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120. वराह अवतार द्वारा पृथ्वी का उद्धार

वराह अवतार द्वारा पृथ्वी का उद्धार

वराह अवतार द्वारा पृथ्वी का उद्धार

ब्रह्माजी का सत्त्वगुण से युक्त हो उठना

 प्रजापतियोंके स्वामी नारायणस्वरूप भगवान् ब्रह्माजीने जिस प्रकार प्रजाकी सृष्टि की थी वह मुझसे सुनो । पिछले कल्पका अन्त होनेपर रात्रिमें सोकर उठनेपर सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त भगवान् ब्रह्माजीने सम्पूर्ण लोकोंको शून्यमय देखा। वे भगवान् नारायण पर हैं , अचिन्त्य हैं , ब्रह्मा , शिव आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं , ब्रह्मस्वरूप हैं , अनादि हैं और सबकी उत्पत्तिके स्थान हैं । [ मनु आदि स्मृतिकार ] उन ब्रह्मस्वरूप श्रीनारायणदेवके विषयमें जो इस जगत्की उत्पत्ति और लयके स्थान हैं , यह श्लोक कहते हैं । नर [ अर्थात् पुरुष- भगवान् पुरुषोत्तम ] -से उत्पन्न होनेके कारण जलको ‘ नार ‘ कहते हैं , वह नार ( जल ) ही उनका प्रथम अयन ( निवास स्थान ) है । इसलिये भगवान्को ‘ नारायण ‘ कहा है ।

सम्पूर्ण जगत् जलमय हो रहा था । इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीने अनुमानसे पृथिवीको जलके भीतर जान उसे बाहर निकालनेकी इच्छासे एक दूसरा शरीर धारण किया । उन्होंने पूर्व – कल्पोंके आदिमें जैसे मत्स्य , कूर्म आदि रूप धारण किये थे वैसे ही इस वाराह कल्पके आरम्भमें वेदयज्ञमय वाराह शरीर ग्रहण किया और सम्पूर्ण जगत्‌की स्थितिमें तत्पर हो सबके अन्तरात्मा और अविचल रूप वे परमात्मा प्रजापति ब्रह्माजी , जो पृथिवीको धारण करनेवाले और अपने ही आश्रयसे स्थित हैं , जन – लोकस्थित सनकादि सिद्धेश्वरोंसे स्तुति किये जाते हुए जलमें प्रविष्ट हुए । तब उन्हें पाताललोकमें आये देख देवी वसुन्धरा अति भक्तिविनम्र हो उनकी स्तुति करने लगी ।

पृथिवी की स्थिति और वाराह अवतार

 पृथिवीद्वारा स्तुति किये जानेपर सामस्वर ही जिनकी ध्वनि है उन भगवान् धरणीधरने घर्घर शब्दसे गर्जना की । फिर विकसित कमलके समान नेत्रोंवाले उन महावराहने अपनी डाढ़ोंसे पृथिवीको उठा लिया और वे कमल दलके समान श्याम तथा नीलाचलके सदृश विशालकाय भगवान् रसातलसे बाहर निकले । निकलते समय उनके मुखके श्वाससे उछलते हुए जलने जनलोकमें रहनेवाले महातेजस्वी और निष्पाप सनन्दनादि मुनीश्वरोंको भिगो दिया । जल बड़ा शब्द करता हुआ उनके खुरोंसे विदीर्ण हुए रसातलमें नीचेकी ओर जाने लगा और जनलोकमें रहनेवाले सिद्धगण उनके श्वास – वायुसे विक्षिप्त होकर इधर – उधर भागने लगे।

जिनकी कुक्षि जलमें भीगी हुई है वे महावराह जिस समय अपने वेदमय शरीरको कँपाते हुए पृथिवीको लेकर बाहर निकले उस समय उनकी रोमावलीमें स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे । उन निशंक और उन्नत दृष्टिवाले धराधर भगवान्की जनलोकमें रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरोंने प्रसन्नचित्तसे अति नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर स्तुति की।

पृथिवी की स्थापना

 स्तुति किये जानेपर पृथिवीको धारण करनेवाले परमात्मा वराहजीने उसे शीघ्र ही उठाकर अपार जलके ऊपर स्थापित कर दिया । उस जलसमूहके ऊपर वह एक बहुत बड़ी नौकाके समान स्थित है और बहुत विस्तृत आकार होनेके कारण उसमें डूबती नहीं है । फिर उन अनादि परमेश्वरने पृथिवीको समतल कर उसपर जहाँ – तहाँ पर्वतोंको विभाग करके स्थापित कर दिया । सत्यसंकल्प भगवान्ने अपने अमोघ प्रभावसे पूर्वकल्पके अन्तमें दग्ध हुए समस्त पर्वतोंको पृथिवी – तलपर यथास्थान रच दिया । तदनन्तर उन्होंने सप्तद्वीपादि क्रमसे पृथिवीका यथायोग्य विभाग कर भूर्लोकादि चारों लोकोंकी पूर्ववत् कल्पना कर दी । फिर उन भगवान् हरिने रजोगुणसे युक्त हो चतुर्मुखधारी ब्रह्मारूप धारण कर सृष्टिकी रचना की ।

ब्रह्मा का सृष्टि में निमित्तमात्र होना

सृष्टिकी रचनामें भगवान् तो केवल निमित्तमात्र ही हैं , क्योंकि उसकी प्रधान कारण तो सृज्य पदार्थोंकी शक्तियाँ ही हैं । वस्तुओंकी रचनामें निमित्तमात्रको छोड़कर और किसी बातकी आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि वस्तु तो अपनी ही [ परिणाम ] शक्तिसे वस्तुता ( स्थूलरूपता ) को प्राप्त हो जाती है ।

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