ययाति राजा और बृहद्रथ राजा के वैराग्य
(नारदपरि. उपनिषद् 3-मं. 37 )
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ||1||
पूर्व चतुर्थ अध्याय में जनकाद्याख्यान कहा, अब पंचमें अध्याय में ययाति राजा और बृहद्रथ राजा के वैराग्य को कहते हैं।
नारद परिव्राजकोपनिषद् में कहा है कि जैसे यज्ञकुण्ड का कृष्णवर्त्म नाम अग्नि, घृत आदि हवि के पुनः – पुनः डालने पर अधिक वृद्धि को प्राप्त होता है। तैसे ही पुत्र स्त्री आदि काम्य विषयों की कामनायें पुनः पुनः भोगने मात्र से कभी भी शान्त नहीं होती हैं, पुनः वृद्धि को ही प्राप्त होती है ।।1।।
(विष्णुपु. अंश. 4- अ. 10-श्लो. 13-14-15)
जीर्यन्ति जीर्यतः केशाः दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः ।
धनाशा जीविताशा च जीर्यतोपि न जीर्यति ।।2।।
पूर्ण वर्ष सहस्रं मे विषयासक्तः चेतसः ।
तथाप्यनुदिनं तृष्णा ममैतेष्वेव जायते ||3||
तस्मादेतानहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम् ।
निर्द्वन्द्वो निर्ममो भूत्वा चरिष्यामि मृगैः सह ||4||
ये ही वार्ता विष्णुपुराण में ययाति राजा ने अपने छोटे पुत्र से युवावस्था लेकर बहुत काल विषय भोगने पर भी तृप्ति न होने से वैराग्य होने पर कही है कि पुरुष के शरीर को जरा से जर्जरीभूत हो जाने पर केश सफेद रूप से जीर्ण हो जाते हैं। और शरीर के जीर्ण होने पर
दांत आदि सर्व अंग जीर्ण हो जाते हैं। परन्तु प्राणी को जो धनकी आशा है और अधिक बढ़ती जाती है और जीवन की आशा है सो कभी भी जीर्ण नहीं होती है। अहो कष्ट है आशारूपी पिशाचनी ने मेरी शास्त्र के जानने पर भी क्या दशा कर दी है ।।2।। और पूरे हजार वर्ष मेरे को विषयों में आसक्तचित्त हुए को व्यतीत हो गये हैं। तथापि दिनदिन प्रति मेरी तृष्णा इन विषयों में बढ़ती ही जाती है।।3।।
इस कारण से तृष्णा-अग्नि के वर्धक इन विषयों को त्याग करके अब मैं सच्चिदानन्द शुद्धबुद्ध आत्मस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म में चित्त को लगाकर, सर्व द्वन्द्वों से रहित होकर ममता आदि से मुक्त होकर, सर्व संगदोषों को छोड़कर वनों में मृगो के साथ विचरूंगाक्योंकि विषयों के संग करने से ही पुरुष बन्धन को प्राप्त होता है। ऐसा विचारकर ययाति राजा अपने पुत्र को युवावस्था और राज्य देकर विरक्त होकर वनों में चला गया ||4||
(भा. स्कन्ध 12-अ. 5- श्लो. 2)
त्वं तु राजन्मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नश्यसि ||5||
भागवत में शुकदेवजी ने संसारिक विषयों से विरक्त हुए परीक्षित् को समस्त परमहसंहिता रूप भागवत सुनाकर अन्त में कहा कि हे राजन् ! जो आप यह पशुबुद्धि कर रहे हो कि मैं मर जाऊंगा ऐसी पशु बुद्धि को आप त्याग दें क्योंकि न तो आप कभी पूर्व काल में देह के समान उत्पन्न हुए हो और न आज नाशवान् देह के समान आपके नित्य अजर-अमर शुद्ध बुद्ध आत्मस्वरूप का नाश होगा। ऐसा निश्चय कर अद्वितीय आत्मस्वरूप से स्थित हो ||5||
(अस खण्ड 1-अ. 9 श्लो. 30)
पितः ते तपसे युक्ता संसाराय वयं कथम् ।
अहो हन्त प्रभोर्बुद्धिर्विपरीताय कल्पते ||6||
ब्रह्मवैवर्त पुराण में सनत्कुमार आदि के सृष्टिकर्म से विरक्त हो जाने पर ब्रह्मा ने नारद से कहा कि आप सृष्टि का काम करें। तब नारद ने कहा है पितः । आपने सनत्कुमार आदि पुत्रों को तो आत्मज्ञान का साधन चित्त की एकाग्रता रूप तप करने के लिये जोड़ दिया है। और हम संसार कर्म के लिये क्यों जोड़े जाते हैं। अहो कष्ट है, आप सर्व के स्वामी पिता की बुद्धि हम समान पुत्रों के प्रति विपरीतता के लिये कैसे समर्थ होती है ।।6।।
(अन्नपूर्णो. अ. 1-मं. 38)
आत्मवत् सर्वभूतानि परद्रव्याणि लोष्टवत्।
स्वभावादेव न भयाद्यः पश्यति स पश्यति ।।7।।
द्रव्य को अन्नपूर्णोपनिषद् में कहा है कि जो पुरुष सर्वभूत प्राणियों को अपना आत्मरूप देखता है और भय आदि के निमित्त न होने से केवल स्वभाव से ही जो पुरुष पराये गन्दे ढेले के समान देखता है ऐसा समदर्शी पुरुष ही जानो देखता है। और सर्व अन्धे ही कहे जाते हैं ।।7।।
(पद्मपु. उत्तरार्ध खण्ड. 3-भा. महा. अ. 4- श्लो. 75)
न चेन्द्रस्य सुखं किंचिन्न सुखं चक्रवर्तिनः ।
सुखमस्ति विरक्तस्य मुनेरेकान्तजीविनः ।।8।।
पद्मपुराण में भागवत के महात्म्य में कहा है कि जैसा सुख एकान्तवासी मननशील विरक्त महात्मा को होता है वैसा सुख न तो देवताओं के राजा इन्द्र को है न चक्रवर्ती राजा को है। क्योंकि अधिक ऐश्वर्य के कारण से बलि आदि असुरों से जैसा इन्द्र को सर्वदा भय रहता है ऐसा भय और किसी को नहीं है। तैसे ही शत्रुओं के भय से चक्रवर्ती राजा को भी सुख नहीं होता है ।।8।।
(मैत्रायण्यु. प्रपाठक. 1-मं. 1-2)
बृहद्रथो ह वै नाम राजा राज्ये ज्येष्ठ पुत्रं निधापयित्वे- दमशाश्वतं मन्यमानः शरीरं वैराग्यमुपेतोऽरण्यं निर्जगाम तस्मै नमस्कृत्योवाच भगवन्नाहमात्मवित्त्वां तत्त्वविच्छृणुमो वयं स त्वं नो ब्रूहीति ।।
शाकायन्यस्य चरणावभिमृश्यमानो राजेमां गाथा जगाद ||9||
विण्मूत्रवातपित्तकफसंघाते दुर्गन्धे निःसारेऽस्मिञ्छरीरे किं कामोपभोगैः ।।10।।
मैत्रायण्युपनिषद् में कहा है बृहद्रथ नाम प्रसिद्ध राजा राज्यशासन में ज्येष्ठ पुत्र को स्थापित करके इस शरीर को अनित्य क्षणभंगुर जानकर सर्व राजसमाज को दुःखरूप जानकर महातीव्र वैराग्य को प्राप्त होकर वनों में गये। वन में जाकर शाकायन्य ऋषि के
प्रति श्रद्धा-भक्तिपूर्वक चरणों को स्पर्श करते हुए नमस्कार कर बोले भो भगवन् ! मैं आत्मस्वरूप तत्त्व को नहीं जानता हूँ। और आपको हमने आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वैततत्त्व का ज्ञाता सुना है। सो आप आत्मतत्त्व के वेत्ता हमारे को अज्ञान रूप त्रिदोष व्याधि से पीड़ितों को कृपा करके आत्मज्ञान रूप चिकित्सा का उपदेश करें। ऐसी प्रार्थना करते हुए शाकायन्य ऋषि के चरणों को श्रद्धापूर्वक मस्तक से स्पर्श करते हुए बृहद्रथ राजा ने इस गाथा को कहा ||9||
इस विष्ठा मूत्र के और वात पित्त कफ के संघात दुर्गन्धी से पूर्ण निस्सार शरीर से विषयभोगों के भोगने से हे भगवन् ! कहो प्राणी क्या लाभ कर सकता है। तब शाकायन्य ऋषि प्रसन्न होकर कहते हैं हे इक्ष्वाकुवंशी महाराज बृहद्रथ ऐसे वैराग्य वाला पुरुष ही आत्मतत्त्व को जान सकता है। हे राजन् ! जो जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं का प्रकाशक है तिस ब्रह्मस्वरूप अद्वय परमानन्द को अपना आत्मा जानकर जीवन्मुक्त होकर संसार में विचरो ।।10।।
(नारदपरि. उपदेश. 3- मं. 48 )
मांसासृक्पूयविण्मूत्रस्नायुमज्जास्थिसंहतौ ।
देहे चेत्प्रीतिमान् मूढ भविता नरकेऽपि सः ।।11।।
नारदपरिब्राजकोपनिषद् में कहा है कि मांस रुधिर राध विष्ठा मूत्र आंत मज्जा अस्थि आदियों के संघात शरीर में अति अपवित्र में मूर्ख पुरुष यदि प्रीति वाला है तो ऐसा बुद्धिहीन पुरुष तो नरक में भी रमणीक बुद्धिकर प्रीति करने वाला ही हो जायेगा ।।11।।
(प्रद्यपु खण्ड. 2- अ. 66-श्लो. 159)
राज्येऽपि हि कुतः सौख्यं सन्धिविग्रहचिन्तया ।
पुत्रादपि भयं यत्र तत्र सौख्यं हि कीद्दशम् ।।12।।
(गीता. अ. 2-श्लो. 44 )
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।13।।
पद्मपुराण में कहा कि राज्य की प्राप्ति होने पर भी पुरुष को कहाँ से सुख प्राप्त हो सकता है, क्योंकि प्रबल के साथ सन्धि करने की चिन्ता से और समान बल वाले के साथ
में युद्ध करने की चिन्ता से सदा क्लेश ही रहता है। जिस राज्य के प्राप्त होने में पुत्र से भी भय बना रहता है तिस राज्य में सर्व से ही किसी न किसी भय की शंका रहने पर कहो क्या सुख है। सर्वदा ही दुःख रूप है ।।12।।
गीता में श्री कृष्णचन्द्र परमानन्द भगवान् ने कहा है कि राज्य भोग ऐश्वर्य पदार्थों में अति आसक्तचित्त वाले पुरुषों को भोगपदार्थों की इच्छा से आत्मविचार में नष्टचित्त बालों को समाहित चित्त से प्राप्त करने को योग्य आत्मस्वरूप अद्वय ब्रह्म में मैं सच्चिदानन्द ब्रह्म हूँ ऐसी निश्ययात्मिका बुद्धि की प्राप्ति नहीं होती है। हे कुन्तीनन्दन इन भोग पदार्थों से तीव्र वैराग्य वाला होकर परमानन्द आत्मस्वरूप अद्वय ब्रह्म मैं हूँ ऐसी निश्चयात्मिक बुद्धि वाला हो ।।13।।
(अध्यात्मरामा काण्ड 2-सर्ग. 4- श्लो. 15-18-20-21 )
उन्मत्तं भ्रान्तमनसं कैकेयीवशवर्तिनम् ।
बद्ध्वा निहन्मि भरतं तद्बन्धून्मातुलानपि ।।14।।
यदिदं दृश्यते सर्वं राज्यं देहादिकं च यत् ।
यदि सत्यं भवेत्तत्र आयासः सफलश्च ते ।।15।।
भोगा मेघवितानस्थविद्युल्लेखेव चंचलाः ।
आयुरप्यग्निसंतप्तलोहस्थजलबिन्दुवत् ||16||
यथा व्यालगलस्थोपि भेको दंशानपेक्षते ।
तथा कालाहिना ग्रस्तो लोको भोगानशाश्वतान् ।।17।।
अध्यात्मरामायण में कहा है कि हे रामचन्द्रजी ! आप तो मेरे को हतभाग्य को त्यागकर वन में दूर जा रहे हो परन्तु हा कष्ट है कर्मभोग के दुःख मेरे को त्यागकर दूर नहीं जाते हैं। ऐसे आर्त वचन कौसल्या माता के सुनकर क्षात्रजोश से पूर्ण हुए लक्ष्मण रामचन्द्रजी से कहते हैं कि उन्मत्त भ्रान्त मन वाले को कैकेयी के वशवर्तिको और भरत को तिस के बन्धुओं को और मामादियों को बान्धकर हनन करूंगा । अन्यायकारी को आज मैं अकेला ही बान्धकर हनन करूंगा। आप निशंक होकर राजगद्दी पर बैठकर मेरी भुजाओं का बल देखें ।।14।।
ऐसे जोश से पूर्ण लक्ष्मण को गोद में लेकर रामचन्द्रजी वैराग्य के वचनों से शान्त करते हैं कि हे रघुवंशमणि वीर ! कुछ भी यह सर्व देखने में आता है राज्य और देह से लेकर स्त्री, पुत्र, भाई- बन्धु आदि यदि यह सर्व सत्य होएँ तब तो आपका परिश्रम करना सफल भी होए। परन्तु यह तो सर्व देखते-देखते यहाँ ही नाश होता जा रहा है ।।15।।
वे भोग पदार्थ कैसे हैं जैसे मेघमंडल में स्थित बिजली की रेखा का चमकना है ऐसे चंचल हैं। और पुरुष की आयु भी कैसी है? जैसे अग्नि से संतप्त लोहे पर जल का बिन्दु पड़कर शीघ्र ही दग्ध हो जाता है ऐसे ही आयु नष्ट होने वाली है ।।16।।
अहो आश्चर्य है जैसे सर्प के मुख में भी स्थित हुई मेढ़की मच्छरों को खाने की आशा करती है तैसे ही आल्पायु पुरुष कालरूप सर्प से ग्रसा हुआ नाशमान् भोगपदार्थों के भोगने की इच्छा करता है। हे रघुकुल नन्दन आप सूर्यवंशी होकर सत्यज्ञान आनन्द आत्मस्वरूप अद्वय ब्रह्म को छोड़कर विषयी पुरुषों के समान भोगपदार्थों में चित्त न लगायें |117||
(पद्मपु. खण्ड 6-अ. 200- श्लो. 18)
तावद्द्रव्यगुणे सुखं यावत्प्राप्तं न चित्सुखम् ।
तत्प्राप्तौ च भवेत्तुच्छं सुधाया इव तक्रकम् ।।18।।
पद्मपुराण में कहा है कि तब तक ही संसार के द्रव्य भोगपदार्थों में शुभगुण रूप सुख प्रतीत होता है जब तक आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वय परमानन्द चेतनस्वरूप सुख प्राप्त नहीं हुआ है। तिस परमब्रह्मानन्द सुख के प्राप्त हो जाने पर इस संसार के सुख ऐसे तुच्छ निस्सार हो जाते हैं जैसे अमृत के प्राप्त हो जाने पर छाछ अति तुच्छ निस्सार प्रतीत होती है ।।18।।
(यो. प्र. 6-उ. स. 40-श्लो. 4)
भोगा भवमहारोगा बान्धवोद्दढ़बन्धनम् ।
अनर्थायार्थसंपत्तिरात्मनात्मनि शाम्यताम् ।।19।।
योगवासिष्ठ में वसिष्ठजी ने कहा है कि हे राम ! ब्रह्मात्मस्वरूप स्थिति के विरोधी भोगों को अनर्थकारी जान। जैसे रोग मृत्यु के सन्मुख करने वाला होता है, तैसे ही शब्द स्पर्श रूपादि भोगों को संसारचक्र में डालने वाले रोग जान, एक-एक शब्दादि भोग मृत्युप्रद कहा है जिसमें शब्द स्पर्श रूप रस गंध पाञ्च व्यसन हैं तिसकी मृत्यु का तो क्या ही कहना है। और पुत्र दारादि बन्धु द्दढ़ बेड़ीरूप बन्धन जान। कामिनी के हित हते काम
नीके। राजा भर्तृ ने रानी पिंगला के मोहबन्धन में आकर सूर्यग्रहण में जो कुरुक्षेत्र में तुलादानादि किया जाता है तिस कल्याणकारी दानादि को त्याग दिया था। धनसंपत्ति को अनर्थकारी जान, क्योंकि धनी पुरुष को चोरादि के भय से रात्रि को निद्रा नहीं आती। ऐसे जानकर निजात्मरूप से परमानन्द निजात्मस्वरूप में शान्तरूप से स्थिर हो जाये ||19||