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राज-धर्म परिचय
मनु जी ने कहा है कि चार युगों का प्रवर्तक राजा ही है। जब राजा शास्त्र विहित कर्मों से सोते हुये के समान धर्महीन हो जाता है। तब कलियुग होता है जब धर्महीनता रूपी निद्रा से जागकर धर्म, कर्म को देखता है तब द्वापर युग होता है और जब राजा स्वयं चले धर्म कर्मों में कटिबद्ध होकर करने को तैयार होता है तब त्रेतायुग होता है। और जब राजा विचार कर सर्व प्रजा में धर्म का यथायोग्य प्रचार करता है तब सतयुग होता है।
राजा के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ
मार्कण्डेय पुराण में मरुत राजा ने अपने पिता से कहा कि हे पिता ! जो पुरुष प्रजा पालन करने में राजा को विघ्नकारी हो, वह चाहे मित्र हो या बान्धव वा पिता हो अथवा गुरु हो सो अवश्य ही राजा करके बाध्य करने योग्य है। धार्मिक शिक्षा से प्रजा पालन करना ही राजा का मुख्य धर्म है।
मनुजी ने कहा है कि जो राज मोह, अज्ञान से अपने सुख के लिये प्रजा के कष्ट को देखकर, प्रजा को कष्ट देता है अथवा कर्मचारियों से कष्ट दिलवाता है, सो राजा बान्धवों के सहित शीघ्र ही राज्य से पतित हो जाता है और जीवन से भी शीघ्र ही यमलोक का पथिक बन जाता है।
और राजा येन-केन प्रकार से सत्य झूठ की परीक्षा न कर दण्ड न देने योग्य को दण्ड देता है और दण्ड देने योग्य को दण्ड नहीं देता है, सो राजा इस लोक में महान अपकीर्ति को प्राप्त होता है और मरकर निश्चित ही नरक को प्राप्त होता है। अहो अभाग्यता की कैसी कष्टप्रद नीच गति है ।
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि प्रजा को पीड़ा देना रूप संताप से उत्पन्न हुए जो अग्नि है सो अग्नि राजा के कुल को राज लक्ष्मी को और राजा के प्राणों को दग्ध करे बिना निवृत नहीं होता है।
नैतिकता और शासन
महाभारत में कहा है कि गंगा आदि नदियों से, अपनी पत्नियों से समुद्र ने कहा, हे गंगे ! तुम बहुत से वृक्षों की मेरे लिये नित्य भेंट लाती हो कभी बेंत का वृक्ष नहीं लाती हो। तब गंगा ने कहा हे स्वामिन् । बेंत का जो वृक्ष है सो हमारे नदियों के वेग को आते हुए को देखकर नम जाती हैं और दूसरे नमते नहीं हैं अस्तु बेंत का वृक्ष नम जाने के कारण हमारे से उखाड़ा नहीं जाता है इस कारण से ला नहीं सकती हैं और जो नमते नहीं उनको ला देती हैं।
बेंत नदियों का वेग आने पर नम जाते हैं और नदियों का वेग निकल जाने पर बेंत फिर अपने स्थान पर स्थिर होकर सीधा हो जाता है। इसी प्रकार से बेंत वृत्ति वालों राजाओं का कोई शत्रु जड़ नहीं उखाड़ सकता है। ऐसा धार्मिक राजनीति का उपदेश धर्म पुत्र युधिष्ठर से भीष्म पितामह ने कहा है।
इतिहास से शिक्षाएँ
भागवत में धृतराष्ट्र को वैराग्य कराने के लिये विदुरजी ने कहा अहो कष्ट है ! धृतराष्ट्र संसार में अति कष्ट पाते हुये प्राणियों को भी जीने की आशा लगी रहती है जिस जीवन की आशा से आप अपने सौ पुत्र मारने वाले भीम द्वारा तिरस्कार से फेंके हुये अन्न को श्वान जैसे खाते हो ऐसा जीना मृत्यु से भी नीच हैं।
महाभारत में कहा है कि हे राजन ! मेरे कहने को बुरा न मानना क्योंकि संसार में प्रिय कथा करने वाले पुरुष बहुत सुलभ हैं। जैसे खाने में कुट और पथ्य युक्त औषधि व्याधि नाशक होती हैं, वैसे ही कल्याणकारी पथ्य रूपी अप्रिय कर्ता का वक्ता, श्रोता संसार में बहुत दुर्लभ है।
हे भ्रात ! कुल की रक्षा के निमित्त एक पुरुष को भी त्याग देना उचित है और ग्राम की रक्षा के निमित्त कुल को भी त्याग देना उचित है और देश की रक्षा के निमित्त ग्राम त्याग देना उचित है, परन्तु अपने आत्म कल्याण के लिये सर्व पृथ्वी को त्याग देना उचित है। ऐसे विदुर के हितकारी उपदेश को सुनकर धतृराष्ट्र ने कहा है, हे विदुर ! अब मैं सर्व का त्याग करना चाहता हूँ परन्तु सौ पुत्रों के और सम्बन्धियों के लिये कुछ श्राद्ध कर्म करने के लिये आप युधिष्ठिर से द्रव्य लावें ।
विदुर ने युधिष्ठिर से जाकर कहा तो युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि विदुर और धृतराष्ट्र जितना धन मांगे उतना दे देना सर्वधन इनका ही जानना। धृतराष्ट्र सम्बंधियों का श्राद्ध कर्म कराकर अर्ध रात्रि में हस्थिनापुर से निकल कर वन को चले गये।
धार्मिक और नैतिक आचरण
मार्कण्डेय पुराण में एक राजा ने अपनी प्रजा से कहा हे नगरवासियों! जो यह सिर में कान के पास सफेद बाल देखने में आता है। यह बाल उग्रशासनकारी दयाहीन यमराज का दूत रूप ही जानना इस यमदूत रूपी सफेद बाल के आने पर जो पुरुष गृह का मोह छोड़कर ईश्वर परायण नहीं होता है वो पुरुष संसार चक्र से नहीं छूट सकता है। जैसे आवे का गधा ! दिन चढ़ने से पहले लदा ! आवा नहीं खुटता ! गधा नहीं छूटता ! ऐसे संसार रूपी आवे का गधा ही बनकर नहीं रहना चाहिये।
भागवत में कहा है कि जो पुरुष आयु के तीसरे चरण के प्राप्त होने पर सर्व संसार की आशाएँ छोड़कर शान्त होकर अपने कल्याण के लिये आत्म-चिन्तन करता हुआ वन में ही वास करें।
ऐसे वन में वास करने की इच्छा वाला पुरुष अपनी भार्या को जैसे कष्ट न हो, वैसे पुत्रों को समर्पण कर दे अथवा अपना साथ ही ले जाये यह वानप्रस्थ का संक्षेप में कर्तव्य कहा है और जिन पुरुषों के न तो स्त्री ही हैं और न पुत्र हैं और न धन ही हैं न घर-बार ही हैं न कोई सम्बन्धी या सत्कार करने वाला है अर्थात् किसी भी प्रकार से भी संसार सम्बन्धी सुख नहीं हैं तो भी संसार कष्ट से छुटने के लिए ईश्वर परायण नहीं होते हैं ऐसे बुद्धि के बैरियों ने न जाने क्या विचार कर रखा है।