Site icon HINDU DHARMAS

94. राजा भरत चरित्र

राजा भरत चरित्र

 

राजा भरत चरित्र

आपने पहले जिसकी चर्चा की थी वह राजा भरतका चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ ,कृपा करके कहिये ॥ कहते हैं , वे राजा भरत निरन्तर योगयुक्त होकर भगवान् वासुदेवमें चित्त लगाये शालग्रामक्षेत्र में रहा करते थे ॥ इस प्रकार पुण्यदेशके प्रभाव और हरिचिन्तनसे भी उनकी मुक्ति क्यों नहीं हुई , जिससे उन्हें फिर ब्राह्मणका जन्म लेना पड़ा ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण होकर भी उन महात्मा भरतजीने फिर जो कुछ किया वह सब आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥ 

राजा भरत का तपस्वी जीवन

वे महाभाग पृथिवीपति भरतजी भगवान्‌में चित्त लगाये चिरकालतक शालग्रामक्षेत्रमें रहे ॥ गुणवानोंमें श्रेष्ठ उन भरतजीने अहिंसा आदि सम्पूर्ण गुण और मनके संयममें परम उत्कर्ष लाभ किया ॥ ‘ हे यज्ञेश ! हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे माधव ! हे अनन्त ! हे केशव ! हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे हृषीकेश ! हे वासुदेव ! आपको नमस्कार है ‘- इस प्रकार राजा भरत निरन्तर केवल भगवन्नामोंका ही उच्चारण किया करते थे ।  वे स्वप्नमें भी इस पदके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहते थे और न कभी इसके अर्थके अतिरिक्त और कुछ चिन्तन ही करते थे ॥ वे नि : संग , योगयुक्त और तपस्वी राजा भगवान्‌की पूजाके लिये केवल समिध , पुष्प और कुशाका ही संचय करते थे ।इसके अतिरिक्त वे और कोई कर्म नहीं करते थे ॥

भरतजी और हरिणी का प्रसंग

एक दिन वे स्नानके लिये नदीपर गये और वहाँ स्नान करनेके अनन्तर उन्होंने स्नानोत्तर क्रियाएँ कीं ॥ हे ब्रह्मन् ! इतनेहीमें उस नदी – तीरपर एक आसन्नप्रसवा( शीघ्र ही बच्चा जननेवाली )प्यासी हरिणी वनमेंसे जल पीनेके लिये आयी॥

उस समय जब वह प्राय : जल पी चुकी थी , वहाँ सब प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली सिंहकी गम्भीर गर्जना सुनायी पड़ी ॥ तब वह अत्यन्त भयभीत हो अकस्मात् उछलकर नदीके तटपर चढ़ गयी ; अतः अत्यन्त उच्च स्थानपर चढ़नेके कारण उसका गर्भ नदीमें नदीकी तरंगमालाओंमें पड़कर बहते हुए उस गर्भ भ्रष्ट मृगबालकको राजा भरतने पकड़ लिया ॥ गर्भपातके दोषसे तथा बहुत ऊँचे उछलनेके कारण वह हरिणी भी पछाड़ खाकर गिर पड़ी और मर गयी ॥ उस हरिणीको मरी हुई देख तपस्वी भरत उसके बच्चेको अपने आश्रमपर ले आये ॥ 

मृगछौने के प्रति ममता

फिर राजा भरत उस मृगछौनेका नित्यप्रति पालन – पोषण करने लगे और वह भी उनसे पोषित होकर दिन – दिन बढ़ने लगा ॥ वह बच्चा कभी तो उस आश्रमके आस – पास ही घास चरता रहता और कभी वनमें दूरतक जाकर फिर सिंहके लौट आता ॥ प्रातःकाल वह बहुत दूर भी चला जाता , तो भी सायंकालको फिर आश्रममें ही लौट आता और भरतजीके आश्रमकी पर्णशालाके आँगनमें पड़ रहता ॥ इस प्रकार कभी पास और कभी दूर रहनेवाले उस मृगमें ही राजाका चित्त सर्वदा आसक्त रहने लगा , वह अन्य विषयोंकी ओर जाता ही नहीं था ॥

जिन्होंने सम्पूर्ण राज – पाट और अपने पुत्र तथा बन्धु बान्धवोंको छोड़ दिया था वे ही भरतजी उस हरिणके बच्चेपर अत्यन्त ममता करने लगे ॥ उसे बाहर जानेके अनन्तर यदि लौटनेमें देरी हो जाती तो वे मन ही – मन सोचने लगते –’अहो ! उस बच्चेको आज किसी भेड़ियेने तो नहीं खा लिया ? किसी सिंहके पंजेमें तो आज वह नहीं पड़ गया ? देखो , उसके खुरोंके चिह्नोंसे यह पृथिवी कैसी चित्रित हो रही है ? मेरी ही प्रसन्नताके लिये उत्पन्न हुआ वह मृगछौना न जाने आज कहाँ रह गया है ?

क्या वह वनसे कुशलपूर्वक लौटकर अपने सींगोंसे मेरी भुजाको खुजलाकर मुझे आनन्दित करेगा ? देखो , उसके नवजात दाँतोंसे कटी हुई शिखावाले ये कुश और काश सामाध्यायी [ शिखाहीन ] ब्रह्मचारियोंके समान कैसे सुशोभित हो रहे हैं ? देरके गये हुए उस बच्चेके निमित्त भरत मुनि इसी प्रकार चिन्ता करने लगते थे और जब वह उनके निकट आ जाता तो उसके प्रेमसे उनका मुख खिल जाता था ॥

भरतजी का मृत्यु और पुनर्जन्म

इस प्रकार उसीमें आसक्तचित्त रहनेसे , राज्य , भोग , समृद्धि और स्वजनोंको त्याग देनेवाले भी राजा भरतकी समाधि भंग हो गयी ॥ उस राजाका स्थिरचित्त उस मृगके चंचल होनेपर चंचल हो जाता और दूर चले जानेपर दूर चला जाता ॥ कालान्तरमें राजा भरतने , उस मृगबालकद्वारा पुत्रके सजल नयनोंसे देखे जाते हुए पिताके समान अपने प्राणोंका त्याग किया ॥ राजा भी प्राण छोड़ते समय स्नेहवश उस मृगको ही देखता रहा तथा उसीमें तन्मय रहनेसे उसने और कुछ भी चिन्तन नहीं किया ॥

तदनन्तर , उस समयकी सुदृढ़ भावनाके कारण वह जम्बूमार्ग ( कालंजरपर्वत ) -के घोर वनमें अपने पूर्वजन्मकी स्मृतिसे युक्त एक मृग हुआ ॥ अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहने के कारण वह संसारसे उपरत हो गया और अपनी माताको छोड़कर फिर शालग्रामक्षेत्रमें आकर ही रहने लगा ॥ वहाँ सूखे घास – फूंस और पत्तोंसे ही अपना शरीर – पोषण करता हुआ वह अपने मृगत्व – प्राप्तिके हेतुभूत कर्मोंका निराकरण करने लगा ॥

ब्राह्मण जन्म और आत्मज्ञान

तदनन्तर , उस शरीरको छोड़कर उसने सदाचार सम्पन्न योगियोंके पवित्र कुलमें ब्राह्मण – जन्म ग्रहण किया । उस देहमें भी उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा ॥  वह सर्वविज्ञानसम्पन्न और समस्त शास्त्रों के मर्मको जाननेवाला था तथा अपने आत्माको निरन्तर प्रकृतिसे परे देखता था ॥  आत्मज्ञानसम्पन्न होनेके कारण वह देवता आदि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेसे अभिन्नरूपसे देखता था ॥

उपनयन संस्कार हो जानेपर वह गुरुके पढ़ानेपर भी वेद – पाठ नहीं करता था तथा न किसी कर्मकी ओर ध्यान देता और न कोई अन्य शास्त्र ही पढ़ता था ॥ जब कोई उससे बहुत पूछताछ करता तो जडके समान कुछ असंस्कृत , असार एवं ग्रामीण वाक्योंसे मिले हुए वचन बोल देता ॥ निरन्तर मैला – कुचैला शरीर , मलिन वस्त्र और अपरिमार्जित दन्तयुक्त रहनेके कारण वह ब्राह्मण सदा अपने नगरनिवासियों से अपमानित होता रहता था ॥ योगश्रीके लिये सबसे अधिक हानिकारक सम्मान ही है , जो योगी अन्य मनुष्योंसे अपमानित होता है वह शीघ्र ही सिद्धि लाभ कर लेता है ॥

ब्राह्मण का काली के बलिपशु के रूप में चयन

अतः योगिको, सन्मार्गको दूषित न करते हुए ऐसा आचरण करना चाहिये जिससे लोग अपमान करें और संगतिसे दूर रहें ॥ हिरण्यगर्भके इस सारयुक्त वचनको स्मरण रखते हुए वे महामति विप्रवर अपने – आपको लोगोंमें जड और उन्मत – सा ही प्रकट करते थे ॥ कुल्माष ( जौ आदि ) धान , शाक , जंगली फल अथवा कण आदि जो कुछ भक्ष्य मिल जाता उस थोड़े – सेको भी बहुत मानकर वे उसीको खा लेते और अपना कालक्षेप करते रहते ॥

फिर पिताके शान्त हो जानेपर उनके भाई – बन्धु उनका सड़े – गले अन्नसे पोषण करते हुए उनसे खेती बारीका कार्य कराने लगे ॥ वे बैलके समान पुष्ट शरीरवाले और कर्ममें जडवत् निश्चेष्ट थे । अतः केवल आहारमात्रसे ही वे सब लोगोंके यन्त्र बन जाते थे । [ अर्थात् सभी लोग उन्हें आहारमात्र देकर अपना – अपना काम निकाल लिया करते थे ] ॥ उन्हें इस प्रकार संस्कारशून्य और ब्राह्मणवेषके विरुद्ध आचरणवाला देख रात्रिके समय पृषतराजके सेवकोंने बलिकी विधिसे सुसज्जितकर कालीका बलिपशु बनाया । किन्तु इस प्रकार एक परम योगीश्वरको बलिके लिये उपस्थित देख महाकालीने एक तीक्ष्ण ले उस क्रूरकर्मा राजसेवकका गला काट डाला और अपने पार्षदोंसहित उसका तीखा रुधिर किया ॥

सौवीरराज और ब्राह्मण का संवाद

तदनन्तर , एक दिन महात्मा सौवीरराज कहीं जा रहे थे । उस समय उनके बेगारियोंने समझा कि यह भी बेगारके ही योग्य है ॥ राजाके सेवकोंने भी भस्ममें छिपे हुए अग्निके समान उन महात्माका रंग – ढंग देखकर उन्हें बेगारके योग्य समझा ॥  उन सौवीरराजने मोक्षधर्मके ज्ञाता महामुनि कपिलसे यह पूछनेके लिये कि ‘ इस दुःखमय संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है ” शिबिकापर चढ़कर इक्षुमती नदीके किनारे उन महर्षिके आश्रमपर जानेका विचार किया ॥

तब राजसेवकके कहनेसे भरत मुनि भी उसको पालकीको अन्य बेगारियोंके बीचमें लगकर वहन करने लगे ॥ इस प्रकार बेगारमें पकड़े जाकर अपने पूर्वजन्मका स्मरण रखनेवाले , सम्पूर्ण विज्ञानके एकमात्र पात्र वे विप्रवर अपने पापमय प्रारब्धका क्षय करनेके लिये उस शिबिकाको उठाकर चलने लगे ॥ बुद्धिमानों में श्रेष्ठ द्विजवर तो चार हाथ भूमि देखते हुए । मन्द – गतिसे चलते थे , किन्तु उनके अन्य साथी जल्दी जल्दी चल रहे थे ॥

ब्राह्मण का आत्मतत्त्व पर उपदेश

इस प्रकार शिबिकाकी विषम – गति देखकर राजाने कहा- ” अरे शिबिकावाहको । यह क्या करते हो ? समान गतिसे चलो ” ॥ किन्तु फिर भी उसकी गति उसी प्रकार विषम देखकर राजाने फिर कहा- ” अरे क्या है ? इस प्रकार असमान भावसे क्यों चलते हो ? ‘ ‘ ॥ राजाके बार – बार ऐसे वचन सुनकर वे शिबिकावाहक [ भरतजीको दिखाकर ] कहने लगे- ” हममेंसे एक यही धीरे – धीरे चलता है ” ॥

राजाने कहा- अरे , तूने तो अभी मेरी शिबिकाको थोड़ी ही दूर वहन किया है ; क्या इतनेहीमें थक गया ? तू वैसे तो बहुत मोटा – मुष्टण्डा दिखायी देता है , फिर क्या तुझसे इतना भी श्रम नहीं सहा जाता ? ब्राह्मण बोले – राजन् ! मैं न मोटा हूँ और न मैंने आपकी शिबिका ही उठा रखी है । मैं थका भी नहीं हूँ और न मुझे श्रम सहन करनेकी ही आवश्यकता है ॥

राजा बोले- अरे , तू तो प्रत्यक्ष ही मोटा दिखायी दे रहा है , इस समय भी शिबिका तेरे कन्धेपर रखी हुई है और बोझा ढोनेसे देहधारियोंको श्रम होता ही है ॥ ब्राह्मण बोले- राजन् ! तुम्हें प्रत्यक्ष क्या दिखायी दे रहा है , मुझे पहले यही बताओ । उसके ‘ बलवान् ‘ अथवा ‘ अबलवान् ‘ आदि विशेषणोंकी बात तो पीछे करना ॥ ‘ तूने मेरी शिबिकाका वहन किया है , इस समय भी वह तेरे ही कन्धोंपर रखी हुई है ‘ – तुम्हारा ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है , अच्छा मेरी बात सुनो ॥

देखो , पृथिवीपर तो मेरे पैर रखे हैं , पैरोंके ऊपर जंघाएँ हैं और जंघाओंके ऊपर दोनों ऊरु तथा ऊरुओंके ऊपर उदर है ॥ उदरके ऊपर वक्षःस्थल , बाहु और कन्धोंकी स्थिति है तथा कन्धोंके ऊपर यह शिबिका रखी है । इसमें मेरे ऊपर कैसे बोझा रहा ? इस शिबिकामें जिसे तुम्हारा कहा जाता है वह शरीर रखा हुआ है । वास्तवमें तो ‘ तुम वहाँ ( शिबिकामें ) हो और मैं यहाँ ( पृथिवीपर ) हूँ ‘ – ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है ॥ हे राजन् ! मैं , तुम और अन्य भी समस्त जीव पंचभूतोंसे ही वहन किये जाते हैं । तथा यह भूतवर्ग भी गुणोंके प्रवाहमें पड़कर ही बहा जा रहा है ॥

हे पृथिवीपते ! ये सत्त्वादि गुण भी कर्मोके वशीभूत हैं और समस्त जीवोंमें कर्म अविद्याजन्य ही हैं ॥ आत्मा तो शुद्ध , अक्षर , शान्त , निर्गुण और प्रकृतिसे परे है तथा समस्त जीवोंमें वह एक ही ओत – प्रोत है । अतः उसके वृद्धि अथवा क्षय कभी नहीं होते ॥

हे नृप ! जब उसके उपचय ( वृद्धि ) , अपचय ( क्षय ) | ही नहीं होते तो तुमने यह बात किस युक्तिसे कही कि ‘ तू मोटा है ? ‘ ॥ यदि क्रमशः पृथिवी , पाद , जंघा , कटि , ऊरु और उदरपर स्थित कन्धोंपर रखी हुई यह शिबिका मेरे लिये भाररूप हो सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकती है ? [ क्योंकि ये पृथिवी आदि तो जैसे तुमसे पृथक् हैं वैसे ही मुझ आत्मासे भी सर्वथा भिन्न हैं ] ॥

तथा इस युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोंने भी केवल शिबिका ही नहीं , बल्कि सम्पूर्ण पर्वत , वृक्ष , गृह और पृथिवी आदिका भार उठा रखा है ॥ हे राजन् ! जब प्रकृतिजन्य कारणोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो उसका परिश्रम भी मुझको कैसे हो सकता है ? और जिस द्रव्यसे यह शिबिका बनी हुई है उसीसे यह आपका , मेरा अथवा और सबका शरीर भी बना है ; जिसमें कि ममत्वका आरोप किया हुआ है ॥

ऐसा कह वे द्विजवर शिबिकाको धारण किये हुए ही मौन हो गये ; और राजाने भी तुरन्त पृथिवीपर उतरकर उनके चरण पकड़ लिये ॥ राजा बोला- अहो द्विजराज ! इस शिबिकाको छोड़कर आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये । प्रभो ! कृपया बताइये , इस जडवेषको धारण किये आप कौन हैं ? ॥ हे विद्वन् ! आप कौन हैं ? किस निमित्तसे यहाँ आपका आना हुआ ? तथा आनेका क्या कारण है ? यह सब आप मुझसे कहिये । मुझे आपके विषयमें सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ॥

ब्राह्मण बोले – हे राजन् ! सुनो , मैं अमुक हूँ – यह बात कही नहीं जा सकती और तुमने जो मेरे यहाँ आनेका कारण पूछा सो आना – जाना आदि सभी क्रियाएँ कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करती हैं ॥ सुख – दुःखका भोग ही देह आदिकी प्राप्ति करानेवाला है तथा धर्माधर्मजन्य सुख – दुःखोंको भोगनेके लिये ही जीव देहादि धारण करता है ॥

हे भूपाल ! समस्त जीवोंकी सम्पूर्ण अवस्थाओंक कारण ये धर्म और अधर्म ही हैं , फिर विशेषरूपसे मर आगमनका कारण तुम क्यों पूछते हो ? राजा बोला – अवश्य ही , समस्त कार्यों में धर्म और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये ही एक देहसे दूसरे देहमें जाना होता है ॥ किन्तु आपने जो कहा कि ‘ मैं कौन हूँ- यह नहीं बताया जा सकता ‘ इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है ।

हे ब्रह्मन् ! ‘ जो है [ अर्थात् जो आत्मा कर्ता भोक्तारूपसे प्रतीत होता हुआ सदा सत्तारूपसे वर्तमान है ] वही मैं हूँ ‘ – ऐसा क्यों नहीं कहा जा सकता ? हे द्विज यह ‘ अहम् ‘ शब्द तो आत्मामें किसी प्रकारके दोषका कारण नहीं होता ॥ ब्राह्मण बोले- हे राजन् ! तुमने जो कहा कि ‘ अहम् ‘ शब्दसे आत्मामें कोई दोष नहीं आता सो ठीक ही है , किन्तु अनात्मामें ही आत्मत्वका ज्ञान करानेवाला भ्रान्तिमूलक ‘ अहम् ‘ शब्द ही दोषका कारण है ॥

हे नृप ! ‘ अहम् ‘ शब्दका उच्चारण जिहा , दन्त , ओष्ठ और तालुसे ही होता है , किन्तु ये सब उस शब्दके उच्चारणके कारण हैं , ‘ अहम् ‘ ( मैं ) नहीं ॥ तो क्या जिह्वादि कारणोंके द्वारा यह वाणी ही स्वयं अपनेको ‘ अहम् ‘ कहती है ? नहीं । अतः ऐसी स्थितिमें ‘ तू मोटा है ‘ ऐसा कहना भी उचित नहीं है ॥ सिर तथा कर चरणादिरूप यह शरीर भी आत्मासे पृथक् ही है । अतः हे राजन् ! इस ‘ अहम् ‘ शब्दका मैं कहाँ प्रयोग करूँ ? तथा हे नृपश्रेष्ठ यदि मुझसे भिन्न कोई और भी सजातीय आत्मा हो तो भी ‘ यह मैं हूँ और यह अन्य है ‘ – ऐसा कहा जा सकता था ॥

किन्तु जब समस्त शरीरोंमें एक ही आत्मा विराजमान है तब ‘ आप कौन हैं ? मैं वह हूँ । ‘ ये सब वाक्य निष्फल ही हैं ॥ ‘ तू राजा है , यह शिबिका है , ये सामने शिबिकावाहक हैं तथा ये सब तेरी प्रजा हैं’– हे नृप ! इनमेंसे कोई भी बात परमार्थतः सत्य नहीं है ॥ हे राजन् ! वृक्षसे लकड़ी हुई और उससे तेरी यह शिबिका बनी ; तो बता इसे लकड़ी कहा जाय या वृक्ष ? किन्तु ‘ महाराज वृक्षपर बैठे हैं ‘ ऐसा कोई नहीं कहता और न कोई तुझे लकड़ीपर बैठा हुआ ही बताता है ! सब लोग शिबिकामें बैठा हुआ ही कहते हैं ॥

हे नृपश्रेष्ठ ! रचनाविशेष में स्थित लकड़ियोंका समूह ही तो शिबिका है । यदि वह उससे कोई भिन्न वस्तु है तो काष्ठको अलग करके उसे ढूँढ़ो ॥ इसी प्रकार छत्रकी शलाकाओंको अलग रखकर छत्रका विचार करो कि वह कहाँ रहता है । यही न्याय तुममें और मुझमें लागू होता है [ अर्थात् मेरे और तुम्हारे शरीर भी पंचभूतसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं हैं ] ॥ पुरुष , स्त्री , गौ , अज ( बकरा ) , अश्व , गज , पक्षी और वृक्ष आदि लौकिक संज्ञाओंका प्रयोग कर्महेतुक शरीरोंमें ही जानना चाहिये ॥ हे राजन् ! पुरुष ( जीव ) तो न देवता है , न मनुष्य है , न पशु है और न वृक्ष है । ये सब तो कर्मजन्य शरीरॉकी आकृतियोंके ही भेद हैं ॥

लोकमें धन , राजा , राजाके सैनिक तथा और भी जो – जो वस्तुएँ हैं , हे राजन् ! वे परमार्थतः सत्य नहीं हैं , केवल कल्पनामय ही हैं ॥ जिस वस्तुकी परिणामादिके कारण होनेवाली कोई संज्ञा कालान्तरमें भी नहीं होती , वही परमार्थ – वस्तु है । हे राजन् ! ऐसी वस्तु कौन – सी है ? [ तू अपनेहीको देख ] समस्त प्रजाके लिये तू राजा है , पिताके लिये पुत्र है , शत्रुके लिये शत्रु है , पत्नीका पति है और पुत्रका पिता है ।

हे राजन् ! बतला , मैं तुझे क्या कहूँ ? हे महीपते ! तू क्या यह सिर है , अथवा ग्रीवा है या पेट अथवा पादादिमेंसे कोई है ? तथा ये सिर आदि भी ‘ तेरे ‘ क्या हैं ? हे पृथिवीश्वर ! तू इन समस्त अवयवोंसे पृथक् है ; अतः सावधान होकर विचार कि ‘ मैं कौन हूँ ‘ हे महाराज ! आत्मतत्त्व इस प्रकार व्यवस्थित है । उसे सबसे पृथक् करके ही बताया जा सकता है। तो फिर , मैं उसे ‘ अहम् ‘ शब्दसे कैसे बतला सकता हूँ ?

Exit mobile version