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राजनीति का विवरण

राजनीति का विवरण

राजनीति का विवरण

(मनुस्मृ.अ. 7-श्लो. 42-54)

पृथुस्तु विनयाद्राज्यं प्राप्तवान्मनुरेव च

कुबेरश्च धनैश्वर्य ब्राह्मण्यं चैव गाधिजः ।।1।।

मौलाञ्छास्त्रविदः शूरौंल्लब्धलक्षान्कुलोद्रतान् ।

सचिवान्सा चाठी वा प्रकुर्वीत परीक्षितान् ।।2।।

पूर्व षोड़श अध्याय में प्रारब्ध का कथन करा, अब पुरुषार्थ प्रधान मनु आदि से विधान करी हुई धर्म युक्त राजाओं की कल्याणकारी राजनीति को इस सतरहवें अध्याय में कहते हैं।

आदि कल्प में मनुजी ने कहा है कि पृथुराजा और मनुजी विनय भक्ति से ही राज्य को प्राप्त हुए हैं और कुबेर धन ऐश्वर्य के स्वामित्व को प्राप्त हुए हैं और विनय भक्ति से ही विश्वामित्रजी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए हैं ।।1।।

राजा स्वयं विनय भक्तियुक्त धर्मशास्त्रज्ञ होकर आठ मंत्रियों को वा सप्त मंत्रियों को जो धर्मयुक्त राजनीति के मूल को जानने वाले हों, धर्मशास्त्र के ज्ञाता हों, शूरवीर हों, राजनीति के लक्ष्य को जानने वाले हों, शुभ कुल में उत्पन्न हुए हों, राजा और प्रजा के हित में बर्तने वाले हों ऐसे गुणों से सम्पन्न मंत्रियों को मनुजी के कथनानुसार परीक्षा करके राजकाज के लिये राजा रखे ।। 2।।

(याज्ञवल्क्यस्मृ. अ. 1-श्लो. 338)

ये राष्ट्राधिकृतास्तेषां चारैर्ज्ञात्वा विचेष्टितम् ।

साधूसन्मानयेद्राजा विपरीतांश्च घातयेत् ।।3।।

(मनुस्मृ. अ. 8 श्लो. 311 )

निग्रहेण हि पापानां साधूनां संग्रहेण च ।

द्विजातय इवेज्याभिः पूज्यन्ते सततं नृपाः ।।4।।

(याज्ञवल्क्यस्मृ. अ. 1 श्लो. 317)

अलब्धमीहेद्धर्मेणा लब्धं यत्नेन पालयेत् ।

पालितं वर्धयेन्नीत्या वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत् ।।5।।

याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि जो राज्य पालने के लिये राजा ने अधिकारी करे हैं तिन मंत्रियों की गुप्तचरों द्वारा शुभ अशुभ चेष्टा जानकर शुभ चेष्टावाले श्रेष्ठ मंत्रियों का सम्मान करे और अशुभ चेष्टावाले दुष्ट मंत्रियों का घात करे ।।3।।

मनुजी ने कहा है कि पाप कर्म करने वालों को सजा देकर बन्धन करने से और साधुपुरुषों का सत्कार कर रक्षा करने से राजा लोग सर्वदा के लिये ऐसे पवित्र हो जाते हैं। जैसे तीन वर्णों के द्विजातीय यज्ञ करने से पवित्र होते है ।।4।।

याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि राजा अप्राप्त द्रव्य को धर्म के मार्ग से प्राप्त करे और धर्म से प्राप्त हुए को धर्म के मार्ग से रक्षा करे। रक्षित धन को धार्मिक नीति से बढ़ाये और धार्मिक नीति से वृद्धि करे हुए धन को श्रेष्ठाचारी शास्त्रज्ञाता विद्वान्सत्पात्ररूप महान् पुरुषों में खर्च करे। इस रीति से धर्म करा हुआ राजा का कल्याणकारी होता है ।।5।।

( यमस्मृ श्लो. 59 )

अश्रीतस्मार्तविहितं प्रायश्चितं वदन्ति ये ।

तान् धर्मविन्धकर्तृच राजा दण्डेन पीडयेत् ॥6॥

(मनुस्मृ. अ. 9 श्लो. 302)

कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम् ।

कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रेता विचरंस्तु कृतं युगम् ॥7॥

यम स्मृति में कहा है कि श्रुति स्मृतियों से विरूद्ध धर्म की और विरुद्ध प्रायश्चित को जो पुरुष कथन करने वाले हैं तिन धर्म में विघ्नकारियों को नीतिज्ञ राजा दण्ड से पीड़ित करें ।।6।।

मनुजी ने कहा है कि चार युगों का प्रवर्तक राजा ही है जब राजा शास्त्रविहित कर्मों से सोते हुए के समान धर्महीन हो जाता है तब कलियुग होता है, जब धर्महीनता रूप निद्रा से जागकर धर्म कर्म को देखता है तब द्वापरयुग होता है, जब राजा स्वयं धर्म कमों में कटिबद्ध होकर करने को तैयार होता है तब त्रेतायुग होता है और जब राजा विचर कर सर्व प्रजा में धर्म का यथायोग्य प्रचार करता है तब सतयुग होता है ।।7।।

( स्कन्ध. खण्ड. 6-अ. 253 – श्लो. 12)

क्षत्रियैर्ब्राह्मणः शास्यो भार्यया च पतिस्तथा ।

उन्मार्गगामिनं श्रेष्ठमपि वेदान्तपारगम् ।।8।।

स्कन्दपुराण में कहा है कि धर्मात्मा क्षत्रियों से अधर्मकारी ब्राह्मण भी शिक्षापूर्वक शासनीय है तैसे ही शुभस्त्री से अधर्मी पति भी शासनीय है। इसी प्रकार माननीय वेदान्त पारगामी भी यदि कुमार्गगामी हो तो वह भी राजा से शासनीय है ।।8।।

( महाभा. पर्व. 12-अ. 57 श्लो. 15)

चातुर्वर्ण्यस्य धर्मश्च रक्षितव्यो महीक्षिता ।

धर्मसंकररक्षा च राजो धर्मसनातनः ।।9।।

(भा. स्कंध. 1-अ. 17 – श्लो. 10)

यस्य राष्ट्रे प्रजाः सर्वास्त्रस्यन्ते साध्व्यसाधुभिः ।

तस्य मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगोगति ।।10।।

महाभारत में कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णों का जो धर्म है सो धर्मात्मा राजा से अवश्य ही रक्षणीय है क्योंकि उलटे-सुलटे रूप वर्ण संकर दोषों से धर्म की रक्षा करना ही राजाओं का सनातन धर्म है ।।9।।

भागवत में कहा है कि प्रजारक्षण में तत्पर धर्मात्मा परीक्षित् राजा ने धर्मरूप बैल को छेदन करते हुए चाण्डाल रूपधारी कलि को देखकर कहा अहो कष्ट है, जिन हमारे पूर्वज धर्मात्मा पाण्डवों की छाया में प्रजा सुख से वास करती थी आज तिन धर्मात्मा की संतति होकर मैं श्रेष्ठ प्रजा को दुष्टों से तप्त हुई देखता हूँ ऐसे जीवन को धिक्कार है।

जिस राजा के राज्य में सर्व श्रेष्ठ प्रजा दुष्टाचारियों से त्रास को प्राप्त होती है तिस प्रमादी राजा की कीर्ति आयु लक्ष्मी और पुण्यगति यह सर्वनाश हो जाते हैं। ऐसा विचारकर धर्मरूप गोरक्षक परीक्षित हाथ में तलवार लेकर गोघातक कलि को केशों से पकड़कर मारने लगे तब कलि ने हाथ जोड़कर कहा कि मैं कलि हूँ मेरे को न मारे मैं आपकी आज्ञा में रहूँगा। तब शरण पड़े

को धर्मात्मा राजा ने यूतस्थान, सुरापान, स्त्रियों में, हिंसास्थान, नशा, अधर्मादि स्थानों में रहने की तथा कलि के मांगने पर सुवर्ण में रहने की आज्ञा देकर छोड़ दिया ||10||

(भा. स्कंध. 3-अ. 16 श्लो. 4)

तद्वः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवंपरं हि मे ।

तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुम्भिसत्कृताः ।।11।।

(भा. स्कंध 4 अ 21 – श्लो. 24)

य उद्धरेत्करं राजा प्रजा धर्मेष्वशिक्षयन् ।

प्रजानां शमलं भुङ्क्ते भगं च स्वं जहाति सः ।।12।।

भागवत में कहा है कि सनत्कुमार आदि को विष्णु के दर्शन के लिये वैकुण्ठ को जाते हुओं को जय विजय द्वारपालों से रोके जाने पर सनत्कुमार आदि ने क्रोधित होकर कहा आप तामसी वृत्ति वाले हो अस्तु क्षमा शील सत्य गुण प्रधान विष्णु के पास वास करने योग्य नहीं हो इस हेतु से तुम असुर होकर मृत लोक में वास करो।

तब अपने द्वारपालों से वीतराग परमहंस ब्रह्मज्ञानियों का तिरस्कार सुनकर विष्णु शीघ्र ही भागकर आये और कहा कि मैं आज आप वीतराग ब्रह्मपुत्रों को प्रसन्न करना चाहता हूँ क्योंकि मेरे तो ब्रह्मवित् ब्राह्मण ही परम देव हैं। जो मेरे द्वारपालों ने आप लोगों का अपमान करा है इस अपराध को मैं अपना ही करा हुवा मानता हूँ। यह द्वारपाल आप लोगों का अपमान करने से तीन जन्म (असुरों के) पाकर मेरे को प्राप्त होवेंगे ।।11।।

जो राजा प्रजा को अपने-अपने धर्म की शिक्षा न देकर केवल प्रजा से कर ही लेता है सो राजा जानो प्रजा से पाप ही नरक भोगने के लिये लेता है और अपने पुण्य और राज्यलक्ष्मी को त्याग कर हत भाग्य हो जाता है ||12||

(मार्कण्डेय. अ. 131 श्लो. 27)

मित्र च बान्धवो वापि पिता वा यदि वा गुरुः |

प्रजापालनविन्धाय यो हन्तव्यः स भूभृता ||13||

(मनुस्मृति. अ. 7-श्लो. 111 )

मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्यनवेक्षया ।

सोऽचिराद्धश्यते राज्याजीवनाच्या सर्वाधवः ।।14।।

(मनुस्मृ. अ. 8-श्लो. 128)

अदण्ड्यान्दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाष्यदण्डयन् ।

अयशो महदान्प्रोति नरकं चैव गच्छति ।।15।।

मार्कण्डेय पुराण में मरुत राजा ने अपने पितृ से कहा कि हे पितृ ! जो पुरुष प्रजापालन करने में राजा को विघ्नकारी है सो चाहे मित्र हो वा बान्धव वा पिता हों अथवा गुरु हो सो अवश्य ही राजा करके वध्य करने योग्य है। धार्मिक शिक्षा से प्रजा पालन करना ही राजा का मुख्य धर्म है ।।13।।

मनुजी ने कहा है कि जो राजा मोह अज्ञान से अपने सुख के लिये प्रजा को कष्ट देता है अथवा कर्मचारियों से कष्ट दिवाता है सो राजा बान्धवों के सहित शीघ्र ही राज्य से पतित हो जाता है और जीवन से भी शीघ्र ही यमलोक का पथिक बन जाता है ।।14।।

और जो राजा येन केन प्रकार से सत्य झूठ की परीक्षा न कर दण्ड न देने योग्य को दण्ड देता है और दण्ड देने योग्य को दण्ड नहीं देता है सो राजा इस लोक में महान् अपकीर्ति को प्राप्त होता है और मरकर निश्चित ही नरक को प्राप्त होता है अहो अभाग्यता की कैसी कष्टप्रद नीच गति है ।।15।।

(याज्ञवल्क्यस्मृ. अ. 1-श्लो. 341)

प्रजापीडनसंतापात्समुद्भू तो हुताशनः ।

राज्ञः कुलं श्रियं प्राणांश्चादग्ध्वा न निवर्तते ।।16।।

(अध्यात्मरामा काण्ड. 6-सर्ग. 3-श्लो. 077)

दण्ड एवहि मूर्खाणां सन्मार्गप्रापकः प्रभो ।

भूतानाममरश्रेष्ठ पशूनां लगुडो यथा ।।17।।

(भा. स्कन्ध, 11-अ. 26-श्लो. 13)

स्वार्थस्याकोविदंधिङ्मां मूर्ख पण्डितमानिनम् ।

योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः ।।18।।

याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि प्रजा को पीड़ा देना रूप संताप से उत्पन्न हुए जो अभि है सो अग्नि राजा के कुल को राजलक्ष्मी को और राजा के प्राणों को दग्ध करे से बिना निवृत्त नहीं होता है ।।16।।

अध्यात्म रामायण में श्रीरामचन्द्रजी के बाण से पीड़ित समुद्र ने मूर्ति धार कर हाथ जोड़कर रामचन्द्रजी से कहा हे प्रभो ! जैसे पशुओं को सीधे मार्ग में दण्ड देकर प्राप्त करा जाता है तैसे ही हे देवो में श्रेष्ठ राम ! मूर्ख प्राणियों को दण्ड ही शुभ मार्ग में प्राप्त कराने वाला है मुझ मूर्ख को अपने बाण रूप दण्ड से शिक्षा दी है सो अब मैं आपकी आज्ञा पालूंगा ।।17।।

भागवत में पुरूरवा राजा ने उर्वशी अप्सरा में सक्त होकर उसके पीछे भागते हुए ने विचारकर कहा कि अहो धिक्कार है मेरे को, मोक्षरूप स्वार्थ न जानने वाले मूर्ख पण्डित मानी को बारम्बार धिक्कार है क्योंकि जो मैं राजरूप ईश्वरता को प्राप्त होकर स्त्रियों से बैल और गर्दभों के समान जीता गया हूँ। ऐसा विचारकर राजा धर्म से प्रजापालन करते रहे।।18।।

(शुकनीति. अ. 1- श्लो. 120 )

अरक्षितारं नृपतिं ब्राह्मणं चातुपस्विनम् ।

धनिकं चाप्रदातारं देवा घ्नन्ति त्यजन्त्यद्यः ।।19।।

( अद्भुतरामा सर्ग. 21 – श्लो. 5)

यस्माद्देशात्समायातास्तं देशं प्रापयाम्हम् ।

क्षुल्लकेषु शराघातं न प्रशंसन्ति पण्डिताः ।।20।।

शुकनीति में कहा है कि प्रजारक्षण न करने वाले राजा को और तपहीन ब्राह्मण को और दानहीन धनी को देवता लोग नाश करके इनको नीच योनियों में प्राप्त कर इन पर कृपा करना त्याग देते हैं ।।19।।

अद्भुत रामायण में कहा है कि श्रीरामचन्द्रजी, भरत, विभीषण, सुग्रीव आदि समाज को लेकर श्वेत द्वीप में सहस्रमुखी रावण के साथ युद्ध करने को आये देखकर सहस्रमुखी रावण ने विचार कर कहा, यह अल्प कीटों का समाज जिस रीति से कष्ट न पाये उसी रीति से इन सुन्दर कीटों को जिस देश से आये हैं।

उसी ही देश में इनको सुखपूर्वक प्राप्त करूं तो मेरी बुद्धिमता है क्योंकि शास्त्रों में कहा है कि तुच्छ जीवों पर बाण का परिहार करने की पण्डित लोग प्रशंसा नहीं करते हैं तुच्छ जीवों पर शराघात करने वालों को धनुष विद्या के पण्डितों में मूर्ख और पापिष्ठ माना है। ऐसा विचारकर सर्व को अपनी विद्या के प्रभाव से अपने अपने स्थानों में प्राप्त करा दिया ।।20।।

(भविष्यत्पु. पर्व. 4-अ. 6-श्लो 78-102)

भो भो नृपा दुराचाराः प्रजाविध्वंसकारिणः ।

अल्पकालस्य राज्यस्य कृते किं दुष्कृतं कृतम् ।।21।।

भक्ष्यन्ते क्रिमिभिस्तीक्ष्णैर्लोहतुण्डैश्च वायसैः ।

श्वभिर्दशैर्वृ के घोरै व्यघ्रिरैप्यथ वानरैः ।।22।।

(महाभा. पर्व. 12-अ. 113 – श्लो. 9)

वेतसो वेगमायातं दृष्ट्वा नमति नापरेः ।

सरिद्वेगेऽव्यति क्रान्ते स्थानमासाद्य तिष्ठति ।।23।।

भविष्यत् पुराण में यमलोक को प्राप्त हुए प्रजा पीड़ाकारी राजाओं से यम राजा कहते हैं कि हे दुराचारियों ! हे प्रजा विध्वंसकारियों ! हे अधर्मकारी राजाओं ! अल्पकाल के राज्य सुख के लिये दुर्लभ मनुष्य देह को प्राप्त होकर तुमने दुष्ट कर्म क्यों करे ।।21।।

हे दुराचारी नृपों ! जैसे तुमने प्रजा को काटकाटकर खाया है तैसे ही अब तुम्हारे को भी जहरी कीटों से भक्षण कराया जायेगा और तीक्ष्ण लोहे की चोंचवाले कौओं से और तीक्ष्ण दांतों वाले भयानक कुत्तों और व्याघ्रादियों से और वानरों से भक्षण करे जाओगे। अब तुम प्रजापीड़न का और दुराचरणों का फल नरकों की दारुण यातना को भोगो इस प्रकार दुराचारियों को यमराज शासन करता है ।। 22।।

महाभारत में कहा है कि गंगा आदि नदियों से अपनी पत्नियों से समुद्र ने कहा हे गंगे ! तुम बहुत से वृक्षों की मेरे लिये नित्य भेंट लाती हो कभी बेंत का वृक्ष नहीं लाती हो । तब गंगा ने कहा हे स्वामिन् ! बेंत का जो वृक्ष है सो हमारे नदियों के वेग को आते हुए को देखकर नम जाता है और दूसरे नमते नहीं हैं अस्तु बेंत का वृक्ष नम जाने के कारण से हमारे से उखाड़ा नहीं जाता है इस कारण से ला नहीं सकती हैं और जो नमते नहीं तिनको ला देती हैं।

बेंत नदियों का वेग आने पर नम जाते हैं और नदियों का वेग निकल जाने पर बेंत फिर अपने स्थान पर स्थित होकर सीधा हो जाता है। इसी प्रकार से वृत्ति वाले

राजाओं की कोई शत्रु जड़ नहीं उखाड़ सकता है ऐसा धार्मिक राजनीति का उपदेश धर्मपुत्र युधिष्ठिर से भीष्म पितामह ने कहा है ।। 23।।

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