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विराट्‌ भक्तिहीन पुरुषों की गति

विराट्‌

विराट्‌ पुरुष से उत्पन्न वर्णों की उत्पत्ति

विराट्‌ पुरुष के मुख से सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओं से सत्त्व- रजप्रधान क्षत्रिय, जांघो से रज- तमप्रधान वैश्य और चरणों से तमः प्रधान शूद्र की उत्पत्ति हुई है।

आश्रमों की उत्पत्ति

उन्हीं की जांघों से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्राह्मचर्य, वक्षःस्थल से वानप्रस्थ और मस्तक से सन्यास- ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं।

भगवान के महत्व और उनके भजन का महत्व

इन चारों वर्णों और आश्रमों के जन्मदाता स्वयं भगवान ही है। वही इनके स्वामी नियन्ता और आत्मा भी है। इसलिए इन वर्ण और आश्राम में रहनेवाला जो मनुष्य भगवान का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य-योनि से भी च्युत हो जाता है; उसका अधः पतन हो जाता है ।

मूर्खों का व्यवहार

मूर्ख होने पर भी वे अपने को पण्डित मानते हैं और अभिमान में अकड़े रहते हैं। उनका क्रोध तो ऐसा होता है जैसे साँप का, बनावट और घमंड से उन्हें प्रेम होता है। वे पापीलोग भगवान के प्यारे भक्तों की हँसी उड़ाया करते हैं। वे मूर्ख बड़े-बूढ़ों की नहीं स्त्रियों की उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्‌ठे होकर उस घर-गृहस्थी के सम्बन्ध में ही बड़े-बड़े मनसूने बाँचते हैं, जहाँ का सबसे बड़ा सुख स्त्री-सहवास में ही सीमित है।

यज्ञों का कुप्रबंधन

वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्नदान नहीं करते, विधि का उल्लंघन करते और दक्षिणा तक नहीं देते ।

घमंड और उसका प्रभाव

धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य नल और कर्म आदि के घमंड से अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वर का भी अपमान करते रहते हैं।

भगवान की स्थिति और उनकी महिमा

वेदों ने इस बात को बार-बार दुहराया है कि आकाश के समान भगवान् नित्य – निरन्तर समस्त शरीर धारियों में स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं।

स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ और मर्यादा

संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्य की ओर प्राणी की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। ऐसी स्थिति में विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञ के द्वारा ही जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगों की उच्छृंखल प्रवृत्ति का नियन्त्रण, उनका मर्यादा स्थापन।

शरीर से प्रेम और भगवान से द्वेष

जो लोग इस शरीर से तो प्रेम की गाँठ बाँध लेते हैं। और दूसरे शरीर में रहने वाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान भगवान से द्वेष करते हैं, उन मूर्खों का अधपतन निश्चित है।

भगवान श्रीकृष्ण से विमुखता और परिणाम

जो लोग अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्राम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन सम्पत्ति इकट्ठी करते है।

परन्तु उन्हें अन्त में सबकुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है। (भगवान का भजन न करनेवाले विषयी पुरुषों की यही गति होती है)।

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FAQs

विराट पुरुष से चार वर्णों की उत्पत्ति कैसे हुई?

विराट पुरुष के मुख से सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओं से सत्त्व-रजप्रधान क्षत्रिय, जांघों से रज-तमप्रधान वैश्य, और चरणों से तमप्रधान शूद्र की उत्पत्ति हुई। ये चार वर्ण भगवान के शरीर के विभिन्न अंगों से प्रकट हुए हैं।

चार आश्रमों की उत्पत्ति कैसे हुई?

विराट पुरुष के जांघों से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्य, वक्षःस्थल से वानप्रस्थ, और मस्तक से सन्यास आश्रम की उत्पत्ति हुई है। इन चार आश्रमों का निर्माण भगवान की ही शक्ति से हुआ है।

भगवान का भजन क्यों आवश्यक है?

भगवान का भजन इसलिये आवश्यक है क्योंकि वे वर्ण और आश्रम के स्वामी और नियंता हैं। जो मनुष्य भगवान का भजन नहीं करता, वह अपने स्थान, वर्ण, और आश्रम से च्युत होकर अधःपतन की ओर बढ़ता है।

मूर्ख व्यक्ति कैसा व्यवहार करते हैं?

मूर्ख व्यक्ति स्वयं को पण्डित मानते हैं और घमंड में रहते हैं। उनका व्यवहार स्वार्थी होता है, और वे भगवान के भक्तों का अनादर करते हैं। उनका क्रोध साँप के समान होता है, और वे अपने अहंकार में स्त्रियों या घर-गृहस्थी को ही सबसे बड़ा सुख मानते हैं।

घमंड का मनुष्य पर क्या प्रभाव होता है?

घमंड के कारण मनुष्य धन, कुल, विद्या, सौन्दर्य, और कर्म के अभिमान में अंधा हो जाता है। यह उसे भगवान और उनके भक्तों का अपमान करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे उसका पतन होता है।

भगवान से विमुख होने का परिणाम क्या है?

जो लोग भगवान श्रीकृष्ण से विमुख होते हैं, वे अपने जीवन में अत्यधिक परिश्रम करके धन-संपत्ति, गृह, पुत्र, और मित्र जुटाते हैं, लेकिन अंततः उन्हें सब कुछ छोड़ना पड़ता है और न चाहने पर भी नरक की ओर बढ़ते हैं।

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