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1. परिचय
‘हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनिवाले जो कोई भी मेरी शरण हो जाते हैं वे परमगति को प्राप्त होते हैं ।’ भगवान् केवल प्रेम से प्रसन्न होते हैं। जाति-पाँति, धन-दौलत, विद्या-बुद्धि आदिकी वे कुछ भी परवा नहीं करते। जो सबका मोह त्यागकर अपने- आपको उस प्रभुके चरणोंमें अर्पण कर देता है, प्रभु उसके ही हो जाते हैं। वे चाहते हैं केवल हृदयकी सच्ची भावना; अन्तस्तलका निगूढ़ प्रेम। जहाँ ये वस्तुएँ होती हैं, वहीं वे बिक जाते हैं।
2. अकाल और गुलामी
आजसे १२०० वर्ष पूर्व तुर्किस्तानके बसरा नामक नगर में रबिया का जन्म एक गरीब मुसलमान के घर हुआ। रबियाकी माँ तो उसके बचपनमें ही मर गयी थी। पिता भी रबियाको बारह वर्षकी उम्र में ही अनाथिनी कर चल बसा। रबिया बड़े ही कष्टके साथ अपना जीवन-निर्वाह करती। एक समय देश में भयानक अकाल पड़ा, जिससे बहिनों का भी सङ्ग छूट गया। किसी दुष्टने रबियाको फुसलाकर एक धनीके हाथ बेच दिया। धनी बड़ा ही स्वार्थी और निर्दय स्वभाव का मनुष्य था। पैसों से खरीदी हुई गुलाम रबियापर तरह-तरहके जुल्म होने लगे। गाली और मार तो मामूली बात थी। विषयमद में मतवाले लोगों के लिये ऐसा आचरण स्वाभाविक ही है।
3. ईश्वर की ओर रुख
रबिया कष्ट से पीड़ित होकर अकेले में ईश्वर के सामने रो-रोकर चुपचाप अपना दुखड़ा सुनाया करती । जगत्में एक ईश्वर के सिवा उसे सान्त्वना देनेवाला कोई नहीं था । गरीब अनाथ का उस अनाथ-नाथ के अतिरिक्त और होता भी कौन है ?
4. गुलामी से मुक्ति
मालिक के जुल्म से घबराकर उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये रबिया एक दिन छिपकर भाग निकली; परंतु ईश्वर का विधान कुछ और था। थोड़ी दूर जाते ही वह ठोकर खाकर गिर पड़ी, जिससे उसका दाहिना हाथ टूट गया। विपत्तिपर नयी विपत्ति आयी। अमावस्या की घोर निशा के बाद ही शुक्लपक्ष का अरुणोदय होता है।
विपत्ति की सीमा होनेपर ही सुख के दिन लौटा करते हैं ? रबिया इस नयी विपत्ति से विचलित होकर रो पड़ी और उसने दीनों के एकमात्र बन्धु भगवान् की शरण लेकर कहा- ‘ऐ मेरे मेहरबान मालिक ! मैं बिना माँ-बापकी अनाथ लड़की जन्म से ही दुःखों में पड़ी हुई हूँ। दिन-रात यहाँ कैदीकी तरह मरती-पचती किसी कदर जिन्दगी बिता रही थी। रहा-सहा हाथ भी टूट गया। क्या तुम मुझपर खुश नहीं होओगे ! कहो मेरे मालिक ! तुम मुझसे क्यों नाराज हो ?’
रबिया की कातरवाणी गगनमण्डल को भेदकर उस अलौकिक लोक में पहुँच, तुरंत भगवान्के दिव्य श्रवणेन्द्रियों में प्रवेशकर हृदयमें जा पहुँची। रबिया ने दिव्य स्वरों में सुना; मानो भगवान् स्वयं कह रहे हैं – ‘बेटी ! चिन्ता न कर। तेरे सारे संकट शीघ्र ही दूर हो जायेंगे। तेरी महिमा पृथ्वीभर में छा जायगी। देवता भी तेरा आदर करेंगे।’ सच्ची करुण प्रार्थना का उत्तर तत्काल ही मिला करता है।
5. भजन-ध्यान में जीवन
इस दिव्य वाणी को सुनकर रबिया का हृदय आनन्द से उछल पड़ा। उसको अब पूरी उम्मीद और हिम्मत हो गयी। उसने सोचा कि ‘जब प्रभु मुझपर प्रसन्न हैं और अपनी दयाका दान दे रहे हैं तब कष्टोंको कोमल कुसुमों के स्पर्शकी भाँति हर्षोत्फुल्ल हृदयसे सहन कर लेना कौन बड़ी बात है।’ रबिया अपने हाथकी चोटके दर्दको भूलकर प्रसन्नचित्तसे मालिकके घर लौट आयी। पर आजसे उसका जीवन पलट गया। काम-काज करते हुए भी उसका ध्यान प्रभुके चरणोंमें रहने लगा। वह रातों जगकर प्रार्थना करने लगी। भजनके प्रभावसे उसका तेज बढ़ गया। एक दिन आधी रात के समय रबिया अपनी एकान्त कोठरीमें घुटने टेके बैठी हुई करुण स्वरसे प्रार्थना कर रही थी।
भगवत्प्रेरणासे उसी समय उसके मालिककी भी नींद टूटी। उसने बड़ी मीठी करुणोत्पादक आवाज़ सुनी और वह तुरंत उठकर अंदाज लगा रबियाकी कोठरीके दरवाजेपर आ गया। परदेकी ओरसे उसने देखा, कोठरीमें अलौकिक प्रकाश छाया हुआ है। रबिया अनिमेष नेत्रोंसे बैठी विनय कर रही है। उसने रबियाके ये शब्द सुने– ‘ऐ मेरे मालिक! मैं अब सिर्फ तेरा ही हुक्म उठाना चाहती हूँ, लेकिन क्या करूँ जितना चाहती हूँ उतना हो नहीं पाता। मैं खरीदी हुईगुलाम हूँ। मुझे गुलामीसे फुरसत ही कहाँ मिलती है।’
दीन-दुनिया के मालिक ने रबिया की प्रार्थना सुन ली और उसीकी प्रेरणासे रबियाके मालिक का मन उसी क्षण पलट गया। वह रबियाकी तेजपुञ्जमयी मञ्जुल मूरति देख और उसकी भक्ति करुणापूर्ण प्रार्थना सुनकर चकित हो गया। वह धीरे-धीरे रबियाके समीप आ गया। उसने देखा, रबियाके भक्तिभावपूर्ण मुखमण्डल और चमकीले ललाटपर दिव्य ज्योति छायी हुई है।
उसी स्वर्गीय ज्योतिसे मानो सारे घरमें उजियाला हो रहा है। इस दृश्यको देखकर वह भय और आश्चर्यमें डूब गया। उसने सोचा कि ऐसी पवित्र और पूजनीय देवीको गुलामीमें रखकर मैंने बड़ा ही अन्याय – बड़ा ही पाप किया है। ऐसी प्रभुकी सेविका देवीकी सेवा तो मुझको करनी चाहिये। रबियाके प्रति उसके मनमें बड़ी भारी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। उसने विनीतभावसे कहा – ‘देवि ! मैं अबतक तुझे पहचान नहीं सका था। आज भगवत्कृपा से मैंने तेरा प्रभाव जाना। अब तुझे मेरी सेवा करनी नहीं पड़ेगी। तू सुखपूर्वक मेरे घरमें रह। मैं ही तेरी सेवा करूँगा।’
रबियाने कहा- ‘स्वामिन्! मैं आपके द्वारा सेवा कराना नहीं चाहती । आपने इतने दिनोंतक मुझे घरमें रखकर खानेको दिया, यही मुझपर बड़ा उपकार है, अब आप दया करके मुझको दूसरी जगह चले जाने की स्वतन्त्रता दे दें तो मैं किसी निर्जन स्थान में जाकर आनन्द से भगवान् का भजन करूँ।’ मालिक ने रबिया की बात मान ली। अब रबिया गुलामी से छूटकर अपना सारा समय भजन-ध्यानमें बिताने लगी। उसके हृदयमें प्रेमसिन्धु छलकने लगा। संसारकी आसक्तिका तो कहीं नाम निशान भी नहीं रह गया। रबियाने अपना जीवन सम्पूर्णरूपसे प्रेममय परमात्माके चरणोंमें अर्पण कर दिया। रबियाके जीवन की कुछ उपदेशप्रद घटनाओंका मनन कीजिये-
एक बार रबिया उदास बैठी हुई थी, दर्शन के लिये आनेवाले लोगोंमेंसे एकने पूछा, ‘आज आप उदास क्यों हैं ?’ रबियाने जवाब दिया- ‘आज सबेरे मेरा मन स्वर्ग की ओर चला गया था, इसके लिये मेरे आन्तरिक परम सखाने मुझे फटकारा है। मैं इसी कारण उदास हूँ कि सखा को छोड़कर मेरा पाजी मन दूसरी ओर क्यों गया !’ रबिया ईश्वर को सखा के रूप में भजती थी।
6. रबिया की उपदेशप्रद घटनाएँ
एक समय रबिया बहुत बीमार थी। सूफियान नामक एक साधक उससे मिलने गया। रबियाकी बीमारी की हालत देखकर सूफियान को बड़ा खेद हुआ; परंतु वह संकोचके कारण कुछ भी कह नहीं सका। तब रबियाने उससे कहा- ‘भाई! तुम कुछ कहना चाहते हो तो कहो।’
सूफियान ने कहा-‘ -‘देवि ! आप प्रभुसे प्रार्थना कीजिये, प्रभु आपकी बीमारी को जरूर मिटा देंगे।’
रबियाने मुसकराते हुए जवाब दिया- ‘सूफियान ! क्या तुम इस बात को नहीं जानते कि बीमारी किसकी इच्छा और इशारे से होती है ? क्या इस बीमारी में मेरे प्रभुका हाथ नहीं है ?’ सूफियान – हाँ, ‘उसकी इच्छा बिना तो क्या होता है ?’
7. प्रभु के प्रति प्रेम
रबिया — ‘जब यह बात है, तब तुम मुझसे यह कैसे कह रहे हो कि मैं उसकी इच्छाके विरुद्ध बीमारी से छूटने के लिये उससे प्रार्थना करूँ। जो मेरा परम सखा है, जिसका प्रत्येक विधान प्रेम से भरा होता है, उसकी इच्छाके विरुद्ध कार्य करना क्या प्रेमीके लिये कभी उचित है ?’ कैसा सुन्दर आत्मसमर्पण है।
सूफियान ने पूछा – ‘आपको किसी चीज के खाने की इच्छा है ?’ रबिया — ‘तुम जानते हो, मैं खजूर खाना चाहती थी। दस वर्षसे यहाँ रहती हूँ, खजूरों की भी यहाँ कमी नहीं है, परन्तु मैने
अभीतक एक भी खजूर को जीभ पर भी नहीं रखा है, मैं तो उस (प्रभु) की दासी हूँ। दासी को इच्छा कैसी ? जो कुछ भी इच्छा करूँ, यदि वह मेरे प्रभु की इच्छा के विरुद्ध है तो मेरे लिये सर्वथा त्याज्य है।’
एक बार संत हुसैनबसरी ने रबिया से पूछा—’क्या आप विवाह करना चाहती हैं ?” रबियाने जवाब दिया, ‘विवाह शरीर से होता है, परंतु मेरे शरीर कहाँ है, मैं तो मन के साथ इस तन को प्रभू के हाथों अर्पण कर चुकी हूँ, यह शरीर अब उसी के अधीन है और उसी के कार्य में लगा हुआ है। विवाह किसके साथ किस प्रकार करूँ।’
रबिया ने अपना सब कुछ प्रभु को अर्पण कर दिया था। उसके समीप एक प्रभु के सिवा ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जिसे वह ‘मेरी’ कहती या समझती हो। एक बार हुसैनबसरी ने पूछा—’देवि ! आपने ऐसी ऊँची स्थिति किस तरह प्राप्त की ?’
रबिया — ‘जो कुछ मिला था सो सब खोकर उसे पाया है।’ हुसैन – ‘आप जिस ईश्वर की उपासना करती हैं क्या आपने उस ईश्वर को कभी देखा है ?’
रबिया —‘देखती नहीं तो पूजा कैसे करती, परंतु मेरे उस ईश्वर का वाणी से वर्णन नहीं हो सकता। वह माप-तौल की चीज नहीं है।’
बातों-ही-बातों में एक दिन हुसैनबसरी रबिया से कहने लगे- ‘परलोक में अगर एक मुहूर्त के लिये भी मेरा मन प्रभु के चिन्तन को छोड़ेगा तो मैं ऐसा रोऊँगा और विलाप करूँगा, जिसको सुनकर देवताओं को भी मुझ पर दया आ जायगी।’
रबियाने कहा -‘यह तो अच्छी बात है, परंतु यहाँ ही ऐसा क्यों नहीं किया जाता ? यहाँ होगा तभी वहाँ होगा।
रबिया सबसे प्रेम करती, पापी-तापी सब के साथ उसका दया का बर्ताव रहता था। एक दिन एक मनुष्य ने रविया से पूछा- ‘आप पापरूपी राक्षस को तो शत्रु ही समझती हैं न?’ रबिया ने कहा – ‘ईश्वर के प्रेम में छकी रहने के कारण मुझे न किसी से शत्रुता करनी पड़ी और न किसी से लड़ना ही पड़ा। प्रभु- कृपा से मेरे कोई शत्रु रहा ही नहीं।’
एक समय कुछ लोग रबिया के पास गये, रबिया ने उनमें से एक से पूछा – ‘भाई ! तू ईश्वर की सेवा किसलिये करता है ?’ उसने कहा— ‘नरक की भयानक पीड़ा से छूटने के लिये।’ दूसरे से पूछने पर उसने कहा- ‘स्वर्ग अत्यन्त ही रमणीय स्थान है, वहाँ भाँति- भाँति के भोग और असीम सुख हैं, उसी सुख को पाने के लिये मैं भगवान् की भक्ति करता हूँ।
‘ रबिया ने कहा-‘बेसमझ भक्त ही भय या लोभ के कारण प्रभु की भक्ति किया करते हैं। न करने से तो यह भी अच्छी ही है, परंतु मान लो, यदि स्वर्ग या नरक दोनों ही न होते तो क्या तुम लोग प्रभु की भक्ति करते ? सच्चे भक्त की ईश्वर-भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिये नहीं होती, वह तो अहैतु की हुआ करती है।’ कैसा आदर्श भक्ति का निरूपण है।
8. धन और दरिद्रता का महत्व
एक बार एक धनी आदमी रुपयों की थैली लेकर हुसैन- बसरी के साथ रबिया के पास गया और उसने रुपये स्वीकार करने के लिये प्रार्थना की। रबिया ने कहा -‘इस दुनिया में जो लोग मालिककी निन्दा करते हैं, वह महान् उदार परमात्मा नाराज होकर उनके लिये खान-पान बंद नहीं करता, फिर वह अपने गुलामों के लिये कंजूसी क्यों करने लगा ? मैंने जबसे उसका यह महत्त्व समझा है, तबसे मेरी कुछ भी प्राप्त करनेकी वासना चली गयी है। भला बताओ, मैं इस धनका क्या करूँ ?’
इसी तरह एक बार एक धनी मनुष्य ने रबिया को बहुत फटे- पुराने चिथड़े पहने देखकर कहा हे तपखिनी। यदि आपका इशारा हो तो आपकी इस दरिद्रता को दूर करनेके लिये यह दास तैयार है।
रेबिया – सांसारिक दरिद्रता के लिये किसी से कुछ भी माँगते मुझे बड़ी शरम मालूम होती है। जब यह सारा जगत् मेरे प्रभु का ही राज्य है, तब उसे छोड़कर मैं दूसरे किससे क्या माँगू ? मुझे जरूरत होगी तो अपने मालिक के हाथ से आप ही ले लूँगी।’ धन्य निर्भरता !
एक समय एक मनुष्यने रबिया के फूटे लोटे और फटी गुदड़ी को देखकर कहा – ‘देवि ! मेरी अनेक धनियों से मित्रता है, आप आज्ञा करें तो आपके लिये जरूरी सामान ले आऊँ ।।
रबिया — ‘तुम बहुत गलती कर रहे हो, वे कोई भी मेरे अन्नदाता नहीं हैं, जो यथार्थ जीवनदाता है वह क्या गरीबीके कारण गरीब को भूल गया है ? और क्या धनके कारण ही वह धनवान् को याद रखता है ?’
रबिया कभी-कभी प्रेमावेश में बड़े जोर से पुकार उठती । लोग उससे पूछने लगे कि ‘आपको कोई रोग या दुःख न होने पर भी आप किसलिये चिल्ला उठती हैं?’ रबियाने कहा-‘ ‘मेरे बाहरी बीमारी नहीं है, जिसको संसार के लोग समझ सकें, मेरे तो अन्तर का रोग है, जो किसी भी वैद्य-हकीमके वशका नहीं है। मेरी यह बीमारी तो सिर्फ उस मनमोहनके मुखड़ेकी छवि देखनेसे ही मिट सकती है।’
9. अंतिम जीवन
रबिया का मन सदा-सर्वदा प्रभुकी उपासना में लगा रहता था, वह दिन-रात प्रभु के चिन्तन में अपना समय बिताती। एक बार रबिया ने प्रभु से प्रार्थना की- ‘हे स्वामी ! तू ही मेरा सब कुछ है, मैं तेरे सिवा और कुछ भी नहीं चाहती। प्रभो। यदि मैं नरक के डर से तेरी पूजा करती हूँ तो मुझे नरकाग्रिमें भस्म कर दे। यदि मैं स्वर्ग के लोभ से तेरी सेवा करती हूँ तो स्वर्गका द्वार मेरे लिये सदा को बंद कर दे और अगर तेरे लिये ही तेरी पूजा करती हूँ तो अपना परम प्रकाशमय सुन्दर रूप दिखलाकर मुझे कृतार्थ कर।’
10. निष्कर्ष
रबिया का शेष जीवन बहुत ही ऊँची अवस्था में बीता। वह चारों ओर अपने परम सखा के असीम सौन्दर्य को देख-देखकर आनन्द में डूबी रहती। एक दिन रातको जब तक चन्द्रमा की चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी, रबिया अपनी कुटिया के अंदर किसी दूसरी ही दिव्य सृष्टि की ज्योत्स्ना का आनन्द लूट रही थी। इतने में एक परिचित स्त्री ने आकर ध्यानमग्न रबियाको बाहरसे पुकारा, ‘रबिया ! बाहर आकर देख, कैसी खूबसूरत रात है।’ रबियाके हृदयमें इस समय जगत्का समस्त सौन्दर्य जिसकी एक बूँदके बराबर भी नहीं है, वही सुन्दरताका सागर उमड़ रहा था। उसने कहा—’तुम एक बार मेरे दिल के अंदर घुसकर देखो, कैसी दुनिया से परे की अनोखी खूबसूरती है।’
हिजरी सन् १३५ में रबिया ने भगवान् में मन लगाकर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।
FAQ’s:
रबिया कौन थीं?
रबिया, एक प्रमुख सूफी संत थीं, जिनका जन्म तुर्किस्तान के बसरा नामक नगर में हुआ था। वे एक गरीब मुसलमान परिवार से थीं और अपने कठिन जीवन के बावजूद, उन्होंने ईश्वर के प्रति अटूट भक्ति और प्रेम का प्रदर्शन किया।
रबिया का जीवन कैसे व्यतीत हुआ?
रबिया का जीवन दुख और कष्टों से भरा था। उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद, वे गुलामी की स्थिति में आ गईं और कई सालों तक कठिनाइयों का सामना किया। लेकिन अपनी दृढ़ भक्ति और ईश्वर के प्रति असीम प्रेम के कारण उन्होंने अंततः गुलामी से मुक्ति पाई और भगवान की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
रबिया की गुलामी से मुक्ति कैसे हुई?
रबिया ने एक दिन अपने मालिक के अत्याचारों से बचने के लिए भागने की कोशिश की, लेकिन एक दुर्घटना में उनका दाहिना हाथ टूट गया। इस विपत्ति के बावजूद, उनकी ईश्वर के प्रति प्रार्थना और समर्पण ने उनके जीवन को बदल दिया। अंततः, उनके मालिक ने उनकी भक्ति और दिव्यता देखकर उन्हें गुलामी से मुक्त कर दिया और रबिया ने अपना जीवन भजन और ध्यान में बिताया।
रबिया की प्रमुख शिक्षाएं क्या हैं?
रबिया की शिक्षाएं आत्मसमर्पण, प्रेम, और भक्ति के आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने बताया कि सच्ची भक्ति किसी भी लोक या परलोक के पुरस्कार के लिए नहीं होती, बल्कि ईश्वर के प्रति निराकार प्रेम से होती है। वे दुनियावी धन, दरिद्रता, और सामाजिक स्थिति को महत्व नहीं देतीं और अपने जीवन को पूरी तरह से ईश्वर की भक्ति में समर्पित कर देती हैं।
रबिया के भजन-ध्यान की विशेषताएँ क्या थीं?
रबिया ने भजन और ध्यान के माध्यम से ईश्वर की उपासना की। उनकी भक्ति पूर्ण और निरंतर थी, और वे अक्सर रातों को भजन गाकर और प्रार्थना करके समय बिताती थीं। उनकी प्रार्थनाएँ और भजन उनकी दिव्यता और समर्पण को दर्शाते हैं।
रबिया की प्रसिद्ध बातें और उद्धरण क्या हैं?
“सच्चे भक्त की ईश्वर-भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी होती है।”
“जब यह बात है, तब तुम मुझसे यह कैसे कह रहे हो कि मैं उसकी इच्छाके विरुद्ध बीमारी से छूटने के लिये उससे प्रार्थना करूँ।”
रबिया की मृत्यु कब हुई और उनका अंतिम जीवन कैसा था?
रबिया की मृत्यु हिजरी सन् १३५ में हुई। वे अपने अंतिम दिनों में पूर्ण दिव्यता और ईश्वर के प्रेम में समाहित रही। उन्होंने अपने जीवन की अंतिम अवस्था में ईश्वर के परम प्रकाश और सौंदर्य का अनुभव किया और अपने शरीर को त्याग दिया।
रबिया के जीवन से क्या प्रेरणा मिलती है?
रबिया के जीवन से हमें सिखने को मिलता है कि सच्ची भक्ति और प्रेम केवल ईश्वर के प्रति होना चाहिए, न कि किसी भी भौतिक पुरस्कार या पुरस्कार की उम्मीद में। उनकी शिक्षाएं हमें आत्मसमर्पण, समर्पण, और ईश्वर के प्रति अपार प्रेम का आदर्श प्रस्तुत करती हैं।