62. ययाति का चरित्र

ययाति

नहुषके वंशका वर्णन

 नहुषके यति , ययाति , संयाति , आयाति , वियाति और कृति नामक छ : महाबल विक्रमशाली पुत्र हुए ॥

ययाति का राज्य

यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की , इसलिये ययाति ही राजा हुआ ॥  ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था ॥  उनके वंशके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है— ॥

ययाति के पुत्र

‘ देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु , अनु और पूरुको उत्पन्न किया ‘ ॥

ययाति को शुक्राचार्यजी का शाप

ययातिको शुक्राचार्यजीके शापसे असमय ही वृद्धावस्थाने घेर लिया था ॥ पीछे शुक्रजीके प्रसन्न होकर कहनेपर उन्होंने अपनी वृद्धावस्थाको ग्रहण करनेके लिये बड़े पुत्र यदुसे कहा— ॥‘ वत्स ! तुम्हारे नानाजीके शापसे मुझे असमयमें ही वृद्धावस्थाने घेर लिया है , अब उन्हींकी कृपासे मैं उसे तुमको देना चाहता हूँ॥

मैं अभी विषय – भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ , इसलिये एक सहस्त्र वर्षतक मैं तुम्हारी युवावस्थासे उन्हें भोगना चाहता हूँ ॥  इस विषयमें तुम्हें किसी प्रकारकी आनाकानी नहीं करनी चाहिये । ‘ किन्तु पिताके ऐसा कहनेपर भी यदुने वृद्धावस्थाको ग्रहण करना न चाहा ॥  तब पिताने उसे शाप दिया कि तेरी सन्तान राज्य पदके योग्य न होगी ॥ फिर राजा ययातिने तुर्वसु , दुह्यु और अनुसे भी अपना यौवन देकर वृद्धावस्था ग्रहण करनेके लिये कहा ; तथा उनमेंसे प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया ॥ 

अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा – ‘ यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है । ‘ ऐसा कहकर पूरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहण कर उन्हें अपना यौवन दे दिया ॥ राजा ययातिने पूरुका यौवन लेकर समयानुसार प्राप्त हुए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहके अनुसार धर्मपूर्वक भोगा । और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया ॥  फिर विश्वाची और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए ‘ मैं कामनाओंका अन्त कर दूंगा’- ऐसे सोचते सोचते वे प्रतिदिन [ भोगोंके लिये ] उत्कण्ठित रहने लगे ॥  और निरन्तर भोगते रहनेसे उन कामनाओंको अत्यन्त प्रिय मानने लगे ; तदुपरान्त उन्होंने इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट किया ॥ 

ययाति का अनुभव

‘ भोगोंकी तृष्णा उनके भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती , बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती है ॥ सम्पूर्ण पृथिवीमें जितने भी धान्य , यव , सुवर्ण , पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब एक मनुष्यके लिये भी सन्तोषजनक नहीं हैं , इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥  जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता , उस समय उस समदर्शीके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं ॥ 

दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती , बुद्धिमान् पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है ॥  अवस्थाके जीर्ण होनेपर केश और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं किन्तु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी नहीं जीर्ण होतीं ॥ विषयोंमें आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्र वर्ष बीत गये , फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती है ॥ 

अतः अब मैं इसे छोड़कर और अपने चित्तको भगवान्‌में ही स्थिरकर निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर [ वनमें ] मृगोंके साथ विचरूँगा ॥ तदनन्तर राजा ययातिने पूरुसे अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया और उसे राज्य – पदपर अभिषिक्त कर वनको चले गये ॥ उन्होंने दक्षिण पूर्व दिशामें तुर्वसुको , पश्चिममें द्रुह्युको , दक्षिणमें यदुको और उत्तरमें अनुको माण्डलिकपदपर नियुक्त किया ; तथा पूरुको सम्पूर्ण भूमण्डलके अभिषिक्तकर स्वयं वनको चले राज्यपर गये ।। 

MEGHA PATIDAR
MEGHA PATIDAR

Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

Articles: 300