9. वर्णाश्रम के धर्म

वर्णाश्रम के धर्म

(शिवपु. संहिता 5 अ. 16 – श्लो. 24 )

वर्णाश्रमविरुद्धं च कर्म कुर्वन्ति ये नराः ।

कर्मणा मनसा वाचा निरये तू पतन्ति ते ।।1।।

(पूर्व सप्तम अध्याय में श्रुति स्मृति पुराण इतिहासों के प्रमाणों से धर्म के लक्षण और सर्व वर्णों के साधारण धर्म कहे अब अष्टमें अध्याय में वर्णाश्रमों के असाधारण धर्म कहते हैं ।)

शिव पुराण में कहा है कि जो पुरुष मन, वाणी, शरीर द्वारा वर्णाश्रमों के धर्म से विरुद्ध कर्म करते हैं। वे पुरुष नरक में पड़ते हैं। नरक से बचने के लिए पुरुष को वर्णाश्रम के धर्म अवश्य ही करने चाहिए ||1||

(छान्दो अ. 2 खण्ड 23 मं. 1)

त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमस्तप

एव द्वितीयो ब्रह्मचार्याचार्यकुलवासी

तृतीयोऽत्यन्तमात्मानमाचार्यकुलेऽवसादयन्सर्व

एते पुण्यलोका भवन्ति । ब्रह्मस् स्थोऽमृतत्वमेति ||2||

छान्दोग्योपनिषद् में कहा है कि धर्मरूपी वृक्ष की तीन आश्रमों के कर्मरूपी तीन शाखा हैं । इन शाखाओं से यह संसार हरा भरा देखने में आ रहा है। गृहस्थाश्रम का किसी पर्व में वेदविद् ब्राह्मणों द्वारा वेदी में अग्निहोत्र कराकर दान देने का नाम यज्ञ है। दूसरा रोज अग्निहोत्र करना, नियमपूर्वक वेद अध्ययन करना, प्रति-दिवस यथाशक्ति दान देना यह प्रथम धर्म की शाखा है। वानप्रस्थों का चान्द्रायण आदि व्रत ही तप रूप धर्म की दूसरी शाखा है।

आचार्य-गृह में विधिपूर्वक वेद का अध्ययन कर विवाह की इच्छा वाले का नाम उप कुर्वाणाक ब्रह्मचारी है। दूसरा गुरुगृह में वेद पढ़कर भिक्षा से जीवन करता हुआ विवाह न करा कर मरणपर्यन्त गुरुसेवा में निष्ठावाले का नाम नैष्ठिक ब्रह्मचारी है, यह तीसरी धर्म की शाखा है।

यह तीन आश्रमी विधिपूर्वक अपने धर्म का पालन करने में पुण्य लोक स्वर्गादि को प्राप्त होते हैं। चतुर्थाश्रमी वीतराग, शरीर निर्वाहक भिक्षावस्त्र से अधिक न ग्रहण करता हुआ शुद्ध, बुद्ध, विभु, आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वैत में चित्त की स्थिति वाला जन्म मरण से रहित अनर्थ की निवृत्ति, परमानन्द की प्राप्ति रूप मोक्ष को प्राप्त होता है। यह चार आश्रमों के भिन्न-भिन्न धर्म कहे हैं ||2||

(कालग्नि रुद्रो. भस्मजाबालो- अ. 1 मं.)

त्रिपुण्ड्रविधिं भस्मना करोति यो विद्वान् ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यति वा स महापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति ॥13॥ तर्जनी मध्यमानामिकाभिरग्नि भस्मासीति । त्र्यम्बकमिति ललाटे ||4||

कालाग्निरुद्रोपनिषद् में कहा है कि जो विद्वान पुरुष ब्रह्मचारी वा गृहस्थी बा वानप्रस्थी वा यति विधि पूर्वकत्रिपुण्ड्र धारण शुद्ध भस्मी से करता है वो पुरुष ब्रह्महत्या आदि महापातकों से और पशुपक्षी हत्या आदि अल्पपातकों से रहित होकर पवित्र हो जाता है ।।3।।

भस्मजाबालोपनिषद् में कहा है कि कनिष्ठिका और अंगुष्ठ दोनों को छोड़कर तर्जनी, मध्यमा, अनामिका इन तीन अंगुलियों से (अग्नि भस्मासि) इस मंत्र को पढ़कर भस्मी से और त्र्यम्बकायनमः इस मंत्र को पढ़कर मस्तक में त्रिपुण्ड करें ।।4।।

(देवीभा. स्कंद 9 अ. 27 – श्लो. 20)

कर्मणा च शिवत्वं च गणेशत्वं तथैव च ।

कर्मणा च मुनीन्द्रत्वं तपस्वित्वं स्वकर्मणा ||5||

स्वकर्मणा क्षत्रियत्वं वैश्यत्वं च स्वकर्मणा ।

कर्मणैव च म्लेच्छत्वं लभते नात्र संशयः ||6||

देवी भागवत में कहा है कि कर्म से ही पुरुष शिवपद को पाता है तथा कर्म से ही गणेश पद को पाता है। कर्म से ही मुनीन्द्रपद को और तपस्वीपने को प्राप्त होता है ||5||

कर्म से ही क्षत्रिय जाति को और वैश्य जाति को प्राप्त होता है और अपने कर्म से हीम्लेच्छ आदि जाति को पाता है इसमें कोई सन्देह नहीं है ||6||

(छन्दो. अ. 5 खण्ड 10- मं. 7)

तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूययोनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा ।। 7 ।।

छान्दोग्योपनिषद् में कहा है कि जो पुरुष इस संसार में वेदशास्त्रों के कहे हुए पवित्र आचरणों के अभ्यास करने वाले हैं, वे पुरुष अपने पवित्र पुण्याचरण की अधिकता वा न्यूनता करके पवित्र ब्राह्मण जन्म को वा क्षत्रिय जन्म को वा वैश्य जन्म को प्राप्त होते हैं। और जो पुरुष वेद-शास्त्रों से विरुद्ध निन्दित आचरणों के अभ्यास करने वाले हैं वे पापी पुरुष अपने पाप आचरणों की अधिकता वा न्यूनता करके निन्दित श्वान योनि वा सूकर योनि वा चाण्डाल योनि को प्राप्त होते हैं ।।7।।

(मत्स्यपु. अ. 145 – श्लो. 52-68)

श्रुतिस्मृतिभ्यां विहितो धर्मो वर्णाश्रमात्मकम्।

शिष्टाचारप्रवृद्धश्च धर्मोऽयं साधुसंमतः ||8||

दानं सत्यं तपोऽलोभ विद्येज्या पूजनं दमः ।

अष्टौ तानि चरित्राणि शिष्टाचारस्य लक्षणम् ||9||

मत्स्य पुराण में कहा है कि श्रुति और स्मृतियों से विधान करे हुए वर्णाश्रमों के धर्म जो शिष्टाचारी पुरुषों से वृद्धि को प्राप्त हुए विद्वान् साधु महात्माओं से सम्मत होवे वो ही धर्म कहा जाता है ।।8।।

यथाशक्ति दान करना (1) प्रिय सत्य भाषण करना (2) चित्त की एकाग्रता करना (3) लोभ से रहित होना (4) मोक्षकारी विद्या को प्राप्त करना (5) अग्निहोत्र करना (6) देवताओं का पूजन करना (7) इन्द्रियों का दमन करना यह आठ लक्षण शिष्टाचार के हैं। इन आठ आचरणों के करने वाले पुरुष का नाम शिष्टाचारी है || 9 ||

(भविष्य. पर्व 4 अ. 25 – श्लो. 17 )

आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीताः सह षड्भिरंगे :

छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ।।10।।

भविष्यत् पुराण में श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर से कहा है कि है धर्मपुत्र शिष्टाचार से हीन पुरुष को षट् अंगों के सहित पढ़े हुए वेद भी पवित्र नहीं कर सकते हैं और मृत्युकाल में तो उस पुरुष को वेद ऐसे त्याग देते हैं जैसे पंख उत्पन्न होने पर पक्षी अपने घोंसले को त्याग देते हैं ।।10।।

(भविष्य पर्व 4-अ. 25 – श्लो. 18 )

एवमाचार धर्मस्य मूलं राजन्कुलस्य च ।

आचाराद्धि च्युतो जन्तुर्न कुलीनो न धार्मिक ||11||

हे युधिष्ठर इस प्रकार धर्म का और कुलीनता का एक शिष्टाचार ही मूल है। शिष्टाचार से पतित हुआ पुरुष न कुलीन माना जाता है न धर्मात्मा माना जाता है ।।11।।

(शिवपु संहिता 3-अ. 39 श्लो. 18 )

आचारः कुलमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ।

वचनं श्रुतिमाख्याति स्नेहमाख्याति लोचनम् ||12||

शिवपुराण में कहा है कि शुभ-अशुभ आचरण ही पुरुषों के नीच वा ऊँच कुल को बतला देता है, शरीर की स्थूलता वा कृशता भोजन के आहार वा अनाहार को बतला देती है, शुद्ध-अशुद्ध शब्द पुरुष की विद्वत्ता वा मूर्खता को बतला देता है और पुरुष का किसमें राग है, किसमें द्वेष है ऐसा नेत्र बतलाते हैं ।।12।।

(भविष्य पर्व 1 अ. 42 श्लो. 16 )

संस्कृतोऽपि दुराचारो नरकं याति मानवः ।

निःसंस्कारः सदाचारो भवेद्विप्रोत्तमः सदा ||13||

भविष्यत् पुराण में कहा है कि उपनयन आदि संस्कार होने पर भी दुराचारी पुरुष नरक को ही प्राप्त होता है और उपनयन आदि संस्कार न होने पर भी सदाचारी पुरुष सर्वदा ब्राह्मणों में श्रेष्ठ माना जाता है ।।13।।

(भा. स्कंध 10 अ. 33-श्लो. 29-30-31)

आप्तकामो यदुपतिः कृतवान्वै जुगुप्सितम् ।।

किमभिप्राय एतन्नः संशयं छिंधि सुव्रत ||14||

धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् ।

तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा ||15||

विनश्यत्याचरन्मोढ्याद्यथा रुद्रोऽब्धिजं विषम्

नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि हानीश्वरः ||16||

भागवत में परीक्षित् राजा श्री शुकदेवजी से पूछते हैं। भो भगवन् । आत्म ब्रह्म स्वरूप अद्वैत में निष्ठा कर वीतरागता रूप शुभ व्रतधारी यदि सदाचार से ही पुरुष उत्तम माना जाता है तो पूर्णकाम यदुकुलपति श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द गोपांगनाओं के साथ लीला रूप निंदित कर्म क्यों करते भये ? आप्तकाम वासुदेव के ऐसा आचरण करने का क्या तात्पर्य है ? इस हमारे संशय को आप छेदन करें ।।14।।

श्री शुकदेवजी बोले हे परीक्षित् । प्रथम तो उपनयन संस्कार होने से पहिले बालक पर पुण्य-पाप की शास्त्र ने विधि नहीं कही यदि दुष्ट नास्तिक पुरुष कृष्णचन्द्र ईश्वर की निन्दा करके नरक का वास करना ही अच्छा मानते हैं तो इसमें श्रीकृष्णचन्द्र ईश्वर की क्या हानि है। धर्म का उल्टा-सुलटा करना, शीघ्रकारी होना यह तेजशील सर्वशक्तिमान् ईश्वर को दोष के लिए नहीं, जैसे अग्नि सर्व को दाह करने से दूषित नहीं होता है ।।15।।

ऐसे ईश्वर के आचरण को शक्तिहीन जीव मन से भी आचरण न करे, यदि मूर्खता से करेगा तो नाश हो जावेगा। जैसे महादेवजी सागर से उत्पन्न हुए विष को खाकर शोभा युक्त नीलकण्ठ हो गये, ऐसे ही यदि कोई शक्तिहीन पुरुष विष खाकर शिवजी के समान शोभा चाहे तो शीघ्र ही नाश हो जायेगा ||16||

(ब्रह्माण्ड. भाग. 1- पाद. 2-अ. 25-श्लो. 57)

तं दृष्ट्वा रक्तगौरांगं कृतं कृष्णं जनार्दनम् ।

ततः सर्वे वयं भीतास्त्वामेव शरणं गताः ।।17।।

ब्रह्माण्ड पुराण में कहा है कि देव-असुरों के मिलकर सागर मथने पर उत्पन्न हुए प्राणहारी विष से रक्त गौर वर्ण कोमल कमल के समान शरीर वाले विष्णु जनार्दन को श्याम वर्ण वाला देखकर तिस विष से भयभीत हुए हम देवता लोग विष्णु के साथ मिलकर आप महादेव की शरण को प्राप्त हुए हैं, आप हमारी प्राणहारी विष से रक्षा करें। तब महादेवजी प्राणहारी विष को पान करके सर्व देवताओं की रक्षा करते भये ।।17।।

(शंकरदिग्. सर्ग. 9- श्लो. 90)

असंगिनी न प्रभवन्ति कामा हरेरिवाभीरवधुसखस्य ।

वज्रोलियोगप्रतिभूः स एष वत्सावकीर्णित्वविपर्ययो नः ||18||

को शंकर दिग्जिवजय में भगवान शंकर ने अपने शिष्यों से कहा कि असंग पुरुष विषयों की कामना बाधित नहीं करती है, जैसे अहीरों की अंगना के सखा कृष्णचन्द्र हरि को कामनाओं ने बाधित नहीं किया है। किन्तु बोलि योग के भूमि आदि साधन प्रदर्शन के लिए जैसे कृष्णचन्द्रजी ने श्री भोगने पर भी बीर्यपात न कर ब्रह्मचर्य ही दिखलाया है तैसे ही हे वत्स ! हमारी भी जानना ।।18।।

(शातातपस्मृति अ. 1- श्लो, 3) महापातकजं चिन्हं सप्त जन्मानि जायते । उपपापोद्भवं पंच त्रीणि पापसमुद्भवम् ।।19।।

शातातप स्मृति में कहा है कि महापातक से उत्पन्न हुए कुष्ठ आदियों का चिन्ह सात जन्म तक रहता है, उपपातक से उत्पन्न हुए क्षयी आदिओं का चिन्ह पांच व तीन जन्म तक रहता है ईश्वर, राम, कृष्णादि की निन्दा कर दोष लगाना भी महापातक है ।।19।।

(मनुस्मृति. अ. 5- श्लो. 51-52)

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकाश्चेति घातकाः 1120||

वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।

मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ||21||

मनुजी ने कहा है कि प्राणियों का हन्ता (1) मारे हुए का विभाग कर्ता (2) विभाग किये हुए का शोधन कर्ता (3) मास को उठा कर लाने वाला (4) मोल लेने वाला (5) मोल देने वाला (6) मांस खाने का अनुमोदन कर्ता (7) मास खाने वाला (8) यह आठ समान हिंसक कहे हैं ||20||

एक पुरुष तो वर्ष-वर्ष भर में अश्वमेघ यज्ञ करता हुआ सौ वर्ष तक सौ यज्ञ करता है, और एक पुरुष सौ वर्ष तक मांस नहीं खाता है, तिन दोनों का पुण्य फल समान ही कहा है ||2||

(छान्दो अ. 7 खंड 26 – मं. 2) आहारशुद्धी सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धी ध्रुवा स्मृति ||22||

छान्दोग्योपनिषद् में कहा है कि पुरुष के आहार शुद्ध होने पर अन्तः करण की शुद्धि होती है। अन्तःकरण शुद्ध होने पर आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान की स्थिर स्मृति होती है।

एक बिन्दु रक्त का वस्र में लगने पर वस्त्र अशुद्ध हो जाता है तो जो पुरुष रक्त रूप मांस को पेट भर खाते हैं उनकी शुद्धि तो नरकों में पीड़ा कर रक्त निकालने पर ही होवेगी ||22||

(वराहपु. अ. 131- श्लो. 9)

आपद्रता हि भुज्जन्ति राजान्नं तु वसुन्धरे । दशवर्षसहस्राणि पच्यन्ते नरके नराः ||23||

वराह पुराण में वराह भगवान् ने भूमि से कहा है कि हे वसुन्धरे ! जो पुरुष कष्ट आने पर भी राजा का अन्न खाते हैं वे पुरुष दस हजार वर्षों तक नरकों में पकते हैं। यह प्रजा को पीड़ितकर्त्ता अनीतिवान् राजाओं के अन्न का निषेध है ||23||

(ब्रह्मवै खण्ड 1 अ. 27 – श्लो. 20)

ताम्बूलं विधवास्त्रीणां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् । तपस्विनाञ्च विप्रेन्द्र गोमांससदृशं ध्रुवम् ||24||

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि विधवासियों को, यतियों को, ब्रह्मचारियों को वानप्रस्थों को पान खाना गोमांस के समान है ||24||

(आपस्तम्ब. अ. 2 श्लो. 4)

आत्मशय्या च वस्त्रं च जायापत्यं कमंडलुः । आत्मनः शुचीन्येतानि परेषामशुचीनि तु ||25||

आपस्तम्ब स्मृति में कहा है कि अपनी शय्या, अपनी स्त्री, अपने वस्त्र, अपना पुत्र, अपना कमंडलु यह सब जिसके हैं उसी के लिए ही पवित्र हैं, दूसरे के लिए पवित्र नहीं हैं ||25||

(सूतसं. खंड. 4 – भाग 2- अ. 44- श्लो. 49)

नववस्त्रं च काषायं बहुवस्त्र तथैव च । रक्तवस्त्रं तथा कृष्णं प्रोक्षयेत्कम्बलादिकम् ||26||

सूत संहिता में कहा है कि नवीन वस्त्र, गेरू से रंगे हुए वस्र तथा बहुत से वस्त्र, लाल वस्र, काले वन तथा कम्बलादिक ऊनी वस्र यह सब जल के छींटे रूप प्रोक्षणा मात्र से ही पवित्र हो जाते हैं। इनमें यदि अस्पर्श, स्पर्श की अशुद्धि से भिन्न मल-मूत्र की अशुद्धि न हो ||26||

(वायुपु. भाग 2- अ. 16-श्लो. 62)

दक्षिणेन च हस्तेन गृह्णीयाद्वै कमण्डलुम् ।

शौचं च वामहस्तेन गुदे तिस्त्रस्तु मृत्तिकाः ||27||

वायुपुराण में कहा है कि मल मूत्र त्याग कर दाहिने हाथ से जल पात्र को पकड़ें वाम हाथ से गुदा की शुद्धि करें, गुदा को तीन बार मृतिका लगावें। कम से कम सात बार हाथों को तीन बार पात्र को और एक बार वस्त्रों की शुद्धि जल से करें तो फिर देव सम्बन्धी कर्म करने के योग्य होता है ||27||

( योगद पाद 2 सू. 40)

शौचात्स्वाङ्गेषु जुगुप्सा परैरसंसर्गः ||28||

योग दर्शन में कहा है कि शुद्धाचरण से पुरुष अपने अंगों में भी घृणा करता है और दूसरों के साथ स्पर्श नहीं करता है। ऐसा पवित्र आचरण ही पुरुष को वैराग्य का हेतु है ||28||

( नैष्कर्म्य. अ. 4- श्लो. 62)

बुद्धाद्वैतस्तत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि ।

शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ||29||

नैष्कर्म्य सिद्धि में कहा है कि जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत तत्व के सहित वेद शास्त्रों को जानकर भी यदि शास्त्र विरुद्ध अपनी इच्छा के अनुसार आचरण करता है तो ऐसे ज्ञानियों का स्थानों के साथ मलभक्षण में भी भेद न होगा क्योंकि ऐसा दुराचरण अज्ञान से ही होता है ||29||

(स्वाराज्य सिद्धि. कै. प्र. 3-श्लो. 20)

रागलोभप्रमादादिदोषक्षयान्नायमासज्जते दुश्चरित्रे क्वचित् ।

साधुवत्साधुचारित्र्यरक्षापर: साधुमार्गेण संस्कारतो वर्तते ||30||

स्वाराज्य सिद्धि में कहा है कि राग, लोभ, प्रमाद आदि दोषों के नाश होने से विद्वान् पुरुष दुराचरण में कभी प्रवृत्त नहीं होता है साधु महात्माओं के समान सदाचारा की रक्षा परायण हो रहता है। जैसे कुलाल का चक्र दण्ड से घुमाया हुआ दण्ड के उठाने पर भी उसी तरह से घूमता रहता है जैसे ही साधनकाल के सस्कारों के वेग से ज्ञान हो जाने पर भी विद्वान् सदाचार में ही वर्तता है ||30||

(मनुस्मृति. अ. 12- श्लो. 91 )

चातुर्वर्ण्य त्रयोलोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।

भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिद्धयति ||31||

मनुजी ने कहा है कि चार वर्ण, तीन लोक, चार वर्णाश्रम और भूतकाल, वर्तमान काल, भविष्यत् काल यह सर्व वेदों के प्रमाणों से सिद्ध होते हैं। ऐसे श्रुतिस्मृति पुराणों से सिद्ध वर्णा श्रम आदि को न मानने वाले पशु के समान हैं ||31||

(यजुस. अ. 31 मं. 11 )

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहुराजन्यः कृतः ।

उरु नदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत ||32||

यजुर्वेद में कहा है कि विराट परमात्मा ईश्वर के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए हैं और भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए हैं और (उरु) जंघाओं से वैश्य उत्पन्न हुए हैं और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं||32||

(मनुस्मृति. अ. 11 – श्लो. 235) ब्राह्मणऽस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्य रक्षणम् ।

वैश्यस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम् ||33||

मनुजी ने कहा है कि वेदशास्त्र के ज्ञान को और जीव-ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतज्ञान को प्राप्त करना यह ब्राह्मण का तप है और सर्व प्रजा का अपनी भुजाओं के बल से रक्षण करना यह क्षत्रिय का तप है। कृषि वाणिज्य व्यापार से न्याय पूर्वक धन उपार्जन कर धर्म में लगाना यह वैश्य का तप है। तीन वर्णों की यथायोग्य सेवाकर कल्याण का भागी होना यह शूद्र का तप है ||33||

(गीता अ. 18 – श्लो. 42-43)

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||35||

शौयं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ||36||

एगीता में श्री कृष्णचन्द्रजी ने कहा है कि मन को शमन करना, इन्द्रियों का दमन करना,काग्र चित्त होना, बाह्य अन्तर की शुद्धि करनी, क्षमा, सरल भाव, शास्त्रज्ञान, आत्मज्ञान वेद शास्त्र में श्रद्धा यह सर्व ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्म हैं।1351 शूरता, ा, तेजस्विता, धैर्य, चातुर्यता, युद्ध में न भागना, दान शीलता, सर्व को शासन कर अपने-अपने धर्म में लगाना यह सर्व क्षत्रिय का स्वभाविक कर्म है ||36||

(छान्दो, अ. 5 खण्ड-3-मं. 7)

सह कृच्छी बभूव तूं चिरं वसेत्याज्ञापयांचकार हैं होवाच यथा मां त्वं गौतमवदो यथेयं न प्राक् त्वतः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति तस्माद् सर्वेषु लोकेन्यु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मै होवाच ||37||

छान्दोग्योपनिषद् में कहा है कि गौतम ऋषि जैबलि राजा के पास गये। जैबलि ने सत्कारकर कहा हे गौतमजी ! आप मेरे से संसार लोक सम्बन्धी कुछ वस्तु मांगें, गौतमजी ने कहा हे राजन् लोक सम्बन्धी वस्तु को मैं नहीं मांगता हूँ मैं तो मेरे पुत्र श्वेतकेतु से जो आप ने प्रश्न करे थे उन प्रश्नों की उत्तर रूप कल्याणकारी पारलौकिक विद्या मांगता हूँ। ऐसा सुनकर जैबलि दुःखित हुआ और तिस गौतम का चिरकालवास करने की आज्ञा करते भये।

जैबलि ने कहा हे गौतम! जैसे आपने सर्व विद्या जानकर भी मेरे से कल्याणकारी विद्या को मांगा है ऐसे आप से पूर्व किसी ने मेरे से नहीं मांगी थी। यह विद्या आज से पूर्व ब्राह्मणों को प्राप्त न हुई थी। इस कल्याणकारी विद्या की शासना रूप शिक्षा सर्व कालों में क्षत्रिय ही करते थे। हे गौतम ब्राह्मणों के मांगने पर क्षत्रिय प्राण भी दे देते हैं अस्तु आज कष्ट का हेतु क्षत्रियों की प्राण प्यारी कल्याणकारी विद्या को मैं देता हूँ। ऐसे जैबलि राजा कहते भये ।।37।।

(महो. अ. 2-मं. 30-34)

संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं गुरो ।

कथं प्रशममायाति यथावत्कथयाशु मे ||38||

मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् |

श्रीवतेदग्धः संसारो निःसार इति निश्चितः ||39||

महोपनिषद् में कहा है कि व्यासजी के भेजे हुए शुकदेवजी ने श्रद्धा भक्ति पूर्वक जनक राजा से पूछा भो गुरो ! पुरुषों को कष्टकारी यह संसार आडम्बर कैसे उत्पन्न होता है और कैसे नाश को प्राप्त होता है सो यथावत् आप शीघ्र ही कृपा करके मुझ शिष्य के प्रति कथन करें ||38||

तब जनकजी ने कहा हे व्यास पुत्र मन के संकल्प से यह संसार उत्पन्न होता है और मन के संकल्प नाश होने से नाश हो जाता है। आत्मा के ब्रह्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान के निश्चय से निःसार संसार का मिथ्यात्व निश्चय करना ही संसार का दग्ध करना है ऐसे पूर्वकाल के क्षत्रिय राजा आत्मब्रह्म स्वरूप अद्वैत ज्ञान रूप खङ्ग के प्रभाव से अज्ञान रूप शत्रु के नाश करने के लिए ब्राह्मणों करके गुरु माने जाते थे। परन्तु आज हतभाग्य प्रजा अज्ञान रूप शत्रु से पीड़ित हुई अद्वैत ज्ञान रूप खङ्ग धारी राजा को न देखकर चार दिन सुख देने वाले धन आदि के रक्षक से भी रहित होना चाहती है ||39||

(गीता अ. 4- श्लो. 1-2)

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान्ह 1141 मव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||40||

एवं परंपरा प्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।।

गीता में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वैत खङ्गधारी अर्जुन को अद्वैत खङ्ग धारण कराते हुए कहते हैं कि हे भारत ! चित्तवृत्तियों को रोककर आत्मस्वरूप अद्वैत में स्थिर होना रूप मोक्ष के देने वाले इस नाशरहित योग को मैंने सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने मनु के प्रति कहा था और मनु ने इक्ष्वाकु के प्रति कहा था इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस ज्ञान योग को राजार्षि क्षत्रिय ही जानते थे। यहाँ तक क्षत्रिय वर्ण के धर्म कहे हैं ।।40।।41।।

(महाभा पर्व 12- अ. 262 – श्लो. 8-9 )

रसांश्च तांस्तान्विप्रर्षे मद्यवर्ज्यान्बहूनहम्।

क्रीत्वा वै प्रतिविक्रीणे परहस्तादमायया ||42||

नाहं परेषां कृत्यानि प्रशंसामि न गर्हये।

आकाशस्येव विप्रेन्द्र पश्यन् लोकस्य चित्रताम् ||43||

महाभारत में कहा है कि एक तपस्वी ब्राह्मण के कहने से एक चिड़िया मरने पर उसको सिद्धपने का मद हो गया तो एक दिन एक पतिव्रता के घर में जाकर भिक्षा के लिए ‘नारायण’ कहा पति सेवा में लगी हुई पतिव्रता ने कहा भगवन् कुछ काल ठहरें तपस्वी ने कहा शीघ्र ही भिक्षा लाओ। पतिव्रता ने कहा महाराज सर्व जगह ऐसा न होगा कि ‘मर जाओ चिड़िया ! जी जाओ चिड़िया’। ऐसा सुनकर तपस्वी ने निर्मान होकर पतिव्रता से पूछा कि आपने ऐसा किस शक्ति से जाना है।

पतिव्रता ने कहा भगवन पतिसेवा से जाना है। अधिक पूछना हो तो काशीजी में तुलाधार वैश्य से जाकर पूछो। यह सुनकर तपस्वी ने अपने से अद्भुत शक्तिवान् की परीक्षा करने के लिए काशी में जाकर सर्व प्रकार से निर्णयकर तुलाधार वैश्य से पूछा कि हे तुलाधर वैश्य ! आपने ऐसे विक्षेपकारी व्यापार करते हुए ऐसी अद्भुत ज्ञान शक्ति कैसे प्राप्त करी है।

`तब तुलाधार वैश्य ने कहा। हे तपस्वी ऋषि, मैं जैसे व्यापार करता हुआ अद्भुत ज्ञानशक्ति को प्राप्त हुआ हूँ सो आप सुनो:- ‘बुद्धिनाशक जो नशे वाले रसक पदार्थ हैं तिन शास्त्र से विरुद्ध रसक पदार्थों को छोड़कर धार्मिक बुद्धिवर्धक सात्विक रस पदार्थों को दूसरे के हाथ से लेने में और दूसरों को अपने हाथ से देने में मैं धर्म को जानकर मन, वाणी, शरीर से कपट नहीं करता हूँ ।।42।।

और दूसरों के करे हुए शुभ अशुभ कार्यों की न तो मैं निन्दा करता हूँ और न प्रशंसा करता हूँ। हे तपस्वी! इस संसार की विचित्रता को देखता हुआ मैं जैसे आकाश सर्व जगह में व्याप्त हुआ भी दूसरों के दोषों से निर्लेप रहता है, वैसे ही मैं भी दूसरों के दोषों से निर्लेप रहता हूँ ।।43।।

(गीता अ. 18 श्लो. 44 )

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ||44||

गीता में भगवान् कृष्णचन्द्रजी ने कहा है कि कृषि करनी, गोओं की पालना करनी, न्यायपूर्वक वाणिज्य व्यापार करना यह वैश्य का स्वभावजन्य कर्म है। यह वैश्यवर्ण का धर्म कहा और शूद्र का तीनों वर्णों की निष्कपट होकर सेवा करना ही स्वभाव जन्म कर्म है ||44||

(स्कंद. खण्ड 6-अ. 243 – श्लो. 48 )

असच्छूद्रगतं दास निषेधं विद्धिमानद ।

स्रीणामपि च साध्वीनां नैवाभावः प्रकीर्तितः ||45||

स्कन्द पुराण में श्रेष्ठ शूद्र के देवपूजन करने के लिए पूछने पर गालव ऋषि ने कहा है दास ! देव आदि पूजन करने में नीच प्रकृति वाले शूद्रों को और नीच प्रकृतिवाली स्त्रियों को शास्त्रों से निषेध करा जानना और शान्त प्रकृति वाले शूद्रों को और शान्त प्रकृतिवाली सी को देव पूजन करने में शास्त्रों ने निषेध नहीं कहा है। यह शूद्रवर्ण का धर्म कहा है ||45||

( महाभा पर्व 5-अ. 33 श्लो. 57)

द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा ।

गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ||46||

 

महाभारत में कहा है कि दो पुरुष विपरीत कर्म करते हुए शोभा नहीं पाते। कर्म-धर्म- हीन गृहस्थी शोभा नहीं पाता। और अद्वैतबोधक वेदान्तविचार को छोड़कर क्रिया-कर्म करता हुआ भिक्षुक यति शोभा नहीं पाता है ||46||

(कात्यायन स्मृति अ. 1 – श्लो. 4)

सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च ।

विशिखो व्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम् ||47||

(दोहा)

सदा सूत्रशिखाबद्ध से, किया कर्म शुभ जान ।

शिखा बिना उपवीत के, निष्फल क्रिया मान ।

कात्यायन स्मृति में कहा है कि सदा यज्ञोपवीत वाले से और सदा बद्धशिखाबाले से कर्म करा हुआ सफल होता है। बद्धशिखा से हीन और यज्ञापवीत से हीन जो कर्म करा जाता है सो कर्म सफल नहीं होता है ||47||

(गीतमृस्म. 1-मनुस्मृ.अ. 3 श्लो. 2-36)

उपनयनं ब्राह्मणस्याष्टमे नवमे पंचमे वा ।

एकादशद्वादशयोः क्षत्रियवैश्ययोः ||48||

गौतम स्मृति और मनुस्मृति में कहा है कि ब्राह्मण का उपनयन कर्म पंचमें वा आठवें वा नवमें वर्ष में होता है। क्षत्रिय का एकादश वर्ष में और वैश्य का द्वादश वर्ष में यज्ञोपवीत कर्म होता है ||48||

( महाभा पर्व 13-अ. 49- श्लो. 23)

आत्मवत्तस्य कुर्वीत संस्कारं स्वामिवत्तथा ।

त्यक्तो मातापितृभ्यां यः सवर्णं प्रतिपद्यते ||49||

महाभारत में कहा है कि माता-पिताओं से त्यागे हुए अज्ञात वर्ण वाले लड़के काजो पुरुष अपने वर्ण के अनुसार संस्कार करवाता है सो लड़का तिसके वर्ण को ही प्राप्त होता है ||49||

(छन्दो अ. 1-खण्ड 1-मं. 10 ) यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषद तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति ||50||

छादोग्योपनिषद् में कहा है कि जो पुरुष जीव ब्रह्मकी एकता रूप अद्वैतबोधक उपनिषद्गत वैदान्त विद्या (वेदान्त भाष्य में विद्या का अर्थ उपासना किया है) को जानकर जो भी कर्म श्रद्धा से करता है सो कर्म महान् वीर्यवान् फल को देने वाला होता है ऐसी विद्या को ब्रह्मचर्यपूर्वक अवश्य ही गुरु से पढ़ना चाहिए ||50||

(गोपथ ब्राह्मण पूर्व भा. 1- प्र. 2-मं. 5) हंसरूपदक्षिणाग्रिरुवाच जनमेजयं तस्मा एतत् ।

प्रोवाचाष्टाचत्वारिंशद्वर्ष सर्ववेदब्रह्मचर्यं तच्चतुर्था वेदेषु व्यूह्य द्वादशवर्षं ब्रह्मचर्यं द्वादशवर्षाण्यवराद्धर्मपि चरेद्यथा शक्त्यापरम् ||51||

गोपथ ब्राह्मण में कहा है कि हंसरूप दक्षिणाग्नि जनमेजय राजा को कहता है कि चार वेदों के अध्ययन करने में अड़तालीस (48) वर्ष का ब्रह्मचर्य कहा है। चार भाग से वेदों में विभाग करने पर बारह वर्ष का ब्रह्मचर्य एक वेद के पढ़ने में होता है बारह वर्ष का न होने पर षट्वर्ष का मध्यम ब्रह्मचर्य करे अथवा देश काल आयुशक्ति के अनुसार जितने भी वर्षों का ब्रह्मचर्य हो सके सो अवश्य ही करे ||51||

(विष्णुस्मृ. अ. 1-श्लो. 24)

वेदस्वीकरणे दृष्टो गुर्वधीनो गुरोर्हितम् ।

निष्ठां तत्रैव यो गच्छेन्नैष्ठकस्स उदाहृतः ||52||

विष्णुस्मृति में कहा है कि वेद अध्ययन में हर्षित हुआ गुरु की आज्ञा में रहकर गुरु के हित में वर्तता हुआ मरण पर्यंत गुरुसेवा ही में श्रद्धा निष्ठा को प्राप्त हुआ जो जन्म व्यतीत करता है सो नैष्ठक ब्रह्मचारी कहा जाता है ||52||

(शंख स्मृ. अ. 12 – श्लो. 1)

सव्याहृतिकां सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह ।

ये जपन्ति सदतेषां न भयं विद्यते क्वचित् ||53||

शंख स्मृति में कहा है कि सात व्याहृतियों के सहित प्रणव सहित, शिर के सहित जो पुरुष गायत्री को सदा जयते है तिन पुरुषों को कभी भी भय की प्राप्ति नहीं होती है ||53||

अ. 3-35. मण्डल 3 सू. 62- मं. 10 नारायणो मं. 35

ओम भूः ओम् भुवः ओम् स्वः । ओम् महः ओम् जनः । ओम् तपः । ओम् सत्यं । ओम् तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ||54||

ओमापो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ||55||

यजुर्वेद में ऋग्वेद में वृहद नारायणोपनिषद् में सात व्याहृतियों का अनुक्रम से यह अर्थ है – 1 सत् 2 चित् 3 आनन्द 4 पूज्यतम 5 कारण 6 प्रकाशस्वरूप । तीनकाल में बाघ से रहित 7 ।

ऋग्वेद में गायत्री मंत्र का शंकर भाष्य यह है- गायत्री का प्रणवादि सात व्याहृतियों के सहित शिर के सहित पाठ करना सर्व वेदों में सार कहा है इस प्रकार गायत्री का अभ्यास प्राणायाम के साथ करा जाता है और ओम् भूर्भुवः स्वः इनको आदि में पढ़कर ओम् ऐसा अन्त में पढ़कर ऐसा अभ्यास गायत्री का जप में करा जाता है। तिस सर्व के प्रेरक सविता का प्रकाशमान देव का जो सर्व प्राणियों से प्रार्थनीय अज्ञान को दग्ध करने वाला सत्यज्ञान आनन्द स्वरूप तेज है।

उस तेज स्वरूप को जैसे हम जिज्ञासु अपना आत्म स्वरूप जानकर ध्यान घरें तैसे ही यो प्रकाशमान् देव हमारी बुद्धियों को सच्चिदानन्द के साथ अभेद करने के लिए प्रेरणा करे ||54||

ॐ नाम सर्व का रक्षक । गायत्री के शिरका अर्थ यह है व्यापक प्रकाशमान्। सारभूत। नाशरहित । विभु । सत् । चित् । आनन्द ||55||

(साविअ.) (सूर्यो. मं.)

आदित्यो वै भर्गश्चन्द्रमा वै भर्गः ||56||

ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । आदित्यो देवता ।

चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ||57||

सावित्री उपनिषद् में प्रकाशमान आदित्य को धर्मः स्वरूप कहा है और प्रकाशमान् चन्द्रमा को भी भर्गः स्वरूप कहा है एकरस प्रकाश स्वरूप का नाम भर्ग है ||56||

सूर्योपनिषद् में गायत्री मंत्र का ब्रह्माऋषि कहा है। गायत्री छन्द है। सूर्य देवता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए गायत्री मंत्र का जप में विनियोग करा जाता है ||57||

(मनुस्मृ. अ. 2- श्लो. 103)

न तिष्ठति तु यः पूर्वा नोपास्ते यश्च पश्चिमाम् ।

स शूद्रवद्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ||58||

मनुस्मृति में कहा है कि जो पुरुष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य त्रैवर्णिक द्विजपने को प्राप्त होकर प्रातः काल की वा सायंकाल की सन्ध्या नहीं करता है सो पुरुष नीच प्रकृति वाला होता है और वह शूद्र के समान सर्वद्विज कर्मों से त्याज्यनीय है ||58||

(तै. वल्ली. 1-अनु. 11-श्लो. 1-2-3)

सत्यं वद । धर्म चर । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् ||59||

स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ||60||

देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् ।

मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव ।

चान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवतव्यानि नो इतराणि ||61||

तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि शिष्य को गुरु से विद्या पढ़कर घर जाते हुए को गुरु रूप श्रुति जो अवश्य ही कर्तव्य है सो कहती है। हे शिष्य सदा ही सत्य भाषण करना । शास्त्रविहित धर्म का आचरण करना। प्रिय सत्य भाषण करने में कभी भी प्रमाद नहीं करना ||59||

वेद या गीता, विष्णु सहस्रनाम आदि का नियम से रोज पाठ रूप स्वाध्याय से प्रमाद न करना । शिष्यों को धार्मिक कल्याणकारी विद्या पढ़ाने में प्रमाद न करना ||60||

माता में परमात्मा देव बुद्धि करनी। पिता में परमात्मा देव बुद्धि करनी जैसे परशुराम, रामचन्द्रजीने करी है। कल्याणकारी आचरण की शिक्षा देनेवाले आचार्य में परमात्मा देव बुद्धि करनी। अतिथि में परमात्मा देव बुद्धि करनी । इन चारों की देवता रूप से पूजा करनी। जिन कर्मों के करने से लोक में निन्दा न हो ऐसे सदाचारियों से सेवित शुभ कर्म करने। इस लोक में निन्दाजनक परलोक में दुर्गतिकारक हिंसा, मिथ्याभाषण आदि कभी नहीं करने। मूर्ख पुरुष चार दिन के तुच्छ संसारी सुख के लिए नीच कर्मों से लक्ष चौरासी योनि रूप नरक प्राप्त कर लेता है। और विवेकी पुरुष चार दिन के जीवन में अनर्थ की निवृत्ति परमानन्द की प्राप्ति रूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ||61||

(शतपथ ब्राह्मण कां. 2-प्र. 1-ब्रा. 1-मं. 6-7-8)

वसन्ते स आदधीत ब्रह्म । ग्रीष्मे स आदधीत क्षत्रम् ।

वर्षासु स आदधीत विट् ||62||

शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि ब्राह्मण ब्रह्मतेज के लिए वसन्त ऋतु में अग्निहोत्र करने की अग्नि ग्रहण करे और जय की कामनावाला क्षत्रिय ग्रीष्म ऋतु में अग्नि ग्रहण करे धनकामी वैश्य वर्षा ऋतु में अग्नि ग्रहण करे क्योंकि वसंत ऋतु की ब्राह्मण जाति है ग्रीष्म वर्षा ऋतु की क्षत्रिय-वैश्य जाति है ||62||

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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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