यादवोंका अन्त्येष्टि-संस्कार
अर्जुनने राम और कृष्ण तथा अन्यान्य मुख्य-मुख्य यादवोंके मृत देहोंकी खोज कराकर क्रमशः उन सबके और्ध्वदैहिक संस्कार किये ॥ भगवान् कृष्णकी जो रुक्मिणी आदि आठ पटरानी बतलायी गयी हैं, उन सबने उनके शरीरका आलिंगन कर अग्निमें प्रवेश किया ॥ सती रेवतीजी भी बलरामजीके देहका आलिंगन कर, उनके अंग-संगके आह्लादसे शीतल प्रतीत होती हुई प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर गयीं ॥ इस सम्पूर्ण अनिष्टका समाचार सुनते ही उग्रसेन, वसुदेव, देवकी और रोहिणीने भी अग्निमें प्रवेश किया ॥
तदनन्तर अर्जुन उन सबका विधिपूर्वक प्रेत- कर्म कर वज्र तथा अन्यान्य कुटुम्बियोंको साथ लेकर द्वारकासे बाहर आये ॥ द्वारकासे निकली हुई कृष्णचन्द्रकी सहस्रों पत्नियों तथा वज्र और अन्यान्य बान्धवोंकी [सावधानतापूर्वक] रक्षा करते हुए अर्जुन धीरे-धीरे चले ॥ कृष्णचन्द्रके मर्त्यलोकका त्याग करते ही सुधर्मा सभा और पारिजात- वृक्ष भी स्वर्गलोकको चले गये ॥ जिस दिन भगवान् पृथिवीको छोड़कर स्वर्ग सिधारे थे, उसी दिनसे यह मलिनदेह महाबली कलियुग पृथिवीपर आ गया ॥ इस प्रकार जनशून्य द्वारकाको समुद्रने डुबो दिया, केवल एक कृष्णचन्द्रके भवनको वह नहीं डुबाता है ॥ उसे डुबानेमें समुद्र आज भी समर्थ नहीं है; क्योंकि उसमें भगवान् कृष्णचन्द्र सर्वदा निवास करते हैं ॥
ऐसी सम्मतिकर वे सहस्रों लुटेरे लाठी और ढेले लेकर उन अनाथ द्वारकावासियोंपर टूट पड़े ॥ तब अर्जुनने उन लुटेरोंको झिड़ककर हँसते हुए कहा- “अरे पापियो ! यदि तुम्हें मरनेकी इच्छा न हो तो अभी लौट जाओ” ॥ लुटेरोंने उनके कथनपर कुछ भी ध्यान न दिया और भगवान् कृष्णके सम्पूर्ण धन और स्त्रीधनको अपने अधीन कर लिया ॥
तब वीरवर अर्जुनने युद्धमें अक्षीण अपने गाण्डीव धनुषको चढ़ाना चाहा; किन्तु वे ऐसा न कर सके ॥ उन्होंने जैसे-तैसे अति कठिनतासे उसपर प्रत्यंचा (डोरी) चढ़ा भी ली तो फिर वे शिथिल हो गये और बहुत कुछ सोचनेपर भी उन्हें अपने अस्त्रोंका स्मरण न हुआ ॥ तब वे क्रुद्ध होकर अपने शत्रुओंपर बाण बरसाने लगे; किन्तु गाण्डीवधारी अर्जुनके छोड़े हुए उन बाणोंने केवल उनकी त्वचाको ही बींधा ॥ अर्जुनका उद्भव क्षीण हो जानेके कारण अग्निसे दिये हुए उनके अक्षय बाण भी उन अहीरोंके साथ लड़नेमें नष्ट हो गये ॥
तब अर्जुनने सोचा कि मैंने जो अपने शरसमूहसे अरे अनेकों राजाओंको जीता था, वह सब कृष्णचन्द्रका अनेकों राजाओंको जीता था, वह सब कृष्णचन्द्रका उन स्त्रीरत्नोंको खींच-खींचकर ले जाने लगे तथा कोई-कोई अपनी इच्छानुसार इधर-उधर भाग गयीं ॥
अर्जुन बोले- जो हरि मेरे एकमात्र बल, तेज, वीर्य, पराक्रम, श्री और कान्ति थे, वे हमें छोड़कर चले गये ॥ जो सब प्रकार समर्थ होकर भी हमसे मित्रवत् हँस-हँसकर बातें किया करते थे, हे मुने! उन हरिके बिना हम आज तृणमय पुतलेके समान निःसत्त्व हो गये हैं ॥ जो मेरे दिव्यास्त्रों, दिव्यबाणों और गाण्डीव धनुषके मूर्तिमान् सार थे वे पुरुषोत्तम भगवान् हमें छोड़कर चले गये हैं ॥ जिनकी कृपादृष्टिसे श्री, जय, सम्पत्ति और उन्नतिने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा, वे ही भगवान् गोविन्द हमें छोड़कर चले गये हैं ॥ जिनकी प्रभावाग्निमें भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि अनेक शूरवीर दग्ध हो गये थे, उन कृष्णचन्द्रने इस भूमण्डलको छोड़ दिया है ॥
हे तात ! उन चक्रपाणि कृष्णचन्द्रके विरहमें एक मैं ही क्या, सम्पूर्ण पृथिवी ही यौवन, श्री और कान्तिसे हीन प्रतीत होती है ॥ जिनके प्रभावसे अग्निरूप मुझमें भीष्म आदि महारथीगण पतंगवत् भस्म हो गये थे, आज उन्हीं कृष्णके बिना मुझे गोपोंने हरा दिया ! ॥ जिनके प्रभावसे यह गाण्डीव धनुष तीनों लोकोंमें विख्यात हुआ था उन्हींके बिना आज यह अहीरोंकी लाठियोंसे तिरस्कृत हो गया ! ॥
भगवान्की जो सहस्रों स्त्रियाँ मेरी देख-रेखमें आ रही थीं उन्हें, मेरे सब प्रकार यत्न करते रहनेपर भी दस्युगण अपनी लाठियोंके बलसे ले गये ॥ हे कृष्णद्वैपायन! लाठियाँ ही जिनके हथियार हैं उन आभीरोंने आज मेरे बलको कुण्ठितकर मेरे द्वारा साथ लाये हुए सम्पूर्ण कृष्ण-परिवारको हर लिया ॥ ऐसी अवस्थामें मेरा श्रीहीन होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; हे पितामह! आश्चर्य तो यह है कि नीच पुरुषोंद्वारा अपमान-पंकमें सनकर भी मैं निर्लज्ज अभी जीवित ही हूँ ॥
श्रीव्यासजी बोले- हे पार्थ! तुम्हारी लज्जा व्यर्थ है, तुम्हें शोक करना उचित नहीं है। तुम सम्पूर्ण भूतोंमें कालकी ऐसी ही गति जानो ॥ हे पाण्डव ! प्राणियोंकी उन्नति और अवनतिका कारण काल ही है, अतः हे अर्जुन! इन जय-पराजयोंको कालके अधीन समझकर तुम स्थिरता धारण करो ॥ नदियाँ, समुद्र, गिरिगण, सम्पूर्ण पृथिवी, देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और सरीसृप आदि सम्पूर्ण पदार्थ कालके ही रचे हुए हैं और फिर कालहीसे ये क्षीण हो जाते हैं, अतः इस सारे प्रपंचको कालात्मक जानकर शान्त होओ ।।
हे धनंजय ! तुमने कृष्णचन्द्रका जैसा माहात्म्य बतलाया है वह सब सत्य ही है; क्योंकि कमलनयन भगवान् कृष्ण साक्षात् कालस्वरूप ही हैं । उन्होंने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोकमें अवतार लिया था। एक समय पूर्वकालमें पृथिवी भाराक्रान्त होकर देवताओंकी सभामें गयी थी ॥
कालस्वरूपी श्रीजनार्दनने उसीके लिये अवतार लिया था। अब सम्पूर्ण दुष्ट राजा मारे जा चुके, अतः वह कार्य सम्पन्न हो गया ॥ हे पार्थ! वृष्णि और अन्धक आदि सम्पूर्ण यदुकुलका भी उपसंहार हो गया; इसलिये उन प्रभुके लिये अब पृथिवीतलपर और कुछ भी कर्तव्य नहीं रहा ॥ अतः अपना कार्य समाप्त हो चुकनेपर भगवान् स्वेच्छानुसार चले गये, ये देवदेव प्रभु सर्गके आरम्भमें सृष्टि रचना करते हैं, स्थितिके समय पालन करते हैं और अन्तमें ये ही उसका नाश करनेमें समर्थ हैं- जैसे इस समय वे [ राक्षस आदिका संहार करके ] चले गये हैं ॥
अतः हे पार्थ! तुझे अपनी पराजयसे दुःखी न होना चाहिये, क्योंकि अभ्युदय-काल उपस्थित होनेपर ही पुरुषोंसे ऐसे कर्म बनते हैं जिनसे उनकी स्तुति होती है ॥ हे अर्जुन ! जिस समय तुझ अकेलेने ही युद्धमें भीष्म, द्रोण और कर्ण आदिको मार डाला था वह क्या उन वीरोंका कालक्रमसे प्राप्त हीनबल पुरुषसे पराभव नहीं था ? ॥ जिस प्रकार भगवान् विष्णुके प्रभावसे तुमने उन सबको नीचा दिखलाया था, उसी प्रकार तुझे दस्युओंसे दबना पड़ा है ॥ वे जगत्पति देवेश्वर ही शरीरोंमें प्रविष्ट होकर जगत् की स्थिति करते हैं और वे ही अन्तमें समस्त जीवोंका नाश करते हैं ॥
हे कौन्तेय! जिस समय तेरा भाग्योदय हुआ था उस समय श्रीजनार्दन तेरे सहायक थे और जब उस (सौभाग्य) – का अन्त हो गया तो तेरे विपक्षियोंपर श्रीकेशवकी कृपादृष्टि हुई है ॥ तू गंगानन्दन भीष्मपितामहके सहित सम्पूर्ण कौरवोंको मार डालेगा- इस बातको कौन मान सकता था और फिर यह भी किसे विश्वास होगा कि तू आभीरोंसे हार जायगा ॥
हे पार्थ! यह सब सर्वात्मा भगवान्की लीलाका ही कौतुक है कि तुझ अकेलेने कौरवोंको नष्ट कर | दिया और फिर स्वयं अहीरोंसे पराजित हो गया ॥ हे अर्जुन! तू जो उन दस्युओंद्वारा हरण की गयी स्त्रियोंके लिये शोक करता है सो मैं तुझे उसका यथावत् रहस्य बतलाता हूँ॥ एक बार पूर्वकालमें विप्रवर अष्टावक्रजी सनातन ब्रह्मकी स्तुति करते हुए अनेकों वर्षतक जलमें रहे ॥
उसी समय दैत्योंपर विजय प्राप्त करनेसे देवताओंने सुमेरु पर्वतपर एक महान् उत्सव किया। उसमें सम्मिलित होनेके लिये जाती हुई रम्भा और | तिलोत्तमा आदि सैकड़ों-हजारों देवांगनाओंने मार्गमें उन मुनिवरको देखकर उनकी अत्यन्त स्तुति और प्रशंसा की॥ वे देवांगनाएँ उन जटाधारी मुनिवरको कण्ठपर्यन्त जलमें डूबे देखकर विनयपूर्वक स्तुति करती हुई प्रणाम करने लगीं ॥ हे कौरवश्रेष्ठ ! जिस प्रकार वे द्विजश्रेष्ठ अष्टावक्रजी प्रसन्न हों उसी प्रकार वे अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं ॥
अष्टावक्रजी बोले- हे महाभागाओ ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे वही वर माँग लो; मैं अति दुर्लभ होनेपर भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ॥ तब रम्भा और तिलोत्तमा आदि वैदिकी (वेदप्रसिद्ध) अप्सराओंने उनसे कहा-” आपके प्रसन्न हो जानेपर हमें क्या नहीं मिल गया ॥ तथा अन्य अप्सराओंने कहा- “यदि भगवान् हमपर प्रसन्न हैं तो हे विप्रेन्द्र ! हम साक्षात् पुरुषोत्तमभगवान्को पतिरूपसे प्राप्त करना चाहती हैं ” ॥
श्रीव्यासजी बोले- तब ‘ऐसा ही होगा’- यह कहकर मुनिवर अष्टावक्र जलसे बाहर आये। उनके बाहर आते समय अप्सराओंने आठ स्थानोंमें टेढ़े उनके कुरूप देहको देखा ॥ उसे देखकर जिन अप्सराओंकी हँसी छिपानेपर भी प्रकट हो गयी, हे कुरुनन्दन ! उन्हें मुनिवरने क्रुद्ध होकर यह शाप दिया – ॥ “मुझे कुरूप देखकर तुमने हँसते हुए मेरा अपमान किया है, इसलिये मैं तुम्हें यह शाप देता हूँ कि मेरी कृपासे श्रीपुरुषोत्तमको पतिरूपसे पाकर भी तुम मेरे शापके वशीभूत होकर लुटेरोंके हाथोंमें पड़ोगी” ॥
श्रीव्यासजी बोले- मुनिका यह वाक्य सुनकर उन अप्सराओंने उन्हें फिर प्रसन्न किया, तब मुनिवरने उनसे कहा . ‘उसके पश्चात् तुम फिर स्वर्गलोकमें चली जाओगी ” ॥
इस प्रकार मुनिवर अष्टावक्रके शापसे ही वे देवांगनाएँ श्रीकृष्णचन्द्रको पति पाकर भी फिर दस्युओंके हाथमें पड़ी हैं ॥
हे पाण्डव ! तुझे इस विषयमें तनिक भी शोक न करना चाहिये क्योंकि उन अखिलेश्वरने ही सम्पूर्ण यदुकुलका उपसंहार किया है ॥ तथा तुमलोगोंका अन्त भी अब निकट ही है; इसलिये उन सर्वेश्वरने तुम्हारे बल, तेज, वीर्य और माहात्म्यका संकोच कर दिया है ॥
‘जो उत्पन्न हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है, उन्नतका पतन अवश्यम्भावी है, संयोगका अन्त वियोग ही है तथा संचय (एकत्र करने) के अनन्तर क्षय (व्यय) होना सर्वथा निश्चित ही है’- ऐसा जानकर जो बुद्धिमान् पुरुष लाभ या हानिमें हर्ष अथवा शोक नहीं करते उन्हींकी चेष्टाका अवलम्बन कर अन्य मनुष्य भी अपना वैसा आचरण बनाते हैं ॥ इसलिये हे नरश्रेष्ठ! तुम ऐसा जानकर अपने भाइयोंसहित सम्पूर्ण राज्यको छोड़कर तपस्याके लिये वनको जाओ ॥ अब तुम जाओ तथा धर्मराज युधिष्ठिरसे मेरी ये सारी बातें कहो और जिस तरह परसों भाइयोंसहित वनको चले जा सको वैसा यत्न करो ॥