वेन के जन्म और प्रकृति
परमर्पियोंने वेनके हाथको क्यों मथा जिससे महापराक्रमी पृथुका जन्म हुआ ? मृत्युकी सुनीथा नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अंगको पत्नीरूपसे दी ( व्याही ) गयी थी । उसीसे वेनका जन्म हुआ । वह मृत्युकी कन्याका पुत्र अपने मातामह ( नाना ) के दोषसे स्वभावसे ही दुष्ट प्रकृति हुआ । उस वेनका जिस समय महर्षियोंद्वारा राजपदपर अभिषेक हुआ उसी समय उस पृथिवीपतिने संसारभरमें यह घोषणा कर दी कि ‘ भगवान् , यज्ञपुरुष मैं ही हूँ , मुझसे अतिरिक्त यज्ञका भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है ? इसलिये कभी कोई यज्ञ , दान और हवन आदि न करे ‘ । तब ऋषियोंने उस पृथिवीपतिके पास उपस्थित हो पहले उसकी खूब प्रशंसा कर सान्त्वनायुक्त मधुर वाणीसे कहा ।
ऋषिगण बोले- हे राजन् ! हे पृथिवीपते ! तुम्हारे राज्य और देहके उपकार तथा प्रजाके हितके लिये हम जो बात कहते हैं , सुनो । तुम्हारा कल्याण हो ; देखो , हम बड़े – बड़े यज्ञोंद्वारा जो सर्व – यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान् हरिका पूजन करेंगे उसके फलमेंसे तुमको भी [ छठा ] भाग मिलेगा।हे नृप ! इस प्रकार यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर हमलोगोंके साथ तुम्हारी भी सकल कामनाएँ पूर्ण करेंगे । हे राजन् जिन राजाओंके राज्यमें यज्ञेश्वर भगवान् हरिका यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है , वे उनकी सभी कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं ।
वेन बोला- मुझसे भी बढ़कर ऐसा और कौन है जो मेरा भी पूजनीय है ? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वह ‘ हरि ‘ कहलानेवाला कौन है ? ब्रह्मा , विष्णु , महादेव , इन्द्र , वायु , यम , सूर्य , अग्नि , वरुण , धाता , पूषा , पृथिवी और चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और कृपा करनेमें समर्थ हैं वे सभी राजाके शरीरमें निवास करते हैं , इस प्रकार राजा सर्वदेवमय है । हे ब्राह्मणो ! ऐसा जानकर मैंने जैसी जो कुछ आज्ञा की है वैसा ही करो । देखो , कोई भी दान , यज्ञ और हवन आदि न करे। हे द्विजगण ! स्त्रीका परमधर्म जैसे अपने पतिकी सेवा करना ही माना गया है वैसे ही आपलोगोंका धर्म भी मेरी आज्ञाका पालन करना ही है|
ऋषियोंका समझाना और वेनका वध
ऋषिगण बोले- महाराज ! आप ऐसी आज्ञा दीजिये , जिससे धर्मका क्षय न हो । देखिये , यह सारा जगत् हवि ( यज्ञमें हवन की हुई सामग्री ) का ही परिणाम है । महर्षियोंके इस प्रकार बारम्बार समझाने और कहने – सुननेपर भी जब वेनने ऐसी आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यन्त क्रुद्ध और अमर्षयुक्त होकर आपसमें कहने लगे — ‘ इस पापीको मारो , मारो ! जो अनादि और अनन्त यज्ञपुरुष प्रभु विष्णुकी निन्दा करता है वह अनाचारी किसी प्रकार पृथिवीपति होनेके योग्य नहीं है ‘ ।
ऐसा कह मुनिगणने , भगवान्की निन्दा आदि करनेके कारण पहले ही मरे हुए उस राजाको मन्त्रसे पवित्र किये हुए कुशाओंसे मार डाला । उन मुनीश्वरोंने सब ओर बड़ी धूलि उठती देखी , उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती लोगोंसे पूछा– “ यह क्या है ? ” उन पुरुषोंने कहा ” राष्ट्रके राजाहीन हो जानेसे दीन – दुखिया लोगोंने चोर बनकर दूसरोंका धन लूटना आरम्भ कर दिया है । उन तीव्र वेगवाले परधनहारी चोरोंके उत्पात से ही यह बड़ी भारी धूलि उड़ती दीख रही है ” ।
वेनका पाप नाश और पृथुका जन्म
तब उन सब मुनीश्वरोंने आपसमें सलाह कर उस पुत्रहीन राजाकी जंघाका पुत्रके लिये यत्नपूर्वक मन्थन किया । उसकी जंघाके मथनेपर उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो जले ढूँठके समान काला , अत्यन्त नाटा और छोटे मुखवाला था । उसने अति आतुर होकर उन सब ब्राह्मणोंसे कहा — ‘ मैं क्या करूँ ? ” उन्होंने कहा “ निषीद ( बैठ ) ” अत : वह ‘ निषाद ‘ कहलाया । उससे उत्पन्न हुए लोग विन्ध्याचलनिवासी पाप – परायण निषादगण हुए ।
उस निषादरूप द्वारसे राजा वेनका सम्पूर्ण पाप निकल गया । अतः निषादगण वेनके पापोंका नाश करनेवाले हुए । फिर उन ब्राह्मणोंने उसके दायें हाथका मन्थन किया । उसका मन्थन करनेसे परम प्रतापी वेनसुवन पृथु प्रकट हुए , जो अपने शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्यमान थे ।इसी समय आजगव नामक आद्य ( सर्वप्रथम ) धनुष और दिव्य बाण तथा कवच आकाशसे गिरे ।
पृथुका राज्याभिषेक और शासन
उनके उत्पन्न होनेसे सभी जीवोंको अति आनन्द हुआ और केवल सत्पुत्रके ही जन्म लेनेसे वैन भी स्वर्गलोकको चला गया । इस प्रकार महात्मा पुत्रके कारण ही उसकी पुम् अर्थात् नरकसे रक्षा हुई । महाराज पृथुके अभिषेकके लिये सभी समुद्र और नदियाँ सब प्रकारके रत्न और जल लेकर उपस्थित हुए । उस समय आंगिरस देवगणोंके सहित पितामह ब्रह्माजीने और समस्त स्थावर जंगम प्राणियोंने वहाँ आकर महाराज वैन्य ( वेनपुत्र ) का राज्याभिषेक किया । उनके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न देखकर उन्हें विष्णुका अंश जान पितामह ब्रह्माजीको परम आनन्द हुआ । यह श्रीविष्णुभगवान् के चक्रका चिह्न सभी चक्रवर्ती राजाओंके हाथ में हुआ करता है ।
उनका प्रभाव कभी देवताओंसे भी कुण्ठित नहीं होता । इस प्रकार महातेजस्वी और परम प्रतापी वेनपुत्र धर्मकुशल महानुभावोंद्वारा विधिपूर्वक अति महान् राजराजेश्वरपदपर अभिषिक्त हुए । जिस प्रजाको पिताने अपरक्त ( अप्रसन्न ) किया था उसीको उन्होंने अनुरंजित ( प्रसन्न ) किया , इसलिये अनुरंजन करनेसे उनका नाम ‘ राजा ‘ हुआ । जब वे समुद्रमें चलते थे तो जल बहनेसे रुक जाता था , पर्वत उन्हें मार्ग देते थे । और उनकी ध्वजा कभी भंग नहीं हुई । पृथिवी बिना जोते – बोये धान्य पकानेवाली थी , केवल चिन्तनमात्रसे ही अन्न सिद्ध हो जाता था , गौएँ कामधेनुरूपा थीं और पत्ते – पत्तेमें मधु भरा रहता था ।
राजा पृथुने उत्पन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया ; उससे सोमाभिषवके दिन सूति ( सोमाभिषवभूमि ) से महामति सूतकी उत्पत्ति हुई । उसी महायज्ञमें बुद्धिमान् मागधका भी जन्म हुआ । तब मुनिवरोंने उन दोनों सूत और मागधोंसे कहा- ‘ तुम इन प्रतापवान् वेनपुत्र महाराज पृथुकी स्तुति करो । तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्तुतिके ही योग्य हैं ‘ । तब उन्होंने हाथ जोड़कर सब ब्राह्मणोंसे कहा- ” ये महाराज तो आज ही उत्पन्न हुए हैं , हम इनके कोई कर्म तो जानते ही नहीं हैं ।
अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए हैं और न यश ही विख्यात हुआ है ; फिर कहिये , हम किस आधारपर इनकी स्तुति करें ” ।ऋषिगण बोले- ये महाबली चक्रवर्ती महाराज भविष्यमें जो – जो कर्म करेंगे और इनके जो – जो भावी गुण होंगे उन्हींसे तुम इनका स्तवन करो।
प्रजाका अन्न संकट और पृथुका समाधान
यह सुनकर राजाको भी सन्तोष हुआ ; उन्होंने सोचा ‘ मनुष्य सद्गुणोंके कारण ही प्रशंसाका पात्र होता है ; अतः मुझको भी गुण उपार्जन करने चाहिये । इसलिये अब स्तुतिके द्वारा ये जिन गुणोंका वर्णन करेंगे मैं भी सावधानतापूर्वक वैसा ही करूँगा । यदि यहाँपर ये कुछ त्याज्य अवगुणोंको भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागूँगा । ‘ इस प्रकार राजाने अपने चित्तमें निश्चय किया । तदनन्तर उन ( सूत और मागध ) दोनोंने परम बुद्धिमान् वेननन्दन महाराज पृथुका , उनके भावी कर्मोंके आश्रयसे स्वरसहित भली प्रकार स्तवन किया । [ उन्होंने कहा – ] ‘ ये महाराज सत्यवादी , दानशील , सत्य मर्यादावाले , लज्जाशील , सुहृद् , क्षमाशील , पराक्रमी और दुष्टोंका दमन करनेवाले हैं ।
ये धर्मज्ञ , कृतज्ञ , दयावान् , प्रियभाषी , माननीयोंको मान देनेवाले , यज्ञपरायण , ब्रह्मण्य , साधुसमाजमें सम्मानित और शत्रु तथा मित्रके साथ समान व्यवहार करनेवाले हैं ‘ । इस प्रकार सूत और मागधके कहे हुए गुणोंको उन्होंने अपने चित्तमें धारण किया और उसी प्रकारके कार्य किये । तब उन पृथिवीपतिने थिवीका पालन करते हुए बड़ी – बड़ी दक्षिणाओंवाले अनेकों महान् यज्ञ किये ॥ अराजकताके समय ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे भूखसे व्याकुल हुई प्रजा वनाथ पृथुके पास आयी और उनके पूछनेपर प्रणाम करके उनसे अपने आनेका कारण निवेदन किया ।
पृथुका शासन और यज्ञ
प्रजाने कहा- हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकताके समय पृथिवीने समस्त ओषधियाँ अपनेमें लीन कर ली हैं , अतः आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही है । विधाताने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है ; अतः क्षुधारूप महारोगसे पीड़ित हम प्रजाजनोंको आप जीवनरूप ओषधि दीजिये । यह सुनकर महाराज पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्य बाण लेकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक पृथिवीके पीछे दौड़े । तब भयसे अत्यन्त व्याकुल हुई पृथिवी गौका रूप धारणकर भागी और ब्रह्मलोक आदि सभी लोकोंमें गयी। समस्त भूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी जहाँ – जहाँ भी गय वहीं – वहीं उसने वेनपुत्र पृथुको शस्त्र – सन्धान किय अपने पीछे आते देखा ।
पृथु का चरित्र और महिमा
तब उन प्रबल पराक्रमी महाराज पृथुसे , उनके बाणप्रहारसे बचनेकी कामनासे काँपती हुई पृथिवी इस प्रकार बोली । पृथिवीने कहा- हे राजेन्द्र क्या आपको स्त्री वधका महापाप नहीं दीख पड़ता , जो मुझे मारनेपर आप ऐसे उतारू हो रहे हैं ? पृथु बोले- जहाँ एक अनर्थकारीको मार देनेसे बहुतोंको सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पुण्यप्रद है । पृथिवी बोली – हे नृपश्रेष्ठ यदि आप प्रजाके हितके लिये ही मुझे मारना चाहते हैं तो [ मेरे मर जानेपर ] आपकी प्रजाका आधार क्या होगा ? पृथुने कहा – अरी वसुधे अपनी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली तुझे मारकर मैं अपने योगबलसे ही इस प्रजाको धारण करूँगा ।
तब अत्यन्त भयभीत एवं काँपती हुई पृथिवीने उन पृथिवीपतिको पुनः प्रणाम करके कहा। पृथिवी बोली- हे राजन् ! यत्नपूर्वक आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः मैं भी आपको एक उपाय बताती हूँ ; यदि आपकी इच्छा हो तो वैसा ही करें । हे नरनाथ ! मैंने जिन समस्त ओषधियोंको पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूपसे मैं दे सकती हूँ ।अतः हे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज ! आप प्रजाके हितके लिये कोई ऐसा वत्स ( बछड़ा ) बनाइये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूपसे निकाल सकूँ और मुझको आप सर्वत्र समतल कर दीजिये जिससे मैं उत्तमोत्तम ओषधियोंके बीजरूप दुग्धको सर्वत्र उत्पन्न कर सकूँ ।
तब महाराज पृथुने अपने धनुषकी कोटिसे सैकड़ों – हजारों पर्वतोंको उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर इकट्ठा कर दिया । इससे पूर्व पृथिवीके समतल न होनेसे पुर और ग्राम आदिका कोई नियमित विभाग नहीं था । गोरक्षा , कृषि उस समय अन्न , और व्यापारका भी कोई क्रम न था । यह सब तो वेनपुत्र पृथुके समयसे ही आरम्भ हुआ है ।
जहाँ जहाँ भूमि समतल थी वहीं वहींपर प्रजाने निवास करना पसन्द किया । उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल मूलादि ही | वह भी ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे बड़ा दुर्लभ हो गया था । तब पृथिवीपति पृथुने स्वायम्भुवमनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें ही पृथिवीसे प्रजाके हितके लिये समस्त धान्योंको दुहा । हे तात ! उसी अन्नके आधारसे अब भी सदा प्रजा जीवित रहती है । महाराज पृथु प्राणदान करनेके कारण भूमिके पिता हुए , इसलिये उस सर्वभूतधारिणीको ‘ पृथिवी ‘ नाम मिला ।
फिर देवता , मुनि , दैत्य , राक्षस , पर्वत , गन्धर्व , सर्प , यक्ष और पितृगण आदिने अपने – अपने पात्रोंमें अपना अभिमत दूध दुहा तथा दुहनेवालोंक अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए । इसीलिये विष्णुभगवान्के चरणोंसे प्रकट हुई यह पृथिवी ही सबको जन्म देनेवाली , बनानेवाली तथा धारण और पोषण करनेवाली है । इस प्रकार पूर्वकालमें वेनके पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाला और वीर्यवान् हुए । प्रजाका रंजन करनेके कारण ‘ राजा ‘ कहलाये ।
जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता है उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नही होता । पृथुका यह अत्युत्तम जन्म – वृत्तान्त और उनका प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषोंके दुःस्वप्नोंको सर्वदा शान्त कर देता है जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता है उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नही होता । पृथुका यह अत्युत्तम जन्म – वृत्तान्त और उनका प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषोंके दुःस्वप्नोंको सर्वदा शान्त कर देता है ।