राजा शतधनु और रानी शैय्या
पूर्वकालमें पृथिवीतलपर शतधनु नामसे विख्यात एक राजा था । उसकी पत्नी शैय्या अत्यन्त धर्मपरायणा थी । वह महाभागा पतिव्रता सत्य , शौच और दयासे युक्त तथा विनय और नीति आदि सम्पूर्ण सुलक्षणोंसे सम्पन्ना थी । उस महारानी के साथ राजा शतधनुने परम समाधिद्वारा सर्वव्यापक , देवदेव श्रीजनार्दनकी आराधना की । वे प्रतिदिन तन्मय होकर अनन्यभावसे होम , जप , दान उपवास और पूजन आदिद्वारा भगवान की भक्तिपूर्वक आराधना करने लगे ।
कार्तिकी पूर्णिमा की घटना
एक दिन कार्तिकी पूर्णिमाको उपवास कर उन दोनों पति – पत्नियोंने श्रीगंगाजीमें एक साथ ही स्नान करनेके अनन्तर बाहर आनेपर एक पाखण्डीको सामने आता देखा | यह ब्राह्मण उस महात्मा राजाके धनुर्वेदाचार्यका मित्र था अतः आचार्यके गौरववश राजाने भी उससे मित्रवत् व्यवहार किया | किन्तु उसकी पतिव्रता पत्नीने उसका कुछ भी आदर नहीं किया ; वह मौन रही और यह सोचकर कि मैं उपोषिता ( उपवासयुक्त ) हूँ उसे देखकर सूर्यका दर्शन किया । फिर उन स्त्री – पुरुषोंने यथारीति आकर भगवान् विष्णु के पूजा आदिक सम्पूर्ण कर्म विधिपूर्वक किये ।
काशीनरेश की कन्या और शतधनु का पुनर्जन्म
कालान्तरमें वह शत्रुजित् राजा मर गया । तब देवी शैव्याने भी चितारूढ़ महाराजका अनुगमन किया | राजा शतधनुने उपवास – अवस्थामें पाखण्डीसे वार्तालाप किया था । अतः उस पापके कारण उसने कुत्तेका जन्म लिया | तथा वह शुभलक्षणा काशीनरेशकी कन्या हुई , जो सब प्रकारके विज्ञानसे युक्त , सर्वलक्षणसम्पन्ना और जातिस्मरा ( पूर्वजन्मका वृत्तान्त जाननेवाली ) थी | राजाने उसे किसी वरको देनेकी इच्छा की , किन्तु उस सुन्दरीके ही रोक देनेपर वह उसके विवाहादिसे उपरत हो गये ।
शतधनु का पुनर्जन्म और प्राण त्याग
तब उसने दिव्य दृष्टिसे अपने पतिको श्वान हुआ जान विदिशा नामक नगरमें जाकर उसे वहाँ कुत्तेकी अवस्थामें देखा । अपने महाभाग पतिको श्वानरूपमें देखकर उस सुन्दरीने उसे सत्कारपूर्वक अति उत्तम भोजन कराया । उसके दिये हुए उस अति मधुर और इच्छित अन्नको खाकर वह अपनी जातिके अनुकूल नाना प्रकारकी चाटुता प्रदर्शित करने लगा । उसके चाटुता करनेसे अत्यन्त संकुचित हो उस बालिकाने कुत्सित योनिमें उत्पन्न हुए उस अपने प्रियतमको प्रणाम कर उससे इस प्रकार कहा- ” महाराज ! आप अपनी उस उदारताका स्मरण कीजिये जिसके कारण आज आप श्वान – योनिको प्राप्त होकर मेरे चाटुकार हुए हैं । हे प्रभो ! क्या आपको यह स्मरण नहीं है कि तीर्थस्नानके अनन्तर पाखण्डीसे वार्तालाप करनेके कारण ही आपको यह कुत्सित योनि मिली है ? ” ।
काशीराज कन्या का प्रत्येक जन्म में स्मरण कराना
श्रीपराशरजी बोले- काशिराजसुताद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर उसने बहुत देरतक अपने पूर्वजन्मका चिन्तन किया । तब उसे अति दुर्लभ निर्वेद प्राप्त हुआ । उसने अति उदास चित्तसे नगरके बाहर आ प्राण त्याग दिये और फिर शृगाल – योनिमें जन्म लिया । तब काशिराजकन्या दिव्य दृष्टिसे उसे दूसरे जन्ममें शृगाल हुआ जान उसे देखनेके लिये कोलाहल पर्वतपर गयी वहाँ भी अपने पतिको शृगाल – योनिमें उत्पन्न हुआ देख वह सुन्दरी राजकन्या उससे बोली -। “ हे राजेन्द्र ! श्वान – योनिमें जन्म लेनेपर मैंने आपसे जो पाखण्डीसे वार्तालापविषयक पूर्वजन्मका वृत्तान्त कहा था क्या वह आपको स्मरण है ? ” । तब सत्यनिष्ठोंमें श्रेष्ठ राजा शतधनुने उसके इस प्रकार कहनेपर सारा सत्य वृत्तान्त जानकर निराहार रह वनमें अपना शरीर छोड़ दिया ।
फिर वह एक भेड़िया हुआ ; उस समय भी अनिन्दिता राजकन्याने उस निर्जन वनमें जाकर अपने पतिको उसके पूर्वजन्मका वृत्तान्त स्मरण कराया । [ उसने कहा- ] ” हे महाभाग । तुम भेड़िया नहीं हो , तुम राजा शतधनु हो । तुम [ अपने पूर्वजन्मोंमें ] क्रमशः कुक्कुर और शृगाल होकर अब भेड़िया हुए हो ” । इस प्रकार उसके स्मरण करानेपर राजाने जब भेड़ियेके शरीरको छोड़ा तो गृध्र – योनिमें जन्म लिया । उस समय भी उसकी निष्पाप भार्याने उसे फिर बोध कराया । ‘ हे नरेन्द्र ! तुम अपने स्वरूपका स्मरण करो ; इन गृध्र – चेष्टाओंको छोड़ो । पाखण्डीके साथ वार्तालाप करनेके दोषसे ही तुम गृध्र हुए हो ‘ ।
फिर दूसरे जन्ममें काक – योनिको प्राप्त होनेपर भी अपने पतिको योगबलसे पाकर उस सुन्दरीने कहा- । ” हे प्रभो ! जिनके वशीभूत होकर सम्पूर्ण सामन्तगण नाना प्रकारकी वस्तुएँ भेंट करते थे वही आप आज काक – योनिको प्राप्त होकर बलिभोजी हुए हैं ” । इसी प्रकार काक योनिमें भी पूर्वजन्मका स्मरण कराये जानेपर राजाने अपने प्राण छोड़ दिये और फिर मयूर – योनिमें जन्म लिया ।
मयूर से मानव के रूप में पुनर्जन्म
मयूरावस्थामें भी काशिराजकी कन्या उसे क्षण – क्षणमें अति सुन्दर मयूरोचित आहार देती हुई उसकी टहल करने लगी । उस समय राजा जनकने अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान किया ; उस यज्ञमें अवभृथ – स्नानके समय उस मयूरको स्नान कराया । तब उस सुन्दरीने स्वयं भी स्नान कर राजाको यह स्मरण कराया कि किस प्रकार उसने श्वान और शृगाल आदि योनियाँ ग्रहण की थीं । अपनी जन्म – परम्पराका स्मरण होनेपर उसने अपना शरीर त्याग दिया और फिर महात्मा जनकजीके यहाँ ही पुत्ररूपसे जन्म लिया ।
राजकन्या का पुनः विवाह
तब उस सुन्दरीने अपने पिताको विवाहके लिये प्रेरित किया । उसकी प्रेरणासे राजाने उसके स्वयंवरका आयोजन किया । स्वयंवर होनेपर उस राजकन्याने स्वयंवर में आये हुए अपने उस पतिको फिर पतिभावसे वरण कर लिया । उस राजकुमारने काशिराजसुताके साथ नाना प्रकारके भोग भोगे और फिर पिताके परलोकवासी होनेपर विदेहनगरका राज्य किया । उसने बहुत – से यज्ञ किये , याचकोंको नाना प्रकारसे दान दिये , बहुत – से पुत्र उत्पन्न किये और शत्रुओंके साथ अनेकों युद्ध किये । इस प्रकार उस राजाने पृथिवीका न्यायानुकूल पालन करते हुए राज्य – भोग किया और अन्तमें अपने प्रिय प्राणोंको धर्मयुद्धमें छोड़ा ।
तब उस सुलोचनाने पहलेके समान फिर अपने चितारूढ पतिका विधिपूर्वक प्रसन्न – मनसे अनुगमन किया । इससे वह राजा उस राजकन्याके सहित इन्द्रलोकसे भी उत्कृष्ट अक्षय लोकोंको प्राप्त हुआ । हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर उसने अतुलनीय अक्षय स्वर्ग , अति दुर्लभ दाम्पत्य और अपने पूर्वार्जित पुण्यका फल प्राप्त कर लिया ।
पाखण्डी से वार्तालाप का दोष
इस प्रकार मैंने तुमसे पाखण्डीसे सम्भाषण करनेका दोष और अश्वमेध यज्ञमें स्नान करनेका माहात्म्य वर्णन कर दिया । इसलिये पाखण्डी और पापाचारियोंसे कभी वार्तालाप और स्पर्श न करे , विशेषतः नित्य – नैमित्तिक कर्मोंके समय और जो यज्ञादि क्रियाओंके लिये दीक्षित हो उसे तो उनका संसर्ग त्यागना अत्यन्त आवश्यक है । जिसके घरमें एक मासतक नित्यकर्मोका अनुष्ठान न हुआ हो उसको देख लेनेपर बुद्धिमान् मनुष्य सूर्यका दर्शन करे ।
फिर जिन्होंने वेदत्रयीका सर्वथा त्याग कर दिया है तथा जो पाखण्डियोंका अन्न खाते और वैदिक मतका विरोध करते हैं उन पापात्माओंके दर्शनादि करनेपर तो कहना ही क्या है ? इन दुराचारी पाखण्डियोंके साथ वार्तालाप करने , सम्पर्क रखने और उठने – बैठनेमें महान् पाप होता है ; इसलिये इन सब बातोंका त्याग करे । पाखण्डी विकर्मी , विडाल – व्रतवाले * दुष्ट , स्वार्थी और बगुला भक्त लोगोंका वाणीसे भी आदर न करे । इन पाखण्डी , दुराचारी और अति पापियोंका संसर्ग दूरहीसे त्यागने योग्य है । इसलिये इनका सर्वदा त्याग करे ।
पाखण्डियों से दूर रहने की चेतावनी
इस प्रकार मैंने तुमसे नग्नोंकी व्याख्या की जिनके दर्शनमात्रसे श्राद्ध नष्ट हो जाता है और जिनके साथ सम्भाषण करनेसे मनुष्यका एक दिनका पुण्य क्षीण हो जाता है । ये पाखण्डी बड़े पापी होते हैं , बुद्धिमान् पुरुष इनसे कभी सम्भाषण न करे । इनके साथ सम्भाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता है । जो बिना कारण ही जटा धारण करते अथवा मूँड़ मुड़ाते हैं , देवता , अतिथि आदिको भोजन कराये बिना स्वयं ही भोजन कर लेते हैं , सब प्रकारसे शौचहीन हैं तथा जल दान और पितृ – पिण्ड आदिसे भी बहिष्कृत हैं , उन लोगों से वार्तालाप करनेसे भी लोग नरकमें जाते हैं ।