47. वसुदेव-देवकी का विवाह, भारपीडिता पृथिवी का देवताओंके सहित क्षीर समुद्र पर जाना और भगवान्का प्रकट होकर उसे धैर्य बँधाना, कृष्णावतारका उपक्रम

भगवान् विष्णु का अंशावतार

भगवान् आपने राजाओंके सम्पूर्ण वंशोंका विस्तार तथा उनके चरित्रोंका क्रमश: यथावत् वर्णन किया ॥ अब, हे ब्रह्मर्षे यदुकुल में जो भगवान् विष्णु का अंशावतार हुआ था, उसे मैं तत्त्वतः और विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ भगवान् पुरुषोत्तम ने अपने अंशांश से पृथिवी पर अवतीर्ण होकर जो-जो कर्म किये थे, उन सबका आप मुझसे वर्णन कीजिये ॥ 

 तुमने मुझसे जो पूछा है वह संसार में परम मंगलकारी भगवान् विष्णुके अंशावतारका चरित्र सुनो ॥ 

वसुदेव-देवकी का विवाह

पूर्वकालमें देवक की महाभाग्यशालिनी पुत्री देवीस्वरूपा देवकी के साथ वसुदेवजी ने विवाह किया ॥ वसुदेव और देवकीके वैवाहिक सम्बन्ध होनेके अनन्तर [विदा होते समय ] भोजनन्दन कंस सारथि बनकर उन दोनोंका माङ्गलिक रथ हाँकने लगा ॥ उसी समय मेघके समान गम्भीर घोष करती हुई आकाशवाणी कंस को ऊँचे स्वर से सम्बोधन करके यों बोली- ॥ ” अरे मूढ़ ! पति के साथ रथपर बैठी हुई जिस देवकी को तू लिये जा रहा है इसका आठवाँ गर्भ तेरे प्राण हर लेगा ” ॥

 यह सुनते ही महाबली कंस [म्यानसे] खड्ग निकालकर देवकी को मारने के लिये उद्यत हुआ। तब वसुदेवजी यों कहने लगे॥

भगवान् आपने राजाओंके सम्पूर्ण वंशोंका विस्तार तथा उनके चरित्रोंका क्रमश: यथावत् वर्णन किया ॥ यदुकुल में जो भगवान् विष्णुका अंशावतार हुआ था, उसे मैं तत्त्वतः और विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ भगवान् पुरुषोत्तमने अपने अंशांशसे पृथिवीपर अवतीर्ण होकर जो-जो कर्म किये थे, उन सबका आप मुझसे वर्णन कीजिये ॥

 तुमने मुझसे जो पूछा है वह संसार में परम मंगलकारी भगवान् विष्णु के अंशावतार का चरित्र सुनो ॥ पूर्वकालमें देवककी महाभाग्यशालिनी पुत्री देवीस्वरूपा देवकी के साथ वसुदेवजी ने विवाह किया ॥  वसुदेव और देवकीके वैवाहिक सम्बन्ध होनेके अनन्तर [विदा होते समय ] भोजनन्दन कंस सारथि बनकर उन दोनोंका माङ्गलिक रथ हाँकने लगा ॥ उसी समय मेघके समान गम्भीर घोष करती हुई आकाशवाणी कंसको ऊँचे स्वर से सम्बोधन करके यों बोली- ॥  ” अरे मूढ़ ! पतिके साथ रथपर बैठी हुई जिस देवकीको तू लिये जा रहा है इसका आठवाँ गर्भ तेरे प्राण हर लेगा ” ॥

कंस का देवकी को मारने का प्रयास

यह सुनते ही महाबली कंस [म्यानसे] खड्ग निकालकर देवकी को मारनेके लिये उद्यत हुआ। तब वसुदेवजी यों कहने लगे-॥

“हे महाभाग ! हे अनघ! आप देवकीका वध न करें; मैं इसके गर्भसे उत्पन्न हुए सभी बालक आपको सौंप दूँगा ” ॥ 

 तब सत्यके गौरवसे कंसने वसुदेवजीसे ‘बहुत अच्छा’ कह देवकीका वध नहीं किया ॥

पृथिवी का भार और देवताओं की चिंता

इसी समय भारसे पीडित होकर पृथिवी [गौका रूप धारणकर] सुमेरुपर्वतपर देवताओंके वहाँ अत्यन्त दलमें गयी ॥  उसने ब्रह्माजी के सहित समस्त देवताओंको प्रणामकर खेदपूर्वक करुण स्वर से बोलती हुई अपना सारा वृत्तान्त कहा ॥ 

पृथिवी बोली- जिस प्रकार अग्नि सुवर्ण का तथा सूर्य गो (किरण) – समूहका परमगुरु है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकों के गुरु श्रीनारायण मेरे गुरु हैं ॥  वे प्रजापतियोंके पति और पूर्वजोंके पूर्वज ब्रह्माजी हैं तथा वे ही कला-काष्ठा-निमेष-स्वरूप अव्यक्त मूर्तिमान् काल हैं। हे देवश्रेष्ठगण! आप सब लोगोंका समूह भी उन्हींका अंशस्वरूप है ॥ आदित्य, मरुद्गण, साध्यगण, रुद्र, वसु, अग्नि, पितृगण और अत्रि आदि प्रजापतिगण-ये सब अप्रमेय महात्मा विष्णुके ही रूप हैं ॥ 

यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिशाच, सर्प, दानव, गन्धर्व और अप्सरा आदि भी महात्मा विष्णु के ही रूप हैं ॥  ग्रह, नक्षत्र तथा तारागणोंसे चित्रित आकाश, अग्नि, जल, वायु, मैं और इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषय-यह सारा जगत् विष्णुमय ही है ॥  तथापि उन अनेक रूपधारी विष्णुके ये रूप समुद्र की तरंगों समान रात-दिन एक-दूसरे के बाध्य-बाधक होते रहते है॥ 

देवताओं की श्रीहरि से प्रार्थना

इस समय कालनेमि आदि दैत्यगण मर्त्यलोक पर अधिकार जमाकर अहर्निश जनता को क्लेशित कर रहे हैं॥  जिस कालनेमिको सामर्थ्यवान् भगवान् विष्णुने मारा था, इस समय वही उग्रसेनके पुत्र महान् असुर कंस के रूप में उत्पन्न हुआ है ॥  अरिष्ट, धेनुक, केशी, प्रलम्ब, नरक, सुन्द, बलिका पुत्र अति भयंकर बाणासुर तथा और भी जो महाबलवान् दुरात्मा राक्षस राजाओंके घरमें उत्पन्न हो गये हैं उनकी मैं गणना नहीं कर सकती ।

हे दिव्यमूर्तिधारी देवगण इस समय मेरे ऊपर महाबलवान् और गर्वीले दैत्यराजोंकी अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ हैं ॥  हे अमरेश्वरी। मैं आपलोगोंको यह बतलाये देती हूँ कि अब मैं उनके अत्यन्त भारसे पीडित होकर अपनेको धारण करनेमें सर्वथा असमर्थ हूँ ॥  अतः हे महाभागगण आपलोग मेरे भार उतारनेका अब कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे मैं अत्यन्त व्याकुल होकर रसातलको न चली जाऊँ ॥  पृथिवीके इन वाक्योंको सुनकर उसके भार उतारनेके विषयमें समस्त देवताओंकी प्रेरणासे भगवान् ब्रह्माजीने कहना आरम्भ किया ॥ 

ब्रह्माजी बोले- हे देवगण पृथिवीने जो कुछ कहा है वह सर्वथा सत्य ही है, वास्तवमें मैं, शंकर और आप सब लोग नारायणस्वरूप ही हैं ॥  उनकी जो-जो विभूतियाँ हैं, उनकी परस्पर न्यूनता और अधिकता ही बाध्य तथा बाधकरूपसे रहा करती है ॥  इसलिये आओ, अब हमलोग क्षीरसागरके पवित्र तटपर चलें, वहाँ श्रीहरिकी आराधना कर यह सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे निवेदन कर दें ॥  वे विश्वरूप सर्वात्मा सर्वथा संसारके हितके लिये ही अपने शुद्ध सत्त्वांशसे अवतीर्ण होकर पृथिवीमें धर्मकी स्थापना करते हैं ॥ 

 ऐसा कहकर देवताओंके सहित पितामह ब्रह्माजी वहाँ गये और एकाग्रचित्तसे श्रीगरुडध्वज भगवान्की इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥  ब्रह्माजी बोले- हे वेदवाणीके अगोचर प्रभो !

परा और अपरा- ये दोनों विद्याएँ आप ही हैं।

हे नाथ! वे दोनों आपहीके मूर्त और अमूर्त रूप हैं ॥ हे अत्यन्त सूक्ष्म! हे विराट्स्वरूप! हे सर्व ! हे सर्वज्ञ! शब्दब्रह्म और परब्रह्म- ये दोनों आप ब्रह्ममयके ही रूप हैं ॥  आप ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं तथा आप ही शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष-शास्त्र हैं ॥  हे प्रभो! हे अधोक्षज ! इतिहास, पुराण, व्याकरण, मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्र- ये सब भी आप ही हैं ॥ 

हे आद्यपते। जीवात्मा, परमात्मा, स्थूल सूक्ष्म देह तथा उनका कारण अव्यक्त- इन सबके विचारसे युक्त जो अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका बोधक [तत्त्वमसि ] वाक्य है, वह भी आपसे भिन्न नहीं है ।। 

आप अव्यक्त, अनिर्वाच्य, अचिन्त्य, नाम-वर्णसे रहित, हाथ-पाँव तथा रूपसे हीन, शुद्ध, सनातन और परसे भी पर हैं ॥  आप कर्णहीन होकर भी सुनते हैं, नेत्रहीन होकर भी देखते हैं, एक होकर भी अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं, हस्त- पादादिसे रहित होकर भी बड़े वेगशाली और ग्रहण करनेवाले हैं तथा सबके अवेद्य होकर भी सबको जाननेवाले हैं॥ हे परात्मन्! जिस धीर पुरुषकी बुद्धि आपके श्रेष्ठतम रूपसे पृथक् और कुछ भी नहीं देखती, आपके अणुसे भी अणु और दृश्य-स्वरूपको देखनेवाले उस पुरुषकी आत्यन्तिक अज्ञाननिवृत्ति हो जाती है ॥ 

आप विश्वके केन्द्र और त्रिभुवनके रक्षक हैं; सम्पूर्ण भूत आपहीमें स्थित हैं तथा जो कुछ भूत, भविष्यत् और अणुसे भी अणु है वह सब आप प्रकृतिसे परे एकमात्र परमपुरुष ही हैं ॥ आप ही चार प्रकारका अग्नि होकर संसारको तेज और विभूति दान करते हैं। हे अनन्तमूर्ते! आपके नेत्र सब ओर हैं। हे धातः! आप ही [त्रिविक्रमावतारमें ] तीनों लोकमें अपने तीन पग रखते हैं ॥  हे ईश ! जिस प्रकार एक ही अविकारी अग्नि विकृत होकर नाना प्रकारसे प्रज्वलित होता है, उसी प्रकार सर्वगतरूप एक आप ही अनन्त रूप धारण कर लेते हैं ॥ 

एकमात्र जो श्रेष्ठ परमपद है; वह आप ही हैं, ज्ञानी पुरुष ज्ञानदृष्टिसे देखे जाने- योग्य आपको ही देखा करते हैं। हे परात्मन्! भूत और भविष्यत् जो कुछ स्वरूप है वह आपसे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ॥  आप व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, समष्टि और व्यष्टिरूप हैं तथा आप ही सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, सर्वशक्तिमान् एवं सम्पूर्ण ज्ञान, बल और ऐश्वर्यसे युक्त हैं ॥ आप ह्रास और वृद्धिसे रहित, स्वाधीन, अनादि और जितेन्द्रिय हैं तथा आपके अन्दर श्रम, तन्द्रा, भय, क्रोध और काम आदि नहीं हैं ॥आप अनिन्द्य, अप्राप्य, निराधार और अव्याहत गति हैं, आप सबके स्वामी, अन्य ब्रह्मादिके आश्रय तथा सूर्यादि तेजके तेज एवं अविनाशी हैं ।। 

आप समस्त आवरणशून्य, असहायोंके पालक और सम्पूर्ण महाविभूतियोंके आधार हैं, हे पुरुषोत्तम  आपको नमस्कार है॥  आप किसी कारण, अकारण अथवा कारणाकारणसे शरीर ग्रहण नहीं करते, बल्कि केवल धर्म रक्षाके लिये ही करते हैं ॥ 

 इस प्रकार स्तुति सुनकर भगवान् अज अपना विश्वरूप प्रकट करते हुए ब्रह्माजी से प्रसन्नचित्तसे कहने लगे ॥ 

श्रीभगवान् बोले- हे ब्रह्मन्! देवताओंके सहित तुमको मुझसे जिस वस्तुकी इच्छा हो वह सब कहो और उसे सिद्ध हुआ ही समझो ॥ 

 तब श्रीहरिके उस दिव्य विश्वरूपको देखकर समस्त देवताओंके भयसे विनीत हो जानेपर ब्रह्माजी पुनः स्तुति करने लगे ॥ 

ब्रह्माजी बोले- हे सहस्रबाहो! हे अनन्तमुख एवं चरणवाले ! आपको हजारों बार नमस्कार हो । हे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करनेवाले ! हे अप्रमेय! आपको बारम्बार नमस्कार हो ॥ हे भगवन्! आप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, गुरुसे भी गुरु और अति बृहत् प्रमाण हैं, तथा प्रधान (प्रकृति) महत्तत्त्व और अहंकारादिमें प्रधानभूत मूल पुरुषसे भी परे हैं; हे भगवन्! आप हमपर प्रसन्न होइये ॥

  हे देव! इस पृथिवीके पर्वतरूपी मूलबन्ध इसपर उत्पन्न हुए महान् असुरोंके उत्पातसे शिथिल हो गये हैं। अतः हे अपरिमितवीर्य ! यह संसारका भार उतारनेके लिये आपकी शरणमें आयी है ॥  हे सुरनाथ! हम और यह इन्द्र, अश्विनीकुमार तथा वरुण, ये रुद्रगण, वसुगण, सूर्य, वायु और अग्नि आदि अन्य समस्त देवगण यहाँ उपस्थित हैं, इन्हें अथवा मुझे जो कुछ करना उचित उन सब बातोंके लिये आज्ञा कीजिये। हे ईश ! आपहीकी आज्ञाका पालन करते हुए हम सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त हो सकेंगे ।। 

भगवान श्रीहरि का समाधान

 इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान् परमेश्वरने अपने श्याम और श्वेत दो केश उखाड़े ॥  और देवताओंसे बोले- ‘मेरे ये दोनों केश पृथिवीपर अवतार लेकर पृथिवीके भाररूप कष्टको दूर करेंगे ॥  सब देवगण अपने-अपने अंशोंसे पृथिवीपर अवतार लेकर अपनेसे पूर्व उत्पन्न हुए उन्मत्त दैत्योंके साथ युद्ध करें ॥  तब निःसन्देह पृथिवीतलपर सम्पूर्ण दैत्यगण मेरे दृष्टिपातसे दलित होकर क्षीण हो जायँगे ॥ वसुदेवजीकी जो देवीके समान देवकी नामकी भार्या है उसके आठवें गर्भसे मेरा यह (श्याम) केश अवतार लेगा ॥  और इस प्रकार यहाँ अवतार लेकर यह कालनेमिके अवतार कंसका वध करेगा।’ ऐसा कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥  भगवान्‌के अदृश्य हो जानेपर उन्हें प्रणाम करके देवगण सुमेरुपर्वतपर चले गये और फिर पृथिवीपर अवतीर्ण हुए ॥

कंस की प्रतिक्रिया

इसी समय भगवान् नारदजीने कंससे आकर कहा कि देवकीके आठवें गर्भमें भगवान् धरणीधर जन्म लेंगे ॥ नारदजीसे यह समाचार पाकर कंसने कुपित होकर वसुदेव और देवकीको कारागृहमें बन्द कर दिया ॥  वसुदेवजी भी, जैसा कि उन्होंने पहले कह दिया था, अपने प्रत्येक पुत्रको कंसको सौंपते रहे ॥

देवकी के गर्भों का स्थानांतरण

ऐसा सुना जाता है कि पहले छः गर्भ हिरण्यकशिपुके पुत्र थे। भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे योगनिद्रा उन्हें क्रमशः गर्भमें स्थित करती रही * ॥  जिस अविद्या- रूपिणीसे सम्पूर्ण जगत् मोहित हो रहा है, वह योगनिद्रा भगवान् विष्णुकी महामाया है उससे भगवान् श्रीहरिने कहा- ॥ 

श्रीभगवान् बोले- हे निद्रे ! जा, मेरी आज्ञासे तू पातालमें स्थित छः गर्भोको एक-एक करके देवकीकी कुक्षिमें स्थापित कर दे ॥  कंसद्वारा उन सबके मारे जानेपर शेष नामक मेरा अंश अपने अंशांशसे देवकीके सातवें गर्भमें स्थित होगा ॥ 

हे देवि ! गोकुलमें वसुदेवजीकी जो रोहिणी नामकी दूसरी भार्या रहती है उसके उदरमें उस सातवें गर्भको ले जाकर तू इस प्रकार स्थापित कर देना जिससे वह उसीके जठरसे उत्पन्न हुएके समान जान पड़े ॥  उसके विषयमें संसार यही कहेगा कि कारागारमें बन्द होनेके कारण भोजराज कंसके भयसे देवकीका सातवाँ गर्भ गिर गया ॥  वह श्वेत शैलशिखरके समान वीर पुरुष गर्भसे आकर्षण किये जानेके कारण संसारमें ‘संकर्षण’ नामसे प्रसिद्ध होगा ।। 

श्रीहरि का देवकी के आठवें गर्भ में जन्म

तदनन्तर हे शुभे। देवकीके आठवें गर्भमें मैं स्थित होऊँगा। उस समय तू भी तुरंत ही यशोदाके गर्भ में चली जाना ॥ वर्षा ऋतु भाद्रपद कृष्ण अष्टमीको रात्रिके समय मैं जन्म लूँगा और तू नवमीको उत्पन्न होगी ॥ हे अनिन्दिते! उस समय मेरी शक्तिसे अपनी मति फिर जानेके कारण वसुदेवजी मुझे तो यशोदाके और तुझे देवकीके शयनगृहमें ले जायेंगे ॥  तब हे देवि ! कंस तुझे पकड़कर पर्वत- शिलापर पटक देगा; उसके पटकते ही तू आकाशमें स्थित हो जायगी ॥ 

योगनिद्रा की स्तुति और आशीर्वाद

उस समय मेरे गौरवसे सहस्रनयन इन्द्र सिर झुकाकर प्रणाम करनेके अनन्तर तुझे भगिनीरूपसे स्वीकार करेगा ॥  तू भी शुम्भ, निशुम्भ आदि सहस्रों दैत्योंको मारकर अपने अनेक स्थानोंसे समस्त पृथिवीको सुशोभित करेगी ॥  तू ही भूति, सन्नति, क्षान्ति और कान्ति है; तू ही आकाश, पृथिवी, धृति, लज्जा, पुष्टि और उषा है, इनके अतिरिक्त संसारमें और भी जो कोई शक्ति है वह सब तू ही है ॥

जो लोग प्रातः काल और सायंकालमें अत्यन्त नम्रतापूर्वक तुझे आर्या, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा और भाग्यदा आदि कहकर तेरी स्तुति करेंगे, उनकी समस्त कामनाएँ मेरी कृपासे पूर्ण हो जायँगी ।। मदिरा और मांसकी भेंट चढ़ानेसे तथा भक्ष्य और भोज्य पदार्थोंद्वारा पूजा करनेसे प्रसन्न होकर तू मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण कर देगी ॥  तेरे द्वारा दी हुई वे समस्त कामनाएँ मेरी कृपासे निस्सन्देह पूर्ण होंगी। हे देवि! अब तू मेरे बतलाये हुए स्थानको जा ॥ 

MEGHA PATIDAR
MEGHA PATIDAR

Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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