विदुर कथाओं का विवरण
(भा. स्कंध 1- अ. 13-श्लो. 22 )
अहो महीयसी जन्तोजीविताशा यया भवान् ।
भीमेनावर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत् ||1||
(महाभा. पर्व. 5-अ. 37-श्लो. 15-17)
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।।2।।
त्यजेत्कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।3।।
पूर्व सतरहवें अध्याय में राजनीति का कथन करा अब अठारवें अध्याय में विदुर का आख्यान कहते हैं।
भागवत में धृतराष्ट्र को वैराग्य उत्पादन कराने के लिये विदुरजी ने कहा अहो कष्ट है धृतराष्ट्र ! संसार में अति कष्ट पाते हुए प्राणियों को भी जीने की आशा लगी रहती है जिस जीवन की आशा से आप अपने सौ पुत्र मारने वाले भीमद्वारा तिरस्कार से फेंके हुए अन्न को श्वान जैसे खाते हों ऐसा जीना मृत्यु से भी नीच है ।।1।।
महाभारत में कहा है कि हे राजन् ! मेरे कहने को बुरा न मानना क्योंकि संसार में प्रिय कथा करने वाले पुरुष बहुत सुलभ हैं जैसे खाने में कटु और पथ्ययुक्त औषधि व्याधि नाशक होती है वैसे ही कल्याणकारी पथ्यरूपी अप्रिय वार्ता का वक्ता श्रोता संसार में बहुत दुर्लभ है।
हे भ्रातः । कुल की रक्षा के निमित्त एक पुरुष को भी त्याग देना उचित है और ग्राम की रक्षा के निमित्त कुल भी त्याग देना उचित है और देश की रक्षा के निमित्त ग्राम त्याग देना उचित है परन्तु अपने आत्म कल्याण के लिये सर्व पृथ्वी त्याग देना उचित है। अस्तु अब आपको अपने कल्याण के लिये सर्व का त्याग करना उचित है।
ऐसे विदुर के हितकारी उपदेश को सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा हे विदुर । अब मैं सर्व का ही त्याग करना चाहता हूँ परन्तु सौ पुत्रों के और सम्बन्धियों के लिये कुछ श्राद्धकर्म करने के लिए आप युधिष्ठिर से द्रव्य लावें । विदुर ने युधिष्ठिर से जाकर कहा तो युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि विदुर और धृतराष्ट्र जितना धन मांगे उतना दे देना सर्वधन इनका ही जानना ।।3।।
(महाभा पर्व 15-अ. 11 – श्लो. 11 )
दिष्टया त्वद्य महाबाहो धृतराष्ट्र प्रयाचते ।
याचितो यः पुराऽस्माभिः पश्य कालस्य पर्ययम् ||4||
(महाभा. पर्व 15 अ. 12 श्लो. 2)
न स्मरन्त्यपराद्धानि स्मरन्ति सुकृतान्यपि ।
असम्भिन्नार्यमर्यादाः साधवः पुरुषोत्तमाः ।।5।।
तब अर्जुन ने विदुरजी को साथ में ले जाकर कोशाधीश भीम से सर्व वार्ता कही तब भीम ने कहा विदुरजी जो कहेंगे सो मानूंगा परन्तु अन्धे धृतराष्ट्र के लिये एक पैसा भी नहीं देऊंगा तब अर्जुन ने कहा हे पूज्यवर महाबाहो भ्रात ! जो धृतराष्ट्र पूर्व काल में हमारे से हाथ जोड़कर याचना करा जाता था आज वो ही धृतराष्ट्र अपने भाग्य के वश से हमारे से दीन होकर याचना कर रहा है देखो काल की विपरीतता कैसी है ।।4।।
श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा को न भेदन करने वाले साधु महात्मा जो पुरुषों में उत्तम कहे जाते हैं वे श्रेष्ठ पुरुष दूसरों के अपराधों को स्मरण नहीं करा करते हैं दूसरों के सुकृतों को ही स्मरण करा करते हैं। इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर भीम ने कहा अच्छा जो मांगते हैं सो दे दो मैं तो अपने हाथ से धृतराष्ट्र के लिये न दूंगा तब धृतराष्ट्र सम्बन्धियों का श्राद्ध कर्म कराकर अर्धरात्रि में हस्तिनापुर से निकलकर वन को चले गये ।।5।।
(मार्कण्डेय, अ. 106-श्लो 36)
यदेतत्पलितं मूर्ध्नि तद्विजानीत नागराः ।
दूतभूतमनार्यस्य मृत्योरत्युग्रकर्मणः ।।6।।
(भा. स्कंथ. 11-अ. 18-श्लो. 1)
वनं विविशुः पुत्रेषु भाव न्यस्य सहैव वा ।
वन एव वसेच्छान्तस्तृतीयं भागमायुषः ।।7।।
मार्कण्डेय पुराण में एक राजा ने अपनी प्रजा से कहा हे नगरवासियों ! जो यह शिर में कान के पास सफेद बाल देखने में आता है यह बाल उग्रशासनकारी दयाहीन यमराज का दूतरूप ही जानना इस यमदूत रूप सफेद बाल के आने पर जो पुरुष गृह का मोह छोड़कर ईश्वरपरायण नहीं होता है वो पुरुष संसार चक्र से नहीं छूट सकता है जैसे आवे का गधा ! दिन चढ़ने से पहिले लदा ! आवा नहीं खुटता ! गधा नहीं छूटता ।। ऐसे संसार रूप आवे का गधा ही बनकर नहीं रहना चाहिये ||6||
भागवत में कहा है कि पुरुष आयु के तीसरे भाग के प्राप्त होने पर सर्व संसार की आशाएं छोड़कर शान्त होकर अपने कल्याण के लिये आत्मचिन्तन करता हुआ वन में ही वास करे। ऐसे वन के वास करने की इच्छा वाला पुरुष अपनी भार्या को जैसे कष्ट न हो तैसे पुत्रों के समर्पण कर दें अथवा अपने साथ ही ले जाय यह वानप्रस्थ का संक्षेप से कर्त्तव्य कहा है।
जिन पुरुषों के न तो स्त्री ही है और न पुत्र है, न धन ही है, न घरबार ही है, न कोई सम्बन्धी ही सत्कार करने वाला है अर्थात् किसी प्रकार से भी संसार सम्बन्धी सुख नहीं है तो भी संसार कष्ट से छूटने के लिये ईश्वरपरायण नहीं होते हैं ऐसे बुद्धि के बैरियों ने न जाने क्या विचार रखा है।।7।।