विष्णुपुराण ग्रन्थ की उत्पत्ति
यह जगत् किस प्रकार उत्पन्न हुआ और आगे भी ( दूसरे कल्पके आरम्भमें ) कैसे होगा ? तथा इस संसारका उपादान – कारण क्या है ? यह सम्पूर्ण चराचर किससे उत्पन्न हुआ है ? यह पहले किसमें लीन था और आगे किसमें लीन हो जायगा ? इसके अतिरिक्त [ आकाश आदि ] भूतोंका परिमाण , समुद्र , पर्वत तथा देवता आदिकी उत्पत्ति , पृथिवीका अधिष्ठान और सूर्य आदिका परिमाण तथा उनका आधार , देवता आदिके वंश , मनु , मन्वन्तर [ बार – बार आनेवाले ] चारों युगोंमें विभक्त कल्प और कल्पोंके विभाग , प्रलयका स्वरूप , युगोंके पृथक् – पृथक् सम्पूर्ण धर्म , देवर्षि और राजर्षियोंके चरित्र , श्रीव्यासजीकृत वैदिक शाखाओंकी यथावत् रचना तथा ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्यादि आश्रमोंके धर्म- ये सब , हे महामुनि शक्तिनन्दन ! मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ।
आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसादोन्मुख कीजिये जिससे हे महामुने । मैं आपकी कृपासे यह सब जान सकूँ ” । मेरे पिताजीके पिता श्रीवसिष्ठजीने जिसका वर्णन किया था , उस पूर्व प्रसंगका तुमने मुझे अच्छा स्मरण कराया- [ इसके लिये तुम धन्यवादके पात्र हो ] । जब मैंने सुना कि पिताजीको विश्वामित्रकी प्रेरणासे राक्षसने खा लिया है , तो मुझको बड़ा भारी क्रोध हुआ । तब राक्षसोंका ध्वंस करनेके लिये मैंने यज्ञ करना आरम्भ किया । उस यज्ञमें सैकड़ों राक्षस जलकर भस्म हो गये ।
इस प्रकार उन राक्षसोंको सर्वथा नष्ट होते देख मेरे महाभाग पितामह वसिष्ठजी मुझसे बोले- ।“ हे वत्स ! अत्यन्त क्रोध करना ठीक नहीं , अब इसे शान्त करो । राक्षसोंका कुछ भी अपराध नहीं है , तुम्हारे पिताके लिये तो ऐसा ही होना था । क्रोध तो मूर्खोंको ही हुआ करता है , विचारवानोंको भला कैसे हो सकता है ? भैया ! भला कौन किसीको मारता है ? पुरुष स्वयं ही अपने कियेका फल भोगता है ।
यह क्रोध तो मनुष्यके अत्यन्त कष्टसे संचित यश और तपका भी प्रबल नाशक है । हे तात ! इस लोक और परलोक दोनोंको बिगाड़नेवाले इस क्रोधका महर्षिगण सर् वदा त्याग करते हैं , इसलिये तू इसके वशीभूत मत हो । अब इन बेचारे निरपराध राक्षसोंको दग्ध करनेसे कोई लाभ नहीं ; अपने इस यज्ञको समाप्त करो । साधुओंका धन तो सदा क्षमा ही है ” ।
पुलस्त्यजी का आगमन और वरदान
महात्मा दादाजीके इस प्रकार समझानेपर उनकी बातोंके गौरवका विचार करके मैंने वह यज्ञ समाप्त कर दिया ॥ इससे मुनिश्रेष्ठ भगवान् वसिष्ठजी बहुत प्रसन्न हुए । उसी समय ब्रह्माजीके पुत्र पुलस्त्यजी वहाँ आये ॥ पितामह [ वसिष्ठजी ] -ने उन्हें अर्घ्य दिया , तब वे महर्षि पुलहके ज्येष्ठ भ्राता महाभाग पुलस्त्यजी आसन ग्रहण करके मुझसे बोले ।
पुलस्त्यजी बोले- तुमने , चित्तमें वैरभाव रहनेपर भी अपने बड़े – बूढ़े वसिष्ठजीके कहनेसे क्षमा स्वीकार की है , इसलिये तुम सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता होगे । अत्यन्त क्रोधित होनेपर भी तुमने मेरी सन्तानका सर्वथा मूलोच्छेद नहीं किया ; अतः मैं तुम्हें एक और उत्तम वर देता हूँ । हे वत्स तुम पुराणसंहिताके वक्ता होगे और देवताओंके यथार्थ स्वरूपको जानोगे । तथा मेरे प्रसादसे तुम्हारी निर्मल बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति ( भोग और मोक्ष ) के उत्पन्न करनेवाले कर्मोंमें निःसन्देह हो जायगी ।
[ पुलस्त्यजीके इस तरह कहनेके अनन्तर ] फिर मेरे पितामह भगवान् वसिष्ठजी बोले “ पुलस्त्यजीने जो कुछ कहा है , वह सभी सत्य होगा ” । इस प्रकार पूर्वकालमें बुद्धिमान् वसिष्ठजी और पुलस्त्यजीने जो कुछ कहा था , वह सब तुम्हारे प्रश्नसे मुझे स्मरण हो आया है । अतः तुम्हारे पूछनेसे मैं उस सम्पूर्ण पुराणसंहिताको तुम्हें सुनाता हूँ ; तुम उसे भली प्रकार ध्यान देकर सुनो । यह जगत् विष्णुसे उत्पन्न हुआ है , उन्हींमें स्थित है , वे ही इसकी स्थिति और लयके कर्ता हैं तथा यह जगत् भी वे ही हैं ।