को देखा ॥ तब यौवन से उन्मत्त हुए उन बालकों ने होनहार की प्रेरणा से जाम्बवती के पुत्र साम्बका स्त्री वेष बनाकर उन मुनीश्वरों को प्रणाम करने के अनन्तर अति नम्रता से पूछा—“इस स्त्री को पुत्र की इच्छा है, हे मुनिजन ! कहिये यह क्या जनेगी ?” ॥ यदुकुमारोंके इस प्रकार धोखा देने पर उन दिव्य ज्ञान सम्पन्न मुनिजनों ने कुपित होकर कहा—‘“यह एक लोकोत्तर मूसल जनेगी, जो समस्त यादवों के नाशका कारण होगा और जिससे यादवोंका सम्पूर्ण कुल संसार में निर्मूल हो जायगा ॥
कुमारों ने मुनिगण के इस प्रकार कहने पर उन सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों राजा उग्रसेन से कह दिया तथा साम्ब के पेट से एक मूसल उत्पन्न हुआ ॥ उग्रसेन ने उस लोहमय मूसल का चूर्ण करा डाला और उसे उन बालकों ने [ ले जाकर] समुद्र में फेंक दिया, उससे वहाँ बहुत-से सरकण्डे उत्पन्न हो गये॥
यादवद्वारा चूर्ण किये गये इस मूसल के लोहे का जो भाले की नोंक के समान एक खण्ड चूर्ण करने से बचा उसे भी समुद्र ही में फिकवा दिया। उसे एक मछली निगल गयी। उस मछली को मछेरों ने पकड़ लिया तथा चीरने पर उसके पेट से निकले हुए उस मूसलखण्ड को जरा नामक व्याध ने ले लिया ॥ भगवान् मधुसूदन इन समस्त बातोंको यथावत् जानते थे तथापि उन्होंने विधाता की इच्छा को अन्यथा करना न चाहा ॥
इसी समय देवताओं ने वायु को भेजा। उसने एकान्त में श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम करके कहा- ‘भगवन्! मुझे देवताओं ने दूत बनाकर भेजा है ॥ ” हे विभो ! वसुगण, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, मरुद्गण और साध्यादिके सहित इन्द्रने आपको जो सन्देश भेजा है वह सुनिये ॥
हे भगवन्। देवताओं की प्रेरणा से उनके ही साथ पृथिवी का भार उतारने के लिये अवतीर्ण हुए आपको सौ वर्ष से अधिक बीत चुके हैं ॥ अब आप दुराचारी दैत्यों को मार चुके और पृथिवी का भार भी उतार चुके, अतः [ हमारी प्रार्थना है कि] अब देवगण सर्वदा स्वर्ग में ही आपसे सनाथ हों [ अर्थात् आप स्वर्ग पधारकर देवताओंको सनाथ करें ] ॥ हे जगन्नाथ! आपको भूमण्डलमें पधारे हुए सौ वर्ष से अधिक हो गये, अब यदि आपको पसन्द आवे तो स्वर्गलोक पधारिये ॥ हे देव! देवगणका यह भी कथन है कि यदि आपको यहीं रहना अच्छा लगे तो रहें, सेवकों का तो यही धर्म है कि [स्वामीको] यथा समय कर्तव्य का निवेदन कर दे॥
श्रीभगवान् बोले- हे दूत ! तुम जो कुछ कहते हो वह मैं सब जानता हूँ, इसलिये अब मैंने यादवों के नाशका आरम्भ कर ही दिया हैं ॥ इन यादवों का संहार हुए बिना अभी तक पृथिवी का भार हल्का नहीं हुआ है, अतः अब सात रात्रि के भीतर [ इनका संहार करके] पृथिवी का भार उतार कर मैं शीघ्र ही [जैसा तुम कहते हो ] वही करूँगा ॥ जिस प्रकार यह द्वारका की भूमि मैंने समुद्र से माँगी थी इसे उसी प्रकार उसे लौटा कर तथा यादवों का उपसंहार कर मैं स्वर्गलोक में आऊँगा ॥
अब देवराज इन्द्र और देवताओं को यह समझना चाहिये कि संकर्षण के सहित मैं मनुष्य शरीर को छोड़कर स्वर्ग पहुँच ही चुका हूँ ॥ पृथिवी के भारभूत जो जरासन्ध आदि अन्य राजागण मारे गये हैं, ये यदुकुमार भी उनसे कम नहीं हैं ॥ अतः तुम देवताओं से जाकर कहो कि मैं पृथिवी के इस महाभार को उतारकर ही देवलोक का पालन करने के लिये स्वर्ग में आऊँगा ॥
भगवान् वासुदेव के इस प्रकार कहने पर देवदूत वायु उन्हें प्रणाम करके अपनी दिव्य गति से देवराज के पास चले आये ॥ भगवान्ने देखा कि द्वारकापुरी में रात-दिन नाशके सूचक दिव्य, भौम और अन्तरिक्ष-सम्बन्धी महान् उत्पात हो रहे हैं ॥ “देखो, उन उत्पातोंको देखकर भगवान्ने यादवों से कहा- ‘ ये कैसे घोर उपद्रव हो रहे हैं, चलो, शीघ्र ही इनकी शान्ति के लिये प्रभास क्षेत्र को चलें ॥
कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर महाभागवत यादव श्रेष्ठ उद्धव ने श्रीहरि को प्रणाम करके कहा- ‘भगवन्! मुझे ऐसा प्रतीत होता है। कि अब आप इस कुलका नाश करेंगे; क्योंकि हे अच्युत ! इस समय सब ओर इसके नाश के सूचक कारण दिखायी दे रहे हैं, अतः मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूँ?” ॥
श्रीभगवान् बोले- हे उद्धव ! अब तुम मेरी कृपा से प्राप्त हुई दिव्य गति से नर-नारायण के निवास स्थान गन्धमादन पर्वत पर जो पवित्र बदरिकाश्रम क्षेत्र है वहाँ जाओ। पृथिवीतलपर वही सबसे पावन स्थान है ॥ वहाँ पर मुझ में चित्त लगाकर तुम मेरी कृपा से सिद्धि प्राप्त करोगे। अब मैं भी इस कुल का संहार करके स्वर्गलोक को चला जाऊँगा ॥ मेरे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण द्वारका को समुद्र जलमें डुबो देगा; मुझसे भय मानने के कारण केवल मेरे भवन को छोड़ देगा; अपने इस भवन में मैं भक्तों की हितकामना से सर्वदा निवास करता हूँ॥
भगवान् के ऐसा कहने पर उद्धव जी उन्हें प्रणामकर तुरन्त ही उनके बतलाये हुए तपोवन श्रीनरनारायण के स्थान को चले गये॥ हे द्विज ! तदनन्तर कृष्ण और बलराम आदि के सहित सम्पूर्ण यादव शीघ्रगामी रथों पर चढ़ कर प्रभास क्षेत्र में आये ॥ वहाँ पहुँचकर कुकुर, अन्धक और वृष्णि आदि वंशों के समस्त यादवों ने कृष्णचन्द्र की प्रेरणा से महापान और भोजन किया ॥ पान करते समय उनमें परस्पर कुछ विवाद हो जाने से । वहाँ कुवाक्यरूप ईंधन से युक्त प्रलयकारिणी कलहाग्नि धधक उठी ॥
हे द्विज ! अपना-अपना भोजन करते हुए उन यादवोंमें किस कारणसे कलह (वाग्युद्ध) अथवा संघर्ष (हाथापाई) हुआ, सो आप कहिये ॥
‘मेरा भोजन शुद्ध है, तेरा अच्छा नहीं है।’ इस प्रकार भोजन के अच्छे-बुरे की चर्चा करते-करते उनमें परस्पर विवाद और हाथापाई हो गयी ॥ तब वे दैवी प्रेरणा से विवश होकर आपस में क्रोध से रक्तनेत्र हुए एक-दूसरे पर शस्त्र प्रहार करने लगे और जब शस्त्र समाप्त हो गये तो पास ही में उगे हुए सरकण्डे ले लिये ॥
उनके हाथमें लगे हुए वे सरकण्डे वज्र के समान प्रतीत होते थे, उन वज्रतुल्य सरकण्डों से ही वे उस दारुण युद्ध में एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे ॥
हे द्विज! प्रद्युम्न और साम्ब आदि कृष्णपुत्र गण, कृतवर्मा, सात्यकि और अनिरुद्ध आदि तथा पृथु, विपृथु, चारुवर्मा, चारुक और अक्रूर आदि यादवगण एक-दूसरे पर एरकारूपी वज्रों से प्रहार करने लगे । जब श्रीहरि ने उन्हें आपस में लड़ने से रोका तो उन्होंने उन्हें अपने प्रतिपक्षी का सहायक होकर आये हुए समझा और [ उनकी बात की अवहेलनाकर] एक-दूसरे को मारने लगे ॥ कृष्णचन्द्र ने भी कुपित होकर उनका वध करने के लिये एक मुट्ठी सरकण्डे उठा लिये। वे मुट्ठीभर सरकण्डे लोहे के मूसल [समान] हो गये ॥
उन मूसलरूप सरकण्डों से कृष्णचन्द्र सम्पूर्ण आततायी यादवों को मारने लगे तथा अन्य समस्त यादव भी वहाँ आ आकर एक-दूसरे को मारने लगे ॥ तदनन्तर भगवान् कृष्णचन्द्र का जैत्र नामक रथ घोड़ों से आकृष्ट हो दारुक के देखते-देखते समुद्रके मध्यपथ से चला गया ॥ इसके पश्चात् भगवान् के शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष, तरकश और खड्ग आदि आयुध श्रीहरि की प्रदक्षिणा कर सूर्यमार्ग से चले गये ॥
एक क्षण में ही महात्मा कृष्णचन्द्र और उनके सारथी दारुक को छोड़कर और कोई यदुवंशी जीवित न बचा ॥ उन दोनोंने वहाँ घूमते हुए देखा कि श्रीबलराम जी एक वृक्ष के तले बैठे हैं और उनके मुखसे एक बहुत बड़ा सर्प निकल रहा है ॥ वह विशाल फणधारी सर्प उनके मुख से निकलकर सिद्ध और नागसे पूजित हुआ समुद्र की ओर गया ॥ उसी समय समुद्र अर्घ्य लेकर उस (महासर्प) के सम्मुख उपस्थित हुआ और वह नागश्रेष्ठों से पूजित हो समुद्र में घुस गया ॥
इस प्रकार श्रीबलरामजी का प्रयाण देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने दारुक से कहा- “तुम यह सब वृत्तान्त उग्रसेन और वसुदेवजी से जाकर कहो ” ॥ बलभद्रजी का निर्याण, यादवों का क्षय और मैं भी योगस्थ होकर शरीर छोडूंगा – [ यह सब समाचार उन्हें] जाकर सुनाओ ॥
सम्पूर्ण द्वारकावासी और आहुक (उग्रसेन)- से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरी को समुद्र डुबो देगा ॥ इसलिये आप सब केवल अर्जुन के आगमनकी प्रतीक्षा करें तथा अर्जुन के यहाँ से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारका में न रहे; जहां वे कुरुनन्दन। जायँ वहीं सब लोग चले जायें ।। कुन्तीपुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओर से कहना कि ” अपने सामर्थ्यानुसार तुम मेरे परिवार के लोगोंकी रक्षा करना” ॥ तुम द्वारकावासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के साथ चले जाना [हमारे पीछे] वज्र यदुवंश का राजा होगा ॥
उपसंहार-
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के इस प्रकार कहने पर दारुक ने उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और उनकी अनेक परिक्रमाएँ कर उनके कथनानुसार चला गया ॥ उस महाबुद्धि ने द्वारका में पहुँचकर सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया और अर्जुन को वहाँ लाकर वज्र को राज्याभिषिक्त किया ॥
भगवान् कृष्णचन्द्र ने समस्त भूतों में व्याप्त वासुदेव स्वरूप परब्रह्म को अपने आत्मा में आरोपित कर उनका ध्यान किया तथा हे महाभाग ! वे पुरुषोत्तम लीला से ही अपने चित्त को निष्प्रपंच परमात्मा में लीनकर तुरीयपद में स्थित हुए ॥
दुर्वासाजीने [ श्रीकृष्णचन्द्रके लिये] जैसा कहा था उस द्विज- वाक्य का मान रखने के लिये वे अपनी जानुओं पर चरण रखकर योग युक्त होकर बैठे ॥ इसी समय जिसने मूसल के बचे हुए तोमर (बाणमें लगे हुए लोहेके टुकड़े) के आकारवाले लोहखण्ड को अपने बाण की नॉकपर लगा लिया था; वह जरा नामक व्याध वहाँ आया ॥ उस चरण को मृगाकार देख उस व्याधने उसे दूरही से खड़े-खड़े उसी तोमर से बाँध डाला ॥ किंतु वहाँ पहुँचने पर उसने एक चतुर्भुजधारी मनुष्य देखा। यह देखते ही वह चरणों में गिरकर बारम्बार उनसे कहने लगा- “प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये ॥
मैंने बिना जाने ही मृगकी आशंका से यह अपराध किया है, कृपया क्षमा कीजिये। मैं अपने पाप से दग्ध हो रहा हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये” ॥ तब भगवान्ने उससे कहा – ” लुब्धक! तू तनिक भी न डर; मेरी कृपा से तू अभी देवताओं के स्थान स्वर्गलोक को चला जा ॥ इन भगवद्वाक्यों के समाप्त होते ही वहाँ एक विमान आया, उस पर चढ़कर वह व्याध भगवान्की कृपा से उसी समय स्वर्गको चला गया ॥
उसके चले जाने पर भगवान् कृष्णचन्द्र ने अपने आत्मा को अव्यय, अचिन्त्य, वासुदेवस्वरूप, अमल, अजन्मा, अमर, अप्रमेय, अखिलात्मा और ब्रह्मस्वरूप विष्णु भगवान् में लीन कर त्रिगुणात्मक गति को पार करके इस मनुष्य-शरीरको छोड़ दिया ।