ययाति
नहुषके यति , ययाति , संयाति , आयाति , वियाति और कृति नामक छ : महाबल विक्रमशाली पुत्र हुए ॥
ययाति का राज्य
यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की , इसलिये ययाति ही राजा हुआ ॥ ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था ॥ उनके वंशके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है— ॥
ययाति के पुत्र
‘ देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु , अनु और पूरुको उत्पन्न किया ‘ ॥
ययाति को शुक्राचार्यजी का शाप
ययातिको शुक्राचार्यजीके शापसे असमय ही वृद्धावस्थाने घेर लिया था ॥ पीछे शुक्रजीके प्रसन्न होकर कहनेपर उन्होंने अपनी वृद्धावस्थाको ग्रहण करनेके लिये बड़े पुत्र यदुसे कहा— ॥‘ वत्स ! तुम्हारे नानाजीके शापसे मुझे असमयमें ही वृद्धावस्थाने घेर लिया है , अब उन्हींकी कृपासे मैं उसे तुमको देना चाहता हूँ॥
मैं अभी विषय – भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ , इसलिये एक सहस्त्र वर्षतक मैं तुम्हारी युवावस्थासे उन्हें भोगना चाहता हूँ ॥ इस विषयमें तुम्हें किसी प्रकारकी आनाकानी नहीं करनी चाहिये । ‘ किन्तु पिताके ऐसा कहनेपर भी यदुने वृद्धावस्थाको ग्रहण करना न चाहा ॥ तब पिताने उसे शाप दिया कि तेरी सन्तान राज्य पदके योग्य न होगी ॥ फिर राजा ययातिने तुर्वसु , दुह्यु और अनुसे भी अपना यौवन देकर वृद्धावस्था ग्रहण करनेके लिये कहा ; तथा उनमेंसे प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया ॥
अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा – ‘ यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है । ‘ ऐसा कहकर पूरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहण कर उन्हें अपना यौवन दे दिया ॥ राजा ययातिने पूरुका यौवन लेकर समयानुसार प्राप्त हुए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहके अनुसार धर्मपूर्वक भोगा । और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया ॥ फिर विश्वाची और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए ‘ मैं कामनाओंका अन्त कर दूंगा’- ऐसे सोचते सोचते वे प्रतिदिन [ भोगोंके लिये ] उत्कण्ठित रहने लगे ॥ और निरन्तर भोगते रहनेसे उन कामनाओंको अत्यन्त प्रिय मानने लगे ; तदुपरान्त उन्होंने इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट किया ॥
ययाति का अनुभव
‘ भोगोंकी तृष्णा उनके भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती , बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती है ॥ सम्पूर्ण पृथिवीमें जितने भी धान्य , यव , सुवर्ण , पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब एक मनुष्यके लिये भी सन्तोषजनक नहीं हैं , इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥ जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता , उस समय उस समदर्शीके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं ॥
दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती , बुद्धिमान् पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है ॥ अवस्थाके जीर्ण होनेपर केश और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं किन्तु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी नहीं जीर्ण होतीं ॥ विषयोंमें आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्र वर्ष बीत गये , फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती है ॥
अतः अब मैं इसे छोड़कर और अपने चित्तको भगवान्में ही स्थिरकर निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर [ वनमें ] मृगोंके साथ विचरूँगा ॥ तदनन्तर राजा ययातिने पूरुसे अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया और उसे राज्य – पदपर अभिषिक्त कर वनको चले गये ॥ उन्होंने दक्षिण पूर्व दिशामें तुर्वसुको , पश्चिममें द्रुह्युको , दक्षिणमें यदुको और उत्तरमें अनुको माण्डलिकपदपर नियुक्त किया ; तथा पूरुको सम्पूर्ण भूमण्डलके अभिषिक्तकर स्वयं वनको चले राज्यपर गये ।।