विवाहरूप पाणिग्रहण विधि का कथन
अनुकूलामनुवंशां भ्रात्रा दत्तामुपाग्निकाम् ।
परिक्रम्य यथा न्यायं भायां विन्देद्विजोत्तमः ।।1।।
पूर्व अष्ठमें अध्याय के अन्त में जो त्रिवर्णिकों को अग्निहोत्र के लिए अनिआधान कर्म करना कहा है सो विधिपूर्वक विवाहितद्विजों के लिए कहा है। अब नवमें अध्याय में श्रुति स्मृति-पुराणों के अनुसार विवाहरूप पाणिग्रहण विधिका कथन करते हैं।
महाभारत में कहा है कि अपने आचरण वर्ण वंश के अनुकूल माता-पिता भ्राता से अप्रिसाक्षिक विवाहपूर्वक दी गई भार्या को शास्त्रविधि से फेरोंपूर्वक द्विजश्रेष्ठ पाणिग्रहण करें। ऐसी भार्या धर्म करने में सहकारिणी होती है ।। 1 ।।
गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः ।
भगो अर्यमा सविता पुरध्रिमह्यं त्वा दुर्गार्हपत्याय देवाः ||2||
ऋग्वेद में कहा है कि पुरुष भार्याका पाणिग्रहण करता हुआ इस मंत्र को पढ़कर ऐसा कहे कि मैं पति रूप से धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रम के सौभाग्य के लिए हे प्रिये ! तुम्हारा पाणिग्रहण करता हूँ। मुझ पति के साथ वृद्धावस्थापर्यंत धर्म में सहकारिणी रहो। गृहस्थ सम्बन्धी धर्म-कर्म-कारी पुत्र उत्पादन के लिए पत्नी रूप तेरे को भग-अर्यमा सविता पुरघ्नी यह सर्व देवता मेरे लिए समर्पण करते हैं ।।2।।
कन्यां भुङ्क्ते रजःकालेऽग्न् िपूशशी लोमदर्शने ।
स्तनोद्भेदेषु गन्धर्वास्तत्प्रागेव प्रदीयते ||3||
स्कन्द पुराण में कहा है कि कन्या को लोम उत्पत्ति देखने पर प्रथम शशि भोगता है और स्तनों के उत्थान होने पर गन्धर्व भोगते हैं और ऋतुमती होने पर कन्या को अग्नि भोगता है। इस कारण से लोम-स्तन-ऋतु इन तीनों के दर्शन से पहिले ही कन्या का विवाह करा जाता है।।3।
कन्यामभुक्तां सोमाद्यैर्ददद्दानफलं भवेत् ।
देवभुक्तां ददद्दाता न स्वर्गमधिगच्छति ||4||
सोम आदि से न भोगी हुई कन्या का दान करने वाला पुरुष कन्यादान के फल को प्राप्त होता है और सोम आदि देवताओं से भोगी हुई कन्या का दान करने वाला पुरुष स्वर्ग को प्राप्त नहीं होता है ||4||
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ||5||
अथर्ववेद में कहा है कि लड़की कन्या संज्ञा की प्राप्ति पर्यन्त रजस्वला संज्ञा से पहिले ब्रह्मचर्य के नियमों से युवा अवस्था को प्राप्त हुए पति को प्राप्त करे। इसी वेद की वार्तां को स्मृति पुराण भी कहते हैं ||5||
अष्टवर्षा भवेद्गौरी दशवर्षा तु नग्निका।
द्वादशे तु भवेत्कन्या अत उर्ध्वं रजस्वला ||6||
भविष्यत् पुराण में कहा है कि आठ वर्ष की लड़की की संज्ञा गौरी होती है। नवमें दशमें वर्ष में लड़की की संज्ञा नग्निका (रोहिणी) हो जाती है। ग्यारहवें – बारहवें वर्ष में लड़की की संज्ञा कन्या है। इससे अधिक उमर की लड़की की संज्ञा रजस्वला होती है ||6||
माता चैव पिता चैव ज्येष्ठो भ्राता तथैव च ।
त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्ट्वा कन्यां ‘रजस्वलाम् ||7||
संवर्त स्मृति में कहा है कि अविवाहित रजस्वला संज्ञावाली लड़की को देखकर माता- पिता और ज्येष्ठ भ्राता यह तीनों ही नरक को प्राप्त होते हैं ।।7।।
तस्माद्विवाहयेत्कन्यां यावन्नर्तुमती भवेत् ।
विवाहो ह्यष्टवर्षायाः कन्यायास्तु प्रशस्यते ||8||
इस कारण से बुद्धिमान् धर्मात्मा पुरुष कन्या का ऋतुमती होने से पहिले ही विवाह अवश्य ही कर दें। विशेष करके तो आठ वर्ष की गौरी संज्ञावाली लड़की का विवाह करना श्रेष्ठ कहा है ||8||
षोडशनिशाः स्रीणां तस्मिन्युग्मासु संविशेत् ।
ब्रह्मचार्येव पर्वाण्याद्यश्चतस्त्रश्चवर्जयेत् ||9||
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि षोडश, 16 रात्रियाँ स्त्री के ऋतुकाल की हैं। उनमें से तीन दिन 1 ब्रह्महत्यारी 2 चण्डालिनी 3 रजकी इन तीन दिनों में स्री के स्पर्श करने से ब्रह्महत्या का भागी होता है। इस कारण से आदि की चार रात्रियाँ और पर्व की रात्रि को छोड़कर युग्म रात्रियों में शास्त्र की विधि से स्त्री गमन करने वाला पुरुष ब्रह्मचारी ही माना जाता है ॥9॥
गृहिणी न गृहे यस्य सत्पात्रागमनं वृथा ।
तस्य देवा न गृह्यन्ति पितरश्च तथोदकम् ।।10।।
स्कंद पुराण में कृष्णचन्द्र भगवान् ने दुर्वासा ऋषि से कहा है भो भगवान् ! जिस गृहस्थी के घर में आज्ञाकारी भार्या नहीं है जिसके गृह से आपके समान सत्पात्र अतिथि भिक्षा आदि से सत्कार न पाकर निराश होकर चले जाते हैं तिस गृहस्थी के प्रदान करे हुए जल आदि को देवता और पितर ग्रहण नहीं करते हैं ऐसा गृहस्थाश्रम केवल पाप के लिए ही होता है। इस हेतु से शुभ भार्या के सहित ही गृही पुरुष देव- पितर- अतिथि आदि पूजन षट्कर्म करने का अधिकारी होता है ।।10।।