रुक्मिणी के पुत्र और श्रीकृष्ण की अन्य पत्नियाँ
रुक्मिणीके [ प्रद्युम्नके अतिरिक्त ] चारुदेष्ण, सुदेष्ण, वीर्यवान्, चारुदेह, सुषेण, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुविन्द, सुचारु और बलवानोंमें श्रेष्ठ चारु नामक पुत्र तथा चारुमती नामकी एक कन्या हुई ॥ रुक्मिणीके अतिरिक्त श्रीकृष्णचन्द्रके कालिन्दी, मित्रविन्दा, नग्नजित्की पुत्री सत्या, जाम्बवान्की पुत्री कामरूपिणी रोहिणी, अति- शीलवती मद्रराजसुता सुशीला भद्रा, सत्राजित्की पुत्री सत्यभामा और चारुहासिनी लक्ष्मणा-ये अति सुन्दरी सात स्त्रियाँ और थीं, इनके सिवा उनके सोलह हजार स्त्रियाँ और भी थीं ॥
प्रद्युम्न और अनिरुद्ध का विवाह
महावीर प्रद्युम्नने रुक्मीकी सुन्दरी कन्याको और उस कन्याने भी भगवान्के पुत्र प्रद्युम्नजीको स्वयंवरमें ग्रहण किया ॥ उससे प्रद्युम्नजीके अनिरुद्ध नामक एक महाबलपराक्रमसम्पन्न पुत्र हुआ जो युद्धमें रुद्ध (प्रतिहत) न होनेवाला, बलका समुद्र तथा शत्रुओंका दमन करनेवाला था ॥ कृष्णचन्द्रने उस (अनिरुद्ध) के लिये भी रुक्मीकी पौत्रीका वरण किया और रुक्मीने कृष्णचन्द्रसे ईर्ष्या रखते हुए भी अपने दौहित्रको अपनी पौत्री देना स्वीकार कर लिया ॥
उसके विवाहमें सम्मिलित होनेके लिये कृष्णचन्द्रके साथ बलभद्र आदि अन्य यादवगण भी रुक्मीकी राजधानी भोजकट नामक नगरको गये ॥ जब प्रद्युम्न- पुत्र महात्मा अनिरुद्धका विवाह-संस्कार हो चुका तो कलिंगराज आदि राजाओंने रुक्मीसे कहा- ॥ “ ये बलभद्र द्यूतक्रीडा [ अच्छी तरह ] जानते तो हैं नहीं तथापि इन्हें उसका व्यसन बहुत है; तो फिर हम इन महाबली रामको जुएसे ही क्यों न जीत लें ? ” ॥
बलराम और रुक्मी का विवाद
तब बलके मदसे उन्मत्त रुक्मीने उन राजाओंसे कहा- ‘बहुत अच्छा’ और सभामें बलरामजीके साथ द्यूतक्रीडा आरम्भ कर दी ॥ रुक्मीने पहले ही दाँवमें बलरामजीसे एक सहस्र निष्क जीते तथा दूसरे दाँवमें एक सहस्र निष्क और जीत लिये ॥ तब बलभद्रजीने दस हजार निष्कका एक दाँव और लगाया। उसे भी पक्के जुआरी रुक्मीने ही जीत लिया ॥ इसपर मूढ कलिंगराज दाँत दिखाता हुआ जोरसे हँसने लगा और मदोन्मत्त रुक्मीने कहा— ॥ “द्यूतक्रीडासे अनभिज्ञ इन बलभद्रजीको मैंने हरा दिया है; ये वृथा ही अक्षके घमण्डसे अन्धे होकर अक्षकुशल पुरुषोंका अपमान करते थे ‘ ॥
इस प्रकार कलिंगराजको दाँत दिखाते और रुक्मीको दुर्वाक्य कहते देख हलायुध बलभद्रजी अत्यन्त क्रोधित हुए॥ तब उन्होंने अत्यन्त कुपित होकर करोड़ निष्कका दाँव लगाया और रुक्मीने भी उसे ग्रहणकर उसके निमित्त पाँसे फेंके ॥ उसे बलदेवजीने ही जीता और वे जोरसे बोल उठे, ‘मैंने जीता।’ इसपर रुक्मी भी चिल्लाकर बोला—‘बलराम! असत्य बोलनेसे कुछ लाभ नहीं हो सकता, यह दाँव भी मैंने ही जीता है ॥ आपने इस दाँवके विषयमें जिक्र अवश्य किया था, किंतु मैंने उसका अनुमोदन तो नहीं किया। इस प्रकार यदि आपने इसे जीता है तो मैंने भी क्यों नहीं जीता ? ” ॥
उसी समय महात्मा बलदेवजीके क्रोधको बढ़ाती हुई आकाशवाणीने गम्भीर स्वरमें कहा—॥ “इस दाँवको धर्मानुसार तो बलरामजी ही जीते हैं; रुक्मी झूठ बोलता है क्योंकि [अनुमोदनसूचक] वचन न कहनेपर भी [पाँसे फेंकने आदि] कार्यसे वह अनुमोदित ही माना जायगा ” ॥
तब क्रोधसे अरुणनयन हुए महाबली बलभद्रजीने उठकर रुक्मीको जुआ खेलनेके पाँसोंसे ही मार डाला ॥
फिर फड़कते हुए कलिंगराजको बलपूर्वक पकड़कर बलरामजीने उसके दाँत, जिन्हें दिखलाता हुआ वह हँसा था, तोड़ दिये ॥ इनके सिवा उसके पक्षके और भी जो कोई राजालोग थे, उन्हें बलरामजीने अत्यन्त कुपित होकर एक सुवर्णमय स्तम्भ उखाड़कर उससे मार डाला ॥ उस समय बलरामजीके कुपित होनेसे हाहाकार मच गया और सम्पूर्ण राजालोग भयभीत होकर भागने लगे ॥
परिणाम और द्वारका लौटना
उस समय रुक्मी को मारा गया देख श्रीमधुसूदनने एक ओर रुक्मिणीके और दूसरी ओर बलरामजीके भयसे कुछ भी नहीं कहा ॥ तदनन्तर, यादवोंके सहित श्रीकृष्णचन्द्र सपत्नीक अनिरुद्धको लेकर द्वारकापुरीमें चले आये ॥